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शनिवार, 5 दिसंबर 2009

पुरानी डायरी से - 9: शीर्षकहीन

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आज डायरी खँगालते यह कविता दिखी - विरोधाभास  उलटबाँसी सी लिए। तेवर और लिखावट से लगा कि अपेक्षाकृत नई है।
कब रचा याद नहीं आ रहा। सन्दर्भ /प्रसंग भी नहीं याद आ रहे। चूँ कि पुरानी डायरी का सम कविताएँ और कवि भी . . पर 
पूरा हो चुका था इसलिए यहाँ विषम प्रस्तुति करनी ही थी, सो कर रहा हूँ। एक संशोधन भी किया है।
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अधिकार ही नहीं यह कर्तव्य भी है 
कि ऊँचाइयों में रहने वाले  
दूसरों नीचों के आँगन में झाँकें।

ऊँचाइयाँ तभी बढ़ेंगी
और झाँकने की जरूरत समाप्त होगी।


पर कोई झाँकता नहीं।
ऊँचाई पर रहने वाला
एयरकण्डीसंड फ्लैट में बन्द है।


पुरुवा के झोंके भी तो
मशीन से आते हैं।


ऊँचाई कैसे खत्म होगी ?