शनिवार, 13 अक्टूबर 2018

रावण द्वारा सीताहरण : रामेति सीता दु:खार्त्ता ... हा लक्ष्मण महाबाहो गुरुचित्तप्रसादक !

रावण ने छल का रूप धारण किया - शिखा, दण्ड, कमण्डल, काषाय वस्त्र, पाँवों में उपानह, छाता - एक परिव्राजक, परिभ्रमण करने वाले भिखारियों का जो रूप होता है, वह धारण किया। (3044001-3)
तया परुषमुक्तस्तु कुपितो राघवानुजः । स विकाङ्क्षन्भृशं रामं प्रतस्थे नचिरादिव ॥
तदासाद्य दशग्रीवः क्षिप्रमन्तरमास्थितः । अभिचक्राम वैदेहीं परिव्राजकरूपधृक् ॥
श्लक्ष्णकाषायसंवीतः शिखी छत्री उपानही । वामे चांसेऽवसज्याथ शुभे यष्टिकमण्डलू ।
परिव्राजकरूपेण वैदेहीं समुपागमत् ॥

इतना कायर था कि लक्ष्मण के रहते वहाँ नहीं आया, चले जाने की प्रतीक्षा करता रहा। सीता तो सरलमना हैं, अपहृत होने से पूर्व उनका उसके साथ का जो संवाद है, वह उनके मन में करुणा जगाता है जो आगत जानते हैं। सीता कुछ नहीं छिपातीं। आज भी गाँव गिराम में भ्रमण करते वैरागियों के प्रति स्त्रियों का जो सहज भाव होता है, वह वाल्मीकि के वर्णन में निखर उठता है एवं विडम्बना पर पाठक का मन त्राहि त्राहि करने लगता है (साथ ही मुण्डियों, जटिलों आदि से स्त्रियों को दूर रखने की नीतिज्ञों की चेतावनी भी प्रतिध्वनित होने लगती है।)
उसके आगमन की भयानकता को रेखांकित करने हेतु वाल्मीकि नाक्षत्रिक एवं भौमिक, दोनों उपमाओं का आश्रय लेते हैं, निकट बहती नदी तक मन्द हो जाती है ! राम, लक्ष्मण के न होने पर सीता ऐसे जैसे सूर्य एवं चंद्र के बिना संध्या हो, रावण ऐसे जैसे चित्रा नक्षत्र पर शनि की छाया हो, जैसे तृणों से ढका कुँआ हो ! सीता पति एवं देवर के कुशल की चिन्‍ता में थीं, सोच के कारण भव्य रूप अभव्य हो रहा था किन्‍तु अतिथि  ब्राह्मण के सत्कार हेतु पूर्णत: प्रस्तुत हुईं :   
3044001a तया परुषमुक्तस्तु कुपितो राघवानुजः
3044001c स विकाङ्क्षन्भृशं रामं प्रतस्थे नचिरादिव
3044002a तदासाद्य दशग्रीवः क्षिप्रमन्तरमास्थितः
3044002c अभिचक्राम वैदेहीं परिव्राजकरूपधृक्
3044003a श्लक्ष्णकाषायसंवीतः शिखी छत्री उपानही
3044003c वामे चांसेऽवसज्याथ शुभे यष्टिकमण्डलू
3044003e परिव्राजकरूपेण वैदेहीं समुपागमत्
3044004a तामाससादातिबलो भ्रातृभ्यां रहितां वने
3044004c रहितां सूर्यचन्द्राभ्यां संध्यामिव महत्तमः
3044005a तामपश्यत्ततो बालां राजपुत्रीं यशस्विनीम्
3044005c रोहिणीं शशिना हीनां ग्रहवद्भृशदारुणः
3044006a तमुग्रं पापकर्माणं जनस्थानरुहा द्रुमाः
3044006c समीक्ष्य न प्रकम्पन्ते न प्रवाति च मारुतः
3044007a शीघ्रस्रोताश्च तं दृष्ट्वा वीक्षन्तं रक्तलोचनम्
3044007c स्तिमितं गन्तुमारेभे भयाद्गोदावरी नदी
3044008a रामस्य त्वन्तरं प्रेप्सुर्दशग्रीवस्तदन्तरे
3044008c उपतस्थे च वैदेहीं भिक्षुरूपेण रावणः
3044009a अभव्यो भव्यरूपेण भर्तारमनुशोचतीम्
3044009c अभ्यवर्तत वैदेहीं चित्रामिव शनैश्चरः
3044010a स पापो भव्यरूपेण तृणैः कूप इवावृतः

देवी सीता के रूप को देख रावण कामबाण से आहत हो गया तथा वेदमन्त्र पढ़ने लगा जिससे कि उनमें विश्वास हो जाय कि यह तो कोई महापुरुष हैं ! दृष्ट्वा कामशराविद्धो ब्रह्मघोषमुदीरयन् । तत्पश्चात उसने उनके रूप का विशद वर्णन उन्हीं से किया।
ब्रह्मघोषं को वेद वाचन मानें या ब्राह्मण होने का उद्घोष, दोनों ही स्थितियों में तत्कालीन समय अनुसार छल की पराकाष्ठा ही परिलक्षित होती है।
आर्यावर्त के दो महान कुलों का संस्कार था, देवी सीता ने अतिथि ब्राह्मण का आदर करते हुये पाद्य अर्घ्य समर्पित किया एवं भोजन हेतु निमंत्रण भी दिया किन्‍तु कथित रूप से परम विद्वान, पौलस्त्य राक्षस रावण के मन में तो कुछ और ही था !
3044033a द्विजातिवेषेण समीक्ष्य मैथिली; तमागतं पात्रकुसुम्भधारिणम्
3044033c अशक्यमुद्द्वेष्टुमुपायदर्शना;न्न्यमन्त्रयद्ब्राह्मणवद्यथागतम्
3044034a इयं बृसी ब्राह्मण काममास्यता;मिदं च पाद्यं प्रतिगृह्यतामिति
3044034c इदं च सिद्धं वनजातमुत्तमं; त्वदर्थमव्यग्रमिहोपभुज्यताम्
3044035a निमन्त्र्यमाणः प्रतिपूर्णभाषिणीं; नरेन्द्रपत्नीं प्रसमीक्ष्य मैथिलीम्
3044035c प्रहस्य तस्या हरणे धृतं मनः; समर्पयामास वधाय रावणः
3044036a ततः सुवेषं मृगया गतं पतिं; प्रतीक्षमाणा सहलक्ष्मणं तदा
3044036c निरीक्षमाणा हरितं ददर्श त;न्महद्वनं नैव तु रामलक्ष्मणौ

ब्राह्मणवेशधारी राक्षस रावण ने परिचय पूछा एवं देवी सीता ने परिचय देने से पूर्व एक मुहूर्त (दो घटी या आज का 48 मिनट) तक विचार किया - दुविधा समझी जा सकती है कि अपरिचित आगंतुक से कुछ अधिक बताना ठीक नहीं, किन्‍तु ब्राह्मण है, वेदघोष करता है, न बताने पर कहीं रुष्ट हो शाप दे बैठा तो!
3045001a रावणेन तु वैदेही तदा पृष्टा जिहीर्षुणा
3045001c परिव्राजकरूपेण शशंसात्मानमात्मना
3045002a ब्राह्मणश्चातिथिश्चैष अनुक्तो हि शपेत माम्
3045002c इति ध्यात्वा मुहूर्तं तु सीता वचनमब्रवीत्

अपना परिचय देने के पश्चात देवी सीता ने रावण से परिचय पूछा जो कि समयसम्मत था कि ब्राह्मण से नाम, गोत्र एवं कुल का परिचय पूछा जाना चाहिये - स त्वं नाम च गोत्रं च कुलमाचक्ष्व तत्त्वत: ।
रावण ने क्या ब्राह्मणत्व वाला परिचय दिया !
हे सीता ! देव, सुर, मनुष्य सहित जिससे समस्त लोक त्रस्त हैं, मैं वह रावण नामधारी राक्षसराज हूँ - 
येन वित्रासिता लोका: सदेवासुरमानुषा: ।  अहं स रावणो नाम सीते रक्षोगणेश्वर: ॥
लम्पट ने पटरानी होने का प्रस्ताव रख दिया । देवी सीता तो जैसे आकाश से गिरीं ! श्रीराम के प्रति महेन्द्र एवं सागर, दोनों की उपमा देते हुये मानों उन्हों ने उनके प्रति अपने दृढ़ एवं गहन प्रेम का परिमाण प्रस्तुत कर दिया - महागिरिमिवाकम्प्यं महेन्‍द्रसदृशं पतिं । महोदधिमिवाक्षोभ्यमहं राममनुव्रता ॥
आगे उन्हों ने उसे जो खरी खोटी सुनाई है, वह अप्रतिम है - जम्बुक: सिंहीं इच्छसि ! ब्रह्मराक्षस रावण अपनी लम्पटता के कारण जगविख्यात था। सीता को अपने अपहरण की आशंका हो गई, उन्होंने उसे श्रीराम का बल प्रभाव बताते हुये चेताया कि जलती हुई आग को कपड़े में बाँध ले जाना चाहता है! मारा जायेगा।
राक्षस समझ गया कि प्रलोभन से नहीं मानेगी, स्यात कुल की डींग हाँकने से मान जाय ! कुल के डींग की प्रवृत्ति आज भी दशहरे के निकट कुछ में मरोड़ने लगती है - सवर्ग प्रीति।
उसने कहा - मैं वैश्रवण कुबेर का सौतेला भाई हूँ - भ्राता वैश्रवणस्याहं सापत्न्यो वरवर्णिनि। सीता ने उत्तर दिया - अरे, वे तो समस्त देवों के पूजनीय हैं। तुम उनसे अपने को जोड़ पापकर्म करता है - कथं वैश्रवणं देवं सर्वभूतनमस्कृतम् !
श्रीराम के प्रति विश्वास फूट पड़ा - इंद्र की पत्नी शचि का अपहरण कर सम्भव है जीवित रहना किंतु राम की पत्नी का हरण कर कुशल से रह पाना - असम्भव!
अपने प्रति अभिमान भी भर आया - मेरे जैसी स्त्री का अपहरण कर तू अमृत भी पी ले तो जीते जी तुम्हें छुटकारा नहीं होना - न मादृषीं धर्षयित्त्वा पीतामृतस्यापि तवास्ति मोक्ष: !
रावण ने सौम्य रूप त्याग कर विकराल रूप धारण कर लिया, कामलोलुप हो उन्हें पकड़ लिया मानों बुध ने अपनी माता रोहिणी को उस भाव से पकड़ने का दुस्साहस किया हो - बुध: खे रोहिणीमिव
जो ब्रह्मबंधु यह लिखते नहीं थकते कि रावण ने देवी सीता को छुआ तक न था (उनके लिये जब तक बलात्कारी यौन कर्म सम्पन्न न हो जाय, तब तक छुआ क्या?) उनके लिये यह श्लोक :
वामेन सीतां पद्माक्षीं मूर्धजेषु करेण स: । 
ऊर्वोस्तु दक्षिणेनैव परिजग्राह पाणिना ॥
उसने बायें हाथ से कमलनयनी सीता के केश पकड़े, दाहिने हाथ को उनकी जंघाओं के नीचे लगा उठा लिया । 
खरयुक्त: खरस्वन: - गधों से जुता एवं उनके समान ही ध्वनि करने वाले महारथ पर बिठा कर ले चला। 
सीता दु:खी एवं आर्त्त हो राम लक्ष्मण को पुकारने लगीं - रामेति सीता दु:खार्त्ता ... हा लक्ष्मण महाबाहो गुरुचित्तप्रसादक !

मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

निजी हिन्दी चिट्ठाकारी - एक सिंहावलोकन




मैंने दस वर्ष पूर्व विक्रम संवत 2065 में चिट्ठा (blog) हिंदी में लिखना आरम्भ किया तथा उसे पूरब की माटी के अनुकरण में 'चिठ्ठा' कहा, 'ठ' का डेढ़त्व 😄। उस वर्ष मात्र एक प्रविष्टि रही । 
तब से अब तक दो मुख्य एवं अन्य चिट्ठों को मिला कर प्राय: सवा ग्यारह सौ प्रविष्टियाँ लिख चुका हूँ।
गद्य लेखन हेतु मुख्यत: 'आलसी का चिठ्ठा' है तो पद्य हेतु 'कवितायें और कवि भी'। पद्य एवं गद्य प्रविष्टियों में अनुपात ‍~ 1:2 का रहा है। 2067 सबसे उर्वर वर्ष रहा जिसमें लगभग पौने तीन सौ प्रविष्टियाँ आईं तथा पद्य एवं गद्य की लगभग समान संख्या रही। आगे के दो वर्ष संख्या घटी किन्‍तु नव्य विषयों पर नई विधाओं में रचना कर्म हुआ। 2069 के पश्चात 2070 में सहसा ही प्रविष्टि संख्या पहले की 55% रह गई, आगे के वर्षों में भी संख्या घटती चली गयी। वर्ष 2072 में मात्र 27 प्रविष्टियाँ आईं, तब से अब अति मंद गति से उठान है इस वर्ष अब तक 36 प्रविष्टियाँ हो चुकी हैं।
इन वर्षों में भाषा अनिवार्यत: संस्कृतनिष्ठ होती गयी यद्यपि पद्य में नागरी उर्दू में कुछ ऐसी रचनायें, नज़्में एवं ग़जलें भी आईं जिन्हें उस अप्रकट चुनौती का उत्तर कहा जा सकता है जिसके अनुसार उर्दू काव्य कोई शतघ्नी है। यह कहना उचित होगा कि उनका छन्द या लय विधान अनेक स्थानों पर देसी है, हिन्दी है।
महा/खण्ड काव्य के अतिरिक्त काव्य की प्राय: हर विधा में रचा। लम्बी कविता 'नरक के रस्ते' में उसका सार है जो मुझे कम्युनिस्ट मार्ग से मिला जिससे अब बहुत दूर आ चुका हूँ। इतना सब होते हुये भी मैंने सदैव अपने काव्य को ‌_विता कहा क्यों कि कवि कर्म को मैं आज कल के अर्थ में नहीं लेता।
गद्य में नाटक के अतिरिक्त प्रत्येक विधा में लिखा, बहुत लिखा। कविता एवं गद्य, दोनों में विपुल प्रयोग भी किये, जिनमें कुछ को भयानक, जुगुप्सित या बालपन भी कहा जा सकता है :) अपनी रची कहानियों को कहानी कहते हुये भी सङ्कोच होता है किन्‍तु उनके भी ग्राहक हैं ।
गद्य में कोणार्क शृंखला को पाठकों ने बहुत सराहा । मेरी समस्त सर्जनात्मकता का निचोड़ 'एक अधूरा प्रेमपत्र' एवं 'बाउ कथा', इन दो धारावाहिकों में है। विशाल किन्‍तु अधूरा 'अधूरा प्रेमपत्र' अब पाठकों को उपलब्ध नहीं है तथा बाउ कथा उपलब्ध होने पर भी ठहरी हुई है क्यों कि प्रवाह टूटने के पश्चात वह विशेष क्षण नहीं आ रहा जिसके आगे सब तट पर तज बहना पड़ता है। जहाँ तक मेरी प्रतीति है, इन दो को पढ़ने वाले भी अल्प ही मिलेंगे किन्‍तु इन दो को पुस्तक रूप में प्रकाशित किये बिना धरा से प्रयाण नहीं करना है । :)
भारतविद्या यथा रामायण, नाक्षत्रिकी, शब्द, पुराण, वेदादि पर भी बहुत लिखा एवं लिखे जा रहा हूँ।
2070 से फेसबुक एवं ट्विटर पर सक्रिय उपस्थिति है, जुड़ तो 2065 में ही गया था। इन पर कितना लिखा, आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। किसी दिन इन्हें भी खँगालना है। लगभग दो वर्ष पूर्व मघा पत्रिका में लिखना आरम्भ किया जो अनवरत चल रहा है।
अपने चिट्ठों को देखता हूँ तो वर्तनी शुद्धता 95% से नीचे नहीं लगती जिसे
 मैं अपनी एकमात्र उपलब्धि मानता हूँ। शेष तो पाठक जानें। 
चिठ्ठाकारी के आरम्भ में मैं एक द्विपदी कहता था :
' पास बैठो कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं,
तफसील पूछोगे तो कह दूँगा - मुझे कुछ नहीं पता। '

प्रेमकथा हो या बाउ कथा, उनके लिये लिखा करता था -
' ...एक भटकता औघड़ है जिसके आधे चेहरे चाँदनी बरसती है और आधा काजल पुता है। संसार जो भी कहे, उसे सब स्वीकार है। वह तो रहता ही अँधेरी गुफा में है जिसकी भीतों पर भी कालिख पुती है ... वह जाने क्या क्या बकता रहता है। '
तथा
' मेरे पात्र बैताल की भाँति,
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर, पूछते हैं हजार प्रश्न ।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूँ उत्तर
...प्रतिदिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।'

बड़ा ही देसी प्रकार का आत्मविश्वास था, जो आज भी बना हुआ है। मेरा मात्र यही है, मैं कोई आचार्य वाचार्य नहीं हूँ। किञ्चित समर्पण हो तो आप भी वह कर सकते हैं जो मैं इन वर्षों में करता रहा हूँ, उसकी लब्धि क्या रही, सिद्धि क्या रही, मुझे नहीं पता।
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हिन्‍दी चिट्ठों के पते ये हैं :


https://girijeshrao.blogspot.com
 https://kavita-vihangam.blogspot.com/
शब्द आधारित अंतर्जाल स्थल यह है :

 http://nirukta.in/
इनके अतिरिक्त भी हैं किन्‍तु सक्रियता अत्यल्प है। परिवार के साथ साथ उन सब का भी ऋणी हूँ जिन्हों ने सराहा, प्यार दिया, प्रोत्साहित किया तथा उपयोगी सुझाव भी दिये। 
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॥ त्वदीयं वस्तु गोविन्‍दं तुभ्यमेव समर्पये ॥

लालबहादुर शास्त्री - संक्षिप्त परिचय


श्री लालबहादुर वर्मा का जन्म आश्विन कृष्ण सप्तमी/अष्टमी, जीवित्पुत्रिका (जिउतिया) व्रत के दिन उत्तरप्रदेश में गङ्गातीरे मुगलसराय (आज का चंदौली जनपद जो कि वाराणसी से लगा हुआ है) में हुआ था, संवत   वि., दिन था रविवार । सूर्योदय से कुछ ही अनन्तर सप्तमी से अष्टमी होने से वह दिन भानुसप्तमी भी था एवं स्त्री पितरों के श्राद्ध का दिन भी। 
पिता का नाम श्री शारदा प्रसाद, माता का नाम श्रीमती रामदुलारी । इनका कुलनाम श्रीवास्तव बताया जाता है।
एक वर्ष की आयु के भी न हुये थे कि पिता की छाया सिर से उठ गई । काशी विद्यापीठ से स्नातक होने के पश्चात उन्हों ने अपने नाम से 'वर्मा' हटा कर विद्या आधारित 'शास्त्री' लगा लिया ।
तत्कालीन कांग्रेस से जुड़े शास्त्री जी ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी १ वि. को भारत गणराज्य के दूसरे प्रधानमंत्री बनने से पूर्व परिवहन मन्त्री थे, स्वतंत्र भारत के पहले। कहा जाता है कि राजकीय बसों में महिला प्रचालक की नियुक्ति उन्हीं के समय में आरम्भ हुई। भीड़ को नियंत्रित करने हेतु लाठी के स्थान पर पानी की धार का विकल्प भी उन्हों ने सुझाया।    
 ग्रेगरी में वह रेलमंत्री हुये। चार वर्ष पश्चात तमिलनादु में हुई एक रेल दुर्घटना में  यात्रियों के मृत्यु का नैतिक उत्तरदायित्त्व स्वयं पर लेते हुये उन्हों ने त्यागपत्र दे दिया।
प्रधानमंत्री रहते उन्हों ने किसानों एवं उनसे जुड़े उत्पादन उपक्रमों पर विशेष ध्यान दिया। दुग्ध उत्पादन में वृद्धि हेतु राष्ट्रीय डेरी विकास परिषद की स्थापना उन्हीं के समय हुई। अन्न अनुपलब्धता की विकट स्थिति का सामना करने हेतु उन्हों ने 'हरित क्रान्ति' की नींव रखी। आकाशवाणी द्वारा उन्हों ने लोगों से प्रति सप्ताह एक समय उपवास रखने का निवेदन किया । जनता ने अनुपालन किया, सोमवार की साँझ को भोजनालयों ने भी चूल्हे स्थगित कर दिये थे। इस उपवास को जनता ने 'शास्त्री व्रत' नाम दिया ।
वह शुचिता एवं सादगी के प्रतिमान थे।
 ग्रेगरी में पाकिस्तानी आक्रमण के विरुद्ध विजय इन्हीं के नेतृत्त्व में मिली एवं २ ग्रेगरी के चीन युद्ध में हुई पराजय के कारण गिरे आत्मविश्वास को जनता ने पुन: प्राप्त किया । शास्त्री जी ने 'जय जवान जय किसान' का नारा दिया ।
युद्ध में विजय पश्चात विदेशी भूमि ताशकंद (तत्‍कालीन सोवियत संघ का भाग)  समझौते को गये जो कि एक बड़ी रणनीतिक चूक थी । जो जीता था, सब पाकिस्तान को लौटाने के पश्चात सन्दिग्ध परिस्थितियों में अगले ही दिन माघ कृष्ण पञ्चमी  वि. को उनकी मृत्यु हो गई । संदिग्ध परिस्थितियों के कारण हत्या की सम्भावना भी व्यक्त की जाती है जो कि तत्कालीन परिस्थिति में अनुमानित की जा सकती है। मृत देह का शव परीक्षण नहीं किया गया । 
वे पहले नागरिक थे जिन्हें मृत्यु पश्चात 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया । जनता आज भी उन्हें सम्मान देते हुये 'शास्त्री जी' नाम से सम्बोधित करती है।  
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संदर्भ : 
http://www.freepressjournal.in/webspecial/lal-bahadur-shastri-birth-anniversary-10-lesser-known-facts-about-the-man-of-peace/1145405