सोमवार, 20 अप्रैल 2020

Ramayan Notes रामायण वार्त्तिक - ४ : अयोध्या पहुँच अपना क्षात्रधर्म दिखाइयेगा - दुष्टों का दलन राजन्य का कर्तव्य

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शबरी और शरभङ्ग, दोनों ने श्रीराम से मिलने के पश्चात उनके वहाँ रहते ही स्वयं को अग्नि को समर्पित कर दिया।
चमत्कार और कल्प कहानियों को किनारे कर विचार करें कि कितना सञ्चित अवसाद, कितनी यातना, कितनी घुटन उन दोनों में रहे होंगे!
राक्षसों को प्रश्रय देने वाले राज में सन्त दमित होते ही हैं। राज्य ही नहीं, केन्द्र में भी बैठे उच्च पीठासीनों को आत्ममन्थन करना चाहिये। कुछ अपराधों के प्रति शून्य सहिष्णुता होनी चाहिये। जिस देश के राजन्य भौंकने वाले कुत्तों से भय खा सियार बने रहते हों, उसका कल्याण नहीं हो सकता।
राजा वह जो निर्वासन में भी हाथ उठा कर कहे -
तपस्विनाम् रणे शत्रून् हन्तुम् इच्छामि राक्षसान्
पश्यन्तु वीर्यम् ऋषयः सः ब्रातुर्मे तपोधनाः
दत्त्वा अभयम् च अपि तपोधनानाम्

और कर के दिखा भी दे -
विप्रकारम् अपाक्रष्टुम् राक्षसैः भवताम् इमम्
भवताम् अर्थ सिद्ध्यर्थम् आगतोऽहम् यदृच्छया
तस्य मे अयम् वने वासो भविष्यति महाफलः

... 
और देवी सीता ने कहा, वन में हैं तो यहाँ के अनुसार रहिये, अयोध्या पहुँच कर अपना क्षात्र धर्म दिखाइयेगा माने राक्षसों के नाश की प्रतिज्ञा मुझे नहीं सुहाती -
क्व च शस्त्रम् क्व च वनम् क्व च क्षात्रम् तपः क्व च
व्याविद्धम् इदम् अस्माभिः देश धर्मः तु पूज्यताम्
तदार्य कलुषा बुद्धिः जायते शस्त्र सेवनात्
पुनर्गत्वात् तत् अयोध्यायाम् क्षत्र धर्मम् चरिष्यसि
(i.e. in Rome do what Romans do Rāma! Thus spake the future queen.)...
देवी सीता ने कह तो दिया किन्तु साथ ही यह भी जोड़ा कि स्त्रीसुलभ बात कर रही हूँ, तब भी विचार करें। सीता चाहती ही नहीं थीं कि राम घनघोर दण्डकारण्य में प्रविष्ट हों!
sixth senseऔर राम तो राम ठहरे, पहले ही कह चुके थे कि पिता के वचन का पालन तो है ही किन्तु आप तपस्वी लोगों की दुर्दशा भी दूर करनी है - विप्रकारम् अपाक्रष्टुम्! सुतीक्ष्ण मुनि भी अहिंसक ही थे, कहे कि जाओ, उन तपस्वियों की दशा देख लो किन्तु लौट कर यहीं आ जाना -
आगन्तव्यम् च ते दृष्ट्वा पुनः एव आश्रमम् प्रति।
राम ने सीता को उत्तर देना आरम्भ किया, महान जनक कुल की प्रशंसा के साथ सीता की भी प्रशंसा की, अपनी प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती और नैहर की हो जाय तो स्त्री परमानन्दित हो जाती है - आप तो महा कुलीन धर्मज्ञ जनक की आत्मजा हैं, भला ऐसा क्यों न कहेंगी!
हितम् उक्तम् त्वया देवि स्निग्धया सदृशम् वचः
कुलम् व्यपदिशन्त्या च धर्मज्ञे जनक आत्मजे

कहीं इस बात में उलाहना भी थी कि ऐसा होते हुये भी आप धर्म की सूक्ष्म गति से अज्ञान दर्शाती हैं!
और राम तुरन्त ही अपने पर आ गये - क्षत्त्रियैः धार्यते चापो न आर्त शब्दो भवेद् इति, क्षत्त्रिय धनुष इसीलिये धारण करते हैं कि कहीं भी आर्तनाद न हो और यहाँ तो मेरे पास कितने ही विप्रश्रेष्ठ अपना दुखड़ा ले स्वयं चल कर आये हैं, मुझे स्वत: संज्ञान ले वहाँ पहुँचना था न! हम आप की शरण में आये हैं, ऐसा अनुनय विनय ले कर वे आये, यह तो बड़ी उल्टी बात हो गई, उनसे आदेश लेने, उनकी शरण तो हमें जाना था न! यह मेरे लिये अतुल लज्जा की बात है - मे ह्रीः एषा तु मम अतुला!
ते च आर्ता दण्डकारण्ये मुनयः संशित व्रताः
माम् सीते स्वयम् आगम्य शरण्याः शरणम् गताः
..
अस्मान् अभ्यवपद्य इति माम् ऊचुर् द्विज सत्तमाः
कृत्वा वचन शुश्रुषाम् वाक्यम् एतत् उदाहृतम्
प्रसीदन्तु भवन्तो मे ह्रीः एषा तु मम अतुला
यद् ईदृशैः अहम् विप्रैः उपस्थेयैः उपस्थितः

उनकी सुन मैं उन्हें रक्षा का वचन दे चुका हूँ - मया च एतत् वचः श्रुत्वा कार्त्स्न्येन परिपालनम्। आपको तो पता ही है कि जीवित रहते मैं उससे विचलित नहीं हो सकता। मैं अपना जीवन त्याग सकता हूँ, लक्ष्मण को छोड़ सकता हूँ, आपको छोड़ सकता हूँ किन्तु सत्य का त्याग नहीं कर सकता, ब्राह्मणों की बात तो विशेष भी है। मैं ऋषियों का परिपालन अवश्य करूँगा।
संश्रुत्य न च शक्ष्यामि जीवमानः प्रतिश्रवम्
मुनीनाम् अन्यथा कर्तुम् सत्यम् इष्टम् हि मे सदा
अपि अहम् जीवितम् जह्याम् त्वाम् वा सीते स लक्ष्मणाम्
न तु प्रतिज्ञाम् संश्रुत्य ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः
तत् अवश्यम् मया कार्यम् ऋषीणाम् परिपालनम्

राम से हम यह भी सीख सकते हैं कि पत्नी को कैसे तुष्ट रखें, कैसे बात न मानते हुये भी सहधर्मिणी का मान बनाये रखें -
मम स्नेहात् च सौहार्दात् इदम् उक्तम् त्वया वचः
परितुष्टो अस्मि अहम् सीते न हि अनिष्टो अनुशास्यते
सदृशम् च अनुरूपम् च कुलस्य तव शोभने
सधर्मचारिणी मे त्वम् प्राणेभ्यो अपि गरीयसी
सीते, मुझसे स्नेह व सौहार्द वश ही आपने वे बातें की, मैं परितुष्ट हूँ (आप मुझे रुष्ट न समझें)। शोभने, जो आपने कहा, वह आपके योग्य है, आप ही वैसा कह सकती हैं। आपकी बातें आपके महान कुल के अनुरूप हैं। आप मेरी सधर्मचारिणी हैं अर्थात मेरे साथ का धर्म तो आपको निभाना ही होगा, आप मुझे प्राणों से भी प्रिय हैं (अर्थात पहले जो कहा उसे ऐसे समझें कि प्राण जाने पर ही आपसे विलगाव होगा।)
...
स्त्री मन की समझ रखने वाले राम ने इस प्रकार प्रशंसा और नैहर की महानता से आरम्भ कर वहीं पर समाप्त भी किया। सीता को अपने साँवरे पर रीझना ही था।
°°° तीनों प्राणी घनघोर वन की ओर चल पड़े। आगे उन मुनियों, महात्माओं व ब्राह्मणों की अस्थियाँ उनकी प्रतीक्षा में थीं जिन्हें दुरात्मा राक्षस रावण ने अन्तिम संस्कार तक से वञ्चित कर दिया था...
... आगे वह काल भी प्रतीक्षा में था जब राक्षसों हेतु भी न्याय भाव रखने वाली विदेहकन्या वैदेही का अपमान भरा अपहरण होने वाला था। आगे रावण का काल भी प्रतीक्षा में था।
दुर्गम वन में तीनों मूर्ति जायें तो जायें, मैं तो तुलसी बाबा के संग ताली बजाते गा रहा हूँ -
आगे राम लखन बने पाछे
तापस भेस बिराजत काछे
उभय बीच सिय सोहति कैसे
ब्रह्म जीव बिच माया जैसे
... kids, so replied and acted the future king of Vasundharā.
॥जय श्रीराम॥

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