...एक भटकता औघड़ है जिसके आधे चेहरे चाँदनी बरसती है और आधा काजल पुता है। दुनिया जो भी कहे, उसे सब स्वीकार है। वह तो रहता ही अँधेरी गुफा में है जिसकी भीतों पर भी कालिख पुती है ... वह जाने क्या क्या बकता रहता है। खुदाई कसौटी दूजों को कसता रहता है!...
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इस दिल की आरजू पे होती है हैरत
की ये साथ तो तुम्हारा चाहता है
मगर तुम्हारी आदत नहीं चाहता।
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बलात्कारी खडे सारे पंक्ति में शालीनता से,
अपने मौके के इंतज़ार में -
चुपचाप।
चीत्कार युवती की बिना कृष्ण के दिशाहीन ,
दु:शासन के कान से जाँघों तक ।
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शायद मेरे चप्पल में सट जाती हैं
सब्जी की गलियों में
या फिर पीठ पे गिर जाती हैं
किसी पेड़ के ऊपर से
हाँ शायद ऐसा ही होता होगा
मेरी सोयी आंखों में
जब मैं अपने हाथों के सिराहने पे
सर छुपा, झाँकता हूँ अंधेरे में।
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पर अब आ चुकी है मुझमें
पहचान
ऐसी मकड़ियों की
जो चूस लेती हैं सारा प्यार
और देती हैं उसके बदले
बस- दर्द और सिगरेट
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ये लोग भी नहीं हैं लोग
जो लगे हैं करने तुझे मेरी नज़रों से दूर
ये हैं समाज द्वारा प्रशिक्षित-
नैतिकता में सर्टिफाईड
उचित- अनुचित में डिप्लोमा
हासिल किए बेहुदे सूअर की फौज-
जो दूसरे सूअरों की अनुपस्थिति में
ख़ुद उस नाली में नहायें
जिसके लिए दूसरों पे किकियायें ।
जो शीघ्र ही कर देंगे अपने मनुज बच्चों
को भी नए ज़माने के समकालीन सूअर।
जो छिपा तो रखेंगे अपने परिवार की सुअरनियों को
पर ताकेंगे नाक फुला के दूसरे सुअरनी के थन को।
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जो बदसूरत इरादे रखता है
हर उस खूबसूरत चीज़ से जो
उसे न कभी मिला है, न कभी मिलेगा
बस जिसकी चाह दिल में मसोस के
बुढा जाएगा-
मक्खियों से घिरे, गले हुऐ एक काले केले की तरह।
हाँ प्रिये, मैं ये सब भी हूँ।
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अनगिनत कंचुकियों को चूसने वाले चमगादड़
और रण्डियों की रात गमकाने वाले पिशाच
तू कब से कलम में दवात भरने लगा ?
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हग दिया कौऐ ने
काला-सफ़ेद, एक सड़क पर
लगा के ब्रश बना दिया एक तस्वीर
चित्रकार ने उस से
मूत दिया भैंस ने पेट की नाली से
झर-झर
नहा रहे नंगे बच्चे उसमें मचल कर
निर्वस्त्र ये- जो पोंछते अपनी चुत्तड़
केले के पत्ते से, और पोतते घर गाय
के गोबर से।
तुम्हारी तस्वीर फैला चुकी दुर्गन्ध-
उनका घर, धूप से झुलस
और जलधारा से ओत-प्रोत,
फिर भी खुशबूदार।
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अज्ञेय की 'नाच' की लय की याद दिलाती है यह लड़ी:
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पर उससे भी रोचक लगता है उन
दूरदर्शी समाधानों को घेर देना-
बॉक्स की आकार में
और उसपर फिर से पेन चलाना ताकि
वो घेराव इतनी मजबूत हो जाए कि
उसमे से कोई भी प्लान छिटक न जाए ,
न ही लीक हो पाए।
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हर शाम की कहानी वही-
तकिये में लिपटे बाल
ख्यालों में तुम्हारे
गानों का बदलना, चादरों का सिकुड़ना
पर तुम्हें वैसे ही देखते रहना
कुछ कहना
रुकना
फिर से कहना- इस बार कुछ बेहतर
तब तक-
की जब तक
तुम्हारी आँखों में हँसी न दिख जाए
और गालों में प्यार- मेरे लिए।
तब तक तुम क़ैद एक ही तस्वीर में-
उसी समय में, उन्हीं कपड़ों में
जिसमे की अभी मैनें तुम्हे कुछ कहा था।
तुम थक तो नहीं जाती ना ?
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वो है अब भी वाकिफ़-
हर एक बीते लफ्ज़ से तुम्हारी,
जिसके हर पेचीदे फैसले को
था आसां बनाया बस सदा ने तुम्हारी
कि उसने चुनी तो सिर्फ़ वोही मँजिल चुनी
जिसकी हर राह में
बसती सदा थी तुम्हारी
...और फिर तुम आ जाओ
एका-एक एक दिन
सामने मेरे,
लेकर मेरे सारे ख़त-
थूक से सटाए
३ रुपैये की स्टैंप वाले
लिफाफे के साथ,
ये बताने
कि तुम्हें भी था इंतज़ार
उधर मेरे अगले ख़त का।
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पहन कर क्यूँ आ जाती हो ये
रसीले, मनमोहक पोशाक
और जमा डालती हो
घेरा अपने झुरमुट का
फालतू में,
जबकि कल से फिर खो जाओगी
उसी दुनिया में
अपनी उन्ही पुरानी आदतों के साथ,
जो हैं ठीक विपरीत उन शेरों के बोल से -
पर जिनपर लुटा रही हो अभी तुम वाह-वाही
और बजा रही हो जोरों से ताली
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http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_24.html
नभ-मंडप है सुसज्जित
किरणों के चमकीले डाल से,
यहीं बैठा मन मेरा बजा रहा है बंसी
भले ही है
गोपियों की कमी
बैठा के जो ले चलतीं
मटमैला पानी को अपने सफ़र में-
सुन्दर है ये गंगा की लहरें
अपने आप में
भले ही हो कोई भी मौसम
अपने आप में ही पलती है अनुभूति
निःशब्दता के कमरे में
और विचारों के छत पे
एक अतल कारण से
भले ही न हो सके कोई इसका सहभागी।
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क्या मैने तुम्हें कभी ये बताया
कि तुम्हारी आँखें मुझे प्रिय हैं?
बासमती चावल और गोबर की बनी
ये स्वच्छ आँखें मुझे वैसे ही बहा ले जाती हैं
जैसे की गंगा बूढ़ी औरतों के दीये
ये तुम्हारी आँखें ही हैं
जो पिघलाती है सूरज को समन्दर में
और वो उढ़ेल जाता है
अपना लाल स्याह हर तरफ-
जिसे देखना तुम्हें बहुत भाता है,
देखती ही रहती तुम ये नज़ारा देर तक
अपनी ही करायी इन आँखों से।
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अक्सर घटाएँ आस दिखाकर भी
चूक जाती इस काले कुएँ को।
देती हरियाली
पहले से ही हरे-भरे खेत
और हँसती कलियों को।
और य॓ छोटा सा परिवार बना रहता
मूक और उदास।
पर फिर भी मैने महसूस किया है कि
इसी कुएँ का पानी
बाल्टी से निकाल
डाल लूँ अपने ऊपर
तो छा जाती है ख़ुशमिज़ाजी
झुलसती धूप में भी।
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एक गुल्लक ऐसी भी!
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देखो इसमें ही है बसा
मेरे बचपन का खज़ाना-
एक रोज़ पोछाती साईकिल,
पत्थल मार तोड़ी अमरुद,
फ़्रिज से चुरायी मिठाइयाँ,
टिल्लू भैया से ली कॉमिक्स,
दुर्गा पूजा के मेले में जीती
एक साबुन,
एक बैट -
दो विकेट,
एक कोयले वाली ट्रेन,
न जाने और कितनी अशर्फ़ी...
और उनसे भी अमीर वो कितने सारे पल
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यह लड़ी यायावर के दिल के पास है।
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दे दो वो अफ़साना
जो मेरी अनकही बातें मांगती है तुमसे,
जिसकी आती है चाह दिल के दो ऊँगली अन्दर से,
जिसका मंज़र है आबाद रहता पलकों के पीछे,
जो कभी इशारा भी कर देती होंगी शायद
अपने उम्मीद का, मन के कसे चाबुक के बावजूद।
बोलो ये इतने दिनों का उधार मुझे कब सौंपोगी?
अगर ऐसा हो गया कि तुम न दे पाओ इसे कभी
एक उपहार की तरह,
तो उपहार समझ कर ही रख लेना
ये आधी कहानी मेरी तरफ से।
जो सालों बाद भी कभी चाहो तो फुर्सत के वक़्त में
खोल कर देख लेना, टटोल लेना इसे
शायद तुम्हारा मन बहल जायेगा।
दे देंगे ढील ये गाल तुम्हारे होंठों को
शायद भर जाए काजल का भार अपने आप
पर अगर ऐसा न हुआ
तो इतने वर्षों बाद भी
मुझे होगा अफ़सोस
कि मेरी एक पुरानी भेंट तुम्हे इतनी पसंद न आ सकी।
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यायावर उवाच - बस यूँ ही, हर बेवकूफी के पीछे तर्क का होना जरूरी नहीं
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सँड़सी से उखाड़ फेंको
इन औरतों कि मूँछें
एक के बाद एक-
चुरा लेती ये अँगूठियाँ शकुंतला की,
मछली के पेट को फाड़ के।
ये ही हैं वो सारी जो
सताती थीं अशोक वाटिका में
सीता को,
कसती थीं तानें
और फिर सोती थीं पड़ोसी के साथ
खटमल लदे खटिया में।
टपकाती लार विभीषण पे,
कुरूप गण ये,
डूबा नाख़ून को अपने मासिक खून में।
हर लेती मासूमियत
नन्हे बालक की
गोदों में खेलाते-खेलाते।
पत्थर की बायीं आँखें इन डायनों की
गाड़ दो मिट्टी में
उन्हीं नन्हे बच्चों के
टूटे दूध के दांतों के साथ।
काले कनस्तर की बनी,
चूल्हे की कालिख लदी, चूहों की चहेती, ये,
एक सलाई की ललकार से थर्रा उठती हैं।
किरासन का वो डब्बा लाओ
नहलाओ इन्हें नंगे
और खड़ा कर दो इस चिलचिलाती धूप में।
जब ये झुलस के राख बन जायें तो
अर्पित कर देना इन्हें
अगली गली के यतीम शिवलिंग पे।
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शायद वो प्यार नहीं था
कामोत्तेजना था-
उदाहरण के लिए:
मैं उसके साथ बैठ कर
कपटी में चाय पीते-पीते
काफ़्का काका की कथाएँ
नहीं बतिया सकता
न ही अंग्रेजी की कुछ
बेहद रोमांटिक गानों का
मज़ा ले पाता साथ-साथ,
फिल्में तो छोड़ ही दें...
पर ये गलत होगा की मैं
अपने प्यार को
कामोत्तेजना कहकर पुकारूँ
पर इसका उपाय भी क्या हो?
जो लोग एक दूसरे से प्यार करते हैं,
यही सब चीज़ें तो साथ में करते हैं ।
पर मैं भी अगर एक महतो होता-
तब तो फिर ये प्यार ही होता
हाँ, तब ये निश्चित रूप से प्यार ही होता।
अब ठीक है।
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तैर रही तुम गंगा में निर्वस्त्र
हवा के धीमे झोंकों के साथ
दूर मछुवारे मार रहे मछली अपनी धुन में
चाँदनी छिंटी हलकी चारों ओर
योगियों के हल्के गेरुवे परिधान
लटके रस्सी पर इस पार
ठंडा बालू टिमटिमाता उस पार
निकल कर आ रही तुम
इस बैंगनी पानी से
लालटेन की हलकी आँच में
बचाते अपने पावों को
सीढ़ियों में टर्र-टर्राते मेढ़क के बच्चों से
इन झींगुरों के पावन पर्व के
मंत्र उच्चारण के बीच
लपेटते अपने उड़न-खटोले बाल
केंचुए जैसी ऊँगली से
पीछे छोड़ते धार पानी का
अपनी नाज़ुक एड़ियों से
और फिर टंगे कपड़ों के पीछे
कपड़ों में धीरे-धीरे लिपट
तुम आ गयी अब मेरे समीप
स्वर्ग तो ये ही है
तुम्हारा वाला कुछ और होगा
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दूह गया धामिन
जरसी गायों को
ग्वाले के सन्नाटे में।
मोह लिया गेहूँमन की आँखों को
सँपेरे की बीन ने।
पकड़ा गया विधुर बाप अकास्मात
करता हस्तमैथुन अपनी दासी की लोभ में
उसकी काली वीर्य की फुँकार ने
तुम्हें बदसूरत बना दिया
बन गयी हो तुम एक सस्ती लाश
और ये हैं तुम्हारे खरीदार।
जाकर पकड़ लाओ तुम भी एक दुर्दांत सँपेरा
और मत घुमा करो अकेले ऐसे सन्नाटे में।
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स्कूल की मेज में,
मिनी बस की सीट पे,
बस स्टॉप की दीवारों पे ,
लोकल ट्रेन के दरवाज़े पे,
पुरुष शौचालय में पहुँच सकती
मूत्र धार से काफ़ी ऊपर,
और पिकनिक स्थल के बड़े-बड़े
चट्टानों में भी
उतनी ही बड़ी अक्षरों से-
हर तरफ है बसा तुम्हारा ही प्रेम
रमेश।
चिंता की कोई ज़रूरत नहीं
प्रिया को भी है तुमसे उतनी ही मोहब्बत-
दो-तीन बार नस काटी होगी तुमने
एक-आध बार चूहे का विष भी
नीलकंठ जैसा साहसी हो
किया गया होगा तुमने धारण
इसलिए आज तुम्हे सजाना अच्छा लगता है दुनिया को-
अपने प्यार के इकरार से,
इसलिए ही दिखाना अच्छा लगता है दुनिया को
फल अपनी तपस्या का-
....
पर ये तो बताओ कहाँ से लाया
उतना चूना
उस बड़ी चट्टान की पुताई के लिए ?
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काले कढ़ाई की कोख से जन्मे
तेल स्नानित पूड़ियों के लुटेरे
लाइन से हैं बैठे बेंच में शांतिपूर्वक
जो खुला इनका मुँह तो निकला
गोलियों का गुह
कामी उत्पीड़कों का समूह
भीड़ गया अपने आप में
लंगड़ी मार पटक रहा
एक दूसरे को कादो में
भागी रही बचा-खुचा दबोच
बालायें जंगलों की ओर
हाँफ गयी दौड़ते - दौड़ते
शिकारी आ सकता पीछे से कभी भी
काट रही बुढ़िया कुकुरमुत्ता हँसुआ से
जला हलकी ढिबरी
हो गयी है याद्दाश्त कम-
अब खेलते ईंट की बुकनी
उसकी जुओं से आँख मिचौली
गिर रहे हैं धावक
एक के बाद एक
शब्द रह गए क़ैद सीने की पिंजड़ों में
अब मत पिलाओ ग्लुकोज़-
कराओ इनका ब्लड टेस्ट
हो रहा पागलखाने के बाहर
बनबिलाड़ और झबरे कुत्ते में लड़ाई
ढेला है पड़ा काफी आस पास यहाँ
जब गीदड़ की मौत आती है तो
वो शहर की तरफ भागता है
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http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_9163.html
पूरा नाम : बजरंग प्रसाद सिंह
पिता का नाम: बनवारी प्रसाद सिंह
गाँव: सतौल
थाना: हिरोडीह
जिला: लखनपुरा
जंघिया : जॉकी, कम्फर्ट स्ट्रेच, साइज़- मीडियम
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http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_2549.html
ये कुछ एहसास हैं तुम्हारे ही लिए
डरते थे ये तुम्हारी परिधि में प्रत्यक्ष होने से
बाँध के लाया हूँ बड़ी मुश्किल से इन्हें एक साथ
संभाल के रखना इन्हें
अगर न हो ठीक से देखभाल इनका
तो ये दिखने लगते हैं अलग-
पर ऐसा भी न करना कि
इन्हें सर पर ही चढ़ा दिया
और अत्यधिक खिला-पिला के कर दिया
इतना चौड़ा
कि देनी पड़ जाए इनकी बलि
हमारे रिश्ते की चौखट में
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http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_27.html
ज़िन्दगी जीता है बस वही भरपूर
जो समय नदी में
वर्तमान के लोटे से
है नहाता निश्चिंत।
भविष्य की बाल्टी
तो होती है कितनी भारी
और भूत के बर्तन का पानी
तो हो चला कितना बासी
बस रखो अपने साथ
ये वर्तमान का लोटा
घबराने की बात नहीं
इस लोटे में है खुर्ची
तुम्हारी अतीत की यादें
रहेंगी साथ जो सदा इस लोटे के साथ-
बस चमकाते रहना
बीच-बीच में
इसे
अपने सुंदर सपनों से
बस और कुछ नहीं
कुछ भी नहीं।
चलो
लगाओ अब
बस एक लोटा एक बार में
हर हर महादेव
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उस घर के आँगन के धूमकेतु कुछ ऐसे दिखते हैं:
http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_5257.html
रहो तीव्रता से ऐसे ही गतिमान तुम
कि हो दृष्टिगत जिसे भी
हो जाए उनकी सोती जीवन अवगत
एक खुले विशाल आह्वान से,
...
...
जो देख ले कोई बच्चा
तो माँगे पापा से
तुम्हारे जैसा ही रॉकेट
अगली दिवाली
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http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_28.html
मेढक तुमसे बड़ा ढक
शायद की कोई जंतु मैने देखा है
टेंके रहते हो घुटना हरदम
किसी हीन भावना से ग्रस्त
रंगवाये हो अपनी पीठ सबसे
नालायक चित्रकार से
शायद इसलिए ही नहीं हो
किसी भी देवता की सवारी-
पर माँग बहुत है तुम्हारी साँपों के बीच
लगती है बोली पे बोली और
लुटाते हो प्रसाद बनकर
जब हपकने आती तुम्हे साँपों की टोली
यही सब देखकर
चुना है तुम्हें
एन. सी. ई. आर. टी. वालों ने
चीराने के लिए
दसवीं कक्षा के
बायोलॉजी लैब में-
और मज़ा कितना आता है
छात्रों को
तुम्हें प्लास्टिक बैग में
धर दबोच,
उल्टा लेटा,
चाकू चलाने में
अपने
पाठ्यक्रम के अनुसार
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http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_1331.html
एक पहुँचा संत
उठा के पत्थर
अगर फोड़ दे मेरा सर
तो इसे क्या समझूँ ?
मेरी बात का विषैलापन
या उसके साधना की विफलता ?
क्यूँ हो जाती है फाँसी माफ़
उस जघन्य अपराधी की
जब वो कर लेता है ख़ुदकुशी ?
मेरे चिट्ठे को लौटा देती
गुस्से से, बिन दिए जवाब
पर आकर बैठती मेरे ही बगल
दोनों सेक्शन की संयुक्त क्लास में
ये हमारी समीपता है या समापन ?
______________________________________
http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_29.html
कैसा है ये कुबड़ा पहाड़
दुबका हुआ चुपचाप ?
और देखो इस सूरज को-
जिसे कान खींच
ले जाया जाता वापस
हर शाम
तारें कर रहे हैं उठक-बैठक
चाँद है बाहर मुर्गा बना
आसमान का छाता है छिदा हुआ
जिससे चू जाती बासी बारिश
बादल हैं बिखरे रुवें
जिस बिस्तर पे अभी शाम को पड़ी छड़ी
ये ओस हैं रात के आँसू
जो रोता कमरे में बंद पड़ा
देखने जो नहीं मिलता
दुनिया की टी वी
भोर को रोज़ पड़ती है डाँट
संवारता नहीं है चादर अपना समय से
दोपहर का है खाना बंद
मोटा गया है सो-सो के
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http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_3714.html
इतनी कड़वी दवाईयाँ पी चुका
कि अब मीठी गोली बे ईमान लगती है
थक गयी सबको खुश करते करते
अब समझा वो क्यूँ परेशान लगती है
बनो खुद में ही कुछ, बनो अपने जैसे
ये मशहूर अदाएँ एक समान लगती हैं
साथ चलने दो कदम की भी हैं अपनी मुश्किलें
भले ही दिखने में ये तुम्हें आसान लगती है
बह मत जा इस ख़ुशनसीबी की रवानगी पे
हो न हो, ये कुछ ही दिन की मेहमान लगती है
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कोई है जो निज परिवेश में घुल मिल रहते हुये भी एकाकी है। तरंगों के संसार में वह भटकता है - किसी अभिशप्त देवात्मा जैसा। उन प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ता हुआ जो सर्वदा सिर सवार रहते हैं। वह विक्रम नहीं, नहीं ढो सकता अनन्त गढ़ू प्रश्नों के भार एकाकी, वह अपने जैसों को ढूँढ़ता है।
वह ढूँढ़ता है कि उसका सिर टुकड़े टुकड़े न हो!
वह ढूँढ़ता है कि लोग मिलें जो उस जैसे ही एकाकी हैं, नहीं, जिनसे मिल कर लगे कि वे एकाकी हैं। वह मानता है कि परम सत्य होता नहीं और आभासी की सीमायें अनन्त हैं, इसलिये ढूँढ़ता है।
वह ढूँढ़ता है और जाने क्या क्या बड़बड़ाता रहता है। लोग कहते हैं कि बावरा है!
वह ढूँढ़ता है कि कोई प्रेमिका मिले तो पूरे चेहरे चाँदनी हो।
वह उन द्वारों को खटखटाता है जिनकी अर्गलायें या तो भीतर से बन्द हैं या बस द्वार विहीन यूँ ही लटक रही हैं – जैसे कि टोटके वाली अश्वनालें हों। उसे वे नहीं मिलते जिन्हें ढूँढ रहा होता है लेकिन काम की अर्गलायें मिल जाती हैं जिन्हें वह चन्द्रहारों की तरह पहन लेता है – प्रेमिका न सही, चेहरे पर चाँदनी तो छिटकेगी! परिणाम चाहिये कि साथी?
इस भटकन में वह जाने क्या क्या कहता रहा है, ढेर सारा लिखता रहा है लेकिन उसे हमेशा लगता रहा है – नहीं, यह नहीं, ऐसे नहीं, कुछ है जो नहीं कहा पा रहा, कुछ है जो शेष है।
...उस कुछ की खीझ उसे एक दिन ऐसी व्यापी कि उसने अपनी सभी कविताओं का नाम ‘-विता’ रख दिया और उसे बावरा कहते जन को यह छूट दे दी कि जो चाहे आगे लगा लें। उस दिन से वह और सिमटता गया। उसने देखना भी बन्द कर दिया कि कहीं उसकी नज़र किसी को न लग जाय! पढ़ना बन्द कर दिया कि किसी के सादे अक्षर उसकी अंगुलियों तले महाकाव्य न बन जायँ! कि कहीं उस पर चोरी का इलजाम न लग जाय!
लेकिन गले में लटकते चन्द्रहारों का क्या करे? क्या करे कि उसके गले कालकूट के धुँये उगलते ब्याल नहीं, अज्ञात अपनों के चन्द्रहार हैं, जो अयाचित ही मिल गये, उसके धूल सने पैरों से बहते रुधिर की करुणा में गले लग गये?
वह उन्हें दिखाना चाहता है। किसे? पता नहीं, उसे तो दिखा कर संतोष होगा।
उसे शीर्षक पसन्द नहीं, वे उन कन्दीलों जैसे लगते हैं जो रात में घर की स्थिति तो बता देते हैं लेकिन घर और रहवासियों के बारे में या तो गलतबयानी करते हैं या पूरी बात नहीं बताते। वह चन्द्रहारों को कड़ी कड़ी दिखाना चाहता है और साथ ही चुप भी रहना चाहता है कि चुप रहने से बेहतर कोई बात ही नहीं होती।
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उस घर का नेमप्लेट अजीब है – ‘तीन टाँग वाला बेखौफ कुत्ता’। तफसील और अजीब - ' दलदल में चुम्मा-चाटी, मालगाड़ी के आखिरी डिब्बे वाला आदमी क्या सोचता रहता है?'
रहने वाले ने अपना नाम दिया है - Abyss_Garden। उलट पुलट हो गयी है शायद! पड़ोसियों ने कभी मयंक जैसा पुकारते सुना है लेकिन कोई पुष्टि नहीं। इस घर की वह सब खिड़कियाँ खुली हैं जिन्हें उस यायावर ने अपने घर में बन्द कर रखी हैं और कभी कभी कपाटों की झिर्रियों से झाँकने के कपट करता रहता है।
ये रहीं पहले चन्द्रहार की लड़ियाँ:
इस दिल की आरजू पे होती है हैरत
की ये साथ तो तुम्हारा चाहता है
मगर तुम्हारी आदत नहीं चाहता।
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बलात्कारी खडे सारे पंक्ति में शालीनता से,
अपने मौके के इंतज़ार में -
चुपचाप।
चीत्कार युवती की बिना कृष्ण के दिशाहीन ,
दु:शासन के कान से जाँघों तक ।
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शायद मेरे चप्पल में सट जाती हैं
सब्जी की गलियों में
या फिर पीठ पे गिर जाती हैं
किसी पेड़ के ऊपर से
हाँ शायद ऐसा ही होता होगा
मेरी सोयी आंखों में
जब मैं अपने हाथों के सिराहने पे
सर छुपा, झाँकता हूँ अंधेरे में।
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पर अब आ चुकी है मुझमें
पहचान
ऐसी मकड़ियों की
जो चूस लेती हैं सारा प्यार
और देती हैं उसके बदले
बस- दर्द और सिगरेट
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ये लोग भी नहीं हैं लोग
जो लगे हैं करने तुझे मेरी नज़रों से दूर
ये हैं समाज द्वारा प्रशिक्षित-
नैतिकता में सर्टिफाईड
उचित- अनुचित में डिप्लोमा
हासिल किए बेहुदे सूअर की फौज-
जो दूसरे सूअरों की अनुपस्थिति में
ख़ुद उस नाली में नहायें
जिसके लिए दूसरों पे किकियायें ।
जो शीघ्र ही कर देंगे अपने मनुज बच्चों
को भी नए ज़माने के समकालीन सूअर।
जो छिपा तो रखेंगे अपने परिवार की सुअरनियों को
पर ताकेंगे नाक फुला के दूसरे सुअरनी के थन को।
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जो बदसूरत इरादे रखता है
हर उस खूबसूरत चीज़ से जो
उसे न कभी मिला है, न कभी मिलेगा
बस जिसकी चाह दिल में मसोस के
बुढा जाएगा-
मक्खियों से घिरे, गले हुऐ एक काले केले की तरह।
हाँ प्रिये, मैं ये सब भी हूँ।
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अनगिनत कंचुकियों को चूसने वाले चमगादड़
और रण्डियों की रात गमकाने वाले पिशाच
तू कब से कलम में दवात भरने लगा ?
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हग दिया कौऐ ने
काला-सफ़ेद, एक सड़क पर
लगा के ब्रश बना दिया एक तस्वीर
चित्रकार ने उस से
मूत दिया भैंस ने पेट की नाली से
झर-झर
नहा रहे नंगे बच्चे उसमें मचल कर
निर्वस्त्र ये- जो पोंछते अपनी चुत्तड़
केले के पत्ते से, और पोतते घर गाय
के गोबर से।
तुम्हारी तस्वीर फैला चुकी दुर्गन्ध-
उनका घर, धूप से झुलस
और जलधारा से ओत-प्रोत,
फिर भी खुशबूदार।
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अज्ञेय की 'नाच' की लय की याद दिलाती है यह लड़ी:
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पर उससे भी रोचक लगता है उन
दूरदर्शी समाधानों को घेर देना-
बॉक्स की आकार में
और उसपर फिर से पेन चलाना ताकि
वो घेराव इतनी मजबूत हो जाए कि
उसमे से कोई भी प्लान छिटक न जाए ,
न ही लीक हो पाए।
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हर शाम की कहानी वही-
तकिये में लिपटे बाल
ख्यालों में तुम्हारे
गानों का बदलना, चादरों का सिकुड़ना
पर तुम्हें वैसे ही देखते रहना
कुछ कहना
रुकना
फिर से कहना- इस बार कुछ बेहतर
तब तक-
की जब तक
तुम्हारी आँखों में हँसी न दिख जाए
और गालों में प्यार- मेरे लिए।
तब तक तुम क़ैद एक ही तस्वीर में-
उसी समय में, उन्हीं कपड़ों में
जिसमे की अभी मैनें तुम्हे कुछ कहा था।
तुम थक तो नहीं जाती ना ?
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वो है अब भी वाकिफ़-
हर एक बीते लफ्ज़ से तुम्हारी,
जिसके हर पेचीदे फैसले को
था आसां बनाया बस सदा ने तुम्हारी
कि उसने चुनी तो सिर्फ़ वोही मँजिल चुनी
जिसकी हर राह में
बसती सदा थी तुम्हारी
...और फिर तुम आ जाओ
एका-एक एक दिन
सामने मेरे,
लेकर मेरे सारे ख़त-
थूक से सटाए
३ रुपैये की स्टैंप वाले
लिफाफे के साथ,
ये बताने
कि तुम्हें भी था इंतज़ार
उधर मेरे अगले ख़त का।
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पहन कर क्यूँ आ जाती हो ये
रसीले, मनमोहक पोशाक
और जमा डालती हो
घेरा अपने झुरमुट का
फालतू में,
जबकि कल से फिर खो जाओगी
उसी दुनिया में
अपनी उन्ही पुरानी आदतों के साथ,
जो हैं ठीक विपरीत उन शेरों के बोल से -
पर जिनपर लुटा रही हो अभी तुम वाह-वाही
और बजा रही हो जोरों से ताली
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नभ-मंडप है सुसज्जित
किरणों के चमकीले डाल से,
यहीं बैठा मन मेरा बजा रहा है बंसी
भले ही है
गोपियों की कमी
बैठा के जो ले चलतीं
मटमैला पानी को अपने सफ़र में-
सुन्दर है ये गंगा की लहरें
अपने आप में
भले ही हो कोई भी मौसम
अपने आप में ही पलती है अनुभूति
निःशब्दता के कमरे में
और विचारों के छत पे
एक अतल कारण से
भले ही न हो सके कोई इसका सहभागी।
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क्या मैने तुम्हें कभी ये बताया
कि तुम्हारी आँखें मुझे प्रिय हैं?
बासमती चावल और गोबर की बनी
ये स्वच्छ आँखें मुझे वैसे ही बहा ले जाती हैं
जैसे की गंगा बूढ़ी औरतों के दीये
ये तुम्हारी आँखें ही हैं
जो पिघलाती है सूरज को समन्दर में
और वो उढ़ेल जाता है
अपना लाल स्याह हर तरफ-
जिसे देखना तुम्हें बहुत भाता है,
देखती ही रहती तुम ये नज़ारा देर तक
अपनी ही करायी इन आँखों से।
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अक्सर घटाएँ आस दिखाकर भी
चूक जाती इस काले कुएँ को।
देती हरियाली
पहले से ही हरे-भरे खेत
और हँसती कलियों को।
और य॓ छोटा सा परिवार बना रहता
मूक और उदास।
पर फिर भी मैने महसूस किया है कि
इसी कुएँ का पानी
बाल्टी से निकाल
डाल लूँ अपने ऊपर
तो छा जाती है ख़ुशमिज़ाजी
झुलसती धूप में भी।
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एक गुल्लक ऐसी भी!
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देखो इसमें ही है बसा
मेरे बचपन का खज़ाना-
एक रोज़ पोछाती साईकिल,
पत्थल मार तोड़ी अमरुद,
फ़्रिज से चुरायी मिठाइयाँ,
टिल्लू भैया से ली कॉमिक्स,
दुर्गा पूजा के मेले में जीती
एक साबुन,
एक बैट -
दो विकेट,
एक कोयले वाली ट्रेन,
न जाने और कितनी अशर्फ़ी...
और उनसे भी अमीर वो कितने सारे पल
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यह लड़ी यायावर के दिल के पास है।
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दे दो वो अफ़साना
जो मेरी अनकही बातें मांगती है तुमसे,
जिसकी आती है चाह दिल के दो ऊँगली अन्दर से,
जिसका मंज़र है आबाद रहता पलकों के पीछे,
जो कभी इशारा भी कर देती होंगी शायद
अपने उम्मीद का, मन के कसे चाबुक के बावजूद।
बोलो ये इतने दिनों का उधार मुझे कब सौंपोगी?
अगर ऐसा हो गया कि तुम न दे पाओ इसे कभी
एक उपहार की तरह,
तो उपहार समझ कर ही रख लेना
ये आधी कहानी मेरी तरफ से।
जो सालों बाद भी कभी चाहो तो फुर्सत के वक़्त में
खोल कर देख लेना, टटोल लेना इसे
शायद तुम्हारा मन बहल जायेगा।
दे देंगे ढील ये गाल तुम्हारे होंठों को
शायद भर जाए काजल का भार अपने आप
पर अगर ऐसा न हुआ
तो इतने वर्षों बाद भी
मुझे होगा अफ़सोस
कि मेरी एक पुरानी भेंट तुम्हे इतनी पसंद न आ सकी।
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यायावर उवाच - बस यूँ ही, हर बेवकूफी के पीछे तर्क का होना जरूरी नहीं
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सँड़सी से उखाड़ फेंको
इन औरतों कि मूँछें
एक के बाद एक-
चुरा लेती ये अँगूठियाँ शकुंतला की,
मछली के पेट को फाड़ के।
ये ही हैं वो सारी जो
सताती थीं अशोक वाटिका में
सीता को,
कसती थीं तानें
और फिर सोती थीं पड़ोसी के साथ
खटमल लदे खटिया में।
टपकाती लार विभीषण पे,
कुरूप गण ये,
डूबा नाख़ून को अपने मासिक खून में।
हर लेती मासूमियत
नन्हे बालक की
गोदों में खेलाते-खेलाते।
पत्थर की बायीं आँखें इन डायनों की
गाड़ दो मिट्टी में
उन्हीं नन्हे बच्चों के
टूटे दूध के दांतों के साथ।
काले कनस्तर की बनी,
चूल्हे की कालिख लदी, चूहों की चहेती, ये,
एक सलाई की ललकार से थर्रा उठती हैं।
किरासन का वो डब्बा लाओ
नहलाओ इन्हें नंगे
और खड़ा कर दो इस चिलचिलाती धूप में।
जब ये झुलस के राख बन जायें तो
अर्पित कर देना इन्हें
अगली गली के यतीम शिवलिंग पे।
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शायद वो प्यार नहीं था
कामोत्तेजना था-
उदाहरण के लिए:
मैं उसके साथ बैठ कर
कपटी में चाय पीते-पीते
काफ़्का काका की कथाएँ
नहीं बतिया सकता
न ही अंग्रेजी की कुछ
बेहद रोमांटिक गानों का
मज़ा ले पाता साथ-साथ,
फिल्में तो छोड़ ही दें...
पर ये गलत होगा की मैं
अपने प्यार को
कामोत्तेजना कहकर पुकारूँ
पर इसका उपाय भी क्या हो?
जो लोग एक दूसरे से प्यार करते हैं,
यही सब चीज़ें तो साथ में करते हैं ।
पर मैं भी अगर एक महतो होता-
तब तो फिर ये प्यार ही होता
हाँ, तब ये निश्चित रूप से प्यार ही होता।
अब ठीक है।
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तैर रही तुम गंगा में निर्वस्त्र
हवा के धीमे झोंकों के साथ
दूर मछुवारे मार रहे मछली अपनी धुन में
चाँदनी छिंटी हलकी चारों ओर
योगियों के हल्के गेरुवे परिधान
लटके रस्सी पर इस पार
ठंडा बालू टिमटिमाता उस पार
निकल कर आ रही तुम
इस बैंगनी पानी से
लालटेन की हलकी आँच में
बचाते अपने पावों को
सीढ़ियों में टर्र-टर्राते मेढ़क के बच्चों से
इन झींगुरों के पावन पर्व के
मंत्र उच्चारण के बीच
लपेटते अपने उड़न-खटोले बाल
केंचुए जैसी ऊँगली से
पीछे छोड़ते धार पानी का
अपनी नाज़ुक एड़ियों से
और फिर टंगे कपड़ों के पीछे
कपड़ों में धीरे-धीरे लिपट
तुम आ गयी अब मेरे समीप
स्वर्ग तो ये ही है
तुम्हारा वाला कुछ और होगा
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दूह गया धामिन
जरसी गायों को
ग्वाले के सन्नाटे में।
मोह लिया गेहूँमन की आँखों को
सँपेरे की बीन ने।
पकड़ा गया विधुर बाप अकास्मात
करता हस्तमैथुन अपनी दासी की लोभ में
उसकी काली वीर्य की फुँकार ने
तुम्हें बदसूरत बना दिया
बन गयी हो तुम एक सस्ती लाश
और ये हैं तुम्हारे खरीदार।
जाकर पकड़ लाओ तुम भी एक दुर्दांत सँपेरा
और मत घुमा करो अकेले ऐसे सन्नाटे में।
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स्कूल की मेज में,
मिनी बस की सीट पे,
बस स्टॉप की दीवारों पे ,
लोकल ट्रेन के दरवाज़े पे,
पुरुष शौचालय में पहुँच सकती
मूत्र धार से काफ़ी ऊपर,
और पिकनिक स्थल के बड़े-बड़े
चट्टानों में भी
उतनी ही बड़ी अक्षरों से-
हर तरफ है बसा तुम्हारा ही प्रेम
रमेश।
चिंता की कोई ज़रूरत नहीं
प्रिया को भी है तुमसे उतनी ही मोहब्बत-
दो-तीन बार नस काटी होगी तुमने
एक-आध बार चूहे का विष भी
नीलकंठ जैसा साहसी हो
किया गया होगा तुमने धारण
इसलिए आज तुम्हे सजाना अच्छा लगता है दुनिया को-
अपने प्यार के इकरार से,
इसलिए ही दिखाना अच्छा लगता है दुनिया को
फल अपनी तपस्या का-
....
पर ये तो बताओ कहाँ से लाया
उतना चूना
उस बड़ी चट्टान की पुताई के लिए ?
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काले कढ़ाई की कोख से जन्मे
तेल स्नानित पूड़ियों के लुटेरे
लाइन से हैं बैठे बेंच में शांतिपूर्वक
जो खुला इनका मुँह तो निकला
गोलियों का गुह
कामी उत्पीड़कों का समूह
भीड़ गया अपने आप में
लंगड़ी मार पटक रहा
एक दूसरे को कादो में
भागी रही बचा-खुचा दबोच
बालायें जंगलों की ओर
हाँफ गयी दौड़ते - दौड़ते
शिकारी आ सकता पीछे से कभी भी
काट रही बुढ़िया कुकुरमुत्ता हँसुआ से
जला हलकी ढिबरी
हो गयी है याद्दाश्त कम-
अब खेलते ईंट की बुकनी
उसकी जुओं से आँख मिचौली
गिर रहे हैं धावक
एक के बाद एक
शब्द रह गए क़ैद सीने की पिंजड़ों में
अब मत पिलाओ ग्लुकोज़-
कराओ इनका ब्लड टेस्ट
हो रहा पागलखाने के बाहर
बनबिलाड़ और झबरे कुत्ते में लड़ाई
ढेला है पड़ा काफी आस पास यहाँ
जब गीदड़ की मौत आती है तो
वो शहर की तरफ भागता है
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http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_9163.html
पूरा नाम : बजरंग प्रसाद सिंह
पिता का नाम: बनवारी प्रसाद सिंह
गाँव: सतौल
थाना: हिरोडीह
जिला: लखनपुरा
जंघिया : जॉकी, कम्फर्ट स्ट्रेच, साइज़- मीडियम
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http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_2549.html
ये कुछ एहसास हैं तुम्हारे ही लिए
डरते थे ये तुम्हारी परिधि में प्रत्यक्ष होने से
बाँध के लाया हूँ बड़ी मुश्किल से इन्हें एक साथ
संभाल के रखना इन्हें
अगर न हो ठीक से देखभाल इनका
तो ये दिखने लगते हैं अलग-
पर ऐसा भी न करना कि
इन्हें सर पर ही चढ़ा दिया
और अत्यधिक खिला-पिला के कर दिया
इतना चौड़ा
कि देनी पड़ जाए इनकी बलि
हमारे रिश्ते की चौखट में
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http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_27.html
ज़िन्दगी जीता है बस वही भरपूर
जो समय नदी में
वर्तमान के लोटे से
है नहाता निश्चिंत।
भविष्य की बाल्टी
तो होती है कितनी भारी
और भूत के बर्तन का पानी
तो हो चला कितना बासी
बस रखो अपने साथ
ये वर्तमान का लोटा
घबराने की बात नहीं
इस लोटे में है खुर्ची
तुम्हारी अतीत की यादें
रहेंगी साथ जो सदा इस लोटे के साथ-
बस चमकाते रहना
बीच-बीच में
इसे
अपने सुंदर सपनों से
बस और कुछ नहीं
कुछ भी नहीं।
चलो
लगाओ अब
बस एक लोटा एक बार में
हर हर महादेव
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उस घर के आँगन के धूमकेतु कुछ ऐसे दिखते हैं:
http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_5257.html
रहो तीव्रता से ऐसे ही गतिमान तुम
कि हो दृष्टिगत जिसे भी
हो जाए उनकी सोती जीवन अवगत
एक खुले विशाल आह्वान से,
...
...
जो देख ले कोई बच्चा
तो माँगे पापा से
तुम्हारे जैसा ही रॉकेट
अगली दिवाली
__________________
http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_28.html
मेढक तुमसे बड़ा ढक
शायद की कोई जंतु मैने देखा है
टेंके रहते हो घुटना हरदम
किसी हीन भावना से ग्रस्त
रंगवाये हो अपनी पीठ सबसे
नालायक चित्रकार से
शायद इसलिए ही नहीं हो
किसी भी देवता की सवारी-
पर माँग बहुत है तुम्हारी साँपों के बीच
लगती है बोली पे बोली और
लुटाते हो प्रसाद बनकर
जब हपकने आती तुम्हे साँपों की टोली
यही सब देखकर
चुना है तुम्हें
एन. सी. ई. आर. टी. वालों ने
चीराने के लिए
दसवीं कक्षा के
बायोलॉजी लैब में-
और मज़ा कितना आता है
छात्रों को
तुम्हें प्लास्टिक बैग में
धर दबोच,
उल्टा लेटा,
चाकू चलाने में
अपने
पाठ्यक्रम के अनुसार
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http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_1331.html
एक पहुँचा संत
उठा के पत्थर
अगर फोड़ दे मेरा सर
तो इसे क्या समझूँ ?
मेरी बात का विषैलापन
या उसके साधना की विफलता ?
क्यूँ हो जाती है फाँसी माफ़
उस जघन्य अपराधी की
जब वो कर लेता है ख़ुदकुशी ?
मेरे चिट्ठे को लौटा देती
गुस्से से, बिन दिए जवाब
पर आकर बैठती मेरे ही बगल
दोनों सेक्शन की संयुक्त क्लास में
ये हमारी समीपता है या समापन ?
______________________________________
http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_29.html
कैसा है ये कुबड़ा पहाड़
दुबका हुआ चुपचाप ?
और देखो इस सूरज को-
जिसे कान खींच
ले जाया जाता वापस
हर शाम
तारें कर रहे हैं उठक-बैठक
चाँद है बाहर मुर्गा बना
आसमान का छाता है छिदा हुआ
जिससे चू जाती बासी बारिश
बादल हैं बिखरे रुवें
जिस बिस्तर पे अभी शाम को पड़ी छड़ी
ये ओस हैं रात के आँसू
जो रोता कमरे में बंद पड़ा
देखने जो नहीं मिलता
दुनिया की टी वी
भोर को रोज़ पड़ती है डाँट
संवारता नहीं है चादर अपना समय से
दोपहर का है खाना बंद
मोटा गया है सो-सो के
__________________
http://teen-taang-waala-bekhauff-kutta.blogspot.in/2010/09/blog-post_3714.html
इतनी कड़वी दवाईयाँ पी चुका
कि अब मीठी गोली बे ईमान लगती है
थक गयी सबको खुश करते करते
अब समझा वो क्यूँ परेशान लगती है
बनो खुद में ही कुछ, बनो अपने जैसे
ये मशहूर अदाएँ एक समान लगती हैं
साथ चलने दो कदम की भी हैं अपनी मुश्किलें
भले ही दिखने में ये तुम्हें आसान लगती है
बह मत जा इस ख़ुशनसीबी की रवानगी पे
हो न हो, ये कुछ ही दिन की मेहमान लगती है
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यायावर को विदा दीजिये। दूसरे चन्द्रहार की बातें फिर कभी!
कैसे कैसे लिंक कैसे कैसे बिम्ब -और विकृत काव्य प्रस्तुतियां !
जवाब देंहटाएंएक साधारण पाठक का कन्फ़ेशन:
जवाब देंहटाएंपोस्ट लम्बी है, हम जैसे आलसी एक बार में कैसे पढेंगे, और आलसी जब व्यस्त हो तब तो करेला और नीम चढा। -विता के बारे में यह दिव्यदृष्टि अभी हाल ही में मिली, "जिसको जितना समझ आये वह, वही अक्षर लगाये"। कवि का काम है लिखना, समझाना तो विशेषज्ञों का "बिज़नेस" है। वैसे स्टाइन के शब्दों में "Rose is a rose is a rose is a rose." रोज़ कौन थी, कहाँ रहती थी यह जानने के लिये शायद कवि का इतिहास खंगालना पड़ॆ। आज के ज़माने में किस के पास इतना वक़्त है। मतलब यह कि "हे कविराज, क्रांति के लिये हमारे भरोसे मत बैठना" हाँ इतना ज़रूर है कि सभ्यता का पालने भी भी खिलखिलायेगा ज़रूर एक दिन (रामजी की कृपा से), ऐसा अपना यक़ीन है। [जन्मस्थल बचेगा तो पालना भी झुलेगा]
स्वस्ति! [यहाँ कोई उलटबांसी नहीं है]!
:) यह कंफेशन किसी और ने चैट पर भी किया। मैंने कहा यह धैर्यधन जन के लिये है, मन भर चर्चायें मन भर जन के लिये तो मन भर हैं।
हटाएंस्टाइन का अता पता बताइये।
आप की g+ टिप्पणी से:
:) बावरा मन देखने चला एक सपना
बावरी सी धुन हो कोई बावरा इक राग हो
बावरे से पैर चाहें बावरे तरानों के
बावरे से बोल पे थिरकना
ऊपर वाला गद्य पढ़ कर ही अघा गया! मुक्त-लड़ियाँ सहेजूँगा अब।
जवाब देंहटाएंआभार।
सच है!
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