कालिदास कृत 'रघुवंश' में रानी इन्दुमति की आकस्मिक मृत्यु पर राजा अज का विलाप एक महत् साहित्यिक उपलब्धि है। तत्कालीन जीवन में मनोरञ्जन हेतु वृक्षों के साथ विविध क्रीड़ाओं के उल्लेख भी इस प्रसंग में हुये हैं।
आधुनिक जीवन की त्रासदी कृत्रिम पर्यावरणीय चेतना है। वृक्षों के साथ सहज उत्सवी सहकार अभी पीढ़ी भर पहले तक किसी न किसी रूप में था जो कि अब समाप्त हो चुका है। कृत्रिमता केवल हल्ला गुल्ला या अस्थायी अप्रभावी अभियानों की ही जननी हो सकती है जबकि सहज जुड़ाव स्थायित्त्व देता है।
अस्तु।
देखते हैं कि कैसे वृक्ष आमोद प्रमोद के अङ्ग होते हुये सहचर मित्र भी थे:
"प्रिये! तुमने आम और प्रियङ्गु के मिथुन सहकार की परिकल्पना कर योजनायें बनाई थीं। बिना उनका विवाह पूर्ण किये कैसे संसार त्याग सकती हो? अनुचित है यह!"
"तुम्हारे द्वारा दोहद किये जाने से ही यह अशोक फूला है जिसके पुष्प तुम्हारी अलकों की इन दिनों सज्जा रहे हैं, उन्हीं पुष्पों से मैं तुम्हारी चिता कैसे सजा सकता हूँ?"
"अन्य वृक्षों को दुर्लभ, चरण प्रहार द्वारा पुष्पित किये जाने के तुम्हारे अनुग्रह और तुम्हारे नूपुरों से होने वाले शब्दों की स्मृति में यह अशोक वृक्ष भी पुष्प रूपी आँसू बरसाते शोक कर रहा है।"
"अपने नि:श्वास समान सुगन्धि वाले वकुल फूलों की निज धारण हेतु जो मेखला तुमने मेरे साथ बनानी प्रारम्भ की थी, वह अभी पूरी नहीं हुई है। हे किन्नरों के समान मधुर कण्ठ वाली! अपना काम यूँ असमाप्त छोड़ तुम कैसे आँखें मूँद सकती हो!"
कालजयी कवि अपने वर्णन में अन्य स्वस्थ और कल्याणकारी वृत्तियों को भी स्थान देता चलता है ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी चेतना और जीवंतता बनीं रहें। इस मार्मिक प्रकरण में इस अंश को स्थान दे कर कालिदास ने उसी धर्म का निर्वाह किया है। ______________ वृक्ष दोहद की मान्यतायें बहुत पुरानी रही हैं कि तरुणियों द्वारा कतिपय क्रीड़ा अनुष्ठानों जैसे पाद प्रहार, जड़ पर मदिरा की कुल्ली आदि के किये जाने पर ही कुछ वृक्ष पुष्पित होते हैं। एक तरह से देखें तो यह स्त्री के मातृत्त्व गुण का महिमामण्डन तो है ही, उन्हें मनोरञ्जन और विहार के लिये स्वतंत्र समय देने की युक्ति भी है।
वृक्ष दोहद पर हिमांशु जी ने अपने ब्लॉग पर विस्तृत शृंखला लिखी है, जिसे यहाँ देखा जा सकता है।
सोरठी ब्रिजभार या
बिरजाभार के गायन की परंपरा पूरब में रही है जिसके गायक बहुत कम बचे हैं।
ग्रीष्मावकाश में हमलोग छतों पर लेटे रात भर सुने हैं। गायक उसके लिए धन नहीं लेते
थे (बिद्या नाहीं बेचबे!), केवल सीधा अर्थात अन्न में चावल, दाल, तरकारी, नमक,
हल्दी, आदि ले जाते। गायन की भावुकता सबको
रुला देती थी। यह क्षेत्र ही करुण रस प्रधान रहा है।
इसमें सात जन्मों की
कथा सौ भागों में मिलती है। इन्द्र के शाप से एक
देव और एक अप्सरा मृत्यलोक में जन्म लेते हैं और आगे जनम जनम मिलते बिछड़ते रहते
हैं। विशुद्ध प्रेम काव्य है। बहुत ढूँढ़ने पर इसका बिहारी
रूप मिला, वह भी लखनऊ में सड़क किनारे! प्रकाशन
दिल्ली से।
‘एकिया हो रामा’, ‘हो राम’, ‘राम न रे की’ जैसे टेक ले यह कथा गायी जाती रही है।
इस कथा में भी बहुत पुरानी चलन के संकेत मिलते हैं। उदाहरण के लिये सुमिरन
मंगलाचरण में राम, अपनी धरती, शेषनाग, भगवान, पञ्च परमेश्वर, जन्मदायिनी माता, गुरु,
सूर्य, सुबेहन (?), गंगा, हनुमान, पाँच पाण्डव, 56 कोटि देवता (33 नहीं!), काली,
दुर्गा सात कुमारी बहिनी की वन्दना है।
दिशायें एक तरह से
रचयिता की भौगोलिक स्थिति स्पष्ट कर देती हैं। पश्चिम में सुबेहन (?), दक्षिण में
गंगा है, पाण्डव उत्तर में। कहीं न कहीं यह उस समय की कथा लगती है जब पञ्चदेव उपासना
प्रचलन में थी। आगे वाचिक मौखिक परम्परा के साथ क्षेत्रीय रूप धारण करती चली गयी।
पाण्डवों की स्तुति
इसे वीरगाथा परम्परा से तो जोड़ती ही है, साथ ही महाभारत कथा के बहुआयामी पक्ष को उजागर
भी करती है कि देवता और योद्धा एक भी माने गये।
माता के दूध के ऋण के
लिये ‘निखवा’ प्रयुक्त हुआ है जिसकी संगति वैदिक काल की मुद्रा ‘निष्क’ से लगाई जा
सकती है। ऋण का भुगतान मुद्रा अर्थात निष्क से ही न किया जाता है!
महादेव के त्रिशूल
पर बसी प्रकाशनगरी काशी कसौटी पर कसने में किसी को नहीं छोड़ती, बड़ी निर्मम है। मुझे
तो लगता है कि काशी में रहना अर्थात दैहिक, दैविक, भौतिक तापों को दिन प्रतिदिन सहने
के साथ आनन्दमग्न रहना। त्रिशूल तीन ताप हैं और महादेव आनन्द। इसका एक पुराना नाम आनन्दवन
ऐसे ही नहीं है।
काशी की एकाध गालियाँ
कुछ वर्षों से प्रसिद्ध की जातीरही हैं किंतु वे काशी की पहचान नहीं रहीं। जो घुल कर
सामान्य हो जाये उससे क्या पहचान समझना? अपरिचितों को चौंकाने के लिये भले
साहित्यकार मिर्च मसाला लगा परोस दें, गालियाँ काशी की पहचान नहीं, उसकी जान का एक
न्यून भाग बस हैं।
काशी की पहचान अद्भुत
लक्षणा और व्यञ्जना युक्त 'काशिका' से है। काशिका बानी न होती तो काशी अपने परिवेश
से, बाकी संसार से अलग नहीं होती, न कबीर होते और न तुलसी। काशिका निवासियों
और प्रवासियों को दैनन्दिन माँजती है, कुछ घिस जाते हैं, कुछ रोचन हो प्रकाशित हो उठते हैं।
मुझे नहीं पता कि काशी की इस विशेषता पर किसी ने लिखा है या नहीं किंतु काशिका ही
काशी को अनूठी बनाती है।
‘मर्दनं वर्द्धनं’
सूत्र के तीनों शब्दशक्तियों वाले प्रयोग यहीं दिखते हैं, बानी से ही नहीं, हर तरह
से रगड़ने में यह नगरी प्रवीण है। वर्तमान काल में देखें तो यहाँ 'बियच्चू' में आलोचना
प्रवीण को ‘नमवरवा’ कहते हुये उसी साँस में विद्यानिवास मिसिर को ‘विद्याबिनास’ की
संज्ञा से विभूषित करते गालीबाज सहज ही मिल जायेंगे। उनके लिये वे पान की पीक से
अधिक महत्त्व नहीं रखते, भले अपने में उतना भी पानी न हो!
गन्दे पात्र को
स्वच्छ कर चमकाने वाले उकछन का दायित्त्व काशी निर्वहन करती रही है। पहली बार पहुँचने
पर काशी का वही उकछनी रूप सामने दिखता
जुगुप्सा जगाता है किंतु कुछ बरस घुल जाने पर समझ में आता है कि काशी का विरूप ही
तो रूप गढ़ता रहा है।
अध्यात्म में कुछ
नया करने की इच्छा रखने वाले काशी के इसी मार्जनी रूप से आकर्षित हो यहाँ धूनी जमाये
रहे। जिनकी नवोन्मेष की अपनी कसौटी निर्मम रही उन्हों ने स्वयं को इसे सौंप दिया। इसका मध्यकाल
में तुलसीदास से अधिक अच्छा उदाहरण नहीं मिल सकता। बहुत ही प्रौढ़ आयु में ‘रामचरितमानस’
रचे जाने के पूर्व तुलसीदास ने जो झेला वह सब विनयपत्रिका और कवितावली में यत्र तत्र
बिखरा हुआ है। ये दो कृतियाँ भर नहीं, काशी की चोट से रोते बिलबिलाते तुलसीदास के
नयनों से निकसी गङ्गा के सञ्चय भी हैं।
‘धूत कहौ, अवधूत कहौ,
रजपूत कहौ, जोलहा कहौ’ में एक बैरागी का उपेक्षा भाव तो है ही, उसके पीछे छिपी वह
मर्मांतक पीड़ा भी है जो स्वयं के लिये ‘कुलटा ब्राह्मणी की कोख से उपजी राजपूत
संतान’ की 'काशिका वृत्ति' सुनने से उपजी थी। ‘वाल्मीकि का अवतार’ कहे जाने से पूर्व
तुलसी ने जाने कितनी बार ‘बड़ा बलमीक बनत हौ सरवा, एकर जनमपतरी देखे के परी’ भी झेला।
वाणी प्रहार ही नहीं, तुलसी ने प्राण हर लेने के लिये आक्रमण से लगाई मारण
तांत्रिक प्रयोग तो झेले ही, यहाँ के ठगबुद्धि पण्डितों के शास्त्रार्थ भी झेले। ठगों का
शासन दिल्ली में आज है किंतु ‘राजाविहीन’ काशी तो अपने ठगों के लिये युगों युगों से
प्रसिद्ध रही जो मात्र आँखों आँखों ही 'काजल चुराने' से ले कर 'बलात्कार' तक के युक्तिमहारथी थे।
सबको झेल, दारुण परीक्षा
की आग से जब कुन्दन रूप हो तुलसी निकले तो इसी काशी ने उन्हें दैवीय रूप देने में कोई
झिझक नहीं बरती। कथायें गढ़ने में निष्णात समाज ने 'मानस' की श्रेष्ठता स्थापित
करने को विश्वनाथमन्दिर के गर्भगृह का कथानक तो रचा ही, शैव काशी में वैष्णवी
'रामबोला' के चलाये जाने कितने आचार अपना लिये। पहले का ‘वर्णसंकर’ ‘ब्राह्मणकुलशिरोमणि’
हो गया!
तुलसी के पश्चात
हुये थे प्रकाण्ड पण्डित जगन्नाथ। किम्वदंति है कि शाहजहाँ के दरबार में उन्हों ने
धर्मध्वजा को ऊँचा किया। वही प्रतिष्ठित विद्वान जगन्नाथ जब मुस्लिम स्त्री लवंगी
को ब्याह कर काशी आये तो बहिष्कृत हो गये। ढेर सारे प्रयासों, शास्त्रोक्त (?) प्रायश्चित्त
के पश्चात भी काशी की रगड़ वही रही। अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्हों ने वर्ष के 52
सोमवार या शुक्रवार दिनों जितना लम्बा कोई व्रत भी किया होगा किंतु काशी नहीं
पसिजी तो नहीं पसिजी! अंतत: 52 छन्दों की ‘गङ्गा लहरी’ रचने के पश्चात पण्डित ने
पत्नी के साथ गङ्गा मइया में जलसमाधि ले ली।
काशी की पुरबिया चेतना
ने वैसे ही प्रायश्चित किया जैसे तुलसी के समय किया था – दैवीयता के कथा सृजन
द्वारा। अंतर यह रहा कि तुलसी बाबा तो बच गये थे किंतु जगन्नाथ बाबा को अपने प्राण
निछावर करने पड़े। अब कथा ऐसे चलती है कि दोनों गङ्गा किनारे बैठ स्तोत्र गाने लगे।
हर स्तोत्र छन्द पर मइया एक एक सींढ़ी बढ़ती गईं और 52 वीं पर दोनों को अपनी गोद में
ले लिया। मइया ने कहा कि तुम्हारी प्रतिष्ठा तो अब इस चमत्कार से वापस हो
गई है, तुम समाज में वापस ले भी लिये जाओगे। कहो तो तुम दोनों को वापस तट पर जीवित
फेंक दूँ? पण्डित ने कहा कि अब तुम्हारी गोद छोड़ संसार में नहीं जाना, हमें अपने
भीतर स्थान दो और माँ ने पुत्र की प्रार्थना स्वीकार कर ली!
आप काशी वाले से
पूछेंगे कि ये बताओ, वहाँ 52 छन्दों को यथावत लिख कर सुरक्षित करने वाला कौन बैठा
था? और घाट पर सीढ़ियाँ तो मराठों ने बनवाईं!,तो उत्तर मिलेगा ‘बुजरो
के, का जनबऽ?
बड़े आये बिद्वान!’
काशी में आये हैं, साधारण मनुष्य हैं तो काशी वालों से और इस नगरी के परिवेश से
भी सतर्क और सावधान रहिये। अधिक वर्ष नहीं
बीते जब गर्वी दयानन्द सरस्वती को शास्त्रार्थ में हराने के लिये कोई और उपाय न
देख यहाँ के पण्डितों ने औपनिषदीय संस्कृत में आशु प्रमाण रच दिया था!