शनिवार, 7 मई 2011

प्रिंटर की धूल, मोटी रोटियाँ और टुकड़ा टुकड़ा दुपहर - एक पुनर्प्रस्तुति

अम्मा बीमार होकर भी स्वस्थ हैं। पिताजी थक कर भी अथक हैं।
जाने क्यों उन लोगों पर अब कुछ लिखा नहीं जाता। उन्हें पत्र भी नहीं लिखा जाता।
 इस बार गाँव गया तो पिताजी के अनेक लम्बे पत्र मिले जो मेरी नवीं और इंजीनियरिंग के दौरान उन्हों ने लिखे थे। उन्हें पढ़ते बचपन/ कैशोर्य में वापस पहुँच गया। जाने इस युग में कोई पिता अब वैसे पत्र लिखता भी है या नहीं? ...
 इन लेखों को दुबारा देने के पीछे मातृ दिवस कारण है भी और नहीं भी। जब आगे बढ़ने की स्थिति न हो तो ऐसे अवसर कुछ कह लेने को कारण देते हैं वरना फोन पर तो अम्मा स्वस्थ और पिताजी भी अथक!
पिताजी कुछ कहना भी चाहते हैं तो पीछे से अम्मा का स्वर सुनाई देता है - कइसन हँई? लामे लइका, फइका, नौकरी। कौन परशानी बा रउरा के? (आप भी कैसे हैं? बच्चे दूर हैं, उनके भी बच्चे हैं, नौकरी है। ऐसी क्या परेशानी है आप को?)। हम दोनों की बात वहीं 'इति' हो जाती है। मन को समझाता हूँ, कुछ इधर उधर करने लगता हूँ लेकिन नेपथ्य का वह अम्मा का स्वर बहुत देर तक रमता रहता है। वह सब कुछ बता देता है जिसे छिपाया जा रहा होता है।   .... श्रीमती जी अम्मा से बात करती हैं तो वह घंटों तक पूरे गाँव के किस्से सुना देती हैं लेकिन स्वयं के लिये बस सब ठीक बा कह कर समाप्त कर देती हैं।...
दोनों अभी भी मेरे पास आने को तैयार नहीं... किसी की बेटी का विवाह है तो किसी ने यह उलाहना दिया कि उसके पोते के मुंडन में वे लोग लखनऊ चले गये तो किसी को विवाह संस्कार के अवसर पर द्वार पर पिताजी की उपस्थिति भर चाहिये। जून में 'फ्री' होकर मेरे पास आयेंगे और एक सप्ताह में ही खेत के मेंड़ और द्वार का शमी वापस बुलाने लगेंगे ...
बेटा! तुम लोगों से मिलना मिलाना हो गया, अब जाने दो।
पिताजी! रिजर्वेशन नहीं मिलेगा।
टैक्सी कर लो। मैं पैसे दे दूँगा।
पैसे वाली बात नहीं है। 
तब क्या, कल ही ...
यही पिता ट्रांसफर में मेरे दूर जाने की सम्भावना से बेचैन हो उठते हैं...बेटे! साँझ है। कई बार सुना है कि बूढ़े को पुत्र का कन्धा भी ...हम दोनों नासमझ हैं। 
कौन समझाये इन्हें कि बात क्या है? कौन समझाये मुझे कि बात क्या है?... 
_______________________________________________________
         
प्रिंटर की धूल और मोटी रोटियाँ

प्रिंट लेने को प्रिंटर ऑन करता हूँ और पाता हूँ कि उस पर धूल नहीं है ....अचानक मन में हथौड़ा बजता है- अम्माँ गाँव वापस चली गईं!
मायके से श्रीमती जी का आना उस धूल को साफ कर गया है जिसे देख मैं उनको याद करता था। अजीब धूल! होना एक याद, न होना दूसरी याद। यादें धूलधुसरित होती हैं, मुई फिर झाड़  पोंछ कर खड़ी हो जाती हैं।
कैसा है यह आलस जो धूल को खुद साफ नहीं करने देता? यादों से प्रेम है इसे ..धूल की एलर्जी जो न गुल खिला दे। रोग भी कमबख्त मुझे कैसा लगा!
मैं शुद्ध हिन्दुस्तानी बेटा - माँ और पत्नी के बीच अपनी चाह को बाँटता! चाह बँट भी सकती है क्या? धुत्त!
लेकिन आज जो प्रिंटर पर धूल नहीं, अम्माँ याद आ रही हैं।
.. पिताजी डाइनिंग टेबल पर बैठे हैं और अम्माँ रसोई से आवाज लगा रही हैं। पिताजी के उपर रची जाती कविता को अधूरा छोड़ टेबल पर आता हूँ तो खाना लगा ही नहीं है!
अम्माँ ई का?
बइठ, रोटिया सेरा जाइ एहिसे पहिलही बोला देहनी हें (बैठो, पहले ही परोस कर रख देने से रोटी ठंडी हो जाती, इसलिए पहले ही बुला लिया IMG0087Aहै)।
बैठता हूँ और फिर याद आती है आवाज, "टेबल पर आ जाइए, खाना लगा दिया है।"
पत्नी को रोटी ठंडी हो जाने की चिंता नहीं, अपना काम खत्म करने की चिन्ता है। ... यह तुलना मैं क्यों करता हूँ?
अम्माँ! तुमने प्रवाह भंग कर दिया। अब पिताजी के उपर रची जाती कविता अधूरी ही रह जाएगी! सम्भवत: मुझे तुम पर पहले लिखना था। सगुन अच्छा रहता।
अम्माँ, रोटिया मोट मोट काहें बनवले हे (अम्माँ, रोटियाँ मोटी क्यों बनाई हैं?)
अरे बाबू बना देहनी हे गोनवरे गोनवरे जल्दी से (बेटा, जल्दी से मोटी मोटी बना दिया है।)
.. यह जल्दी क्यों अम्माँ? गठिया की बिमारी के कारण तुमने गाँव पर रसोई घर खुद 'डिजाइन' कर दुबारा बनवाया और यहाँ गैस चूल्हे को प्लेटफॉर्म से उतारने नहीं देती ! बहू आएगी तो जाने कौन सी गड़बड़ी मिले! कल पुर्जे की चीज!
लेकिन तुम्हारी शरीर के कल पुर्जे तो उम्र की घिसान झेल रहे हैं। रोटी बनाने के लिए कितनी देर खड़ी रह पाओगी? क्यों मैं तुम्हें रोक नहीं पाता? रोटियाँ तो बाहर से भी आ सकती हैं। लेकिन पिताजी तन्दूरी रोटी चबा नहीं पाएँगे और वह लालच तुम्हारे 
हाथ की रोटियाँ खाने का! भावुक स्वार्थी!...
..अम्माँ क्या वाकई यही बात थी रोटी मोटी बनाने के पीछे!
पहले दिन खिलाते हुए तुमने रोटियाँ गिनी थीं। मैंने दो के बाद ना कर दिया था।
अम्माँ, खेत में फावड़ा थोड़े चलाना। ऑफिस में दिन भर बैठना! आजकल हजार बीमारियाँ हो जाती हैं। कम खाना, सुखी रहना।
दूसरे दिन से ही रोटियाँ मोटी होने लगी थीं। मैं समझ गया था लेकिन पूछा नहीं। आज क्यों पूछ बैठा? वह पहले वाली बात मिस कर गया था न!
..कमाल है तुमने कुछ नहीं कहा और मैंने सब सुन लिया!
श्रीमती जी तीसरी तक तो खिला देती हैं लेकिन सब्जी के लालच में चौथी माँग बैठो तो टोकारी! .. आज कल 'भोंय भाँय' बन्द है, फिर से ... हुस्स।
... बाबू! हेत्तत देंहि, एतना बड़हन दिन। कइसे एतना कम खइले से चली? (बेटा! इतनी बड़ी शरीर, इतना बड़ा दिन! इतना कम खाने से कैसे चलेगा?)। अधिक या भारी काम हो तो पौने छ: फुटा बेटा माँ को 'दुब्बर अब्बर' दिखने लगता है। खिलाना हो तो वही 
शरीर ऊँची और पहलवान दिखने लगती है - खुराक अधिक चाहिए ! धन्य अम्माँ, यह कौन सा पैमाना है?
अम्माँ, पेट खराब हो जाला (अम्माँ, पेट खराब हो जाता है।)
चूरन ले आइल बानीं - हर्रे, मंगरइल, अजवाइन, काला नमक..... खुदे बनवले बानी। रोज राति के एक चम्मच फाँकि लेहल कर, सब ठीक हो जाई (चूरन ले आई हूँ। ... खुद बनाया है। रोज रात को सोते समय एक चम्मच फाँक लिया करो। सब ठीक हो 
जाएगा।)
रोटियाँ या तो मोटी खानी पड़ेंगी या अधिक संख्या में - भले चूरन खा कर पचानी पड़ें।
... रात में रोटियाँ कम खाइए। पेट ठीक रहेगा।
दो स्नेह। निठल्ला मैं - कितने टाइप के और कितने सारे स्नेह का बोझ सँभालता हूँ! विपरीत स्नेह!!
.. श्रीमती जी अम्माँ से मोबाइल पर बात कर रही हैं। सास की हिदायतों पर हूँ हाँ कर रही हैं ।
साफ हो चुकी धूल की अंगुलियों के निशान प्रिंटर पर जोहते मैं पतली रोटियों की पुकार की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ..

..अजवाइन, काला नमक, हरड़ और मँगरैल के डिब्बे अम्माँ के साथ ही चले गए हैं। 
.. गाँव, इस समय पिताजी की 'और रोटियों की माँग' को ठुकराया जा रहा होगा ...

_______________________________________________________________________
टुकड़ा टुकड़ा दुपहर

दुपहर फैल गई है - शुभ्र चादर। मौन। दुपहर लोगों और अन्य जीवों, सब की गतिविधियों के होते हुए भी कितनी शांत लगती है! क्रियाकलाप की शांति, एक निश्चित कार्यक्रम में सब डूबते जाते हैं। ध्यान सी अवस्था कि सम्मोहन सी? - बन्दरों की चिक चिक, दूर कहीं से आती गीत की धीमी ध्वनि - लगातार फुसफुसाहट, पीपल की पत्तियों की झिलमिल, खेत में पानी उलीचते पम्पिंग सेट की फट फट, गन्ने के खेत से जानवरों का चारा चुराते हँसियों की खर खर ... सबके होते हुए भी कितनी शांति! जैसे लगता है किसी कड़क अध्यापक की कक्षा लगी है और सब पढ़ाकू चुपचाप अपने काम में लगे हैं...

यह मौन दुपहर टुकड़ा टुकड़ा है अस्तित्त्व की ज्यामिति में भी और कालखण्ड में भी। पीपल के पेंड़ के ऊपर की दुपहर अहाते में सोई चौकी पर छायी दुपहर से अलग है।
घर में एक युवक और एक वृद्ध अकेले हैं । घर की दुपहर अलग सी है। छत की मोटाई को भेदती दुपहर अपनी उमस दोनों को पिला रही है। दोनों बात करना चाहते हैं लेकिन उन्हें पता है कि बातों में कोई नयापन नहीं होगा - घूम फिर कर वही पुरानी बातें - इसलिए मौन है। उमस है, बदली भी है लेकिन संवाद की वर्षा की कोई आशा नहीं है। जैसे जैसे मनुष्य बूढ़ा होता है, मौन के अनुभवी खोल में सिमटता चला जाता है। जवान आधा बूढ़ा हो चला है - कहीं मन में झोंक सा आता है, पिता की आधी उमर हो गई है उसकी और पिता? वे तो बस तीन चार वर्ष और ! चुप्पी कहीं उसके भीतर फाँस की तरह सरकती चली जाती है - चिकनी फाँस भीतर भीतर भीतर... कैसा घाव है यह ! इतनी उमस, इतनी ऊब, इतनी चाह, इतना मोह ! सब एक साथ इतना सारा!
दुपहर!!
ढेर सारी चुप्पी । पिताजी ! आप कुछ कहते क्यों नहीं? बेचैन सा दुपहर की ऊर्जा से चलते सोलर पंखे की हवा की लिपटन को झिटक बाहर आता है - वृद्ध आँगन में लेटे लेटे सो गए हैं। गौर शरीर में झुर्रियाँ कहीं नहीं बस चेहरा सिकुड़ गया है - दाँत जो नहीं रहे! युवक के गले में कुछ फँस जाता है... डबडबी दो आँख भर उमस नहीं निकलती। कमरे में वापस आता है। कमाल है ! दुपहर उमस भी दे रही है और उससे निपटने को हवा भी ! जी चाहता है कि पंखे को इतना तेज़ कर दे कि आँधी सी उठ चले। सम्भवत: वृद्ध जाग जाँय और उसी बहाने कुछ बात हो जाय लेकिन इस पंखे में तो कोई रेगुलेटर नहीं! दुपहर जैसा ही एक गति से सन सन न न न ... एकरस... पंखा बन्द कर देता है। पसीना पसीना। बाहर निकलता है।

chaukiचौकी चुपचाप दुपहर की धूप का नहान कर रही है। रोज करती है। कभी कुछ सुखाया गया था इस पर - दाग पड़ गए हैं। चौकियाँ जाने कितनी करवटों के स्वप्न भरे दाग समेटे रहती हैं - ऐसा क्या नया है इन दागों में ? ... युवक जब नहीं रहता है तो वृद्ध पिता इस पर सोते हैं। उनके सपने अब सिमट चले हैं। गिनता है दाग धब्बों को एक, दो, तीन ... नहीं ! उल्टी गिनती चल रही है - दुपहर शाम की तरफ टिक, टिक, टिक ... शून्य से समाप्ति होगी। यह चौकी भी चुक जाएगी क्या कभी मौन को समेटे? ...एकाएक पसीने का लावा सा फूटता है। युवक टी शर्ट निकाल फेंकता है। उपरी शरीर निर्वस्त्र।
अहाते के गेट से बाहर नीम दिखती है - हरी भरी कोई 45 बसंत पुरानी। पिता ने लगाई थी। कहते हैं 5 कोस दूर से सिर पर रख कर लाए थे। ग्रीष्म ऋतु ही थी। अहाते के भीतर लगा कोई 8 साल पुराना शमी फूलाया हुआ है। तीन दशकों से भी अधिक के कालखण्ड अन्तर से दुपहर कटी हुई है - एक टुकड़ा नीम को घेरे तो दूसरा शमी को । युवक आह भरता है - क्या दिन रहे होंगे ! पिता सम्भवत: उस समय 30 के आसपास के रहे होंगे। कितना अपनापन ! 5 कोस पैदल !! संजीवनी भर दिया था उन्हों ने इस नीम में। कितने अन्धड़ों को झेल चुका आज यह गाँव का अकेला बचा नीम का पेंड़ है। both
शमी ही नहीं, फूले हैं - घेंवड़ा, करैली, बोड़ा, लौकी, अड़्हुल की लताएँ पौधे... सब माँ के रोपे । उसने जीवन को बाँट दिया है टुकड़ा टुकड़ा ठीक दुपहर जैसा। पिता इतना क्यों समेटे हुए हैं ? इतने चुप क्यों हैं ? युवक बावला सा शमी के नीचे आ जाता है। इस काँटेदार पौधे के फूल सुन्दर हैं। तभी तो पूजा जाता है। माँ दिया जलाती है रोज, गाँव से वापसी पर इसके पत्ते तोड़ जेब में रख देती है माँ! भर भर जेब जीवन लिए युवक शहर आता है तो वाशिंग shamiमशीन में धुलने को डालने से पहले पत्नी शमी के पत्ते हाथ में ले कुछ सोचती है, मुस्कुराती है और कहीं धीरे से रख देती है जैसे आशीर्वाद सहेज रही हो। कितना कुछ दोनों बतिया लेती हैं इन चुप सूखे पत्तों की जुबानी... इन पर दुपहर का कोई असर नहीं होता लेकिन पिता ?
.."क्या कर रहे हो धूप में?"
वृद्ध जाग गए हैं। युवक धीमे धीमे चलता उनके पास आता है।
"बेटा, अब नियंत्रण नहीं रहा। सब कुछ छूट रहा है। सारे खेत बटाई पर हैं लेकिन मेड़ ..."
"..."
युवक के पास कहने को कुछ नहीं। मौन फाँस कुछ और गहरे धँस गई है।
"बहुत कोशिश करता हूँ मुक्त होने के लिए लेकिन आसक्ति बढ़ती ही जा रही है। राम कब कृपा करेंगे?"
"..."
"बेटा मैं एकदम अकेला हो गया हूँ। किससे बात करूँ? कोई इस लायक नहीं। तुम्हारी माँ जिलाए जा रही है। नहीं तो ..."
"..."
"तुम्हारी पत्नी ने बुलाया था। कह देना अभी नहीं सावन में आएँगे। अधिक दिनों के लिए नहीं। अभी तो देखो यह करैली, भिण्डी...तुम्हारी माँ ने बहुत मेहनत की है। छोड़ कर आएँगे तो सब बन्दर चबा जाएँगे।"
"..."।
युवक सोचता है मुझसे अच्छी ये सब्जियाँ हैं और ये बन्दर भी।
" पंखा बन्द क्यों कर दिए हो? चला लो। ... अरे बेटा, बड़ी राहत है। हम दोनों इसे दुपहर में लगा कर सो जाते हैं। बदली हो तो परेशानी रहती है नहीं तो जितनी तेज़ धूप उतनी देर तक हवा ! "
"..."
पंखे को चलाता युवक छ्लक आए आँसुओं को पसीने के बहाने पोंछ देता है। पिता झूठ बोल रहे हैं। वे कभी आना नहीं चाहते। आँगन में सावन बरसे तब भी। ...यह अकेली टुकड़ा भर दुपहर उन्हें बहुत प्रिय है। संतान से भी अधिक। उमस कहीं पैठ लगा गई है, लग गई है छुड़ाए नहीं छूटती...   
माँ ! तुम कब वापस आओगी ?
युवक गेट खोलता है लेकिन दुपहर अभी भी टुकड़ों में बँटी हुई है। पिता के लिए, माँ के लिए, उसके लिए, धूप में छत पर पति से मोबाइल पर बात करती एक युवती के लिए, नीम के लिए, शमी के लिए, करैली के लिए, अडहुल के लिए ... दुपहर टुकड़ा टुकड़ा है। इसके मायने सब के लिए अलग हैं। adhul
"..."  karaili ghevda

9 टिप्‍पणियां:

  1. मैं भी इसी समस्या से जूझ रहा हूँ, माताजी और पिताजी को किसी न किसी का विवाह निपटाने की पड़ी है, उनका आना टलता जा रहा है पिछले डेढ़ वर्षों से। अब यहाँ के मौसम का वर्णन किया है तो मन बन रहा है धीरे धीरे।

    जवाब देंहटाएं
  2. मैं भी इसी समस्या से जूझ रहा हूँ, माताजी और पिताजी को किसी न किसी का विवाह निपटाने की पड़ी है, उनका आना टलता जा रहा है पिछले डेढ़ वर्षों से। अब यहाँ के मौसम का वर्णन किया है तो मन बन रहा है धीरे धी.......yeh virus karib karib har pardesi main paya jaata hai jisco apnee jadoo se apna pan hai..........

    jai baba banaras.....

    जवाब देंहटाएं
  3. देखो भई, अपन तो इस तरह की पोस्टें पढ़ने से बचते हैं क्योंकि आँखे फल्ल से बहने लगती हैं और मॉनीटर धुंधला नज़र आता है....आगे आप समझो.

    यह दर्द हर किसी परदेसी का है...क्या किया जाय।

    जवाब देंहटाएं
  4. क्या माता पिता से दूर होने का दर्द सिर्फ इसलिए कम हो सकता है - कि यही समस्या और भी बहुत से लोग शेयर करते हैं? चाहे यह प्रॉब्लम कितनी ही युनिवर्सल हो - हर एक परिवार के लिए उतनी ही निजी और उतनी ही पेनफुल है जैसी कि तब होती जब उस एक ही परिवार की होती - ....
    हाँ यह एक बात थोडा दिलासा देती है - कि दूर ही सही - वहां वे लोग अपने हिसाब से खुश हैं - आखिर यहाँ की अपेक्षा वहां कुछ तो होगा ही ना - जो उन्हें अपने बच्चों से दूर रखता होगा? चाहे रिश्तेदारों की शादियाँ हों - या कुछ और -

    जवाब देंहटाएं
  5. अम्मा बीमार होकर भी स्वस्थ हैं। पिताजी थक कर भी अथक हैं।...
    भावविभोर हुए...

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत बढ़िया, भाव विभोर कर दिया
    मन को छू लिया

    जवाब देंहटाएं
  7. विदेश के चक्कर मे, नोकरी के चक्कर मे पहले मै अपने मां बाप से अलग हुआ... अब लगता हे हमारी बारी हे, बच्चे जब बडे होंगे तो इन्हे भी तो जाना पडॆगा अपनी अपनी नोकरी पर... इस लिये यह चलता ही रहेगा समय का चक्कर...

    जवाब देंहटाएं

कृपया विषय से सम्बन्धित टिप्पणी करें और सभ्याचरण बनाये रखें। प्रचार के उद्देश्य से की गयी या व्यापार सम्बन्धित टिप्पणियाँ स्वत: स्पैम में चली जाती हैं, जिनका उद्धार सम्भव नहीं। अग्रिम धन्यवाद।