सुंदरकाण्ड -5 से आगे:
लङ्का। वैश्विक आतंक
और अत्याचार की नाभि लङ्का। महाकपि के सामने वह लङ्का थी जो विश्वकर्मा द्वारा
निर्मित और राक्षसेन्द्र द्वारा पालित थी - पालितां राक्षसेन्द्रेण
निर्मितां विश्वकर्मणा। विकृत विद्या, आहार और विहार से उन्मत्त महाभोगी
राक्षस समृद्ध लङ्का सामने थी जिसका पूरा तंत्र ही शोषण, अपहरण, बलात्कार, हत्या और
रुधिर से समन्वित था।
सागर उसकी सुरक्षा में
था। त्रिकूट लम्ब पर्वत के शिखर पर स्थित अट्टालिकाओं में रहने वाला दुरात्मा व्यभिचारी रावण चहुँओर फैले स्कन्धावारों के माध्यम से अपनी आतंकी श्रेष्ठता का
उद्घोष करता था जिसे सुदूर कैलास तक सुना जा सकता था।
उसके अपने वेदविद ब्रह्मराक्षस थे, अपने अभिचारी यजन सत्र थे और सुव्यवस्थित सुनियोजित प्रचारतंत्र भी:
षडङ्गवेदविदुषां क्रतुप्रवरयाजिनाम्
शुश्राव ब्रह्मघोषांश्च विरात्रे ब्रह्मरक्षसा
देव, विद्याधर, यक्ष, नाग,
गन्धर्व आदि सब उससे काँपते थे, ग्रामीण और नागर मनुष्यों या वनवासी वानर भल्लूकों
को तो वह गिनता ही नहीं था। जाने कितनी स्त्रियाँ अपहृत बलत्कृत कर लङ्का के वासनापङ्क में
लायी गयीं और भुला दी गयीं। निर्बल जग ने लङ्का की रीति कह स्वीकार सा कर लिया,
सबल की सामर्थ्य क्षम्य हो गयी।
ऐसे में एक और स्त्री, वह भी एक निर्वासित राजकुमार
की स्वयं रावण द्वारा अपहृत मानवी पत्नी को ढूँढ़ने वह आये थे और सामने विराट लङ्का
के उत्तुङ्ग भवनशिखर थे - अट्टालकशताकीर्णां
...गिरिमूर्ध्नि स्थितां लङ्कां।
उत्तरी द्वार के निकट
पहुँच हनुमान चिंतित हो उठे - द्वारमुत्तरमासाद्य चिन्तयामास
वानरः। इस राक्षस नगरी में भीतर कोई सहायता नहीं मिलनी, वह तो आगे की बात
है, प्रविष्ट कैसे हों? वह तो भयङ्कर शस्त्रास्त्र धारी घोर राक्षसों द्वारा
रक्षित थी, जैसे विषधर सर्प अपनी गुहाओं की करते हैं - दंष्ट्रिभिर्बहुभिः
शूरैः शूलपट्टिशपाणिभिः रक्षितां राक्षसैर्घोरैर्गुहामाशीविषैरपि।
वह उस स्त्री की भाँति
थी जिसकी जघनस्थली चहारदीवारी हो, विशाल जलराशि और गहन वनप्रांतर जिसके वस्त्र हों,
शतघ्नी और शूल सरीखे अस्त्र जिसके केश हों और अट्टालिकायें कर्णफूल:
वप्रप्राकारजघनां विपुलाम्बुनवाम्बराम्
शतघ्नीशूलकेशान्तामट्टालकवतंसकाम्
लम्पटों द्वारा प्रताड़ित दीन स्त्रियों को बन्दी
बना कर रखने वाली लङ्का का रम्य रूप भी अभेद्य था!
उसे तो युद्ध द्वारा
भी जीता नहीं जा सकता था – नहि युद्धेन वै लङ्का
शक्या। विषमां लङ्का दुर्गां, पहुँच कर भी राघव क्या कर लेंगे – किं करिष्यति राघव:?
राक्षसों पर साम, दान,
भेद और युद्ध, इनमें से कोई भी नीति सफल नहीं होनी:
अवकाशो न सान्त्वस्य राक्षसेष्वभिगम्यते
न दानस्य न भेदस्य नैव युद्धस्य दृश्यते
न दानस्य न भेदस्य नैव युद्धस्य दृश्यते
मेरे अतिरिक्त केवल
तीन वानरों, अङ्गद, नील और सुग्रीव की गति ही यहाँ तक हो सकती है।
घोर चिंता में महाकपि
की विचारसरि बह चली, अच्छा, पहले पता तो लगा लूँ कि वैदेही जीवित हैं भी या नहीं –
वैदेहीं यदि जीवति वा न वा?
नगरी में आँख बचा कर, कोई
ऐसा रूप धारण कर जो दिखने पर भी अनदेखा रह जाये, लक्ष्यालक्ष्य
रूप धारण कर ही प्रवेश करना चाहिये।
उन्हें
दूत के कर्तव्य की सुध भी हो आई - मेरे कारण कार्य बिगड़ना नहीं चाहिये। विकल दूत द्वारा
देशकाल के प्रतिकूल आचरण करने के कारण कई बार स्वामी के बने बनाये कार्य भी बिगड़
जाते हैं। अपने को पण्डित मानने वाले दूत भी कई बार सब चौपट कर देते हैं – घातयंतीह कार्याणि दूता: पण्डितमानिना:। कैसे करूँ
कि मुझे विकलता न हो, समुद्र लङ्घन का उद्योग व्यर्थ न जाने पाये और कार्य भी न
बिगड़े – न विनश्येत्कथं कार्यं वैक्लव्यं न कथं भवेत्,
लङ्घनं च समुद्रस्य कथं नु न वृथा भवेत्? यहाँ छिपे बैठे रहने से भी कुछ नहीं
होना, ऐसे ही रहा तो मारा जाऊँगा और स्वामी का कार्य भी विनाश को प्राप्त हो
जायेगा।
मैं
रात में अपने इसी रूप में ह्रस्व हो लङ्का में प्रवेश करूँगा - तदहं स्वेन रूपेण रजन्यां ह्रस्वतां गतः।
प्रदोषकाल
में हनुमान जी ने परकोटा फाँदा और नगरी में प्रविष्ट हो गये। भीतर जो लम्बशिखरे लम्बे
लंबतोयदसन्निभे ...खमिवोत्पतितां लङ्का का रूप दिखा वह मन को हराने वाला अचिंत्य
था, अद्भुत था; साथ ही उन लघुदेह को विदेह कन्या के दर्शन की उत्सुकता की पूर्ति की
आस बँधी थी, इसलिये प्रसन्नता भी थी - विषण्णता और हर्ष का विचित्र समन्वय घटित
हुआ था:
अचिन्त्यामद्भुताकारां दृष्ट्वा लङ्कां महाकपिः
आसीद्विषण्णो हृष्टश्च वैदेह्या दर्शनोत्सुकः
मन
को थोड़ी ठाँव मिली तो मेधावी समीक्षा पुन: प्रवाहित हुई। इस बार कुछ आशा बलवती हुयी
थी इसलिये सतर्क विवेचन से कपि ने अनुमान लगाया। मेरे अतिरिक्त वानरों में केवल कुमुद,
मैन्द, द्विविद, सुषेण, अङ्गद, सुग्रीव, कुशपर्वा और जाम्बवान ही इस पुरी के भीतर प्रविष्ट हो
सकते हैं। तत्क्षण राघव और लक्ष्मण के विक्रम पराक्रम ध्यान में आये और कपि
प्रसन्नचित्त हो गये:
समीक्ष्य तु महाबाहो राघवस्य पराक्रमम्
लक्ष्मणस्य च विक्रान्तमभवत्प्रीतिमान्कपिः
लङ्का
के रम्य रूप पर पुन: ध्यान गया – वह नगरी वस्त्राभूषणों से विभूषित सुन्दरी युवती
के समान थी। उसके वस्त्र रत्नमय थे। गोष्ठागार और भवन उसके आभूषण थे। परकोटों पर लगे यंत्रों के गृह ही उसके स्तन थे और
वह सब प्रकार की समृद्धियों से सम्पन्न थी:
तां रत्नवसनोपेतां कोष्ठागारावतंसकाम्
यन्त्रागारस्तनीमृद्धां प्रमदामिव भूषिताम्
प्रशंसा
करते कपि आगे बढ़े ही थे कि रंग में भंग पड़ गया। लङ्का का विकृत स्त्री रूप सामने
था। गर्जना करती हुई वह सामने आ गयी – रे वानर! तू कौन है, यहाँ किस उद्देश्य से
आया है? तू इस रावण सैन्य रक्षित पुरी में प्रवेश नहीं कर सकता।
वीर
हनुमान अपनी धुन में पूछ पड़े – हे दारुण स्त्री! जो पूछ रही है, वह तो बता दूँगा
लेकिन पहले तू ये बता कि है कौन? तेरे नयन बड़े विरूप हैं। तू किस कारण मुझे इस तरह
भर्त्सना पूर्वक डाँट रही है? किमर्थं चापि मां
क्रोधान्निर्भतर्सयसि दारुणे!
उत्तर
मिला – मैं महात्मा रावण की आज्ञा की प्रतीक्षा करने वाली सेविका हूँ और मैं इस नगरी
की रक्षा करती हूँ। आज तू मेरे हाथों मारा जायेगा। तू मुझे ही लङ्का नगरी समझ, अतिक्रमण
करोगे तो कठोर वाणी से सत्कार होगा ही।
मेधावी
और सत्त्ववान वानरशिरोमणि ने कूटनिवेदन किया – मुझे इस अद्भुत नगरी को देखने का बड़ा
कौतुहल है। इसके वन, उपवन, कानन और मुख्य भवन आदि को देखने के लिये ही मेरा आगमन
हुआ है।
इसे सुन कर लङ्का ने पुन: परुष वाणी में उनका
तिरस्कार किया – दुर्बुद्धि वानराधम! मुझे परास्त किये बिना तू इस पुरी को नहीं
देख सकता। मैं राक्षसेश्वर रावण की पालिता हूँ (कोई ऐरी गैरी नहीं!)।
हनुमान
जी ने बिना धैर्य खोये और विनम्र हो कर निवेदन किया – भद्रे! इस पुरी को देख कर
मैं जैसे आया हूँ, वैसे ही लौट जाऊँगा (मुझे जाने दें)। दृष्ट्वा
पुरीमिमां भद्रे पुनर्यास्ते यथागतम्।
इस
पर अत्यंत क्रुद्ध हो राक्षसी ने भयङ्कर महानाद कर वानरश्रेष्ठ को बड़े जोर से एक
तमाचा जड़ दिया। इस प्रकार पीटे जाने पर वीर मारुति ने उससे भी अधिक तीव्र महानाद
किया।
तत: कृत्वा महानादं सा वै लङ्का भयंकरम्
तलेन वानरश्रेष्ठं ताडयामास वेगिता
तत: स हरिशार्दूलो लङ्कया ताडितो भृशम्
ननाद सुमहानादं वीर्यवान् मारुतात्मज:
उन्हों
ने बायें हाथ का एक मुक्का उसे जड़ दिया। उस प्रहार से व्याकुल हुई वह धरती पर गिर पड़ी।
तमाचे के व्याज में मुक्का खाने से उसकी अहंकार विचलित बुद्धि स्थिर हो गयी। सतोगुणी
वीर वज्राङ्ग द्वारा राक्षसी का पराभव हो गया।
उसने गद्गद वाणी में निवेदन किया - महाबाहो! प्रसन्न होइये, मुझे त्राण दीजिये। हे
सौम्य! सत्त्वगुणशाली वीर पुरुष शास्त्र की मर्यादा में स्थिर रहते हैं (स्त्री अवध्य
होती है, ध्यान रखिये)।
प्रसीद सुमहाबाहो त्रायस्व हरिसत्तम
समये सौम्य तिष्ठंति सत्त्ववंतो महाबला:
मुझे
आप ने अपने विक्रम से परास्त कर दिया। जाइये जिस हेतु आये हैं वह सब पूरा कीजिये –
विधत्स्व सर्वकार्याणि यानि यानीह वाञ्छसि!
_________________
(रामायण का यह प्रसंग पर्याप्त नाट्य सम्भावनायें
लिये हुये है। विचित्रता तो है ही, हास्य और रससृजन के भी अवसर हैं। एक समय ऐसा
आया होगा जब आख्यान गायन मंचित भी होने लगा होगा। हरिवंश में यादवों द्वारा रामायण
प्रसंग के मंचन के अंत:साक्ष्य हैं।)
'स्त्री अवध्य होती है' अर्थात इस श्रेणी वालियों को पहले से ही बस एक पड़ते ही पूरा ज्ञान उतर पड़ा करता है ��
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हटाएंबहुत ही उम्दा .... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)
जवाब देंहटाएंभाव विभोर कर देते हैं।
जवाब देंहटाएंअद्दभुत... बढ़िया प्रस्तुति है । अंतिम पैराग्राफ तक आते आते मानस की चौपाई याद आ गई- "मुठिका मार महाकपि हनी, रुधिर बमत धरनी ढनमनी"
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