रविवार, 19 अप्रैल 2020

Ramayan Notes रामायण वार्त्तिक - ३ श्रीरामपट्टाभिषेकम्‌


Ramayan Notes रामायण वार्त्तिक - १  से आगे 

सर्वा पूर्वमियं येषामासीत्कृत्स्ना वसुन्धरा 
प्रजापतिमुपादाय नृपाणां जयशालिनाम् 
यह रामायण का प्रथम श्लोक है। प्रजापति मनु से आरम्भ हुये जयशाली राजाओं द्वारा यह वसुंधरा शासित थी। दशरथ के राज्य का जो वर्णन है, वह रामराज्य सा ही है। 
श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहापथा
मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यश:
तां तु राजा दशरथो महाराष्ट्रविवर्धन: 
पुरीमावासयामास दिवं देवपतिर्यथा 
... 
विक्षेप हुआ, युवराज निर्वासित हुआ और आज चौदह वर्षों पश्चात लौटा है, जाने कितनी जातियों को एक सूत्र में बाँध, जाने कितनों को भयमुक्त व स्वतंत्र कर तापस राम लौटा है, राजा बनने।
प्रजापति मनु का वह श्रेष्ठ उत्तराधिकारी है जिसके यहाँ समस्त जातियाँ मानव होंगी, कोई राक्षस नहीं, कोई पीड़क नहीं, कोई पीड़ित नहीं। 
राम लौटा है, वहाँ जहाँ उसका सौतेला भाई भरत उसकी पादुकाओं को राजपीठ पर रख उसका तपस्वी प्रतिनिधि बन प्रजा के भरण पोषण के भर्त्तार राजधर्म का निर्वाह कर रहा है। प्रतीक्षा के चौदह वर्ष मानों एक कल्प के चौदह मन्‍वन्तर की भाँति बीते हैं और आज राम मनु का किरीट सिर पर धारण करने लौटा है  ... 
...
कच्चिन्न खलु कापेयी सेव्यते चलचित्तता
न हि पश्यामि काकुत्स्थं राममार्यं परन्तपम् 
भरत ने हनुमान से पूछा - वानरसुलभ चञ्चलता के वशीभूत हो तो नहीं कह रहे? मुझे तो काकुत्स्थ परन्तप राम आते नहीं दिख रहे!
तं समुत्थाप्य काकुत्स्थश्चिरस्याक्षिपथं गतम्
अङ्के भरतमारोप्य मुदितः परिषष्वजे
राम ने भरत को देखा - आँखें पथरा गयी थीं रे, जो तुझे इतने दिनों से देखा नहीं! उन्होंने भरत को गोद में उठा लिया, तब आलिंगन किया।
भरत ने अपना नाम उचार अभिवादन तो सबका यथोचित किया किन्तु पहली बात सुग्रीव से बोले -
त्वमस्माकं चतुर्णां वैभ्राता सुग्रीव पञ्चमः
आप हम चारों के पाँचवे भाई हैं।
... 
संसार में सम्भवत: यह अकेला उदाहरण होगा जहाँ शीर्षाभिषेक से पूर्व पादाभिषेक हुआ। भाई भरत ने सेवा का प्रेष्य प्रतिनिधि भाव छोड़ते हुये राम की पादुका स्वयं उनके पाँवों में पहनाई, सेवाप्रवीण भाई ने  भावी भूपति के पाँवों से भूमि का सम्बन्ध जोड़ा - 
पादुके ते तु रामस्य गृहीत्वा भरतः स्वयम् 
चरणाभ्यां नरेन्द्रस्य योजयामास धर्मवित् 
और दायित्त्व को उतारने की भूमिका में कृताञ्जलि हो बोल पड़े -
एतत्ते रक्षितं राजन्राज्यं निर्यातितं मया  
अद्य जन्म कृतार्थं मे संवृत्तश्च मनोरथः 
यस्त्वां पश्यामि राजानमयोध्यां पुनरागतम् 
राजन् ! जो राज्य आप मुझे सौंप कर गये थे, उसकी मैंने रक्षा की है। आज मेरा जन्म कृतार्थ हुआ, मनोरथ पूरे हुये जो आप को अयोध्या लौट आया देख रहा हूँ। 
पाँवों में पादुकायें पहना दीं, मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया, आप मेरे राजा हैं। राजा हैं तो सम्पदा व शक्ति होनें चाहिये न!   
अवेक्षतां भवान्कोशं कोष्ठागारं पुरं बलम् 
भवतस्तेजसा सर्वं कृतं दशगुणं मया 
देख लें, कोश, कोठ-कोठार, सैन्य बल सभी आप के तेज से मैंने दसगुने कर दिये हैं (मैंने १४ वर्ष तप किया है, ऐसे ही नहीं बैठा रहा! ) 
पूजिता मामिका माता दत्तन् राज्यमिदं मम 
तद्ददामि पुनस्तुभ्यन् यथा त्वमददा मम 
मेरी माता का सम्मान करते हुये यह राज्य आपने मुझे दिया था, उसे मैं आपको उसी प्रकार दे रहा हूँ जिस प्रकार आपने मुझे दिया था (अभिवृद्धि तो बता ही चुका हूँ, कोई हानि या न्यूनता नहीं होने दी!) 
धुरमेकाकिना न्यस्तामृषभेण बलीयसा 
किशोरवद्गुरुं भारं न वोढुमहमुत्सहे  
वारिवेगेन महता भिन्नः सेतुरिव क्षरन् 
दुर्बन्धनमिदं मन्ये राज्यच्छिद्रमसन्वृतम् 
(बहुत हो गया) आप सँभालिये अब। जिस प्रकार बली वृषभ के साथ एक ओर नाध दिया गया किशोर बछड़ा उसके साथ भार का वहन नहीं कर सकता, वही स्थिति मेरी है, आप ही राजा रहें, मैं नहीं। 
राजकाज सँभालना उसी प्रकार कठिन है जिस प्रकार बड़ी धारा से छिद्रित होने से रिसते बाँध को सँभालना।  
गतिं खर इवाश्वस्य हन्सस्येव च वायसः 
नान्वेतुमुत्सहे देव तव मार्गमरिन्दम 
हे अरिन्‍दम! मैं आप की भाँति इस कठिन मार्ग पर नहीं चल सकता जैसे एक गधा अश्व की भाँति नहीं चल सकता, जिस प्रकार एक कौवा हंस की चाल नहीं चल सकता। 
भाव भरे भरत ने सम्भवत: अनुभव किया कि उदाहरणों और उपमाओं की दिशा ठीक नहीं जा रही। उन्होंने जोड़ा - 
यथा च रोपितो वृक्षो जातश्चान्तर्निवेशने 
महांश्च सुदुरारोहो महास्कन्धः प्रशाखवान् 
शीर्येत पुष्पितो भूत्वा न फलानि प्रदर्शयेत् 
तस्य नानुभवेदर्थन् यस्य हेतोः स रोप्यते 
एषोपमा महाबाहो त्वमर्थन् वेत्तुमर्हसि 
यद्यस्मान्मनुजेन्द्र त्वं भक्तान्भृत्यान्न शाधि हि 
घर के पिछवाड़े में रोपा गया वृक्ष पाल पोस कर बड़ा कर दिया जाय, इतना विशाल हो जाय कि उस पर चढ़ा न जा सके, उसका तना बहुत मोटा हो जाय, शाखायें प्रशाखायें बढ़ जायें, सब हो किंतु फुलाने के पश्चात बिना फल दिये सूख जाये, उस स्थिति में रोपने वाले के साथ जैसा होगा, वैसा ही कुछ हमारे साथ होगा यदि आप ने राज्य स्वीकार नहीं किया। यह रूपक आप के ही लिये है, आप समझें।  
अनुज भरत आगे ऐसे कहते चले गये मानों बड़े भाई पर शुभाशंसाओं की झड़ी लगा रहे हों, जन जन की शुभेच्छायें एक हो उनकी जिह्वा पर विराजमान हो गईं -  
जगदद्याभिषिक्तन् त्वामनुपश्यतु सर्वतः
प्रतपन्तमिवादित्यं मध्याह्ने दीप्ततेजसं 
तूर्यसङ्घातनिर्घोषैः काञ्चीनूपुरनिस्वनैः 
मधुरैर्गीतशब्दैश्च प्रतिबुध्यस्व शेष्व च 
यावदावर्तते चक्रन् यावती च वसुन्धरा 
तावत्त्वमिह सर्वस्य स्वामित्वमभिवर्तय 
मध्याह्न में अपने तेज से दप दप दीप्त होते सूर्य की भाँति आज समस्त संसार को आप स्वयं को अभिषिक्त होता हुआ देख लेने दें। भरत ने सूर्यवंशी की उपमा सूर्य से ही दी। 
आप तूर्य, नृत्यनूपुर ध्वनि, मधुर गीतों की ध्वनि के साथ विश्राम करें तथा उन्हें सुनते हुये ही जागरण करें। जब तक यह कालचक्र घूम रहा है, जहाँ तक इस वसुन्‍धरा का प्रसार है, हे स्वामी आप शासन करते हुये देखभाल करें। 
वाल्मीकि के घुमन्तू  कुशीलव गायन वाली वसुन्धरा से आरम्भ हुआ आख्यान भर्त्ता भरत की मङ्गलकामना से युक्त वसुंधरा तक पहुँच अपनी पूर्ण परिणति प्राप्त कर चुका।  
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लौटते राम की सूचना देने वाले मारुति से संवाद से ले कर श्रीरामपट्टाभिषेकम् से कुछ पूर्व तक भरत ही भरत हैं।
आश्चर्य सा होता है कि रामायण अनूठी कृति है तो भाइयों के परस्पर प्रेम के कारण।
रामरूपी सूर्य का अयन जिन दो सीमाओं के बीच है, वे लक्ष्मण और भरत हैं। एक ग्रीष्म का चरम, तो दूसरा शीत का और इनके बीच है रामेन्द्र की वह वज्रवर्षा जिससे सारा मानस भर भर फुला उठता है, आठ ब्राह्मणश्रेष्ठों ने राम का उसी प्रकार अभिषेक किया, जिस प्रकार कभी आठ वसुओं ने वासव इन्‍द्र का अभिषेक किया था। प्रजापति मनु की परम्परा मानवोत्तम, नरोत्तम, पुरुषोत्तम को पा कर रामराज्य हुई, वसुधा तृप्त हुई -
वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिरथ काश्यपः 
कात्यायनः सुयज्ञश्च गौतमो विजयस्तथा 
अभ्यषिञ्चन्नरव्याघ्रं प्रसन्नेन सुगन्धिना 
सलिलेन सहस्राक्षन् वसवो वासवं यथा 
ब्रह्मणा निर्मितं पूर्वं किरीटं रत्नशोभितम् 
अभिषिक्तः पुरा येन मनुस्तं दीप्ततेजसम्
तस्यान्ववाये राजानः क्रमाद्येनाभिषेचिताः
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रामो रामो राम इति प्रजानामभवन् कथाः
रामभूतं जगाभूत् रामे राज्यं प्रशासति
नित्यपुष्पा नित्यफलास्तरवः स्कन्धविस्तृताः
कालवर्षी च पर्जन्यः सुखस्पर्शश्च मारुतः
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा लोभविवर्जिताः
स्वकर्मसु प्रवर्तन्ते तुष्टा: स्वैरेव कर्मभिः
आसन् प्रजा धर्मपरा रामे शासति नानृताः
सर्वे लक्षणसम्पन्नाः सर्वे धर्मपरायणा: 

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