आयु बढ़ने के साथ साथ मस्तिष्क पुरानी स्लेट हो जाता है।
बचपन की स्लेट जब नयी होती थी तो पुन: पुन: लिखा जाता था, पुराना मिटा दिया जाता था लेकिन धीरे धीरे खड़ियों के अक्षर स्लेट पर प्रभाव छोड़ने लगते थे। कुछ तो इतने हठी हो जाते कि हाथ से, थूक से, पानी से, भँगरइया से चाहे जिससे रगड़ लो, स्लेट के सूखने पर पुन: अपने आभास देने लगते। वे उन चिढ़ाने वाले सहपाठियों से लगते जिनकी शिकायत आचार्य जी से करनी होती थी और जिन्हें दंडित होता देख अच्छा लगता।
स्लेट की भी शिकायत होती और पिताजी नई ले आते।
एक बार एक दारोगा की कन्या की स्लेट मेरे हाथ से लग कर टूट गई तो उसने पुलिसिया ड्ंडे का इतना आतंक जमाया कि मुझे प्रधानाचार्य जी तक सिफारिश लगानी पड़ी। उसकी नज़र मेरी उस स्लेट पर थी जिस पर लिखाई बड़ी सुन्दर होती थी। अब लिखाई का स्लेट से क्या सम्बन्ध लेकिन उसकी समझ जो थी वो थी! मैंने भी अपनी स्लेट बदले में नहीं दी बल्कि चवन्नी दंड दे कर पीछा छुड़ाया। उसके बाद उसने 'मिल्ली' करने की तमाम कोशिशें कीं लेकिन सब बेकार!
सोचता हूँ कि मस्तिष्क भी स्लेट जैसा होता जिसे पुराना होने पर बदला जा सकता! फिलहाल तो यह असम्भव है। वैसे भी मैं मस्तिष्क ही तो हूँ! जब वही बदल जाय तो मैं रहूँगा ही नहीं लेकिन फिर भी सोचो तो मस्तिष्क अलग सा लगता है। मनुष्य सोचता कहाँ है? मस्तिष्क में न? तो फिर मस्तिष्क इतना चालाक है कि स्वयं से भी अलगाव का भाव रख लेता है? ऐसे मस्तिष्क से कैसे पार पायें?
पुरानी स्लेट सरीखे मस्तिष्क का क्या करूँ जिस पर अक्षरों के धुँधलके मुँह चिढ़ाते हैं और नये लिखे नहीं जाते? :(
स्लेटयुग से आगे की एक चित्रमयी पुस्तक की एक कविता टुकड़ा टुकड़ा याद आई है। जाने किसने रचा था? पता नहीं यह पूरी है भी या नहीं?
बरसो राम धड़ाके से
बुढ़िया मर गइ फाँके से
गरमी पड़ी कड़ाके की
नानी मर गइ नाके की।
पेड़ों के पत्ते सूखे
धोबी के लत्ते सूखे
घबराई मछली रानी
देख नदी में कम पानी।
सब मिल कर के चिल्लाये
उमड़ घुमड़ मेघा आये
ओले गिरे लप लप लप
हमने खाये गप गप गप!
ज़िन्दगी इस कविता सरीखी आसान होती तो क्या बात होती! बरेली, कोकराझार, मानेसर और दंडकारण्य जैसे मामले कितनी आसानी से सुलझ जाते! छेड़खानी के बाद चलती ट्रेन से फेंक दी गई लड़की को कोई हवाई राजकुमार बाहों में सँभाल लेता और उन सबकी आँखों में सुराख कर देता जिन्हों ने चुप तमाशा देखा।
लेकिन ऐसा कहाँ होता है?
अव्वल तो ओले पड़ते नहीं, पड़ते भी हैं तो भाग कर अपनी चाँद बचानी होती है। मुँह में लेने की कौन सोचे जब हजार बैक्टीरिया, वायरस आबो हवा में फैले हुये हैं। दाँत सेंसिटिव हो गये हैं। ठंड गर्म सहा नहीं जाता और टी वी पर सेंसोडाइन का प्रचार करती नकली डाक्टर की नकली मुस्कान देख लगता है कि दारोगा की वह बेटी अब सयानी हो गई है, इतनी भोली नहीं रही कि अच्छी लिखाई का गुर हाथ में न देख स्लेट में देखे, चवन्नी से मान जाय और बाद में मिल्ली की कोशिशें करें। बड़प्पन भोलापन छीन लेता है।
सम्वेदनायें आइसक्रीम सी हो गई हैं, आइसिंग के नीचे घुल जाने वाली ठंड है; न जीभ पर रोड़ा और न दाँतों को कुछ खास कष्ट। चुभलाते हुये मन तृप्त होता है और भूल जाता है।
इस भुलक्कड़ी में शब्द तक याद नहीं रह जाते। वे शब्द जो सृष्टि की नींव समूल हिलाने की सामर्थ्य रखते थे, मन प्रांतर में कहीं खो गये हैं। पुकार भी ठीक से नहीं हो पाती!
उमड़ घुमड़ मेघ कैसे आयें? ओले कैसे पडें?