अंत में उसने प्रेम रचा और बहुत प्रसन्न हुआ,"यह पूर्ण है। मैं मुक्त हुआ।"
उसे आगत बेकारी का भान हुआ। तत्क्षण क्रोध आया।
प्रलय को समेटे रुक्ष स्वर के साथ उसकी मुद्रा शाप देने जैसी हो गई,"सर्वोत्तम कृति हो लेकिन घृणास्पद रहोगे।"
प्रेम ने हाथ जोड़ लिये,"नट मुद्रा न धारण करो। तुम्हारा ही किया धरा हूँ। तुम्हारा ही रूप हूँ। तुमसे अलग कैसे हो सकता हूँ?"
प्रलय गड़गड़ाहट तेज हो गई,"कैसा ढींठपना है यह? मंशा क्या है तुम्हारी?"
प्रेम ने उत्तर दिया,"अपने पार्श्व में देखो। कौन है? ...उसे शैतान कहते हैं। जिस तरह से वह तुम्हारा पूरक प्रतिद्वन्द्वी है वैसे ही घृणा मेरी। तुमने घृणा को मुझसे पहले रचा, सोचो क्यों?"
ईश्वर चुप हो गया। प्रलय की आशंका समाप्त हुई। जीवन जाग उठा।
श्रमविलास से थकित ईश्वर सो गया। कहते हैं वह तभी जागेगा जब उसे प्रेम के प्रश्न का उत्तर मिल जायेगा।
तब तक धरती पर शैतान की सत्ता होगी जिसने कुछ भी नहीं रचा।
प्रेम प्रतीक्षारत और घृणा कर्मठ होगी।
एक और मील का पत्थर!!
जवाब देंहटाएंगज़ब....
जवाब देंहटाएंवाह!!
जवाब देंहटाएंप्रेम रच तो दिया, सब अपनी बुद्धि लगाने लगे, हृदय को लगाना शर्त थी।
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर !
हटाएंनिःशब्द !
जवाब देंहटाएंये पार्श्व भी ना :)
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