अचानक एक दिन
ठिठके हम अनजान प्रांतर।
देखा मैंने - गौर मुख, आँखें कुछ सिकुड़ीं स्वच्छ, रजत पात्र गंगाजल बीच शालिग्राम
गौर ललाट, धूप गौर - झुठलाये जाते कारे केशों से
फिसल रहा प्रकाश हारता कालेपन से। हवा कजराये केशों पर फुनगियाँ टाँकती रही।
तमतमाई दुपहर धूप आरक्त कपोल दुलराती रही।
पहली बार मेरी आँखों ने तुम्हें उस समय छुआ -
प्रस्तावना थी पहली भेंट की
(परिचय पगे अनजानेपन का सहसा मिलना भेंट नहीं,
तब हो जब निमंत्रण हो, स्वीकार हो)
प्रस्तावना थी पहली भेंट की
(परिचय पगे अनजानेपन का सहसा मिलना भेंट नहीं,
तब हो जब निमंत्रण हो, स्वीकार हो)
सदेह स्पर्श का अवसर आया तो मैं तुम्हें वैसे ही छूना चाहता था
- कि फुनगियाँ खुलें और चिड़ियाँ उड़ जायें।
- कि लाली निकसे और अंगुलियाँ ऊष्ण हो जायें।
कितना भोला था मैं! युगसंचित परिवर्द्धित परिपाटी को पहली भेंट में ही सिद्ध कर लेना चाहता था!
कितना भोला था मैं! धूप के आँचल में छिपे अरुण से मित्रता करना चाहता था!
कितना भोला था मैं! इन्द्रधनु की बूँदों से एक रंग चुराना चाहता था!
कितना भोला था मैं! हवा से लुकछिप खेलना चाहता था।
कितना भोला था मैं! लाज से अनभिज्ञ था!
पूछा तुमने - क्यों आये?
पूछा तुमने - क्यों आये?
मैं बगलें झाँकने लगा।
दूसरा प्रश्न - आने के मायने समझते हो?
मैंने समझा कि मौन गला भी घोंट सकता है।
तुम मुस्कुराई - कुछ कहोगे भी?
पुस्तक का वाक्य कौंधा - शब्द ब्रह्म है।
जीभ लड़खड़ाई, मैंने नहीं कहा - समय क्या हुआ होगा?
तुम्हारे चेहरे पर समय जम गया।
मैंने जाना कि जमे सतरंग में लहरें भी उठती हैं,
आँखें पुन: तुम्हें वैसे ही छूने लगीं।
कपोल आरक्त हुये
फुनगियाँ खिल उठीं
खग पाँख उगे ओठ ऊपर
दाँत दबे प्रगल्भ
भूली लाज अछ्न्द पसरी
समय रुका
शब्द मौन
ब्रह्म गुम!
हवा फुसफुसाई - जाऊँ?
अँ..हँ..हाँ...
तुम्हें जाते निरखता रहा
जब स्पर्श दीठ टूटी
तो पाया
भीगी अंगुलियाँ शीतल थीं।
बार बार पढ़ता हूँ आधे रास्ते ही खोने लगता हूँ...
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार कविता है। और गिफ़्ट वाली पायल की तीसरी चौथी कड़ी अभी पढ़नी है। मेरी आंखों का नंबर बढ़वाने की सजा आपको जरूर मिलेगी। मोबाईल पर आंख गड़ाये स्साली नजर धुंधला गी है.
जवाब देंहटाएंlovely poetry ..
जवाब देंहटाएंहृदय की अगढ़ धड़कनों का सुन्दर वर्णन, कई बार पढ़ने का मन किया।
जवाब देंहटाएंआपकी यह कविता तो कई गद्य को पढ़ने का समय ले गई ! पहली भेंट को आपने इतना बढ़िया चित्रित किया है कि पाठक खुद को अक्षी साक्षी समझने की भूल कर सकता है।:)
जवाब देंहटाएंएक टाइम मशीन की यात्रा मेरे लिए.. समय जैसे मन्मथ के उलटे घोड़े सा भाग रहा है.. हर एक पंक्तियों से उतरते हुए एक एक बरस की भूतकाल में यात्रा की मैंने.. और तब जाकर अनुभव हुआ कि जो आपने लिखा है वह सच है.. विश्वसनीय.. कल की घटना की तरह.. कोई पास नहीं मेरे जिससे कहूँ कि छूकर देखो मेरी उँगलियों को.. गीली हैं, शीतल हैं ना!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंमैं सोचता हूँ कि क्रमवार ही पढूँगा, लेकिन प्रभु! आप हाथ पकड़ के बिठा लेते हैं।
जवाब देंहटाएंकपोल आरक्त हुये
फुनगियाँ खिल उठीं
खग पाँख उगे ओठ ऊपर
दाँत दबे प्रगल्भ
भूली लाज अछ्न्द पसरी
समय रुका
शब्द मौन
ब्रह्म गुम!
अहा! कैसा सौंदर्य!
आँख मूँद के कविता ने मुझे मैंने कविता को महसूसा।
तुम्हें जाते निरखता रहा
जब स्पर्श दीठ टूटी
तो पाया
भीगी अंगुलियाँ शीतल थीं।
गदगद हुआ! वाह!
निशब्द
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