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रविवार, 24 फ़रवरी 2019

Kashmir - First 150 Years of Islamic Rule कश्मीर : मुसलमानी शासन के आरम्भिक 150 वर्ष


कश्मीर में 1313 जूलियन में पहले मुसलमान शासक की भूमिका बनने लगी। 1320 में रिञ्चन पहला इस्लामी सुल्तान हुआ तथा 1420 तक के सौ वर्षों में इस्लाम ने पूर्ण प्रसार पा लिया। रिञ्चन कश्मीर का नहीं था, लद्दाख की जनजाति भौट्ट से था तथा कश्मीर में शरणार्थी के रूप में आया था। उसके पुरखे कभी बौद्ध रहे थे। उसने धीरे धीरे अपनी शक्ति बढ़ा ली। राजा बनने के पश्चात उसने शैव या इस्लाम मत में दीक्षित होने हेतु दोनों के धर्मगुरुओं से सम्पर्क किया। राजसभा में वाद विवाद भी हुये किंतु जैसा कि होता ही रहा है, शैव हिंदुओं ने उसे अपने मत में दीक्षित नहीं किया तथा वह मुसलमान बन कर कश्मीर का पहला इस्लामी सुल्तान हुआ। कहते हैं कि उसे एक सूफी बुलबुल शाह ने मुसलमान बनाया था।
1389 जूलियन में सत्तासीन हुये सिकन्दर 'बुतशिकन' ने हिंदू मंदिरों एवं परम्पराओं का प्राय: सम्पूर्ण विनाश कर दिया, मतांतरण एवं जजिया तो चले ही।
 ध्वस्त या लूट कर विरूपित कर दिये गये कुछ मुख्य मन्दिर ये थे :
  • मार्तण्ड विष्णु सूर्य - मटन के निकट
  • विजयेशान या विजयेश्वर) - व्याजब्रोर
  • चक्रभृत या विष्णु-चक्रधर - त्स्कदर उडर
  • त्रिपुरेश्वर - त्रिफर
  • सुरेश्वरी या दुर्गा सुरेश्वरी - इशिबार
  • विष्णु-वराह - वरामुल (बारामुला)

द्वितीय राजतरङ्गिणी का रचयिता जोनराज लिखता है कि उनका प्रभाव ऐसा विनाशक था मानों टिड्डीदल उर्वर खेत पर छा गया हो !

ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी, लौकिक संवत 4489 तदनुसार 1413 जूलियन में सिकन्दर की मृत्यु तक कश्मीर का पारम्परिक सनातन स्वरूप ध्वस्त हो चुका था। आगे के सात वर्ष सत्ता संघर्ष में बीते ।
1420 जू. में सुल्तान बने जैनुल आबिदीन ने जजिया की मात्रा घटा कर, कुछ अल्पप्रसिद्ध मंदिरों का जीर्णोद्धार करा कर तथा पण्डितों को कुछ छूट दे कर भ्रम में डाला। इन सबके बीच कश्मीरी भाषा संस्कृत एवं शारदा के प्रति निष्ठा तज फारसीमय होती गयी। जैनुल आबिदीन ने लगभग पचास वर्ष तक शासन किया।
जब अत्याचार चरम पर हो तो किञ्चित मुक्ति भी बहुत बड़ी लगती है| जिन कश्मीरी पण्डितों ने यवन आक्रमण के प्रतिरोध हेतु प्रथम बार कराधान का विरोध अनशन कर प्राण त्यागने से किया था, उन्हों ने ही जैनुल आबिदीन को नारायण का अवतार बता दिया !

सिकंदर बुतशिकन से अधिक जिहादी जुनून वाला उसका सेनापति सूहा भट्ट था जो कि मतांतरित हो मुसलमान बना पण्डित था। जितने भी मंदिरों के ध्वंस या अत्याचार हुये, उनमें उसकी बड़ी भूमिका रही।

सिकन्‍दर को बुतशिकनी (हिन्‍दू प्रतिमा भञ्जन) हेतु प्रेरित कर कश्मीर को दारुल इस्लाम बनाने हेतु बड़ी प्रेरणा एक सूफी जैसे इस्लामी मीर सैय्यद मुहम्मद की भी रही जो अरबी मूल का था तथा कश्मीर में मात्र 22 वर्ष की आयु में वहाँ आया था। उसकी विद्वता से सिकंदर बहुत प्रभावित हुआ था।

 जैनुल आबिदीन के समय श्री भट्ट नाम के प्रभावशाली पण्डित ने राजा से उन पण्डितों के शुद्धिकरण की अनुमति ले ली थी जो मुसलमान बना दिये गये थे या जिनके दादा, पिता आदि पण्डित थे किंतु पण्डित समाज ने स्पष्ट मना कर दिया।
एक स्वर्णिम अवसर भक्तिधारा ले कर मुख्य भारत से पहुँचे वैष्णव संन्यासी नारायण स्वामी के पहुँचने पर भी आया था जिसे पण्डितों ने गँवा दिया। 

इन वर्षों में स्त्रियों की भूमिका भी विचित्र विध्वंसक रही तथा इस्लाम के इस विजय अभियान में उनका बहुत चतुराई से उपयोग किया गया। आरम्भिक वर्षों में इस्लामी सुल्तानों ने पास पड़ोस के अन्य जातीय राजाओं (डामर आदि) से अपने बेटियाँ ब्याह दीं जिससे कि उनकी राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ हो सके । एक आरम्भिक सुल्तान शाह मीर इस प्रकार के वैवाहिक सम्बंधों को करने में अग्रणी रहा। जोनराज लिखते हैं कि डामर वंशी शाह मीर की बेटियों को माला की भाँति धारण किये हैं, वे नहीं जानते कि वे सब घोर विषैली नागिनें हैं।
ये नागिनें भी कश्मीर में इस्लाम स्थापना की कारण बनीं। 
सिकन्दर की एक हिंदू रानी शोभा थी जिससे उसका सबसे बड़ा बेटा फिरोज हुआ था किंतु सिकंदर ने यह सुनिश्चित किया कि सबसे बड़ा होते हुये भी एक हिंदुआनी की कोख से उपजा सुल्तान न बने तथा अपनी मुस्लिम रानी से उत्पन्न मीर खान को उत्तराधिकारी बना गया। 

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

अंतिम भाग - नरक ही है, तुम्हारे लिए किताबी, उनके लिए जवाबी(?)

पिछ्ले भाग से आगे ...
हम उन घंटों को हल्की छुअन की तरह जीते हैं जो हमारे अधसोये अस्तित्त्व पर भारी हैं और दु:स्वप्नों के अंतहीन तनावों से भारी कशमकश के साथ गुजरते हैं। टेंट में रखा मिट्टी का घड़ा खाली है। फेंक दी गई टॉयलेट वाली प्लास्टिक बोतल में पानी की चन्द बूँदें हैं। मैं उसे उठाता हूँ और उन चन्द बूँदों को अपने सूख चुके मुँह में खाली कर देता हूँ। मेरी जुबान सूख गई है। यह किसी भी वक्त गिर सकती है। सूरज को देखने पर मेरी दादी चीखती है। धूप में अचेत हो जाने के डर से वह टेंट से बाहर आने में घबराती है।  वह रोज अपने कपड़ों में ही गू मूत कर देती है। मेरी माँ ने उसके लिए जो हाजती मँगाया है, वह उसका प्रयोग तक नहीं कर सकती। सुबह से शाम तक वह उस पुराने बक्से से चिपकी रहती है जिसे वह साथ लाई थी।  वह उसके सीने से उसके वजूद जैसा चिपका रहता हैI मुझे यह सोचते हैरानी होती है कि क्या उसमें कोई गहने या कीमती सामान बचे हुए हैं?
खुद से और दूसरों से अनजान होने की, भुलाने की इच्छा मैंने पहले कभी नहीं महसूस की। गन्ध ....स्पर्श.... साँसें... आह... सब कुछ।
साथ के एक टेंट में पाँच जनों का एक परिवार उस बूढ़े को यातना देता है जो उनका पालक-दादा है, जिसने धुँधलाती दूरी में गुम होते अपने घर को देख अपना मानसिक संतुलन खो दिया था। बूढ़ा अपने बेटे बहू के लिए एक बोझ है।  वे उसे  बस भकोसने वाला एक मुँह समझते हैं। रातों में वह लगातार कराहता है और बीच बीच में किसी बुरे सपने के कारण ठिठुरन भरी काँप के साथ जाग उठता है। उसके बेटे बहू अपने मनबहलाव के लिए उस पर ताना कसते हैं। वे उसके कानों में फुसफुसाते हैं कि उसकी माँ मर चुकी है और उसे क्रूरता के साथ पीट पीट कर मार दिया गया था। बूढ़ा रंज करता है और उनसे अत्याचारों के बारे में बात न करने की भीख माँगता है। हर शाम यह यंत्रणा जारी रहती है। बूढ़े की पागल बना देने वाली हँसी चिथड़ा चिथड़ा कैनवास टेंट से टकरा कर वापस हो लेती है। बूढ़ा हर रात विलपता है। वह अपने बेटे बहू को मुँह फाड़े एकटक देखता रहता है और उनके ऊपर अपने आशीर्वाद न्यौछावर करता है। अन्धेरा! अन्धेरा!
सिर धुनते मैं आश्चर्य में पड़ जाता हूँ – 'नैतिक क्या, अनैतिक क्या।‘
पम्पोश के अनुभव और दशा के बारे में सुन कर श्रीधर की साँसें कुछ देर के लिए थम गईं। उसने पम्पोश का सस्ते सिगरेटों वाला पैक उठा लिया। पहली बार उसने सिगरेट सुलगाई थी। उसने एक कश लिया। धुयें का गुबार हवा में मँडराया और सीलिंग फैन के आवर्त में खो गया।
उस दिन श्रीधर ने अपने जरनल में अपने विचार लिखे। उसने पम्पोश के बारे में लिखा और उसकी चेतना की भयानक खान के बारे में भी लिखा।
उसे खयाल आया कि पम्पोश जैसा होना कैसा होगा? पिछले दिन कहे गये पम्पोश के अंतिम शब्द उसे याद आये। पम्पोश श्रीधर के कान में फुसफुसाया था,‘मुझे एक बच्चे सी हँसी की तमन्ना है।
पम्पोश ने कश्मीर में गुजारे अपने दिनों के बारे में कभी नहीं बताया। श्रीधर ने पम्पोश को कश्मीरी गाँव में गुजारे उसके बचपन के दिनों के बारे में जानने के लिए ऐसी बातें करने को उकसाने की कोशिश की। पम्पोश का परिवार कश्मीर के एक गाँव से आया था। कैम्प के कुछ विद्यार्थियों ने श्रीधर को बताया कि पम्पोश का परिवार फलों के एक बागीचे का स्वामी था जिसमें वे लोग अनार, चेरी और अखरोट उपजाते थे। श्रीधर ने सोचा, पम्पोश का बचपन खेल कूद मस्ती से भरा रहा होगा। किसी ने बताया कि पम्पोश का परिवार उनके गाँव में अकेला पंडित परिवार था और उन्हें चरम भयावह परिस्थितियों में वहाँ से भागना पड़ा था। जो घटित हुआ उसे बताने की स्थिति में कोई नहीं था।  पम्पोश ने एक घर खोया था और उसे दूसरे की तलाश नहीं थी।
शरणार्थी चट्टानी टीले पर दिन भर बैठे रहते और अपने समाज के मामलों पर बात बहस करते। दिन बैठे हुए और दिमागी फितरतों, उनकी दुर्दशा और बदहाली के बारे में बातें करते गुजारे जाते। वे लोग प्रतीक्षा में व्यस्त रहते। बहुतों के लिए यह प्रतीक्षा एक तरह की चीर फाड़ थी। उन्हें तब भी इसका भान नहीं हुआ था कि यह प्रतीक्षा अंतहीन थी। उन्हें नहीं पता था कि वे किसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। यह प्रतीक्षा घर लौटने के लिए नहीं, घाटी में शांति के लिए नहीं बल्कि एक नये दिन के प्रारम्भ और एक नई शाम की ढलान के लिए थी।  वे बिना लू वाले दिन और बिना सर्पदंश वाली रात के लिए प्रार्थना करते थे।
पम्पोश स्कूल के बाद चींटियों की एक बाँबी के पास श्रीधर से रोज मिलता। वह किसी बेलचे से बाँबी को ढहा देने और साँपों को बेघर कर देने की सोचता ताकि कैम्प में सर्पदंश की कोई घटना न हो।
कैम्प से रोज ही निकलते जनाजों में पूछने के लिए बस एक ही प्रश्न होता – ‘सर्पदंश या लू?’
आने वाले दिनों में श्रीधर और पम्पोश ने ढेरों कैम्पवासियों को एक एक कर श्मशान में लाइन लगते देखा। उन दोनों के बीच अर्थहीन शब्द साँस लेते थे! शब्द! मौन! ......(समाप्त)
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दुनिया हसीन रहे, इसके लिए घृणा भी उतनी ही आवश्यक है, जितना प्रेम। 
गुनहगारों!
मैंने तुम्हारे लिए सहेज रखा है। 
भूलना मेरी फितरत नहीं। 

बुधवार, 5 जनवरी 2011

नरक ही है, तुम्हारे लिए किताबी, उनके लिए जवाबी(?) - पहला भाग

पहले कुछ अंश अपनी लम्बी कविता  नरक के रस्ते से  ...
…तकिया गीली है।
आँखें सीली हैं?
आँसू हैं या पसीना ?
अजीब मौसम
आँसू और पसीने में फर्क ही नहीं !
...... कमरे में आग लग गई है।
आग! खिड़कियों के किनारे
चौखट के सहारे दीवारों पर पसरी
छत पर दहकती सब तरफ आग ! 
बिस्तर से उठती लपटें
कमाल है एकदम ठंडी 
लेकिन शरीर के अन्दर इतनी जलन खुजली क्यों? 
दौड़ता जा रहा हूँ 
हाँफ रहा हूँ – बिस्तर के किनारे कमरे में कितने ही रास्ते 
सबमें आग लगी हुई 
साथ साथ दौड़ते अग्नि पिल्ले 
यह क्या ? किसने फेंक दिया मुझे खौलते तेल के कड़ाहे में?
भयानक जलन खाल उतरती हुई
चीखती हुई सी गलाघोंटू बड़बड़ाहट 
झपट कर उठता हूँ 
शरीर के हर किनारे ठंढी आग लगी हुई
पसीने से लतपथ . . निढाल पसर जाता हूँ 
....
....

कोई इतिहासकार न इनका इतिहास लिखेगा
और न जंगी की जंग का 
सही मानो तो वह जंग है ही नहीं ...
इसका न होना एक नारकीय सच है
समय के सिर पर बाल नहीं 
सनातन घटोत्कच है। 
....
....

आज जो इस नरक के रस्ते चल रहा हूँ 
सूरदास की शिक्षा मेरी पथप्रदर्शक बन गई है...
अप्प दीपो भव  .. ठेंगे से  
अन्धे बुद्धों! तुम मानवता के गुनहगार हो
तुम्हारे टेंटुए क्यों नहीं दबाए जाते?
तुम पूजे क्यों जाते हो?...
....
....

वह हँसती हुई फुलझड़ियाँ 
अक्कुड़, दुक्कुड़ 
दही चटाकन बर फूले बरैला फूले
सावन में करैला फूले गाती लड़कियाँ
गुड़ियों के ब्याह को बापू के कन्धे झूलती लड़कियाँ
अचानक ही एक दिन औरत कटेगरी की हो जाती हैं
जिनकी छाया भी शापित 
और जिन्दगी जैसे जाँघ फैलाए दहकता नरक !
....
....

अशोक की लाट से 
शेर दरक रहे हैं 
दरार पड़ रही है उनमें ।
दिल्ली के चिड़ियाघर में 
जींस और खादी पहने 
एक लड़की 
अपने ब्वायफ्रेंड को बता रही है,
”शेर इंडेंजर्ड स्पीशीज हैं 
यू सिली” ।
शेर मर रहे हैं बाहर सरेह में 
खेत में 
झुग्गियों में 
झोपड़ियों में 
सड़क पर..हर जगह 
सारनाथ में पत्थर हम सहेज रहे हैं 
जय हिन्द।

आज का प्रात:काल बस यातना है। बाउ और प्रेमपत्र गड्ढे में... 
मुझे सेलेक्टिव हल्लाबोल और सेलेक्टिव मौन पर क्रोध आता है। 
नपुंसक है यह क्रोध। 
फिर भी जाने क्यों लगता है कि जिस दिन यह खत्म हो जाएगा, मैं मर जाऊँगा।    
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प्रस्तुत है कश्मीरी शरणार्थियों के सूरते हाल पर आधारित पुस्तक
The Garden Of Solitude (उजाड़ का बागीचा) के एक अंश का हिन्दी अनुवाद:

Book:                The Garden Of Solitude
Author:              Siddhartha Gigoo
ISBN:               978-81-291-1718-2
Binding:            Paperback
Publisher:          Rupa & Co.
Pages:              260
Language:         English
Price:                195

श्रीधर ने कहा,”जिन्दगी हमें सिखाती है कि बदसूरती में भी सौन्दर्य होता है।“ तब पम्पोश ने कुछ कहा जिसके लिए श्रीधर तैयार नहीं था।
‘रोज मैं एक कनखजूरे की जिन्दगी जीता हूँ। मैं रेंगता हूँ।  मैं चाटता हूँ। मैं छिपता हूँ। मैं दुखी होता हूँ।मेरी सुबह  केरोसीन के धुयें और टेंट के फर्श पर बिखरे शक्कर के दानों को चट करती दंश मारती भुक्खड़ चीटियों से शुरू होती है। मुझे लगता है कि युगों से मैंने चावल का एक ग्रास तक नहीं खाया। मैं भूखा जगता हूँ और भूखा ही सो जाता हूँ। मैं किसी कनखजूरे सी जिन्दगी बसर करता हूँ, मैं रेंगता हूँ। कैम्प के चारो ओर आदमी के गू मूत और कूड़े की गन्ध है। लोग सुबह भूखे और अस्तव्यस्त से जगते हैं। उनकी सुबहें धुँधली होती हैं। टंकी का पानी गन्धाता है और बच्चे दिन भर अपनी ही उल्टियों में पड़े रहते हैं। माँ के चेहरे की काँपती मुस्कान झूठी है। मैं उसके चेहरे से वह झूठी मुस्कान छील देना चाहता हूँ ताकि वह फिर से खूबसूरत हो जाय। हाईवे की चाय की दुकान पर पापा बाकी शरणार्थियों के साथ कार्ड खेलते हुए अपना अधिकांश समय गुजारते हैं। अपने टेंट के भीतर की दहशतनाक ज़िन्दगी का मैं मूक दर्शक हूँ। भीतर की हवा गन्दी और घटिया है। मेरे दादा शायद ही बोल पाते हैं। गाँव छोड़ते समय उन्हों ने अपनी आवाज़ गुमा दी। कसाई की दुकान से लौटते हुए एक जवान मर्द ने उन्हें एक बन्दूक दिखाई थी। वह अभी भी सोचते हैं कि उन्हें डराने के लिए वह मर्द बन्दूक लिए किसी कोने छिपा हुआ है। बनिहाल सुरंग पार करने के बाद उन्हों ने बात करना बन्द कर दिया। मैंने उन्हें धुँधले होते पहाड़ों को देर तक ताकते हुए देखा, वह तब तक निहारते रहे जब तक एक एक कर वे पहाड़ उनके जम चुके सपनों में विलीन नहीं हो गए। और उन्हों ने अपने डर को निगल लिया। आज मैं उनकी फुसफुसाहटों को सुन नहीं पाता। उनके शब्द उनके मुँह से बाहर ही नहीं आते। जब हम सोते हैं तो अपने हाथ पैर तक नहीं फैला सकते। कपड़े लटकाने के लिए कोई हैंगर नहीं। अपने सामान रखने को कोई आलमारी नहीं। हमारे पास अपने आराध्यों के कोई चित्र नहीं। अपने पुरखों के कोई फोटोग्राफ नहीं। दिन में हम दहकते सूरज से छिपते फिरते हैं और रात में एक कीड़े के दंश से दूसरे कीड़े के दंश तक जीते रहते हैं। कनखजूरे, गोंजर और मकड़े हमारे साथी हैं। हमें उनके साथ जीना सीखना ही होगा।
 मेरी दादी कीड़ों को नहीं पहचानती। वह छिपकली को दीवार पर टँगा कोई लकवाग्रस्त प्लास्टिक खिलौना समझती है। सलीब पर टँगी उस छिपकली पर उसकी निगाह जमी रहती है। घंटों तक वह स्याह खालीपन को बस घूरती रहती है, जिसका कोई अंत नहीं है। उसका यूँ घूरना गुमनामी और विस्मरण की दुनिया की ओर सारहीन निगहबानी जैसा होता है। खालीपन को घूरते हुए और ध्वंस के अनुभव से प्रताड़ित वह उस समय सिर के चारो ओर चक्कर लगाते सैकड़ों मच्छरों की ओर भी ध्यान नहीं देती। मुझे इसका भान ही नहीं होता कि वह भूखी है या प्यासी है। नींद में वह एक लाश की तरह लगती है।मैं उसकी नाड़ी जाँचने को उठता हूँ और उसकी साँसों का अनुभव कर प्रसन्न हो लेता हूँ। मैं प्रार्थना करता हूँ कि वह मरने के बाद प्रसन्न रहे। मेरी माँ और बहन कपड़ों और बर्तनों को टेंट के बाहर के कीचड़ भरे पानी में धोती हैं। फटे कैनवास, कार्डबोर्ड के टुकड़ों और टिन से बने कामचलाऊ टॉयलेट में निपटने के लिए सुबह के वक्त वे घंटों लाइन में लगती हैं। उन गन्दे और गन्धाते टॉयलेटों के बाहर इंतजार करती हैं जब कि मटरगस्ती करते आवारा मर्द निपटने के लिए इंतज़ार करती औरतों को घूरते रहते हैं। उनकी घूरती निगाहों से बचने के लिए बहुत सी औरतें गन्धाते लैट्रिनों में आधी रात को जाती हैं। इन गन्दे गन्धाते लैट्रिनों से मच्छर तक भागते हैं। कभी कभी मैं औरतों को चीखते, चुप होते और फिर गन्दी टंकी के पीछे खामोश सुबकते सुनता हूँ। रात हमारे लिए मलिनता, उदासी और गर्मी ले कर आती है। हम टेंट के कैनवास को थामे लकड़ी के खम्भों से लिपटे तितर बितर और नंगे बिजली के तारों के साये में भयग्रस्त जीते हैं।   
 मेरे दादा के पैर में शायद कनखजूरे के काटने से एक ददोरा हो गया है। अब वह सूज कर घाव सरीखा हो गया है जिसमें से मवाद निकलता है। वह घाव डरावना है। वह चाकू से उस घाव को छीलते रहते हैं। पीपदार घाव कभी नहीं सूखेगा। मैं उस घाव को जला देना चाहता हूँ। बूढ़े की निगाह रात को कपड़े बदलती मेरी बहन पर पड़ती है और वह लाइट बुझा देती है। आड़ के लिए कोई पर्दा नहीं है। अपनी माँ और दादी के बीच किसी कीड़े की तरह सिमटी वह टुकड़ा टुकड़ा सोती है। उसे धूप छाँव में रेंगते कीड़ों के डरावने सपने आते हैं। बूढ़ा हुक से लटकते उसके कपड़ों को छूना चाहता है। वह अपनी ही पोती के कपड़ों को सूँघता है। उसे उनकी बदबू भाती है।... (अगले भाग के लिये यहाँ क्लिक करें)        

सोमवार, 9 नवंबर 2009

क्षमा करिए


क्षमा करिए,सुबह मुझे आँसू भरी लग रही है।
क्षमा करिए मैं क्षोभग्रस्त हूँ।
क्षमा करिए मुझे निरपेक्ष प्रशांत बौद्धिकता से घृणा हो रही है।
क्षमा करिए अपनी सुविधाजीवी नपुंसक मनोवृत्ति के तले मैं स्यापा कर रहा हूँ।
क्षमा करिए मैं साम्प्रदायिक हूँ।
क्षमा करिए मुझे मानवाधिकार सिर्फ जुमला लग रहा है।
क्षमा करिए मैं यह मान बैठा हूँ कि आप को अंग्रेजी आती ही है।
क्षमा करिए आज अंग्रेजी ब्लॉग का यह लिंक दे रहा हूँ।
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Roots In Kashmir
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