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शनिवार, 7 नवंबर 2009

गेट

घंटी बजी तो प्रकाश ने गेट की तरफ देखा। कामवाली इस समय? प्रिया घर पर नहीं थीं और बच्चे स्कूल गए थे। सामान्यत: ऐसी स्थिति में प्रिया कामवाली को बता कर जाती है ताकि उसके आने के बाद ही कामवाली काम करने आए, नहीं तो उल्टा पल्टा कर के चली जाती है। आज भूल गई क्या? 
प्रकाश ने देखा, कामवाली मंजू सजी संवरी दिखी। साँवला रंग लेकिन चेहरे की कटिंग और नाटे से शरीर में गजब का अनुपात ! यौवन के पहले ही स्टेज में औरत बना दी गई थी इसलिए चेहरे पर अभी भी किशोरावस्था का लावण्य था। उसने अपने सिर को झटका - ये साला खुराफाती दिमाग भी! 
प्रश्नवाचक निगाहों से मंजू को देखा तो बोली,"पड़ोस की भाभी के यहाँ बाद में जाना था सो सोचा यहाँ निपटाती चलूँ। भाभी नाहीं हैं का?.... कउनो बात नहीं।"
मंजू उसे रगड़ती सी गेट से भीतर आई। प्रकाश का मन जाने कैसा हो गया। चुपचाप ड्राइंग रूम में आ कर बासी पेपर पढ़ने लगा लेकिन मन रसोई में हो रही खुड़बुड़ में लगा रहा। मंजू बार बार आती रही जैसे कुछ कहना चाह रही हो। फिर उसने ऐसे ही बात छेड़ दी," का भैया, टी वी नाहीं देख रहे हो?"। 
इस तरह उसने आज तक बात नहीं की थी। प्रकाश ने सिर उपर उठाया तो मंजू की निगाहों में अजीब सा निमंत्रण और बेचैनी दिखी।  जाने क्या क्या सोच गया प्रकाश! उसे अब मंजू की नीयत पर शक होने लगा था। 
"घर माँ घरनी ना हो तो बड़ा सूना लगत है।" पोंछा लगाती मंजू ने उसके पास आने पर बोला था। 
प्रकाश ने नजर उठाई तो ब्लाउज से झाँकते यौवन चिह्न दिख गए।
 सॉफ्ट सिडक्सन !  - प्रकाश के मन में तूफान मचलने लगा। किसी तरह उसने खुद को संभाला। 
काम खत्म करने के बाद मंजू फिर पास आई," भइया ई पीसीओ कहाँ होगा?"। आँखों में फिर वही खामोश निमंत्रण। प्रकाश ने जैसे तैसे जवाब दिया," रोड पर किसी से पूछ लेना।" 
"अच्छा, गेट बन्द कै लो।"
मंजू चली गई। गेट बन्द करते प्रकाश ने राहत की साँस ली। सीने में धौंकनी चल रही थी। कैसी औरत है! एक से संतोष नहीं इसे। प्रकाश को मन ही मन अपने नियंत्रण पर गर्व हो आया। घर में आ कर बैठा ही था कि फिर घंटी बजी। 
बाहर आया तो मंजू खड़ी थी। 
अब क्या हुआ? उसने सवालिया नज़रों से मंजू को देखा।
"देखे आए रहेन कि गेट ठीक से बन्द किए कि नहीं? आज कल चोर दिन माँ ही हाथ साफ कर देत हैं।"
प्रकाश मन ही मन भुनभुनाया," तुम भी तो दिन में ही मेरी सफाई करना चाहती हो।" 
गेट बन्द कर लौटा ही था कि पीछे से आवाज आई," भइया!"। मंजू की आँखों में अनुरोध था !
"क्या है?" प्रकाश खीझ गया। 
"एगो फोन लगाय दो। मोबाइल तो है न तुम्हरे पास?" प्रकाश ने गेट नहीं खोला। 
"अन्दर आने दो।"
गेट को खुद खोल मंजू भीतर आ गई थी। उसकी ओर देखते हुए उसने चोली में हाथ डाल कर एक कागज का टुकड़ा निकाला। एक बार फिर गोलाइयाँ दिख गईं। चाहते हुए भी प्रकाश नज़र हटा नहीं पाया। मंजू उससे सट कर खड़ी हो गई ,"ई नम्बर लगा दो। मोबाइल नहीं है का? घर माँ चलो।"
" नहीं नहीं तुम यहीं रहो मैं ले आता हूँ।"
मोबाइल ले कर प्रकाश बाहर आया तो हाँफ रहा था।
"का हुआ? तबियत नाहीं ठीक तो घर माँ चले चलो। वहीं से लगा देना।" फिर घर के भीतर जाने की कोशिश ! 
"नहीं मैं ठीक हूँ।"
प्रकाश ने मोबाइल पर नम्बर लगाया तो नम्बर मौजूद नहीं होने का सन्देश सुनाई दिया। दुबारा ज़ीरो लगा कर ट्राई किया तो भी वही सन्देश। 
"नम्बर गलत है।"
"फिर लगाओ। इस पर बात होत है।" मंजू ने जोर दे कर कहा। प्रकाश ने नज़र उठाई तो उसे गेट पर पीठ अड़ा कर सीने से आँचल हटाए पाया। आँखों में फिर वही अनुरोध।
"नहीं लगता।"
"मुझे सुनाओ, क्या कहता है?"
मंजू सट गई। 
"जाओ, पीसीओ से ट्राई कर लेना।"
आँखों में हसरत लिए मंजू बाहर गई और प्रकाश ने गेट बन्द किया। बेड रूम में आ कर हाँफता बिस्तर पर ढेर हो गया।
बाप रे !... 
...उसे अपने पर फिर गर्व हो आया था।            
....
एक हफ्ते के बाद प्रिया ने बताया," आज कामवाली बहुत रो रही थी। उसका मर्द बाहर रहता है। पिछले दो महीनों से कोई खबर नहीं है। मोबाइल नम्बर दिया था, वह भी नहीं लगता।" 
उस समय प्रकाश बन्द गेट के पल्ले का सहारा लिए खड़ा था। उसे लगा कि गेट अचानक खुल गया है, भहरा कर वहीं गिर पड़ा। 
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इस कहानी का पोडकास्ट श्री अनुराग शर्मा के स्वर में नीचे दिये लिंक पर उपलब्ध है: हिन्दयुग्म पर 'गेट'