जिन्होंने ‘मैट्रिक्स’ सिनेमा शृंखला देखी है तथा जिन्हें भारतीय चिंतन परम्परा का आरम्भिक ज्ञान है, वे समझ जाते हैं कि सधे हुये नवोन्मेष द्वारा उसी परम्परा को आधुनिक युगबोध के साथ आधुनिक दृश्य श्रव्य माध्यम द्वारा प्रस्तुत किया गया है। गाँव गाँव घूम घूम गाथायें सुनाने वाली आख्यानक परम्परा को जो प्रभाव पहले हुआ करता था, वही प्रभाव इस युग में सिनेमा का है। जो विचार योद्धा यह जानते हुये सिनेमा एवं टी वी धारावाहिकों का उपयोग करते हैं, वे सफल हैं, जमे हुये हैं, जो नहीं करते, उनकी पकड़ जन सामान्य तक नहीं है। इस तन्त्र में महत्व इसका अधिक है कि आप कितने जन के अंतर्मन तक पहुँच सकते हैं, दृश्य श्रव्य माध्यम पुराने समय के नाटकों की पूर्ति करता है।
मैं भी न, जो कहने चला था, उसे तज जाने क्या
कहने लगा। हाँ, तो उस फिल्म में एक
समांतर शासन तंत्र है जिसके बारे में जन सामान्य को पता नहीं है तथा उसके प्रतिरोध
में कुछ समझदार भी हैं जिन्हें उस तंत्र तक पहुँचने, उससे
जूझने इत्यादि के लिये विशेष प्रयास करने पड़ते हैं।
उस स्तर का साई फाई तो नहीं, किंतु
हम सभी भी एक मैट्रिक्स में ही रह रहे हैं जिसका नाम लोकतंत्र है। नेताओं के
अतिरिक्त सत्ता में ऊपर बैठे जो अधिकारी जन हैं, वे
यह जानते हैं कि तंत्र कैसे चलता है। विवशताओं, स्वार्थ, सेवा नियमों इत्यादि के कारण वे न तो मुँह खोलते हैं, न ही तंत्र छोड़ पाते हैं। तंत्र पर आक्रमण की स्थिति में वे
ढाल बन कर तन जाते हैं क्योंकि उनके हित उससे नाभिनालबद्ध होते हैं। समस्त संसार में यह खेल चल रहा है, संसार
के सबसे योग्य कुशाग्र जन उनके वेतन पत्रक पर हैं जो मैट्रिक्स के कर्ता धर्ता
हैं।
इतने के पश्चात आप यदि रहस्य रोमाञ्च पढ़ने वाले हैं तो
एलुमिनाटी या उस तरह के अनेक सिद्धांत आप के मन में कुलबुलाने लगे होंगे। मैं उनकी
बात नहीं कर रहा, वे हों या न हों, इससे मौलिक समस्या पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मैट्रिक्स को आप चाहें तो माया भी कह लें।
वीरभोग्या वसुंधरा का जो सिद्धांत है, वही वैश्विक तंत्र को चलाने का मूल है। कोई नेता पकड़ा जाता है या हार जाता है तो आप बहुत प्रसन्न होते हैं किंतु यह नहीं सोच पाते कि जो दिख रहा है, वह हिमखण्ड की नोक भर है। उस आकर्षक नोक के नीचे जाने कितने समीकरण होते हैं जो असम्भव को सम्भव कर रहे होते हैं। उपद्रव छँटने तक, धूल बैठने तक सब सकुशल सम्पन्न हो चुका होता है। जनता प्रसन्न होती है कि चलो दण्डित हुआ, कुकर्मों की सजा हुई जबकि अपनी सात पीढ़ियों तक का सुखी समृद्ध जीवन निश्चित कर चुके तत्व यह सोच कर प्रसन्न होते हैं कि अब इससेअधिक क्या मिलता? ऐसे ही छूट गये! तंत्र चलता रहता है।
वीरभोग्या वसुंधरा का जो सिद्धांत है, वही वैश्विक तंत्र को चलाने का मूल है। कोई नेता पकड़ा जाता है या हार जाता है तो आप बहुत प्रसन्न होते हैं किंतु यह नहीं सोच पाते कि जो दिख रहा है, वह हिमखण्ड की नोक भर है। उस आकर्षक नोक के नीचे जाने कितने समीकरण होते हैं जो असम्भव को सम्भव कर रहे होते हैं। उपद्रव छँटने तक, धूल बैठने तक सब सकुशल सम्पन्न हो चुका होता है। जनता प्रसन्न होती है कि चलो दण्डित हुआ, कुकर्मों की सजा हुई जबकि अपनी सात पीढ़ियों तक का सुखी समृद्ध जीवन निश्चित कर चुके तत्व यह सोच कर प्रसन्न होते हैं कि अब इससेअधिक क्या मिलता? ऐसे ही छूट गये! तंत्र चलता रहता है।
वीर एवं उपयुक्त समय पर कर्म में लग जाने वाले ही प्रकृति
के प्रिय होते हैं। एक उदाहरण देता हूँ – CBD नाम सुने हैं? Coal Bed Methane को कहते हैं, वह मेथेन जो कोयला स्रोतों
में पाई जाती है। आज से तीसो वर्ष पहले से उससे आगे के एक काम में चीन लगा हुआ है –
कोयले का भञ्जन कर मेथेन गैस बनाना तथा उसके संघनन इत्यादि से विविध रसायन एवं
ईंधन के निर्माण की युक्ति का विकास। चीनी कोयले की गुणवत्ता भारतीय कोयले से
अच्छी है। सब को पता है कि हमारे यहाँ विशाल कोयला भण्डार है तथा उसका प्रभावी
उपयोग कौन कहे, कोई उस दिशा में सोच
भी नहीं रहा।
ऐसा नहीं भी है। लगभग 15 वर्ष पहले भारत के ही एक
स्वनामधन्य प्रसिद्ध कम्पनी की सम्बंधित इकाई के सर्वोच्च व्यक्ति से मिला था।
उन्होंने बताया कि हमलोग भारतीय कोयले का चीन द्वारा कल्पित विधि से दोहन कैसे हो, इस हेतु तकनीक विकसित करने एवं शोध में लगे हैं। हमारी एक
समर्पित इकाई SBU Strategic
Business Unit इस काम के लिये पिछले पाँच वर्षों से लगी हुई है। मुझे आश्चर्य हुआ कि करोड़ो
का व्यय एक ऐसी तकनीक के लिये जिसकी उपादेयता संदिग्ध है! उन्होंने कहा कि देखिये, आरम्भ में सब ऐसे ही लगता है। कभी केवल सोचा ही गया होगा कि
धरती माँ (उन्होंने यही शब्द प्रयुक्त किये थे) के गर्भ से कच्चा तेल निकाल, प्रसंस्कृत कर उस ईंधन पर सम्पूर्ण विश्व को निर्भर कर दास बनाया जा सकता है!
मैं उनकी शब्दावली – ‘दास
बनाना’ पर चौंका तो उन्होंने बात आगे
बढ़ाई – संसार ऐसे ही चलता है। जो आगे होते हैं, वे
लूट लेते हैं, शेष उनके फेंके पर
जीवन व्यतीत करते हैं। उन्होंने कहा कि, देखिये
अभी सरकार के पास इससे सम्बंधित कोई विधिक या नियमन के प्रावधान नहीं हैं, तकनीकी तो दूर की बात है। जब बात आगे बढ़ेगी तथा सुगबुगाहट
होगी तो शीर्ष पर बैठे आई ए एस को हमलोग ही यह सब उपलब्ध करायेंगे, नियमन एवं विधिक प्रावधान भी हमारे अधिवक्ता तय करेंगे। सब
कुछ बहुत ही साफ सुथरे ढंग से होगा तथा समय आने पर हम ही हम होंगे, क्योंकि हमें पता होगा कि कब,
कैसे, कितना करना है, किसे करना है। सरकार किसी की रहे, आई ए एस कोई भी रहे, तंत्र
हमारा होगा, हम शीर्ष पर होंगे।
मुझे लगता है कि इस उदाहरण से आप को ढेर सारे बिंदु मिले
होंगे। यह भी जानिये कि पेट्रोलियम पदार्थों से सम्बंधित एक बहुत बड़ी कम्पनी ईंधन
के रूप में हाइड्रोजन के वैसे ही वैकल्पिक अनुप्रयोग के अनुसंधान पर वर्षों से
करोड़ो डॉलर लगा चुकी है जैसे हम आज डीजल पेट्रोल का करते हैं।
ये सभी ऐसा कैसे कर पाते हैं? क्योंकि
वे सक्षम हैं। वे सक्षम क्यों हैं? क्योंकि चक्रीय गति
में उन्होंने सर्वदा पहल की। उनके साथ सभी घूम रहे हैं किंतु वे घूमती चकरी की वह
डण्डी हैं जो यह बताती है कि जुये में कौन जीतेगा, कौन
हारेगा? जुये के भी अपने ढेर
सारे नियम होते हैं, होते हैं कि नहीं? सब कुछ विधिवत होता है किंतु होता तो जुआ ही है! जुआ भी एक
प्रकार का मैट्रिक्स ही है। कभी जुआघर गये हैं या नहीं?
जुआ कहिये, मैट्रिक्स कहिये या चाहे
जो नाम दीजिये, चलेगी उसी की जो न केवल
पहल करेगा अपितु तन मन धन से नवोन्मेष के साथ लगा रहेगा।
अपने देश में ही देखें तो
कुछ प्रांत, विशेषकर हिंदी प्रांत, अन्यों से पीछे हैं। क्यों हैं? क्योंकि उनके निवासियों में यह कमी ‘भी’ है। कुछ लोग ‘ही’ कहना अधिक उपयुक्त पायेंगे
तो कुछ भी की उपेक्षा कर लाल पीला होना तथा तर्क वितर्क करना किंतु क्या है कि तर्कों से संसार नहीं ‘भी’ चलता है, मैट्रिक्स तो अतर्क्य है
ही! गहराई से सोचिये, सम्भवत: कोई किरण दिख जाये।
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