हरिवंश के भविष्यपर्व में एक प्रसङ्ग है जिसमें जनमेजय और व्यास राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञों के बारे में वार्ता करते हैं। जनमेजय का कहना है कि जब आप जानते थे कि राजसूय ही विनाश का कारण बनेगा तो आप ने रोका क्यों नहीं?
इस प्रश्न से पहले वह बताते हैं कि राजसूय को सर्वाङ्गपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना असम्भव है एवं इस कारण ही प्रजा का नाश होता है। उदाहरण भी देते हैं - सोम ने किया तो तारकामय युद्ध हुआ, वरुण ने किया तो देवासुर संग्राम, हरिश्चंद्र ने किया तो आडीवक नामक युद्ध हुआ, युधिष्ठिर ने किया तो महाभारत। कहना नहीं होगा कि सबमें व्यापक जनहानि हुई।
व्यास बहुत विचित्र उत्तर देते हैं कि तुम्हारे पूर्वजों ने भविष्य के बारे में पूछा नहीं एवं मैं बिना पूछे कुछ बताता नहीं।
जनमेजय पूछते हैं कि मैं अश्वमेध करने वाला हूँ। उसमें आगे कुछ होना हो तो बतायें ताकि मैं रोकथाम वाले उपाय कर सकूँ। व्यास काल की गति पलटना असम्भव बताते हुये इंद्र द्वारा विघ्न आने की बात बता कर मना करते हैं। कहते हैं कि ऐसा ब्रह्मा जी की इच्छा से है कि अश्वमेध आयोजन कलिकाल में न हों (ताकि प्रजा दीर्घजीवी न हो?)। उस काल में ब्राह्मण यज्ञफल विक्रेता हो जायेंगे। आगे बताते हैं कि (ऐसे) ब्राह्मणों के प्रति तुम्हारा क्रोध ही तुम्हारे द्वारा अश्वमेध यज्ञ बंद कराने का कारण बन जायेगा। आगे कोई क्षत्रिय इस यज्ञ को जब तक धरती रहेगी तब तक नहीं करेगा।
दु:खी जनमेजय द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या अश्वमेध की पुनरावृत्ति सम्भव होगी? व्यास उत्तर देते हैं कि अश्वमेध ज्ञान रूप में देवताओं एवं ब्राह्मणों में स्थित रहेगा।
इससे आगे वह जो कहते हैं वह भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है।
पुराणों में वर्तमान (अधिक उपयुक्त सद्य या निकट-भूत कहना होगा) को दूर भूत में जा कर भविष्य रूप में कहने की प्रवृत्ति पाई जाती है। हरिवंश को महाभारत का खिल भाग माने जाने के कारण 18 पुराणों में स्थान तो नहीं दिया गया है किंतु इसकी प्रतिष्ठा भी पुराण सी ही है। अंत:साक्ष्य हैं एवं इसे हरिवंश पुराण कहा जाना भी एक प्रमाण है। यह प्रसंग उस समय लिखा गया है जब द्विज शब्द ब्राह्मण के लिये रूढ़ हो चुका था।
व्यास कहते हैं:
औद्भिज्जो भविता कश्चित् सेनानी: काश्यपोद्विज:।
अश्वमेधम् कलियुगे पुन: प्रत्याहरिष्यति॥
अश्वमेधम् कलियुगे पुन: प्रत्याहरिष्यति॥
तदंते तत्कुलीनश्च राजसूयमपि क्रतुम्।
आहरिष्यति राजेंद्र श्वेतग्रहमिवांतक:॥
आहरिष्यति राजेंद्र श्वेतग्रहमिवांतक:॥
यथाबलं मनुष्याणां कर्तृणाम् दास्यते फलम्।
युगांतरद्वारमृषिभि: संवृत्तं विचरिष्यति॥
युगांतरद्वारमृषिभि: संवृत्तं विचरिष्यति॥
[भविष्यपर्व 2.40-42]
कश्यप गोत्री ब्राह्मण सेनानी कलियुग में पुन: अश्वमेध आरम्भ करेगा। उसके अंत में उसी कुल में उत्पन्न एक राजेंद्र आगे राजसूय भी करेगा जैसे प्रलय काल श्वेतग्रह की सृष्टि करता है। यज्ञ से मनुष्यों को यथा बल फल मिलेगा। तब ऋषियों द्वारा सुरक्षित युगांतकाल के द्वार पर लोग विचरण करेंगे।
विद्वानों ने इस सेनानी की पहचान पुष्यमित्र शुङ्ग से की है जिसने अंतिम मौर्य को मार कर राजगद्दी पाई। उसने अश्वमेध किया था एवं उसके पौत्र वसुज्येष्ठ ने वह यज्ञ पूरा किया था।
औद्भिज्ज शब्द का अर्थ वनस्पति उत्पन्न होता है। शुङ्ग शब्द को वटवृक्ष की एक संज्ञा बताया जाता है।
स्पष्ट हो जाता है कि हरिवंश का यह भाग शुङ्ग काल का परवर्ती है। एक शब्द युगांतकाल पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये जो कि युगों की गणना दैवी वर्षों के स्थान पर मनुष्य वर्षों में ही किये जाने की ओर एक सङ्केत है।