अरण्यकाण्ड का एक श्लोक है:
कोयष्टिभिश्चार्जुनकैः शतपत्रैश्च कीच(र)कैः।
एतैश्चान्यैश्च विविधैर्नादितं तद्वनं महत् ॥
यह महत्वपूर्ण श्लोक है। पहला अर्द्धांश तोड़ते हैं:
कोयष्टि+भि / कोयष्टिभि:
च
अर्जुनक+ ऐ (मात्रा बहुवचन हेतु)
शतपत्र + ऐ (मात्रा बहुवचन हेतु)
कीचक + ऐ (मात्रा बहुवचन हेतु)/ पाठभेद कीरक+ऐ
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संदर्भ है जब पम्पा सरोवर तक पहुँचने से पूर्व राम लक्ष्मण गहन वन प्रांतर में होते हैं जोकि भाँति भाँति के वृक्षों से भरा हुआ है, विविध प्रकार के पक्षियों का कोलाहल है।
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कोयष्टि का अर्थ होता है तन्वी लकड़ी की भाँति शाखा / पाँव वाला। भि: बहुवचन के लिये भी प्रयुक्त हो सकता है एवं संज्ञा का अंग भी हो सकता है। विद्वानों ने दो अर्थ किये - ऐसा वृक्ष जिसकी टहनियाँ बहुत पतली होती हैं, भोजपुरी में कहें तो छरका।
दूसरा अर्थ टिभि से आया - टिट्टिभि - टिटहरी। इसके स्वर से तो आप परिचित ही होंगे। आजकल सुनाई दे तो कहते हैं सूखा पड़ेगा। गँवई घर की महिलायें सुनते ही आँगन में दो तीन बाल्टी पानी उड़ेल देती हैं - टोटका।
विविधै: नादितं - विविध प्रकार के खग रव से जोड़ कर देखें तो यह अर्थ उचित लगता है किंतु प्रसंग में वानस्पतिक विविधता का ऐसा वर्णन मिलता है कि पहला अर्थ भी ठीक प्रतीत होता है।
आगे बढ़ें अर्जुनक - पुन: समस्या, अर्जुन(क) वृक्ष भी होता है तथा अर्जुनक कठफोड़वे को भी कहते हैं, अर्जुन के वृक्ष सम्भवत: उसे अधिक प्रिय होते हों। खट खट की ध्वनि होती है जब चोंच मारता है - विविधैर्नादितं तद्वनं महत्!
अगला शब्द - शतपत्र, पुन: समस्या। शतपर्णी वृक्ष होता है तथा मोर को भी शतपत्र कहते हैं। नाचते नर मोर के पंख ऐसे लगते हैं कि नहीं कि सैकड़ो पत्तों का घाघरा पहन नाच रहा हो!
कीचक - एक प्रकार का पोला लम्बा छरहरा बाँस। इसके वन की विशेषता होती है कि जब इससे होकर वायु प्रवाह होता है तो कई प्रकार से सीटियों के बजने सी ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। प्रसंग से तथा विविध नाद से यह शब्द उपयुक्त है - विविधैर्नादितं तद्वनं महत्।
ठहरिये! एक पाठ कीरक भी तो है!
कीरक कहते हैं तोते को। बहुत से तोते एक साथ हों तो जो कोलाहल करते हैं, उसे तो आप जानते ही हैं - विविधैर्नादितं तद्वनं महत्।
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काव्यकर्म इसे कहते हैं जो आप को चेतना के अनेक आयामों का स्पर्श करा दे। इसे वही लिख सकता है जो वन वन का साथी रहा हो, यायावर हो, प्रेक्षक हो।
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रामायण एवं महाभारत आख्यान कहे गये हैं। आख्यान अर्थात जो घटित हुआ उसका गान। सहस्राब्दियों तक कुशीलव एवं सूत गायकों ने इन्हें लोक में जीवित रखा। दिक्काल भेद से इनमें परिवर्तन भी हुये, परिवर्द्धन भी किंतु सतर्क सावधान पाठ से मूल तक अधिकांशत: पहुँचा जा सकता है जिसके लिये दो विधियाँ अपनायी जाती हैं - निम्न समीक्षा, उच्च समीक्षा - Lower Criticism, Higher Criticism.
विशेषज्ञों का काम है। आप को मात्र यह ध्यान रखना है कि इन महाकाव्यों में प्राचीन भारत की समृद्धि को लिख कर संरक्षित कर दिया गया है, यह काम सहस्राब्दियों तक होता रहा।
रामायण काव्य एवं रामायण घटना - इन दो में अन्तर सम्भव हैं जिनके लिये लज्जित होने की आवश्यकता नहीं है अपितु गर्वित होने की आवश्यकता है कि हमारे पास ऐसा तंत्र था जिसने जाने कितनी आपदाओं के होते हुये भी समृद्धि को आगे की पीढ़ियों तक पहुँचाना सुनिश्चित किया। आप को पढ़ना है, मनन करना है, समझना है एवं आगे बढ़ना है। पुन: कह दूँ, आगे बढ़ना है।
वैष्णवों! रामायण में मदिरा या मांस के प्रकरणों से मुँह चुराने की आवश्यकता नहीं है। उसे इतिहास कहा गया है, संदर्भ एवं प्रसंग के अनुसार पढ़ें। सातत्य का ध्यान रखें, क्षेपक होगा तो पता चल ही जायेगा। विविध प्रकार की मदिरा वही सभ्यता बना एवं उनका सभ्य अनुप्रयोग कर सकती है जो अति उन्नत हो। आसव, अरिष्ट, रस, रसायन तो आयुर्वेद के अंग हैं। यही बात विविध प्रकार के खाद्य के लिये भी सच है।
दृष्टि ठीक रखिये, हीनता से मुक्ति मिलेगी।
... पवित्रात्माओं! इसका अर्थ यह नहीं कि मैं दारूबाजी एवं मांस भक्षण का प्रचार कर रहा हूँ। यदि आप को ऐसा प्रतीयमान है तो मेरी असफलता।
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शुभमस्तु।