किसी प्रेमी ने मुझे विश्व सिनेमा से सम्बंधित एक पृष्ठ से जोड़ दिया है and I am enjoying the ride :) लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं। उनकी स्मृति, विश्लेषण, अंतर्दृष्टि एवं समझ देख कर चकित हूँ। एक बात स्पष्ट होती जा रही है कि संसार में हर व्यक्ति में प्रतिभा होती है जो अनुकूलता की प्रतीक्षा में रहती है। अनुकूल वातावरण, परिस्थितियाँ एवं विषय मिल जायें तो चमत्कार घटित होते हैं। अपने भीतर की ‘अनुकूलता’ को जानने समझने की आवश्यकता है तथा समूह प्रयास द्वारा अनुकूल पारिस्थितिकी के निर्माण की भी, सर्जनात्मकता अपने विविध रूपों से साक्षात करवाती ही है!
मैं जिहादी उर्दू सिनेमा नहीं देखता, हिंदी सिनेमा जैसा संसार में कुछ है ही नहीं तथा आङ्ग्ल से इतर अन्य भाषायें आती नहीं। ले दे कर अंग्रेजी सिनेमा बचता है जिसे देखता हूँ – टी वी पर, फुल्ल एच डी। जिस किसी फिल्म पर मैं दस मिनट रुका रह गया, वह बुरी हो ही नहीं सकती! :) यही मेरी सीमा है, शक्ति भी है।
मेरी स्मृति में सिनेमा के नाम, निर्देशक, पात्र इत्यादि नहीं टिकते (ए फ्यू गुड मेन जैसी नाम की फिल्म में डेमी मूर अपवाद है, दो तीन विस्मृत नामों वाली फिल्मों का अभिनेता काला वाशिंगटन भी तथा ईश्वर की भूमिका निभाने वाला एक नामविस्मृत अश्वेत भी)। दृश्य भी नहीं टिकते जबकि तत्काल देखी फिल्म के सबसे अच्छे दृश्य के बारे में आप मुझसे पूछें तो मैं सम्भवत: ऐसा लिख सकता हूँ कि वैसा कोई अन्य न लिख पाये किंतु वह मात्र दस पंद्रह मिनट की अवधि तक ही सम्भव है, उसके पश्चात दुर्बी दुलाम दुलच्छणं, भैंस चरे मसल्लमम! :)
मैं दृश्यों में डूब कर देखता हूँ, उस समय मैं रहता ही नहीं। कितनी ही बार श्रीमती जी के कुछ पूछने पर ध्यान भङ्ग के कारण बोल ठोल भी हो जाती है। सम्भवत: विस्मृति का कारण यही है, गहरे उतर कर अनुभव करना तथा बाहर आते ही अनजानेपन की यातना से मुक्त हो जाना। माध्यम का प्रभाव है। ऐसा श्रव्य माध्यम के साथ नहीं होता, निस्पंदता की सीमा तक जा कर सुनना आँखों के स्वतंत्र रहने के कारण विराम या भङ्ग की स्थिति में विस्मृत नहीं होता। उस प्रत्येक स्वर को जहाँ गायक ने अपनी जीभ को करवट दी, गले एवं मूर्धा के मध्य की वीथि को मरुत से भर दिया या गाते गाते सहसा अलस भङ्गिमा में अक्षर मोड़ गया; मैं मन में बिठा पाता हूँ, सायास नहीं, सहज ही हो जाता है।
पढ़ते समय मैं किसी अन्य लोक में होता हूँ, उसे बता नहीं सकता। अक्षर मेरे लिये एक नई विमा रच रहे होते हैं। स्पष्ट है कि ऐसा तभी हो पाता है जब पुस्तक मुझे दस पंद्रह मिनट तक रोक ले अन्यथा संदर्भ हेतु सैकड़ों पड़ी हैं जिन्हें हाथ तक नहीं लगाता। पुस्तक न लिखना या लिख पाना या प्रकाशन में आलस करना, मेरा जो यह स्वभाव है उसके पीछे सम्भवत: गिनाये गये कारणों में से ही कुछ हो।
यदि आप पूछेंगे कि ठीक है, अपने पढ़े का कोई ऐसा बता दो जो मन पर अङ्कित हो गया हो तो मैं गोर्की के उपन्यास माँ के पहले पृष्ठ की बात करूँगा:
Every day the factory whistle bellowed forth its shrill, roaring, trembling noises into the smoke-begrimed and greasy atmosphere of the workingmen's suburb; and obedient to the summons of the power of steam, people poured out of little gray houses into the street. With somber faces they hastened forward like frightened roaches, their muscles stiff from insufficient sleep. In the chill morning twilight they walked through the narrow, unpaved street to the tall stone cage that waited for them with cold assurance, illumining their muddy road with scores of greasy, yellow, square eyes. The mud plashed under their feet as if in mocking commiseration. Hoarse exclamations of sleepy voices were heard; irritated, peevish, abusive language rent the air with malice; and, to welcome the people, deafening sounds floated about--the heavy whir of machinery, the dissatisfied snort of steam. Stern and somber, the black chimneys stretched their huge, thick sticks high above the village….
… The day was swallowed up by the factory; the machine sucked out of men's muscles as much vigor as it needed. The day was blotted out from life, not a trace of it left. Man made another imperceptible step toward his grave; but he saw close before him the delights of rest, the joys of the odorous tavern, and he was satisfied.
...
Once in a long while a stranger would come to the village. At first he attracted attention merely because he was a stranger. Then he aroused a light, superficial interest by the stories of the places where he had worked. Afterwards the novelty wore off, the people got used to him, and he remained unnoticed. From his stories it was clear that the life of the workingmen was the same everywhere. And if so, then what was there to talk about?
.... Noticing in the stranger something unusual, the villagers cherished it long against him and treated the man who was not like them with unaccountable apprehension. It was as if they feared he would throw something into their life which would disturb its straight, dismal course. Sad and difficult, it was yet even in its tenor. People were accustomed to the fact that life always oppressed them with the same power. Unhopeful of any turn for the better, they regarded every change as capable only of increasing their burden.
And the workingmen of the suburb tacitly avoided people who spoke unusual things to them. Then these people disappeared again, going off elsewhere, and those who remained in the factory lived apart, if they could not blend and make one whole with the monotonous mass in the village.
Living a life like that for some fifty years, a workman died.
‘… died’ तक आते आते जैसे किसी सिम्फनी का एक विराम पूर्ण हो जाता है। इसके अमिट प्रभाव का कारण सम्भवत: यह रहा हो कि यह मेरे द्वारा पढ़ा गया पहला उपन्यास था, पहले चुम्बन की भाँति गहरे प्रभाव वाला किंतु कुछ बात तो है!
यदि आप मुझसे अपने लिखे के बारे में पूछेंगे तो बड़ी विचित बात होगी। मुझे चित्रकारी नहीं आती। शब्दचित्रों से उसकी पूर्ति करने के प्रयास करता रहा हूँ। यह अंश लिखने के पश्चात अच्छा लगा जबकि इसमें वैसी कोई जादुई बात है ही नहीं! क्यों यही अंश? इसका मेरे पास उत्तर नहीं है:
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कुआर का अँजोर । पितरपख बीत चुका था। भितऊ बैठके में चौकी बिछी थी। पँचलकड़ियों से बनी चौकी पर ऐसे मौकों पर ही निकाले जाने वाले तोषक, मसनद, बनारस की धराऊ चादर और उनके उपर विराजमान थे शास्त्र, तंत्र, मंत्र सर्वज्ञाता खदेरन पंडित। पत्रा और एक लाल बस्ते में रखे भोजपत्र के टुकड़े खुले थे। पंडित तल्लीन थे। उनकी चुप्पी माहौल में फैले तनाव को और गम्भीर बना रही थी।
कोई खास उमस न थी लेकिन सग्गर बाबू धीरे धीरे उनके उपर बेना झल रहे थे जिसमें आदर प्रदर्शन का भाव अधिक था। उनके बाप ,रामसनेही, पंडित जी के सामने नीची और छोटी चौकी पर बैठे जनेऊ से कभी पीठ खुजाते तो कभी सग्गर बाबू को इशारा करते।
जुग्गुल की तैनाती नीम के नीचे थी। कोई ऐसा वैसा छूत छात वाला मनई न आ जाय! घर के भीतर सग्गर की महतारी आड़ किए लतमरुआ पर बैठी थीं। हाथ में लकड़ी लिए लँगड़ी पिल्ली को डराए हुए थीं जो बार बार खिरकी के रस्ते दुआर की ओर जाने की कोशिश में थी।
खदेरन पंडित बड़े जोगियाह थे। सिले कपड़े नहीं पहनते थे और ऐसे मौकों पर अस्पृश्य की ओर दृष्टि पड़ जाने पर तुरंत काम बन्द कर स्नान करने चल देते थे। रमल, लाल किताब, रोमक और जाने कितने टोटके उनके बाएँ हाथ के खेल थे और सनकें मशहूर थीं।
उनके आने का कारण एक दिन पहले की घटना थी । जंत्री सिंघ बरदेखाई के लिए सुबह सुबह निकले ही थे कि सग्गर सामने पड़ गए।
"धुर बहानचो ! कौनो सुभ कार करे निकल त ई निस्संतानी जरूर समने परि जाला।"
जंत्री सिंघ ने जाना टाल दिया और घर के भीतर से जवान सोनमतिया की महतारी सग्गर को कोसने लगी। अठारह बरस से निस्संतानी सग्गर के लिए यह सब सुनना आम हो चला था लेकिन सोनमतिया पट्टीदारी की ही सही उनकी प्यारी भतीजी थी।
उसका विवाह खोजा जा रहा था और उन्हें खबर ही नही! उनके सामने पड़ जाने से निकलना तक टाल दिया जा रहा है!!
दोहरे धक्के ने कुछ अधिक ही हिला दिया। खटवासि ले पड़ गए तो दिन भर कुछ नहीं खाए। संझा के बेरा आँख लग गई जो महतारी की फजिहत से खुली,
"ए बेरा सुत्तता। लछमी का अइहें। जाने कौन बाँझ कुलछनी घर में आइल कि एकर सगरी बुद्धी हरि लेहलसि। नाती नतकुर नाही होइहें। निरबंसे होई।"
प्राणप्यारी सोझवा पत्नी के लिए ऐसी भाखा सुन सग्गर तमतमा उठे। पहाड़ की तरह उन्हों ने पिछले पन्द्रह वर्षों से दूसरे विवाह के दबावों को झेला था - बिना टसके मसके। लेकिन आज जाने क्या हुआ था, अमर्ष?... संझा के बेरा फूट फूट कर रो पड़े थे। बाप ने सुना और वज्र निर्णय लिया।
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सिनेमा के दृश्य पूछेंगे तो गॉन विद द विण्ड्स के दृश्यों की चित्रकारी एवं अद्भुत सङ्गीत के संयोग के अमिट प्रभाव की बात करूँगा किंतु किसी एक दृश्य को पिन प्वाइण्ट नहीं कर पाऊँगा।
एक ऐसा दृश्य जो मन पर अमिट रह गया, किसी अन्य फिल्म का है जो सम्भवत: अंग्रेजी भाषा की नहीं थी, मैंने डब की हुई देखी थी:
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दुपहर का सन्नाटा है। घर के भीतर की छाँव एवं बाहर खिली ऊष्म धूप का कंट्रास्ट। नायक का मुख दर्शकों की ओर है, जबकि नायिका का दूसरी ओर, केवल केश दिखते हैं, दोनों आमने सामने, पृष्ठभूमि में खिली ऊष्म धूप जबकि घर का छाँह अन्हार उन्हें घेरे हुये है। विदाई है, सामान्य नहीं, प्रेम सम्बंध टूटने के पश्चात की। कोई संवाद नहीं, नायक की आँखें ही जैसे सभी इंद्रियों से संवादित हों तथा मंद अनिल के कारण रह रह थिरक उठती नायिका की अलकें जैसे उन्हें कुछ पड़ी ही न हो! कुछ सेकण्ड मात्र। कैमरा धीरे धीरे पीछे होता जा रहा है। वह धीरे से अपना एक हाथ उठा नायक के हाथ का स्पर्श भर करती बढ़ती चली जाती है – धूप की ओर। भीतर पसरती छाँह नायक के पूरे अस्तित्त्व को घेरते हुये तिरोहित कर देती है ...
... आप पूछेंगे कि कौन सी फिल्म, नायक नायिका कौन? तो मैं निर्बल मुस्कान के साथ यह उत्तर दे बच निकलूँगा – मान लो कि वह फिल्म थी ही नहीं, मैंने एक सपना देखा था!