रविवार, 22 अक्टूबर 2017

हरिवंश, पुष्यमित्र, वसुज्येष्ठ शुङ्ग, अश्वमेध एवं राजसूय

हरिवंश के भविष्यपर्व में एक प्रसङ्ग है जिसमें जनमेजय और व्यास राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञों के बारे में वार्ता करते हैं। जनमेजय का कहना है कि जब आप जानते थे कि राजसूय ही विनाश का कारण बनेगा तो आप ने रोका क्यों नहीं? 
इस प्रश्न से पहले वह बताते हैं कि राजसूय को सर्वाङ्गपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना असम्भव है एवं इस कारण ही प्रजा का नाश होता है। उदाहरण भी देते हैं - सोम ने किया तो तारकामय युद्ध हुआ, वरुण ने किया तो देवासुर संग्राम, हरिश्चंद्र ने किया तो आडीवक नामक युद्ध हुआ, युधिष्ठिर ने किया तो महाभारत। कहना नहीं होगा कि सबमें व्यापक जनहानि हुई। 
व्यास बहुत विचित्र उत्तर देते हैं कि तुम्हारे पूर्वजों ने भविष्य के बारे में पूछा नहीं एवं मैं बिना पूछे कुछ बताता नहीं। 
जनमेजय पूछते हैं कि मैं अश्वमेध करने वाला हूँ। उसमें आगे कुछ होना हो तो बतायें ताकि मैं रोकथाम वाले उपाय कर सकूँ। व्यास काल की गति पलटना असम्भव बताते हुये इंद्र द्वारा विघ्न आने की बात बता कर मना करते हैं। कहते हैं कि ऐसा ब्रह्मा जी की इच्छा से है कि अश्वमेध आयोजन कलिकाल में न हों (ताकि प्रजा दीर्घजीवी न हो?)। उस काल में ब्राह्मण यज्ञफल विक्रेता हो जायेंगे। आगे बताते हैं कि (ऐसे) ब्राह्मणों के प्रति तुम्हारा क्रोध ही तुम्हारे द्वारा अश्वमेध यज्ञ बंद कराने का कारण बन जायेगा। आगे कोई क्षत्रिय इस यज्ञ को जब तक धरती रहेगी तब तक नहीं करेगा।  
दु:खी जनमेजय द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या अश्वमेध की पुनरावृत्ति सम्भव होगी? व्यास उत्तर देते हैं कि अश्वमेध ज्ञान रूप में देवताओं एवं ब्राह्मणों में स्थित रहेगा। 
इससे आगे वह जो कहते हैं वह भारतीय इतिहास का एक  महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। 
पुराणों में वर्तमान (अधिक उपयुक्त सद्य या निकट-भूत कहना होगा) को दूर भूत में जा कर भविष्य रूप में कहने की प्रवृत्ति पाई जाती है। हरिवंश को महाभारत का खिल भाग माने जाने के कारण 18 पुराणों में स्थान तो नहीं दिया गया है किंतु इसकी प्रतिष्ठा भी पुराण सी ही है। अंत:साक्ष्य हैं एवं इसे हरिवंश पुराण कहा जाना भी एक प्रमाण है। यह प्रसंग उस समय लिखा गया है जब द्विज शब्द ब्राह्मण के लिये रूढ़ हो चुका था। 
व्यास कहते हैं: 
औद्भिज्जो भविता कश्चित् सेनानी: काश्यपोद्विज:।
अश्वमेधम् कलियुगे पुन: प्रत्याहरिष्यति॥ 
तदंते तत्कुलीनश्च राजसूयमपि क्रतुम्।
आहरिष्यति राजेंद्र श्वेतग्रहमिवांतक:॥ 
यथाबलं मनुष्याणां कर्तृणाम् दास्यते फलम्।
 युगांतरद्वारमृषिभि: संवृत्तं विचरिष्यति॥
[भविष्यपर्व 2.40-42] 
कश्यप गोत्री ब्राह्मण सेनानी कलियुग में पुन: अश्वमेध आरम्भ करेगा। उसके अंत में उसी कुल में उत्पन्न एक राजेंद्र आगे राजसूय भी करेगा जैसे प्रलय काल श्वेतग्रह की सृष्टि करता है। यज्ञ से मनुष्यों को यथा बल फल मिलेगा। तब ऋषियों द्वारा सुरक्षित युगांतकाल के द्वार पर लोग विचरण करेंगे।
 विद्वानों ने इस सेनानी की पहचान पुष्यमित्र शुङ्ग से की है जिसने अंतिम मौर्य को मार कर राजगद्दी पाई। उसने अश्वमेध किया था एवं उसके पौत्र वसुज्येष्ठ ने वह यज्ञ पूरा किया था। 
औद्भिज्ज शब्द का अर्थ वनस्पति उत्पन्न होता है। शुङ्ग शब्द को वटवृक्ष की एक संज्ञा बताया जाता है।
स्पष्ट हो जाता है कि हरिवंश का यह भाग शुङ्ग काल का परवर्ती है। एक शब्द युगांतकाल पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये जो कि युगों की गणना दैवी वर्षों के स्थान पर मनुष्य वर्षों में ही किये जाने की ओर एक सङ्केत है।   

बुधवार, 18 अक्टूबर 2017

राम आ रहे हैं ... परमानंदं भरत: सत्यविक्रम:

राम आ रहे हैं, सुन कर भरत परमानंद में हैं - श्रुत्वा तु परमानन्दं भरतः सत्यविक्रमः। अयोध्यावासियों के लिये राजाज्ञा प्रसारित होती है - नगरवासी पवित्र हो कुलदेवता एवं सर्वसाधारण देवताओं के मंदिरों में सुगंधि, माला और वाद्य के साथ अर्चन करें - दैवतानि च सर्वाणि चैत्यानि नगरस्य च। 
सूत, वैतालिक, विरुदावली गाने वाले एवं पुराणज्ञ उनके स्वागत में कुशल बजनियों एवं नचनियों के साथ नंदिग्राम हेतु प्रस्थान करें।
... 
शत्रुघ्न व्यवस्था में लग गये- मार्ग के ऊँच नीच सम कर दिये जायँ। हिमशीतल जल का छिड़काव किया जाय - सिञ्चंतु पृथिवीं कृत्स्नां हिमशीतेन वारिणा। वीथियों के किनारे पताकायें फहरें, मार्ग पर पुष्प और लाजा बिखेर दिये जायँ। सूर्योदय के पूर्व ही भवनों की सजावट पूरी कर दी जाय - शोभयन्तु च वेश्मानि सूर्यस्योदयनं प्रति। 
पुष्प पंखुड़ियाँ बिखेर दी जायँ एवं सुगंधित पाँच रङ्गों (की अल्पनाओं) से राजमार्ग सजा दिया जाय - स्रग्दाममुक्तपुष्पैश्च सुगन्धैः पञ्चवर्णकैः। 
... 
अश्वारोही, गजारूढ़ योद्धा, रथी और पदाति सैनिक ध्वजायें लहराते चल पड़े। मातायें उनके साथ नंदिग्राम पहुँच गयीं। 
घोड़ों के खुरों, रथों, शंख एवं दुंदुभि के सम्मिलित नाद का ऐसा प्रभाव हुआ मानो मेदिनी काँप उठी! 
अश्वानां खुरशब्दैश्च रथनेमिस्वनेन च। 
शङ्खदुन्दुभिनादेन संचचालेव मेदिनी॥ 

... 
भरत की क्या स्थिति थी? 
उपवासकृशो दीनश्चीरकृष्णाजिनाम्बरः - उपवास से दुबले हो गये थे, दीन स्थिति में चीर वस्त्र और मृगचर्म पहने हुये थे। 
प्रसन्नता है कि सँभल नहीं रही, आशंका भी है कि क्या यह सच है। राम दिख नहीं रहे... 
भरत हनुमान से पूछ बैठे - कहीं अपनी (वानर) स्वभाव की चञ्चलता वश तो मुझे बनाने नहीं आ गये? कच्चिन्न खलु कापेयी सेव्यते चलचित्तता
हनुमान जी ने उत्तर दिया, "ध्यान से सुनिये, मुझे तो वानर सेना द्वारा गोमती नदी पार करने की ध्वनि सुनाई पड़ रही है - मन्ये वानरसेना सा नदीं तरति गोमतीम्। 
उड़ती धूल देखिये, साल वृक्ष शाखाओं का झूमना देखिये, मन्ने लागे कि वानर आ रहे हैं! 
रजोवर्षं समुद्भूतं पश्य वालुकिनीं प्रति। 
मन्ये सालवनं रम्यं लोलयन्ति प्लवङ्गमाः॥

आकाश में उड़ते विमान के लिये विमल चंद्र और तरुण सूर्य, दोनों की उपमायें हनुमान जी ने दीं - दृश्यते दूराद्विमलं चन्द्रसंनिभम् ... तरुणादित्यसंकाशं विमानं रामवाहनम्। 
जनघोष हुआ - यह तो राम हैं - रामोऽयमिति कीर्तितः
... 
भरत जी प्रमुदित हैं, बारम्बार स्वागत कर रहे हैं - राममासाद्य मुदितः पुनरेवाभ्यवादयत्। 
श्रीराम क्या करें? 
14 वर्ष बिछुड़न में बीते हैं, दीन मलीन अवस्था में भाई समक्ष है, अभिवादन कर रहा है, क्या करूँ? ... 

... 
स्नेह वात्सल्य उमड़ पड़ा। राजकीय स्वागत की मर्यादायें धरी रह गयीं। श्रीराम ने भरत को उठा गोद में बिठा आलिङ्गन में कस लिया (वैसे ही जैसे कभी बचपन में करते रहे होंगे)। 
 
तं समुत्थाप्य काकुत्स्थश्चिरस्याक्षिपथं गतम्
अङ्के भरतमारोप्य मुदितः परिषष्वजे
~~~~

गुरुवार, 5 अक्टूबर 2017

वाल्मीकि जयंती : शरद पूर्णिमा

आज शरद पूर्णिमा को वाल्मीकि जी की जयंती पड़ती है। वाल्मीकि मुनि का अवदान क्या है? 
उनके पहले अनुष्टुभ छ्न्द था। ऋग्वेद में ‘श्लोक’ शब्द स्तुति अर्थ में कई बार आया है। पारम्परिक वेदपाठ में वाद्य यंत्रों का निषेध है। वाल्मीकि ने अनुष्टुभ को वीणा गायन से संपृक्त किया। श्लोक स्तुति भर न हो कर ‘शोकजनित’ वह वाच् छ्न्द हुआ जिसने देवत्त्व को जन जन के बीच आदर्श राजत्व के रूप में स्थापित कर आनंदसरि अवगाहन के अवसर भी दिये। 

रामायण के आरम्भ में उनके किसी शिष्य ने जिस प्रसिद्ध श्लोक को जोड़ा, उसके दो रूप कुछ भेद से यूँ मिलते हैं कि एक में जो महिमा नारद जी की है, दूसरे में वही वाल्मीकि जी की हो जाती है: 

तपः स्वाध्याय निरतम् तपस्वी वाग्विदाम् वरम्। 
नारदम् परिपप्रच्छ वाल्मीकिः मुनि पुङ्गवम्॥ 

उन्हें मुनि पुङ्गव कहा गया। उनकी कृति की महानता ही थी जिसने जाने कितने पोंगा पण्डों को जीविका दी। तुलसीदास जी जब ‘दोष रहित दूषण सहित’ लिखे तो जाने उनके मन में क्या था, उससे सम्बंधित श्लोक भी रामायण की कतिपय प्राचीन पाण्डुलिपियों की भूमिका में मिलता है: 

सदूषणापि निर्दोषा सखरापि सुकोमला। 
नमस्तस्मै कृता येन रम्या रामायणी कथा॥ 

रामचरित तो अनूठा है ही, उनकी कथा जन जन का कण्ठहार हुई तो मुनि वाल्मीकि और संत तुलसीदास जैसे पुङ्गवों के कारण। कथा सुनने से भाव वश कण्ठ रुँधें तो होने दीजिये किंतु राक्षस अंतकारी मारुति को न भूलिये। खर, दूषण सहित जाने कितने रावण कलियुग में कथा हरण के ही प्रयास में लगे हैं! 

यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम्। 
वाष्पवारिपरिपूर्णलोचनम् मारुतिम् नमत राक्षसांतकम्॥ 

वाल्मीकि मुनि की जय हो!