रविवार, 27 जुलाई 2014

ऋग्वेद के पथ - 1

[ आज से लगभग ८५०० वर्ष पहले जब सूर्य अश्विनी नक्षत्र में उत्तरायण होते थे, तब का बहुत ही अलंकारिक वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। अश्विनी नक्षत्र को अथर्ववेद अश्वयुज अर्थात अश्वों की जोड़ी कहता है। इसका कारण नक्षत्र के दो तारे हैं। अश्विनकुमार यही दो तारे हैं।
ashvini rohini krittika सूर्य के उत्तरायण होते ही यज्ञों के वार्षिक सत्रों का नया चक्र प्रारम्भ होता था। दिन बड़ा होने लगता, सूर्य की कांति बढ़ने लगती। अलंकारिक वर्णन में उसे ऐसे व्यक्त किया गया जैसे कि अश्विनकुमारों के रथ में सूर्य की दुहिता अर्थात पुत्री उन्हें वरण करने के पश्चात सवार शोभायमान हो रही हो। यहाँ दुहिता शब्द प्रयोग बहुत अर्थगहन है। दूहने से सम्बन्धित शब्द सूर्य की कांतिमय रश्मियों को दूहती उनकी पुत्री सूर्या को अभिव्यक्त करता है। कालांतर में अयनगति सूर्या के सोम अर्थात चन्द्र संग विवाह से अभिव्यक्त होने लगी। वैदिक उषा दक्षिणायन के समय की लम्बी ठिठुरती रातों से मुक्ति का प्रतीक भी है जब कि सूर्य दुहिता चन्द्रमा की २७ पत्नियों अर्थात नक्षत्रों में एक से अभिव्यक्त होती है जिसमें चन्द्रगति से जुड़े नाक्षत्रिक महीनों की ओर संकेत है। आज भी विवाह के वैदिक मंत्र सूर्या सोम के विवाह वाले ही हैं।
  पृथ्वी के घूर्णन अक्ष की लगभग २५७००वर्ष की आवृति वाली चक्रीय गति को ले गणना करें तो शीत अयनांत के अश्विनी नक्षत्र में होने का काल आज से लगभग ८००० से ९००० वर्षों पहले का है।]
 
शीत अयनांत है। यमलोक की मृत्युशीत में निवास करते पितरों ने निज वार्षिक विश्राम हेतु धरा पर अपनी संतति का दायित्त्व देवों को सौंप दिया है। अश्विन नक्षत्र पर आ चुके सूर्य उत्तरायण होंगे। दिनमान बढेंगे। ऊष्मा का संचरण होगा। नवजीवन सृजन को सूर्य की पुत्री सूर्या ने अश्विनकुमारों का वरण किया है। उन अद्भुत मायावियों के संग उसे कीर्ति मिलेगी। सूर्या के यौवन को समृद्धि उपहार मिलेंगे। आनन्द खग उड़ान भरेंगे। 
ऋषि भरद्वाज आह्लादित  हैं। बृहस्पति के वंशज का त्रिष्टुप छन्दी आह्लाद छलक पड़ा है।  (६.६३.५-६) 
rv 6_63_5-6 सरस्वती के तट पर मैत्रावरुणि वसिष्ठ ने दुल्हन सूर्या के संग आरूढ़ अश्विनकुमारों के रथ के परिपथ का प्रेक्षण किया है। उसका परिपथ अंतरिक्ष के अंतबिन्दुओं तक प्रसरित है। सूर्या ने उस समय अश्विनियों के प्रकाश का वरण किया जब रजनी तनु हो धूसर प्रात: का रंग ले रही थी। (७.६९.३-४)
rv 7_69_3-4

रविवार, 20 जुलाई 2014

सावित्री सूत्र : यम सावित्री संवाद से

चित्र आभार : जागरण 
(1)
प्राहु: साप्तपदं मैत्रं ... मित्रतां च पुरस्कृत्य।
[सात पग साथ चलने से मैत्री हो जाती है। मुझे मित्रता का पुरस्कार दीजिये यमदेव!]

(2)
विज्ञानतो धर्ममुदाहरंति ... संतो धर्ममाहु प्रधानं
[विवेक विचार से ही धर्मप्राप्ति होती है। संत धर्म को ही प्रधान बताते हैं]

प्रश्न यह नहीं है कि सावित्री कितनी प्रासंगिक है या कितनी हानिकारक है। प्रश्न यह भी नहीं है कि वह आज के मानकों पर खरी उतरती है या नहीं। प्रश्न यह है कि आप अपनी समस्त प्रगतिशीलता और बौद्धिक प्रखरता के होते हुये भी उसके समान आदर्श गढ़ नहीं सके! यथार्थ अलग हो सकते हैं, होते ही हैं किंतु किसी समाज की गुणवत्ता उसके आदर्शों की भव्यता और दीर्घजीविता से भी आँकी जाती है। आप 'फेल' हुये हैं! आप का सारा जोर ऐसे प्राणहीन जल की प्राप्ति की ओर है जिसका स्रोत कृत्रिम है और जिसमें मछलियों के जीवित रहने की बात तो छोड़ ही दीजिये, वे हो ही नहीं सकतीं। 
(3)
 एकस्य धर्मेण सतां मतेन, सर्वे स्म तं मार्गमनुप्रपन्ना:, मा वै द्वितीयं मा तृतीयं च 
[सतमत है कि एक धर्म के पालन से ही सभी उस विज्ञान मार्ग पर पहुँच जाते हैं जो कि सबका लक्ष्य है,
मुझे दूसरा तीसरा नहीं चाहिये]

यम सावित्री की वाणी की प्रशंसा करते हैं - स्वराक्षरव्यंजनहेतुयुक्तया [स्वर, अक्षर, व्यंजन और युक्तियुक्त - वाणी तो सबकी ऐसी होती है, इसमें अद्भुत क्या है? अद्भुत यह है कि मर्त्यवाणी देवसंवाद करती है। अक्षर माने जिसका क्षरण न हो। जिससे मृत्यु भागे, अमरत्त्व की प्राप्ति हो। अमृतस्य पुत्रा: की अनुभूति का स्तर है वह]


(4)
सतां सकृत्संगतभिप्सितं परं , तत: परं मित्रमिति प्रचक्षते । 
न चाफलं सत्पुरुषेण संगतं, ततं सता: सन्निवसेत् समागमे॥ 
[सज्जनों की संगति परम अभिप्सित होती है, उनसे मित्रता उससे भी बढ़ कर। उनका साथ कभी निष्फल नहीं होता, इसलिये सज्जनों का साथ नहीं छोड़ना चाहिये] 

आप तो सज्जन हैं न यमदेव! आप का साथ कैसे छोड़ दूँ?

(5)
 अद्रोह: सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा 
अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्म: सनातन:॥
 
[मनसा, वाचा, कर्मणा सभी प्राणियों से अद्रोह का भाव, अनुग्रह और दान सज्जनों का सनातन धर्म]

(6)
 आत्मन्यपि विश्वासस्तथा भवति सत्सु य: 
न च प्रसाद: सत्पुरुषेषु मोघो न चाप्यर्थो नश्यति नापि मान:
 
[अपने पर भी उतना विश्वास नहीं होता जितना संतों पर होता है। उनका प्रसाद अमोघ होता है। उनके साथ अर्थ और सम्मान की हानि भी नहीं होती]

संतों की बात करते करते सावित्री उनके लिये आदर्श गढ़ देती है, उनकी कसौटी तय करती है। 
॥ _______॥_______ ॥


महाभारत : वन पर्व 

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

आमीन

"आप फिलिस्तीनियों के हक़ की लड़ाई में उनके साथ हैं या नहीं?"
"फिलिस्तीन? यह कहाँ है?"
"अखबार नहीं पढ़ते क्या? इजराइलियों ने उनका जीना हराम कर रखा है।"
"अखबार पढ़ कर मुझे तो हाथरस, बागपत जैसे स्थानों पर रहने वाले लोगों से सहानुभूति होती है। उन्हें सुकून से जीने का माहौल मिले इसके लिये आप के परवरदिगार से भी दुआ माँगने को तैयार हूँ।"
"हाथरस? वहाँ क्या हुआ?"
"हम दोनों दो नावों में सवार हैं मित्र! बीच में पानी नहीं, अपराध हैं और लहरें अलग अलग। इससे पहले कि संसार स्वर्ग हो, अच्छा हो कि हम अपनी अपनी सहानुभूतियों के साथ दोजखनशीं हो जायँ।  वो मजहब को अफीम मानने वाले क्या कहते हैं अंत में?"

"आमीन!"
"हाँ, वही।"    

रविवार, 6 जुलाई 2014

ऋत, ऋतु और Ritual

Rk_4_23_8-10ऋग्वेद 4.23.8-4.23.10

क्रिया धातु 'ऋ' से ऋत शब्द की उत्पत्ति है। ऋ का अर्थ है उदात्त अर्थात ऊर्ध्व गति। 'त' जुड़ने के साथ ही इसमें स्थैतिक भाव आ जाता है - सुसम्बद्ध क्रमिक गति। प्रकृति की चक्रीय गति ऐसी ही है और इसी के साथ जुड़ कर जीने में उत्थान है। इसी भाव के साथ वेदों में विराट प्राकृतिक योजना को ऋत कहा गया। क्रमिक होने के कारण वर्ष भर में होने वाले जलवायु परिवर्तन वर्ष दर वर्ष स्थैतिक हैं। प्रभाव में समान वर्ष के कालखंडों की सर्वनिष्ठ संज्ञा हुई 'ऋतु'  । उनका कारक विष्णु अर्थात धरा को तीन पगों से मापने वाला वामन 'ऋत का हिरण्यगर्भ' हुआ और प्रजा का पालक पति प्रथम व्यंजन 'क' कहलाया।

आश्चर्य नहीं कि हर चन्द्र महीने रजस्वला होती स्त्री 'ऋतुमती' कहलायी जिसका सम्बन्ध सृजन की नियत व्यवस्था से होने के कारण यह अनुशासन दिया गया - ऋतुदान अर्थात गर्भधारण को तैयार स्त्री द्वारा संयोग की माँग का निरादर 'अधर्म' है। इसी से आगे बढ़ कर गृह्स्थों के लिये धर्म व्यवस्था बनी - केवल ऋतुस्नान के पश्चात संतानोत्पत्ति हेतु युगनद्ध होने वाले दम्पति ब्रह्मचारियों के तुल्य होते हैं।

आयुर्वेद का ऋतु अनुसार आहार विहार हो या ग्रामीण उक्तियाँ - चइते चना, बइसाखे बेल ..., सबमें ऋत अनुकूलन द्वारा जीवन को सुखी और परिवेश को गतिशील बनाये रखने का भाव ही छिपा हुआ है।  ऋत को समान धर्मी अंग्रेजी शब्द Rhythm से समझा जा सकता है - लय। निश्चित योजना और क्रम की ध्वनि जो ग्राह्य भी हो, संगीत का सृजन करती है। लयबद्ध गायन विराट ऋत से अनुकूलन है। देवताओं के आच्छादन 'छन्द' की वार्णिक और मात्रिक सुव्यवस्था भी ऋतपथ है।
अंग्रेजी ritual भी इसी ऋत से आ रहा है। धार्मिक कर्मकांडों में भी एक सुनिश्चित क्रम और लय द्वारा इसी ऋत का अनुसरण किया जाता है। 'रीति रिवाज' यहीं से आते हैं। लैटिन ritus परम्परा से जुड़ता है। परम्परा है क्या - एक निश्चित विधि से बारम्बार किये काम की परिपाटी जो कि जनमानस में पैठ कर घर बना लेती है।

कभी सोचा कि 'कर्मकांड' में 'कर्म' शब्द क्यों है? कर्म जो करणीय है वह ऋत का अनुकरण है। कर्मकांडों के दौरान ऋत व्यवहार को act किया जाता है। Rit-ual और Act-ual का भेद तो समझ में आ गया कि नहीं? :) 

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

मैं, शंकर के समर्थन में

हदीस की मानें तो भारत विजय अरबश्रेष्ठतावादी मजहब के संस्थापक की अंतिम इच्छाओं में से एक थी। यदि यह मजहब नहीं होता तो भारत के सांस्कृतिक इतिहास के अद्यतन प्रस्थान बिन्दु आदिशंकर (आचार्य) होते जिनके अंतिम समय के बारे में पाँचवीं सदी ईसापूर्व से नवीं सदी ईस्वी तक की मान्यता है।
सन् 711 में सिन्ध पर इस्लामी आक्रमण हुआ। उस समय वहाँ ब्राह्मण वंश का शासन था। उसके तत्काल पूर्व के राय वंश ने शैव आराधना के कीर्तिमान स्थापित किये थे। राय वंश ने सिन्ध के पार जा कर खलीफा के राज्य के कई भाग अपने नियंत्रण में कर लिये थे। सिन्धु नदी खिलाफत और बुत(बुद्ध)परस्त राज्यों के बीच की 'प्राकृतिक सीमा' मानी जाती थी जिसका जब तब दोनों ओर से अतिक्रमण किया जाता रहा। रायवंश की अंतिम रानी मंत्री पर अनुरक्त थी और राजा की मृत्यु के पश्चात उन दोनों ने गुप्त विवाह कर लिया जिसका रहस्य तब तक नहीं खोला गया जब तक कि मंत्री ने रानी की सहायता से सभी निकटवर्ती अधिकारियों का विनाश कर स्वयं को राजा नहीं घोषित कर दिया।
कासिम के सिन्ध आक्रमण के समय इस नये वंश का तत्कालीन राजा दाहिर लोकप्रिय नहीं था। कारण - एक भविष्यवाणी को असत्य सिद्ध करने के लिये उसने अपनी बहन से ही विवाह कर लिया था और विरोध में उठे अपने भाई की मृत्यु का कारण भी बना था। निम्नवर्गीय प्रजा और लड़ाके जाट कबाइली संस्कृति से अनुप्राणित बौद्ध धर्म के अनुयायी थे जब कि उच्च कुलों और जनसामान्य में सनातन धर्म के साथ साथ दार्शनिकता से भरपूर विद्रोही बौद्ध धर्म का प्रभाव भी था। सभी धर्मों के प्रति राज्य के सहिष्णु व्यवहार के होते हुये भी राजनीतिक वर्चस्व के लिये शीतयुद्ध एक वास्तविकता थी।  इस जटिल समीकरण में अरबों के आक्रमण के समय जाट उनके साथ हो गये। आगे का इतिहास सबको पता है।
अपने प्यारे संस्थापक की अंतिम इच्छा की पूर्ति के लिये तब से ले कर आज तक अरबी हर तरीका अपनाते रहे हैं जिनमें तक़िया भी एक है जिसके अनुसार मजहब विस्तार के लिये छल, प्रपंच, धोखा, पाखंड, आवरण या किसी भी तरह का किया गया अपराध न केवल परम कर्तव्य है परन सवाब(पुण्य) दायी भी। पूरे भारत में पसरे अगणित औलिया, फौलिया, मजार, कब्र आदि तक़िया हेतु ही स्थापित किये गये। ध्यान देने योग्य है कि अरब में ऐसे स्थान हैं ही नहीं, हो भी नहीं सकते क्यों कि वास्तव में वे कुफ्र हैं।
धर्मप्राण किंतु मूर्ख हिन्दू बहुसंख्यकों की किसी को भी पूज देने की प्रवृत्ति का सबसे सफल दोहन मध्यकाल में पुष्कर के समान्तर केन्द्र स्थापित करने में अजमेर में हुआ और ब्रिटिश काल में सिर्डी में। अपने सम्मोहक संगीत और प्रतीक शैली के साथ प्रसरित हुये सूफियों के अवदान अल्प नहीं हैं किंतु यह भयानक सत्य है कि तक़िया के रूप में सूफी मत ने भारतीय प्रतिरोध को बिन तलवार न केवल नष्ट कर दिया अपितु मानसिक दोहन कर युगों युगों तक के लिये उसकी नियति भी लिख दी।शंकर न हुये होते तो अरबी संस्कृति सिन्धु के इस पार गांगेय क्षेत्रों से ले कर ब्रह्मपुत्र तक अपना परचम फहरा रही होती। शंकर पीठों पर भले अयोग्य बैठे हों किंतु आज किसी ने अनजाने ही यदि तक़िया के भयानक षड्यंत्र के विरुद्ध स्वर उठाया है तो मैं उसके समर्थन में हूँ।