गुरुवार, 2 अगस्त 2018

जाति एवं जातिवाद से आगे क्या

पिछले भाग से आगे ... 


कभी कभी एक वाक्य ही आप को बहुत गहराई तक सोचने पर विवश कर देता है, आप की धारणाओं को तोड़ देता है। सम्भवत: यह घटना पहले भी लिख चुका हूँ, लोहार एवं ब्राह्मण परिवारों में कलह हुआ , बात बढ़ी नहीं क्यों कि समझदारी दोनों पक्षों में थी। उस समय अशिक्षित लोहार गृहणी ने एक बात कही - वे लोग ब्राह्मण हैं, बारह गुण वाले, हम लोग विश्वकर्मा हैं, बीस गुण वाले, क्षत्रिय छत्तीस। जाने क्यों यह हास्यास्पद वाक्य मन में कहीं स्थिर सा हो गया, साथ ही यह भी कि तब तो शूद्र शत अर्थात सौ गुणों वाले होंगे जो कि वैविध्य देखते ठीक ही लगता है। उसी समय सम्भवत: अज्ञेय की 'शेखर एक जीवनी' में एक प्रसंग मिला जिसमें खा पी कर सो जाने पर एक घर की महिला अपने बालक को रटवाती थी - हम लोग _________ हैं। समझे? लेखक के संकेत से उसका अंत्यज होना समझ में आता है।    
जैसे एक गुहा खुली हो, मुझे वे वाक्य गर्वबोध लगे। सहस्राब्दियों में पसरे वैविध्य भरे भारतीय इतिहास का एक बहुत बड़ा सच खुलता चला गया - अपनी जाति पर गर्व, जाति खोने का भय एवं जाति कर्म बनाये रखने का उद्योग - भारत की दीर्घजीविता के महत्वपूर्ण कारणों में से हैं। जिस जाति व्यवस्था पर ब्रिटिश काल से ही सुधारकों ने अकूत पानी डाला, एवं आज भी डाले जा रहे हैं, वह जाती क्यों नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत बचा ही इस वैविध्य के कारण? 
गर्वबोध उत्कृष्टता का था। लोहार अपने काम में पीढ़ियों से अर्जित दक्षता रखता था, वयनजीवी भी, प्राय: प्रत्येक जाति के साथ क्रमश: उत्कृष्ट होते जाने का सच साथ था। ब्रिटिश आगमन से पूर्व तक सदियों के आक्रमण एवं लूट अनाचार को झेलता भारत आर्थिक रूप से समृद्ध बना रहा, सामाजिक शक्ति बनी रही। संस्कृति भी सम्पदावान होती रही तो क्यों भला? कारण जाति व्यवस्था में अंतर्निहित उत्कृष्टता थी। प्रत्येक जाति अपना योगदान कर रही थी तो क्यों भला? प्रशासन तंत्र स्वस्थ था। आक्रांता मुसलमानों ने भी इस व्यवस्था से बहुत अधिक छेड़ छाड़ की हो, नहीं लगता। उनके माथे कलंक है कि कुछ प्रतिरोधी जातियों को वञ्चित कर घृणित जीवन जीने पर विवश किया किन्‍तु सुचिंतित ढंग से हर क्षेत्र में आक्रमण घुसपैठ कर विकृतिकरण के साथ साथ पीढ़ियों से अर्जित कौशल का समूल नाश करने का काम अंग्रेजों ने किया। उन्हों ने शिक्षा व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन कर भारतीय जन को आत्महीनता एवं आत्मघृणा से पूरित मानसिक दास बनाया जो कि आज तक चला आ रहा है। 
उनके आने से पहले की एक सहस्राब्दी भारतीय प्रतिरोध, जिजीविषा एवं शक्ति की ज्वलंत उदाहरण है जिसे कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने पूर्णत: उलट चित्रित किया है। शक, हूण, इस्लामी आक्रमणों के साथ सभ्यतायें समूल नष्ट हो गयीं किंतु भारत बना रहा तो अपने प्रबल प्रतिरोधी भाव के कारण। 
यदि आप मानते हैं कि भारतीय सेनाओं में मात्र राजपूत ही थे तो भयानक भूल कर रहे हैं। वनवासियों से ले कर ब्राह्मणों तक, भारत की प्रत्येक जाति अपनी भूमि, अपनी संस्कृति एवं अपनी संतति की सुरक्षा हेतु लड़ी तब हम आज  जीवित बचे हुये हैं। जिससे जो हो सका, शत प्रतिशत से भी अधिक किया, तब हम आज बचे हुये हैं। 
हीनता बोध के पुरोधा इतिहासकार उदाहरण देते हैं कि युद्ध हो रहा था, जनता देख रही थी या धन ले कर किसी भी पक्ष में भारतीय लोग लड़ जाते थे, उनमें राष्ट्रीय भावना नहीं था आदि आदि। 
युद्ध प्रशिक्षित सेनायें लड़ती हैं, उनमें सामान्य जनता का क्या काम? क्या यह सच नहीं कि प्रत्येक जाति के सैनिक लड़े? वे क्या भावप्रवण नहीं थे? साधारणीकरण बुद्धिजीवी के पास उपलब्ध सबसे घातक अस्त्र होता है, जिसके अनुप्रयोग में कम्युनिस्ट इतिहासकार निष्णात हैं। 
धन ले कर कुछ भी करने वाले तो सदा से रहे हैं, आज भी हैं। इस कारण से यदि आधुनिक काल बुरा नहीं तो मध्य काल कैसे हो गया बंधु! शत प्रतिशत आदर्श की बात कर हीनता बोध से भरता चरम श्रेणी की धूर्तता है, अन्य कुछ नहीं। मूल भाव देखना होता है कि क्या था? भारत आदर्शों की दृष्टि से उस समय भी आदर्श था एवं सम्पूर्ण सभ्य विश्व में उसकी कीर्ति बनी हुयी थी। 
विविध जातियों के रहने का लाभ यह था कि किसी एक के नाश या पराभव से सब कुछ का नाश नहीं होने वाला था। भारत पुन: पुन: उठ खड़ा होता था तो इसके पीछे सञ्जीवनी जाति व्यवस्था ही थी जिसने धूर्त अंग्रेजों को मौलिक विकृतियों की स्थापना हेतु विवश किया कि वाणिज्यिक एवं आर्थिक दोहन के साथ भारत पर शासन तब ही सम्भव है, जब जाति केंद्रित उत्कृष्टता को नष्ट भ्रष्ट कर निर्वात को अपने अनुकूल तत्वों से भर दिया जाय। बहुत ही सधे हुये ढंग से उन सबने यह सुनिश्चित किया। 
आज भारत उनके बनाये विधान द्वारा शासित है। अंग्रेज का अर्थ अंग्रेज एवं उनके मानस पोषितों से लें। यह विधान समानता वादी है, सिद्धांतत:, दिखाने को सब को समान अवसर उपलब्ध हैं किंतु वास्तविकता यह है कि जाति एवं पंथ आधारित विशेष प्रावधान इतने सुगढ़ हैं कि सामान्य जन देख देख सीझते रहते हैं। लोकतंत्र के नाम पर भींड़तंत्र में धनबल एवं जनबल की चलती है। पुरानी उत्कृष्टता रही नहीं, कुशीलव, शिल्पी एवं उत्पादक समाज ने हीनता बोध से ग्रसित हो कोड़ियों व्यवसाय अब्राहमी पंथों के हाथ दे दिये, ले दे कर या तो श्रम बेंचना बचा या बढ़ती जनसंख्या के बोझ से आक्रांत भूमि का एक टुकड़ा जिसका सस्य उत्पादन न तो पर्याप्त है, न मूल्यवान। यह दशा द्विज कहलाने वाले अधिकतर त्रिवर्ण की भी है। ऐसे में समाज विकासशील भले दिखे, विकसित नहीं हो सकता। 
हताशा की स्थिति में बीते कुछ बीसेक वर्षों में जाति आधारित जातिवादी सङ्गठनों की बाढ़ सी आ गयी है - जन बल होने का भ्रामक बोध इसका कारण है। कहते हैं कि श्रेष्ठताबोध एवं हीनताबोध एक ही निष्क के दो पक्ष होते हैं। इसका जातिवादी संगठनों से उपयुक्त उदाहरण हो ही नहीं सकता। ऐसा तब है जब विधान को सत्तर वर्ष भी नहीं हुये ! 
इससे आप अपने पुरखों की स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं जब आक्रांता उनके राजा बन बैठते थे, समाज का संतुलन डाँवाडोल हो जाता था एवं आदर्श विपथगामी। भारत की, उनकी शक्ति एवं बुद्धिमत्ता इसमें थी कि परिवर्तित होती सदियों में परिवर्तित होते हुये उन्हों ने स्वयं को जीवित तो रखा ही, समृद्ध भी बनाये रखा। आप में वह शक्ति नहीं रही जिसके कारण आप जातिवादी संगठनों को उन्मुख होते हैं, वे संगठन जिन पर अधिकांशत: धन बल वालों का प्रभुत्व है, जो आप का उपयोग अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु करते हैं।  
प्राचीन ग्रंथों के सावधान अवगाहन से बहुत से सत्य झाँकते दिख जाते हैं, सबसे बड़ा सत्य यह है कि वेदों के अतिरिक्त समस्त ग्रंथों में सामयिक परिवर्तन परिवर्द्धन होते रहे। समाज की शक्ति उसकी नम्यता, आघातवर्द्धनीयता एवं नित्यता थी। वे जन मृषा का प्रसार करते हैं जिनके अनुसार किसी व्यास, किसी पराशर या किसी मनु के द्वारा जो शास्त्र रचे गये वे तब से यथावत हैं, उनमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। ऐसे जन समाजद्रोही कहे जाने चाहिये क्यों कि वे आप को शक्ति से वञ्चित कर रहे होते हैं। शक्तिवञ्चना आक्रमण का ही दूसरा पक्ष है, लक्ष्य वही निर्बल निरीह बनाये रखना या बना देना। 
इन शास्त्रों में बहुत सी ऐसी बातें मिलती हैं जो समसामयिक निकष पर घृणित ठहरती हैं। वे पूर्णत: घृणित मन्तव्य से रची गईं, ऐसा नहीं है। ऊपर सत्तर वर्षों में ही जो स्थिति हुई है, लिख चुका हूँ। ऐसी ही जाने कितनी स्थितियों का सामना शताब्दियों में पसरे भारतीय जन ने किया एवं अपने विधान, अपने शास्त्र आवश्यकतानुसार परिवर्तित परिवर्द्धित किये। यह उनकी शक्ति थी। जो विधान अप्रासङ्गिक हो गये थे, उनके त्याग के उल्लेख शास्त्रों में भी मिलते हैं अत: आज अप्रासंगिक हो गये विधानों को लेकर रोना एवं आक्रोश मूर्खता एवं हीनताबोध के अतिरिक्त कुछ नहीं। नया विधान है, उसमें कैसे आप समृद्ध, निरामय एवं प्रगतिगामी होते हुये स्वयं को, परिवार को, समाज को, राष्ट्र को आगे ले जा सकते हैं, यह विचार का विषय है, बीते हुये पर वक्षताड़न करना नहीं।    
जाति पर ही शास्त्रों में एक महत्वपूर्ण पक्ष मिलेगा - शूद्र स्वयं को शूद्र कहने में लज्जा का अनुभव नहीं करते थे। क्यों ? क्यों कि उनके पास उत्कृष्टता का बल था, कौशल था, आत्मविश्वास एवं आत्मगौरव का पीढ़ियों से सञ्चित भाव था; समृद्धि तो थी ही। आप को शूद्र राजाओं के भी उल्लेख मिलेंगे। ऐसे समझें कि उत्पादक एवं शिल्पी समाज के दरिद्र रहते हुये कोई भी देश 'सोने की चिड़िया' नहीं हो सकता। यदि ये फलते फूलते नहीं रहेंगे तो धन आयेगा कहाँ से? 
बिना इस मीमांसा में पड़े हुये कि ऐसे अंश कब आये होंगे, यदि हम आगे दिये कतिपय उदाहरणों पर ध्यान दें कि ऐसा कभी सुदूर भूत में हुआ था तो सुंदर सचाइयाँ उद्घाटित होती हैं। 
भारत काल में मंत्री विदुर नीति का उपदेश एवं अपनी विचार अभिव्यक्ति पूरे विश्वास के साथ करने के पश्चात कहते हैं कि मैं शूद्र हूँ, मुझे श्रुति अधिकार नहीं है, अत: मैं आगे नहीं कह सकता। पुराण प्रवक्ता सूत लोमहर्षण कहते हैं कि प्रतिलोमज (ब्राह्मण माता एवं क्षत्रिय पिता की संतान) होते हुये भी हमें ऋषि समाज को सुनाने का गौरव मिला है। मौर्य काल में चाणक्य लिखते हैं कि पुराणों के सूत प्रतिलोमज सूतों से भिन्न हैं एवं वे ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों से विशिष्ट हैं। विष्णु पुराण सौति को महामुनि एवं जगद्गुरु जैसी संज्ञाओं से विभूषित करता है।  
सहस्राब्दियों की परास के इन कुछ उद्धरणों से जो स्पष्ट होता है, वह यह है कि विविध जातियों को अपनी निजी जाति को ले कर हीनता बोध न था एवं समस्त व्यवस्था लचीली थी, प्रवाही थी तथा उसमें सामयिक यथार्थ के अनुकूल बने रहने का गुण  था। ऐसा जब तक रहा, भारत बना रहा। अंग्रेजों के 'इण्डिया' में उत्कृष्टता गई, गौरव बोध गया, समृद्धि भी गयी, बच गया भङ्ग समूह-बोध जो कि विविध जातियों को जातिवादी संगठनों की ओर आकर्षित करता है। 
जाति उन्मूलन एवं जातीय वर्चस्व स्थापना जैसी वायवीय संकल्पनाओं को तज 'उत्कृष्टता' की साधना करें, जाति चाहे जो हो। यह मार्ग पहले भी प्रभावी था, आज भी है। भारत के नाम में ही 'भा', भासमान प्रकाश है, हम अन्धकार में कभी नहीं रहे, हमें केवल अंधकार युग की संतति बताया जाता रहा है जिसका उद्देश्य औपनिवेशिक स्वार्थपूर्ति रहा एवं अब निहित स्वार्थ वश भींड़ तंत्र में सत्ता में बने रहना है। आँखें खोलिये, भासमान भारत पुकार रहा है। 
आप उत्कृष्ट होंगे तो जाति, समाज एवं देश, सभी उत्कृष्ट होंगे। ऐसे में सबका स्वार्थ भी सधेगा या नहीं?


2 टिप्‍पणियां:

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