शनिवार, 21 अप्रैल 2018

अरण्यकाण्ड का एक श्लोक : कोयष्टि टिट्टिभ, टिटहरी, कठफोड़वा, कीचक, कीरक

अरण्यकाण्ड का एक श्लोक है:  
कोयष्टिभिश्चार्जुनकैः शतपत्रैश्च कीच(र)कैः। 
एतैश्चान्यैश्च विविधैर्नादितं तद्वनं महत् ॥ 

यह महत्वपूर्ण श्लोक है। पहला अर्द्धांश तोड़ते हैं: 
कोयष्टि+भि / कोयष्टिभि: 
च 
अर्जुनक+ ऐ (मात्रा बहुवचन हेतु) 
शतपत्र + ऐ (मात्रा बहुवचन हेतु) 
कीचक + ऐ (मात्रा बहुवचन हेतु)/ पाठभेद कीरक+ऐ 
... 
संदर्भ है जब पम्पा सरोवर तक पहुँचने से पूर्व राम लक्ष्मण गहन वन प्रांतर में होते हैं जोकि भाँति भाँति के वृक्षों से भरा हुआ है, विविध प्रकार के पक्षियों का कोलाहल है। 
... 
कोयष्टि का अर्थ होता है तन्वी लकड़ी की भाँति शाखा / पाँव वाला। भि: बहुवचन के लिये भी प्रयुक्त हो सकता है एवं संज्ञा का अंग भी हो सकता है। विद्वानों ने दो अर्थ किये - ऐसा वृक्ष जिसकी टहनियाँ बहुत पतली होती हैं, भोजपुरी में कहें तो छरका। 
दूसरा अर्थ टिभि से आया - टिट्टिभि - टिटहरी। इसके स्वर से तो आप परिचित ही होंगे। आजकल सुनाई दे तो कहते हैं सूखा पड़ेगा। गँवई घर की महिलायें सुनते ही आँगन में दो तीन बाल्टी पानी उड़ेल देती हैं - टोटका। 
विविधै: नादितं - विविध प्रकार के खग रव से जोड़ कर देखें तो यह अर्थ उचित लगता है किंतु प्रसंग में वानस्पतिक विविधता का ऐसा वर्णन मिलता है कि पहला अर्थ भी ठीक प्रतीत होता है। 
आगे बढ़ें अर्जुनक - पुन: समस्या, अर्जुन(क) वृक्ष भी होता है तथा अर्जुनक कठफोड़वे को भी कहते हैं, अर्जुन के वृक्ष सम्भवत: उसे अधिक प्रिय होते हों। खट खट की ध्वनि होती है जब चोंच मारता है - विविधैर्नादितं तद्वनं महत्! 
अगला शब्द - शतपत्र, पुन: समस्या। शतपर्णी वृक्ष होता है तथा मोर को भी शतपत्र कहते हैं। नाचते नर मोर के पंख ऐसे लगते हैं कि नहीं कि सैकड़ो पत्तों का घाघरा पहन नाच रहा हो! 
कीचक - एक प्रकार का पोला लम्बा छरहरा बाँस। इसके वन की विशेषता होती है कि जब इससे होकर वायु प्रवाह होता है तो कई प्रकार से सीटियों के बजने सी ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। प्रसंग से तथा विविध नाद से यह शब्द उपयुक्त है - विविधैर्नादितं तद्वनं महत्। 
ठहरिये! एक पाठ कीरक भी तो है! 
कीरक कहते हैं तोते को। बहुत से तोते एक साथ हों तो जो कोलाहल करते हैं, उसे तो आप जानते ही हैं - विविधैर्नादितं तद्वनं महत्। 
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काव्यकर्म इसे कहते हैं जो आप को चेतना के अनेक आयामों का स्पर्श करा दे। इसे वही लिख सकता है जो वन वन का साथी रहा हो, यायावर हो, प्रेक्षक हो। 
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रामायण एवं महाभारत आख्यान कहे गये हैं। आख्यान अर्थात जो घटित हुआ उसका गान। सहस्राब्दियों तक कुशीलव एवं सूत गायकों ने इन्हें लोक में जीवित रखा। दिक्काल भेद से इनमें परिवर्तन भी हुये, परिवर्द्धन भी किंतु सतर्क सावधान पाठ से मूल तक अधिकांशत: पहुँचा जा सकता है जिसके लिये दो विधियाँ अपनायी जाती हैं - निम्न समीक्षा, उच्च समीक्षा - Lower Criticism, Higher Criticism. 
विशेषज्ञों का काम है। आप को मात्र यह ध्यान रखना है कि इन महाकाव्यों में प्राचीन भारत की समृद्धि को लिख कर संरक्षित कर दिया गया है, यह काम सहस्राब्दियों तक होता रहा।
रामायण काव्य एवं रामायण घटना - इन दो में अन्तर सम्भव हैं जिनके लिये लज्जित होने की आवश्यकता नहीं है अपितु गर्वित होने की आवश्यकता है कि हमारे पास ऐसा तंत्र था जिसने जाने कितनी आपदाओं के होते हुये भी समृद्धि को आगे की पीढ़ियों तक पहुँचाना सुनिश्चित किया। आप को पढ़ना है, मनन करना है, समझना है एवं आगे बढ़ना है। पुन: कह दूँ, आगे बढ़ना है। 
वैष्णवों! रामायण में मदिरा या मांस के प्रकरणों से मुँह चुराने की आवश्यकता नहीं है। उसे इतिहास कहा गया है, संदर्भ एवं प्रसंग के अनुसार पढ़ें। सातत्य का ध्यान रखें, क्षेपक होगा तो पता चल ही जायेगा। विविध प्रकार की मदिरा वही सभ्यता बना एवं उनका सभ्य अनुप्रयोग कर सकती है जो अति उन्नत हो। आसव, अरिष्ट, रस, रसायन तो आयुर्वेद के अंग हैं। यही बात विविध प्रकार के खाद्य के लिये भी सच है। 
दृष्टि ठीक रखिये, हीनता से मुक्ति मिलेगी। 
... पवित्रात्माओं! इसका अर्थ यह नहीं कि मैं दारूबाजी एवं मांस भक्षण का प्रचार कर रहा हूँ। यदि आप को ऐसा प्रतीयमान है तो मेरी असफलता। 
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शुभमस्तु।

रविवार, 15 अप्रैल 2018

वर्षा+शरद, हेमन्‍त+शिशिर

By Meinolf Wewel [CC BY 3.0 (https://creativecommons.org/licenses/by/3.0)], from Wikimedia Commons
जमदग्नि एवं ऋग्वैदिक ऋचा 'य॒ज्ञाय॑ज्ञा वो अ॒ग्नये॑ गि॒रागि॑रा च॒ दक्ष॑से । प्रप्र॑ व॒यम॒मृतं॑ जा॒तवे॑दसं प्रि॒यं मि॒त्रं न शं॑सिषम् ॥' पर विचरते आगे बढ़ा तो उसी सूक्त में मुझसे एक खोई हुई कड़ी मिल गयी। शिशिर के पश्चात बसंत ऋतु आती है। शिशिर में पत्ते झड़ने आरम्भ होते हैं तो बसंत तक वृक्ष वसन वस्त्र हीन हो पुन: नये धारण करने लगते हैं, संक्रमण काल होता है नवरसा का। उस सूक्त की आठवीं ऋचा रोचक है: विश्वा॑सां गृ॒हप॑तिर्वि॒शाम॑सि॒ त्वम॑ग्ने॒ मानु॑षीणाम् । श॒तं पू॒र्भिर्य॑विष्ठ पा॒ह्यंह॑सः समे॒द्धारं॑ श॒तं हिमा॑: स्तो॒तृभ्यो॒ ये च॒ दद॑ति ॥ शत शरद जीने के आशीर्वाद तो आप ने बहुत देखे होंगे। वर्षा के पश्चात शरद ऋतु आती है। वर्षा नवजीवन हेतु सृष्टि को समर्थ बनाती है किंतु उसके साथ बहुत कुछ अवांछित भी रहता है। उसका अंत देख एक और सुखदायी शरद देखने की कामना में उस आशीर्वाद का मूल है। किंतु इस ऋचा में शतं हिमा की बात की गयी है। विद्वानों ने इसे शत हेमंत बताया है। हेमंत, हिम का अंत जिसके आगे कड़ाके की ठण्ड वाला शिशिर होता है। हेमंत ऋतु वर्ष की सबसे 'स्वास्थ्यकर' ऋतु है। स्वभाव से ही क्षयी शरीर इस ऋतु में पुष्ट हो विस्तारी देह बनती है। जठराग्नि प्रदीप्त होती है त्वमग्ने मानुषीणां को शतं हिमा से मिला कर देखें तो इस आशीर्वाद में स्वस्थ जीवन बिताते हुये एक और पुष्टिकारक ऋतु तक जी लेने की कामना छिपी हुई है। नवप्रवालोद्रमसस्यरम्यः प्रफुल्लोध्रः परिपक्वशालिः। विलीनपद्म प्रपतत्तुषारोः हेमंतकालः समुपागता-यम्‌॥ (कालिदास, ऋतुसंहार) ब्राह्मण ग्रंथों को देखें तो रोचक तथ्य दिखते हैं। शतपथ में वर्षा एवं शरद को मिला कर पाँच ऋतुओं की बात की गयी है:
लोको॑वसन्त॑ऋतुर्य॑दूर्ध्व॑मस्मा॑ल्लोका॑दर्वाची॑नमन्त॑रिक्षात्त॑द्द्विती॑यम॑हस्त॑द्वस्याग्रीष्म॑ऋतु॑रन्त॑रिक्षमेवा॒स्य मध्यमम॑हरन्त॑रिक्षमस्य वर्षाशर॑दावृतू य॑दूर्ध्व॑म्न्त॑रिक्षादर्वाची॑नं दिवस्त॑च्चतुर्थम॑हस्त॑द्वस्य हेमन्त॑ऋतुर्द्यउ॑रेवा॒स्य पञ्चमम॑हर्द्यउ॑रस्य शि॑शिर ऋतुरि॑त्यधिदेवतम्।
शतपथ के पुरुषमेध का प्रारम्भ पाँव से होता है और पाँव है ऋतुओं में सर्वश्रेष्ठ बसंत! शतपथ का वर्षा और शरद को मिलाना उस ऋग्वैदिक कूट कथ्य से भी जुड़ता है जिसमें इन्द्र वृत्र को मार कर सूर्य और वर्षा दोनों को नया जीवन देते हैं। पुरुषमेध में यह देह का केन्द्रीय भाग अर्थात कटि है। ऐसा क्यों? इसमें उस समय की स्मृति है जब वर्ष का आरम्भ वर्षा से था। शरद मिला देने पर शरद विषुव जोकि वसंत विषुव से छ: महीने के अंतर पर पड़ता है, वर्षा के साथ आ जाता है, नाक्षत्रिक एवं ऋत्विक प्रेक्षणों के सम्मिलन से सुविधा हो जाती है।
ऐतरेय ब्राह्मण में हेमंत एवं शिशिर को मिला दिया गया है: हेमन्‍तशिशिरयो: समासेन तावान्‍संवत्सर: संवत्सर: प्रजापति: प्रजापत्यायतनाभिरेवाभी राध्नोति य एवं वेद। आजकल के आधे कार्त्तिक से आधे फाल्गुन तक के इस कालखण्‍ड में माघ महीना पड़ता है जो कभी संवत्सर का आरम्भ मास था, वही शीत अयनांत वाली उत्तरायण अवधि जिसे अब लोग संक्रांति के रूप में मनाते हैं। पुन: ऐतरेय ब्राह्मण वाला अंश पढ़ें तो! ... शेष पुन: कभी। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारी मान्यताओं में जाने कितनी सहस्राब्दियों के अवशेष छिपे हुये हैं। डूबने की आवश्यकता है।

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018

~ बिहने सतुवानि ह ‍~ बैसाखी, सौर नववर्ष

भारत में पञ्चाङ्गों की बड़ी समृद्ध परम्परा रही। एक साथ सौर एवं सौर-चंद्र तथा शीत अयनान्त एवं बसन्‍त विषुव के साथ आरम्भ होने वाले पञ्चाङ्ग प्रचलित रहे। जन सामान्य में चंद्र आधारित महीने यथा चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ इत्यादि ही प्रचलित रहे जोकि पूर्णिमा के दिन चंद्रमा की नक्षत्र विशेष के साथ संगति पर आधारित थे, यथा चैत्र में चित्रा पर, वैशाख में विशाखा पर। चंद्र की घटती बढ़ती कलाओं से बीतते दिनों की गिनती में सुविधा रहती थी। सौर आधारित महीने मधु, माधव इत्यादि मुख्यत: श्रौत सत्र आधारित गतिविधियों में प्रचलित रहे जिनकी चंद्र आधारित महीनों से संगति जन सामान्य में भी प्रचलित थी यथा चैत्र का महीना मधु है। तुलसीदास ने लिखा - नवमी तिथि मधुमास। ग्रेगरी का प्रचलित कैलेण्डर सौर गति आधारित है जिसका चंद्र कलाओं से कोई सम्बंध नहीं। आप के यहाँ जो अब संक्रांतियाँ मनाई जाती हैं, वे भी सूर्य गति से सम्बंधित हैं जिनका चंद्र कलाओं से कोई सम्बंध नहीं। इस कारण ही मकर संक्रांति प्रति वर्ष 14/15 जनवरी को ही पड़ती है तथा मेष संक्रांति 13/14 अप्रैल को। मेषादि राशिमाला का प्रथम बिंदु होने से यह सौर नव वर्ष होता है जिसे सतुवानि के रूप में भोजपुरी क्षेत्र में मनाया जाता है तो तमिलनाडु में नववर्ष के रूप में। पञ्जाब में बैसाखी के रूप में मनाया जाता है। रबी की सस्य के अन्न से जुड़े इस पर्व में जौ, चना इत्यादि का सत्तू ग्रहण करने का पूरब में प्रचलन है। अब आप पूछेंगे कि तब युगादि वर्ष प्रतिपदा क्या थी? नाम से ही स्पष्ट है - चंद्र मास का पहला दिन अर्थात वह नववर्ष चंद्र-सौर पञ्चांग से है। दोनों में क्या समानता है या दोनों कैसे सम्बंधित हैं? उत्तर है कि दोनों वसंत विषुव के दिन के निकट हैं जब कि सूर्य ठीक पूरब में उग कर ठीक पश्चिम में अस्त होते हैं। यह 20 मार्च को पड़ता है, उसके निकट की पूर्णिमा को चंद्र चित्रा पर होते हैं तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा चंद्र-पञ्जाङ्ग से नववर्ष होती है। 20/21 मार्च से 13/14 अप्रैल के बीच ~ 24 दिनों का अंतर है तो शीत अयनांत 21/22 दिसम्बर से 14/15 जनवरी के बीच भी इतने ही दिनों का। ऐसा क्यों है? वास्तव में हमलोग उत्तरायण मनाते थे, उसे सूर्य के अधिकतम दक्षिणी झुकाव से उत्तर के दिन से मानने का प्रचलन था तो वासंती विषुव के सम दिन से उत्तर की ओर बढ़ने का दिनांक भी महत्त्वपूर्ण था। जब 27 नक्षत्र आधारित गणना पद्धति में 12 राशि आधारित गणना पद्धति का प्रवेश हुआ तो उस समय मकर संक्रांति एवं मेष संक्रांतियाँ क्रमश: शीत अयनांत 21/22 दिसम्बर एवं वसंत विषुव 20/21 मार्च की सम्पाती थीं अर्थात सम्बंधित संक्रांति, अयन, विषुव एक ही दिन पड़ते थे। 12 राशियों में सूर्य की आभासी गति का प्रेक्षण 27 की अपेक्षा सरल था जिसे तत्कालीन ज्योतिषियों ने बढ़ावा भी दिया। सदियों में लोकस्मृति में संक्रांतियाँ ही रह गयीं, उत्तरायण को लोग उनसे ही जानते लगे किंतु धरती की धुरी की एक विशिष्ट गति के कारण सम्पात क्रमश: हटता जा रहा है। अब अंतर ~24 दिनों का हो गया है जो आगे बढ़ता ही जायेगा। ... गणित हो गया, अब प्रेक्षण।
कल सतुवान के दिन प्रात: साढ़े चार बजे उठ कर पूर्व उत्तर दिशा में देखें। तीन चमकते तारे दिखेंगे - सबसे ऊपर अभिजित, नीचे हंस एवं गरुड़ नक्षत्र मण्डल के सबसे चमकीले तारे। इन तीनों को मिला कर जो त्रिभुज बनता है उसे 'ग्रीष्म त्रिभुज' कहते हैं। अप्रैल आधा बीत गया। मई जून की झुलसाती धूप तो आने वाली है न, बैसाख जेठ की तपन के पश्चात आषाढ़ सावन भादो की झड़ी भी आयेगी।
वर्ष को वर्षा से ही नाम मिला। किसी विश्वामित्र के पत्रे में 21 जून से नववर्ष मिल जाय तो आश्चर्य चकित न हों, उस दिन ग्रीष्म अयनांत होता है, सूर्य देव अधिकतम उत्तरी झुकाव से दक्षिण की यात्रा आरम्भ करते हैं अर्थात घनघोर बरसते पर्जन्य की भूमिका। मानसून कब प्रबल होता है? वर्षा न हो तो धरा कैसे तृप्त हो? स्थावर जङ्गम को जीवन कैसे मिले? हरियाली कैसे हो? 21 जून से नववर्ष मनाने की तुक तो है ही, देखें तो उसके निकट कौन सी संक्रांति है? कहीं मनायी जाती है क्या?