(1) गङ्गावतरण:
सगर=स+गर, जो गर यानि गरल (विष) के साथ उत्पन्न हुआ हो।
गर्भ में ही थे
तो विमाता ने माता को (गर्भपात कराने हेतु) विष दे दिया। घबरायी माँ गयी भृगुकुल -
क्या होगा मेरे गर्भ का भविष्य?
"जाओ रानी, तुम्हारे पुत्र को कुछ नहीं होगा। वह प्रतापी विष के
साथ ही जन्म लेगा,
सगर कहलायेगा।"
....
सगर की दो रानियाँ
- विदर्भ की राजकन्या केशिनी और दूसरी गरुड़ की बहन सुमति। भृगु पुन: कथा में आते हैं
- एक को साठ हजार पुत्र होंगे और दूसरी को
वंश चलाने वाला बस एक।
केशिनी को एक
ही पुत्र हुआ - असमञ्ज। असमञ्ज दुष्ट अत्याचारी निकल गया। प्रजा के बालकों को पकड़ सरयू
में फेंक देता, डूबते हुये आर्तनाद करते तो अट्टहास करता
मोद मनाता। सगर ने उसे देशनिकाला दे दिया लेकिन वह योग्य युवराज अंशुमान के रूप में
पुत्र छोड़ गया। उसके पश्चात क्षरित होते यथास्थितिवादियों और विस्तार लेती नवोन्मेषी
इक्ष्वाकुओं के बीच संघर्ष प्रारम्भ हुआ।
...
विन्ध्य और हिमवान के बीच के क्षेत्र में खनन का
प्रारम्भ होता है:
विन्ध्यपर्वतमासाद्य
निरीक्षते परस्परम्।
तयोर्मध्ये समभवद्
यज्ञ: स पुरुषोत्तम॥
आख्यान कहता है - यज्ञीय अश्व को इन्द्र चुरा ले
गया था, उसकी खोज में ऐसा हुआ। सगर के साठ हजार
पुत्र खंती, हल आदि ले 'मेदिनी'
खोदने लगते हैं - खनत
मेदिनीं। मेदा शरीर की एक अंतर्भाग होती है। कहते हैं कि पृथ्वी कभी मेदा से ढकी हुई
थी।
खनन में क्या
होता है? पूरा जम्बूद्वीप ही खोदा जा रहा है! -
जम्बूद्वीपं खनंतो नृपशार्दूल सर्वत: परिचक्रमु।
देवता, नाग, यक्ष, गन्धर्व,
पिशाच आदि सब मनुष्यों
के इस वृहद अभियान से त्रस्त हो उठते हैं। कितने ही उनके हाथों मारे जाते हैं।
नागानां वध्यमानानामसुराणां
च राक्षसानां दुराधर्षां सत्त्वानां निनदो... देवदानवरक्षांसि पिशाचोरगपन्नगा:!
वाल्मीकि लिखते
हैं - वसुधा। वसुधा तो वासुदेव की महिषी है जिसकी रक्षा वह कपिल रूप धारण कर करते हैं।
उनके कोप से ये दुस्साहसी भस्म हो जायेंगे,
धैर्य धरो - यस्येयं
वसुधा कृत्स्ना वासुदेवस्य धीमत:। महिषी माधवस्यैषा स एव भगवान् प्रभु:॥ ...
... कभी उपजाऊ
रही मेदिनी अब अल्प उपजाऊ हुई पड़ी थी। सगर पुत्रों का अभियान उसके दोहन का पहला संगठित
अभियान था। कपिल बहुत पुराने हैं और धरा को एक बार बन्ध्यत्त्व से मुक्त करा उपजाऊ
बनाने के लिये जाने जाते हैं। राजा पृथु की सहायता से यह काम तब सम्पन्न हुआ था, धरा पृथ्वी कहलायी थी।
कपिल संरक्षित
पृथ्वी के संकट से इक्ष्वाकुवंशी टकराते हैं और भस्म होते हैं। स्पष्ट है कि कपिल ने
पहले जो कुछ भी किया था,
वह अब पर्याप्त नहीं
रह गया था। संकट सामने था। साठ हजार सगरपुत्रों की गाथा जाने कितनों के पानी के उद्योग
में मर खप जाने की गाथा है।
... अंशुमान चाचाओं
को ढूँढ़ते कपिल के आश्रम पहुँचते हैं। उन्हें भस्म पा शोकग्रस्त कुमार तर्पण हेतु जल
ढूँढ़ते हैं और तर्पण तक के लिये पानी नहीं!
क्या है यह? भूजल के चुकते जाने की गाथा नहीं है क्या? कितना भी खोदो, पानी
रसातल में जा चुका है,
नहीं मिलने वाला!
मृतकों के मामा गरुड़ जो कि ऊँचाई से धरा पर दृष्टि
रखते हैं, कुमार को समझाने आते हैं। कहते हैं - वधोऽयं लोकसम्मत:। इनका वध तो लोक कल्याण के लिये हुआ है।
कपिल की आग से ये दग्ध हुये हैं,
इनके तर्पण के लिये लौकिक
जल! कत्तई नहीं - सलिलं नार्हसि प्राज्ञ दातुमेषां हि लौकिकम्!
... और तब गरुड़
उस स्वप्न को अंशुमान की आँखों में उकेरते हैं, ऐसा
स्वप्न जिसने आगामी पीढ़ियों की भी नींद उड़ा दी।
अंशुमान खप गये, उनके पुत्र दिलीप भी और बारी आई नि:संतान भगीरथ की।
उन्हों ने भी पुरखों की परम्परा आगे बढ़ायी - इस स्वप्न को तो पूरा करना ही है।
क्या था वह स्वप्न, कैसे उद्योग की प्रस्तावना था?
गङ्गा हिमवतो
ज्येष्ठा दुहिता पुरुषर्षभ।
तस्यां कुरु महाबाहो
पितृणां सलिलक्रियाम्॥
.. कुमार अंशुमान!
गंगा तो इस लोक की थी,
हिमवान की बड़ी पुत्री।
लोक कल्याण का बहाना ले देवता स्वर्ग ले गये। उतार लाओ उसे पृथ्वी पर, उसकी अब यहाँ आवश्यकता है। उसी के जल से तुम्हारे पितरों
का तर्पण होगा।
...
पीढ़ियों तक चले उद्योग के आगे ब्रह्मा पिघले, शिव
की जटायें आश्रय बनीं,
गंगा का भी अहंकार चूर्ण
हुआ, जटायें खुल गयीं, जह्नु का आश्रम अवरोध समाप्त हुआ। धरा को, पृथ्वी को पुन: उसका दाय मिला। पुरखे तृप्त हुये और
आने वाली पीढ़ियों को युगों युगों तक के लिये जलसंकट से मुक्ति मिली। धरा को पुन: बंध्यत्व
से मुक्ति मिली और कठिन कर्म के साधकों के लिये एक उपमा ने जन्म लिया - भगीरथ।
'सप्तसैन्धव' एक ऐसी अवधारणा रही जिसे किसी
क्षेत्र विशेष में सीमित कर देना उपयुक्त नहीं। अग्नि केन्द्रित पश्चिमी और ओषधि केन्द्रित
पूर्वी वैदिक धाराओं के बारे में बताता रहा हूं, यह भी कि ऋग्वेद
का कवि जह्नुक्षेत्र से परिचित है, कार्य व्यापार भी बताता है
और संकेत भी देता है कि वह प्राचीन समांतर क्षेत्र था।
सा तस्मिन्
पतिता पुण्या पुण्ये रुद्रस्य मूर्धनि
हिमवत्प्रतिमे
राम जटामंडल गह्वरे
भगीरथ के तप
से धरा का ताप मिटाने को गंगा शूलिन की जटाओं में अवतरित हुईं। महर्षि वाल्मीकि विरोधी
शब्दों को साथ रख कर अद्भुत गरिमा से संयुत कर देते हैं - नीचे आ कर पतिता हो गईं गंगा
किन्तु पुण्या हैं 'पतिता पुण्या'। नीचे
आईं तो किन्तु इतना पुण्य ले कर आईं कि रुद्र की जटाओं में स्थान मिला! कैसा पुण्य?
लोक कल्याण हेतु पतिता होने का पुण्य।
बिन्दुसर में
रुद्र ने गंगा जी को सात धाराओं में मुक्त किया - यह सप्तसैंधव का पूर्वी संस्करण है। तीन मंगलमयी धाराएँ प्राची की ओर बह चलीं - ह्लादिनी, पावनी और नलिनी। तीन धाराएँ प्रतीचि (पश्चिम) की ओर - सुचक्षु,
सीता और सिन्धु महानदी। सातवीं धारा भगीरथ के पीछे पीछे चली, उनके पुरखों को तारने के लिए।
ह्लादिनी
पावनी चैव नलिनी च तथैव च।
तिस्र: प्राचीं
दिशं जग्मुर्गङ्गा: शिवजला: शुभा:॥
सुचक्षुश्चैव
सीता च सिन्धुश्चैव महानदी।
तिस्रश्चैता
दिशं जग्मु: प्रतीचीं तु दिशं शुभा:॥
सप्तमी चान्वगात्
तासां भगीरथरथं तदा।
भगीरथोsपि राजर्षिदिव्यं स्यन्दनमास्थित:॥
तिस्र से बरबस
ही ध्यान ऋग्वेद की तिस्रो देवियों सरस्वती, इळा और भारती पर चला जाता है। साथ ही अथर्वण संहिता के त्रिसप्ता तो ध्यान
में आते ही हैं।
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आगे गंगा प्रवाह
का सरल सहज वर्णन मुग्ध कर देता है। वाल्मीकी जी इस प्रकरण का महात्म्य बताना नहीं
भूलते:
धन्यं यशस्यमायुष्यं
पुत्र्यं स्वर्ग्यमथापि च
... प्रीयंते
पितरस्तस्य प्रीयंते दैवतानि च
इदमाख्यानमायुष्यं
गंङ्गावतरणं शुभं
य: शृणोति
च काकुत्स्थ सर्वान् कामानवाप्नुयात्
सर्वे पापा:
प्रणश्यंति आयु: कीर्तिश्च वर्धते
इस आख्यान
के सुनने से यश, आयु, पुत्र,
स्वर्गसुख और कीर्ति में वृद्धि होती है। सभी कामनायें पूरी होती हैं, पाप नष्ट हो जाते हैं।
'सुनना' बहुत कम समझा गया शब्द है। एक कान से सुन कर
दूसरे से निकाल देना सुनना नहीं है, hearing और listening में अंतर है कि नहीं? सुनेंगे
तो कर्मप्रवृत्त होंगे, यदि नहीं होते तो बस सुनी सुनाई बातें hearing
भर है! वेदों को श्रुति
कहा गया है। श्रुति का 'योजन' यजु: कर्मकांड
है, गायन साम है और अंग लगाना आंगिरस। बस सुन कर नहीं रह गए,
कर्मरत हुये, जीवन में उतार लिए, ऐसे कि तन्मय हो गा उठे अंग अंग रससिक्त हो गया। वेदसम्मत जीवनाचार तो तब हुआ
न!
ऐसे आचरण से
ही कामनायें पूरी होती हैं। धूमेनाग्निरिवावृताः - कर्म तो सदोष होता ही है लेकिन शुभ
के लिये है तो कृत पाप भी नष्ट होते हैं, आयु और कीर्ति बढ़ते हैं। पीढ़ियों तक चला गंगा अवतरण अभियान साक्षी है।
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भगीरथ का तप और गङ्गावतरण |
(2) कार्तिकेय का जन्म:
सम्भव है, कार्तिकेय
का जन्म भूले बिसरे युग में आकाश'गंगा' से हिमालय और कैलास क्षेत्र में हुये किसी उल्कापात और उसके कारण
हुये विविध वृहद परिवर्तनों का क्लिष्ट रूपक हो।
रुद्र (आकाश का लुब्धक
तारा?) का तेज स्खलित होता है , अग्नि देवता (कृत्तिका नक्षत्र के) 'आकाशगंगा' में
उसे स्थापित करते हैं:
इयमाकाशगङ्गा च यस्यां पुत्रम् हुताशन:।
जनयिष्यति देवानां सेनापतिमरिन्दमम्॥
गंगा उसे धारण करने में अपने को असमर्थ पाती हैं - अशक्ता
धारणे देव तेजस्तव। इसके दाह से जली जा रही हूँ; ...
अग्नि उसे हिमालय के
पार्श्वभाग में स्थापित करने को कहते हैं। कैसा है वह तेज
(उल्कापिंड?) कंचन के समान चमकता हुआ, उसके
प्रभाव से बहुतों के रंग बदल कर रजत हो जाते हैं, दूरवर्ती
क्षेत्र की वस्तुयें ताँबा और लोहा हो जाती हैं - ताम्रं कार्ष्णायसं चैव
तैक्ष्ण्यादेवाभिजायत।
उस तेज की जो मैल है उससे
सीसा और रांगा और अन्य कई धातुयें होती हैं:
मलं तस्याभवत् तत्र त्रपु
सीसकमेव च।
तदेतद्धरणीं प्राप्य
नानाधातुरवर्धत॥
पर्वत श्वेत सुवर्णमय
जगमगाने लगता है। तृण, वृक्ष, लता और गुल्म सब काञ्चन।
और तब देवता उसे नहलाने
और दूध पिलाने को कृत्तिकाओं को नियुक्त करते हैं। उन छ:
माताओं का दूध पी वह शिशु बड़ा होता है, कार्तिकेय कहलाता है। उसके नेतृत्त्व में देवता दैत्यों
पर विजय प्राप्त करते हैं। दैत्य कौन? दिति के पुत्र।
धातुयें, अयस्क, देवताओं
द्वारा शोधन कर उन्नत शस्त्रास्त्रों का निर्माण और
विरोधियों पर विजय। कब हुई यह घटना? तब तो नहीं जब महाविषुव कृत्तिका नक्षत्र
पर पहुँचा??
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संश्लिष्ट जटिल बिम्ब
पुरातन सभ्यताओं के अपने ढंग रहे हैं - पीढ़ी दर पीढ़ी घटित
की सीख को पहुँचाने को। मिस्र की कहानियाँ सुनाऊँ, यवनों की की??
भद्र!
उन गाथाओं की शक्ति
पहचानो, जानो कि कितनी दीर्घजीवी हैं। आधुनिक समय में तो
तुम्हें यह तक नहीं पता कि नेता जी कब तक और कहाँ कहाँ रहे?
पुरनिये जानते थे कि 'यथार्थ' दीर्घजीवी
नहीं होता। होना भी नहीं चाहिये, उसकी सीख होनी चाहिये।