वे सारे मूल्य जिन पर पश्चिम को श्रेष्ठता का गर्व था, आज ध्वस्त हो गये हैं...इस सरकार ने शासन का नैतिक अधिकार खो दिया है। भारत स्वतंत्र है...
[1930 में शांतिपूर्ण नमक सत्याग्रहियों पर बज रही लाठियों पर रिपोर्टिंग करते हुये]
एक अकेले वेब मिलर के चन्द वाक्यों ने समूचे संसार में व्रिटिश सत्ता को कटघरे में खड़ा कर दिया। 82 वर्षों के बाद ब्रिटिश राज के बनाये राजपथ पर वही हुआ, उससे कई गुनी बर्बरता के साथ हुआ, बार बार हुआ और मीडिया के तमाम शोरगुल में कहीं भी वेब मिलर सा ईमानदार तेज नहीं दिखा।
यह समय सम्वेदनाओं के कुन्द होते जाने का समय है, त्वरा का है जहाँ घटनायें चलचित्र सी आती हैं और बस यूँ ही चली जाती हैं। हमारे पास मीमांसा के लिये समय नहीं है लेकिन व्यर्थ के अपलापों के लिये पर्याप्त समय है।
क्रीतदास बौद्धिक वर्ग अपने अपने एजेंडों के बुलबुलों में बन्दी है। हर वाक्य निवेश पर भविष्य में होने वाली आय की गणना सा नपा तुला होता है।
अर्थहीनता में वे ब्लॉग जगत की चालू और अबूझ टिप्पणियों को भी मात करते हैं!
शब्दों से अधिक मौन मुखर हैं। चुप्पियाँ पढ़ी जा सकती हैं और शोर भी! बलात्कार के भी प्रकार हो गये हैं। बहुत से प्रश्न उठाये गये:
- गुजरात, छत्तीसगढ़, मणिपुर, कश्मीर ... के बलात्कारों पर आन्दोलन क्यों नहीं?
- दलित पर बलात्कार पर आन्दोलन क्यों नहीं?
- इसी समय क्यों?
- क्या आन्दोलनकारी स्वयं यौन अपराधों में लिप्त नहीं?
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वे भूल रहे हैं कि दिल्ली न तो कोलकाता की तरह आमार भालो बांगला है, न तो चेन्नई की तरह मद्रासी और न मुम्बई की तरह जय महाराष्ट्र! शरणार्थियों की दिल्ली इस देश का प्रतीक है। दिल्ली का अपना कोई नहीं और दिल्ली सबकी है।
वे भूल रहे हैं कि पीड़िता सुदूर पूर्वी उत्तर प्रदेश की है। वे भूल रहे हैं कि लड़की उन सपनों के देश से है जिसमें सपनों की कीमत खेती की जमीन बेंच कर चुकाई जाती है।
वे भूल रहे हैं कि आन्दोलन में चेहरों का बहुलांश उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मणिपुर से भी था। वह आन्दोलन समूचे भारत का था, पूरे देश के युवाओं के उन सपनों का था जिनमें वे अपना भविष्य देखते हैं और जिसे सत्ता के प्रहरियों ने अपने बूटों तले रौंद दिया।
विभिन्न क्षेत्रों के नेताओं ने बहुत 'सेफ' खेला। कोई समर्थन में आगे आया तो उसे अवसरवादी का खिताब दे दिया। अरुन्धतियों, थापरों, लाल बुझक्कड़ियों, सनातनियों, तबलीगियों, संघियों और बहुजनियों को किसने रोका था इस आन्दोलन में सम्मिलित होने से? ठंड ने, पानी की तोपों ने या बर्बर बेतों के भय ने या निहित स्वार्थों ने? यह शोध का विषय है।
यदि रामदेव ने आने की घोषणा की और आया भी तो इन सबको भी अलग अलग ही सही, एक समय ही अपने समर्थकों को ले दिल्ली पहुँचना था। सोचिये कि क्या स्थिति होती!
रायसीना का महामुनीम हो या जनपथ सनपथ की महारानी - या तो बिलों से बाहर आते या दिल्ली इतिहास में एक बार पुन: दर्ज हो जाती जबकि सारे मतभेद भुला कर देश ने अपनी नई पौध, अपने युवाओं का साथ दिया, उनके साथ लाठियाँ और गोले खाये और जन संसद ने तमाम लालफीताशाहों और वायसरायी जमात की संसद को धता बताते हुये निर्णय लिया दिया। तब ये बकवासें और 'हमारी भी बेटियाँ हैं' के छ्ल सम्वाद नहीं चल रहे होते।
चूक गये बौद्धिक और अब झेंप मिटाने को अहिंसक गालियाँ बक रहे हैं।
'दामिनी' का न्याय उस बलात्कार पीड़ित दलित कन्या का भी न्याय होगा जिसे रक्षक पुलिस वाले भी नहीं छोड़ते, उस वनवासिनी का भी न्याय होगा जिसके यौनांगों में ... और उन मणिपुरी स्त्रियों का भी जिन्हों ने विवस्त्र हो प्रदर्शन किये।
अत्याचार का घड़ा जब भर जाता है तब उफान आता है और उस समय उफान के रंग, नैन नक्श नहीं देखे जाते, उसका लाभ लिया जाता है लेकिन जीते जी नोच खाने वाले महाभोजी तो बस तमाशाई हैं, घड़ा फोड़ने की कोशिश पर स्वयं जल जाने का जो भय है!
एक और अलग तरह का तबका है जो चरित्र और नैतिकता प्रमाण पत्रों के संकलन का शौकीन है। उनके लिये मैं अपना यह फेसबुक स्टेटस पर्याप्त समझता हूँ:
क्षमा कीजिये मैं आप से सहमत नहीं:
- जब युवा अत्याचार और अपराध के विरुद्ध खड़ा होता है और आप उससे नैतिकता प्रमाण पत्र माँगते हैं।
- जब भयानक ठंड में पानी की धार और लाठियाँ खाने को आप रोमांच की चाह पूर्ति मानते हैं।
- जब आप यह कहते हैं कि सब को यानि 100% आन्दोलनकारियों को अहिंसक होना चाहिये। ऐसा संत होना चाहिये जिसकी स्थिति प्राप्त कर आप अपने ड्राइंग रूम में बैठे टी वी देख रहे हैं।
- जब आप षड़यंत्रों को जानते हुये भी आँखें मूँदे यह प्रलाप करते हैं कि बलात्कारी वहशियों और आन्दोलनकारियों में कोई अंतर नहीं।
- जब आप उनमें दिशाहीनता और अभिव्यक्ति की कमी पाते हैं लेकिन उसे दिशा या स्वर देने के स्थान पर मखौल उड़ाते सभ्य गालियाँ बकते हैं।
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ऐसी असहमति की स्थिति में मैं हर उस गुंडे के साथ सहानुभूति प्रकट करता हूँ जो आप के बौद्धिक पिछवाड़े जब तब लात लगा आप की निकल आयी बत्तीसी को सराहता अपना स्वार्थ साध चल देता है। यकीन मानिये कि उसमें और आप में कोई अंतर नहीं। मौका मिलने पर आप भी वही करते हैं।
इसलिये मेरी सहानुभूति आप के भी साथ है।
भावुक प्रकृति के पुरुष कैसे पीछे रह सकते हैं? उन्हें अपने पुरुष होने पर या अपने पौरुष पर ही शर्म आने लगी है। यह बहुत ही घातक प्रवृत्ति है क्यों कि यह पलायन की राह मुकम्मल करती है। सुविधाजीविता के तर्कों को सुतर्क बनाती है। उनसे मैं यही कहूँगा कि यूँ पुरुषत्त्व पर लज्जित होने का विलाप बन्द कीजिये। याद रखिये कि यदि इस समाज को पितृसत्तात्मक कहा जाता है, पुरुषवादी कहा जाता है तो इसका एक पक्ष यह भी है कि जैसा भी है इसमें आप का ही अधिक चलता है। यह जो कूड़ा कचरा है न, उसमें भी आप का ही योगदान अधिक है।
ऐसे लज्जित हो पलायन वाली गली मत पकड़िये। डटिये, खड़े होइये, अपनी मेधा और शारीरिक शक्ति का उपयोग कर कूड़ा साफ करने की राह प्रशस्त कीजिये।
जब आप लज्जित होने की बात करते हैं तो उन हजारो पुरुषों का अपमान कर रहे होते हैं जिन्हों ने दिसम्बर में ही 'थम कदम ताल' के दमन तले स्वयं को कुचले जाने देकर जनवरी की राजपथ परेडों का रंग भी आगे आने वाले समय के लिये फीका कर दिया।
आप उन स्त्रियों का भी अपमान कर रहे होते हैं जो पुरुषों पर भरोसा कर उनसे कन्धे से कन्धा मिला कर लड़ीं और लड़ रही हैं। उनका सम्मान बढ़े, ऐसा कोई काम कीजिये। बन्द कीजिये यह बकरूदन!
जो भी राजपथ पर घटित हुआ, वह बहुत बुरा हुआ और उसके दूरगामी परिणाम होंगे। मध्यवर्ग को कोसने वालों! यह वर्ग इस देश की रीढ़ है। परिवर्तन की कोई भी बयार यहीं से आती है और यह 'सुविधाभोगी' वर्ग ही इस राष्ट्र को थामे हुये है, इसे गालियाँ देना बन्द कर आप इसके सद्प्रयासों को सहारा दीजिये। यदि यह वर्ग टूटा तो न तो विश्वविद्यालय की अकादमिक दुकान चलने वाली है और न शेयर मार्केट की दलाली।
नैराश्य के समूह सम्मोहन से निकलिये, जो भी कर सकते हैं, कीजिये। सत्ता के केन्द्र से निकलती सर्वनाशी पानी की तोप और रासायनिक युद्ध के हथियार 'एक्सपायर्ड आँसू के गोले' का अगला शिकार आप भी हो सकते हैं। निज स्वार्थ के लिये ही सही, कुछ कीजिये। प्लीज!
जिसे ड्यूड, र् यूड, यो, या, मोबाइल, गजेट, जिंसिया पीढ़ी बता आप होपलेस करार देते रहे हैं, उसने अपना प्रदर्शन कर दिया, अब आप की बारी है। शांति के इस समय को व्यर्थ न जाने दीजिये। लोहा गर्म है, चोट कीजिये!
अमेरिकी मार्टिन लूथर का यह भाषण आज भारत के लिये उपयोगी है, उठिये! उत्तिष्ठ भारत!
We cannot walk alone.
And as we walk, we must make the pledge that we shall march ahead. We cannot turn back.,,, No, no, we are not satisfied, and we will not be satisfied until justice rolls down like waters and righteousness like a mighty stream.... Let us not wallow in the valley of despair.
I say to you today, my friends, that in spite of the difficulties and frustrations of the moment, I still have a dream...
I have a dream that one day this nation will rise up and live out the true meaning of its creed... I have a dream that one day ... the heat of injustice and oppression, will be transformed into an oasis of freedom and justice.
I have a dream today.
I have a dream that one day every valley shall be exalted, every hill and mountain shall be made low, the rough places will be made plain, and the crooked places will be made straight... This is our hope... With this faith we will be able to hew out of the mountain of despair a stone of hope. With this faith we will be able to transform the jangling discords of our nation into a beautiful symphony of brotherhood. With this faith we will be able to work together, to pray together, to struggle together, to go to jail together, to stand up for freedom together…