यह एक अ-गम्भीर लेख है। अ-गम्भीर इसलिये कि लेखक न तो डॉक्टर है, न मनोविज्ञानी, न विचारक न प्रचारक, न चिंतक सिंतक और न कुछ उसी प्रकार का ऐसा वैसा। बातों के ठीक होने की कोई गारंटी नहीं, अपने रिक्स (यह risk की हिन्दी है) पर पढ़ें। बस मन में आया तो लिख दिया। पढ़ने के पश्चात व्यवहार में लाने से पहले डॉक्टर या मनोचिकित्सक से परामर्श कर लें जिसका शुल्क और शेष व्यय आप को स्वयं वहन करने होंगे। पढ़ने के पश्चात गाली न दें, यह एक श्लील ब्लॉग है। गम्भीर श्रेणी के पाठक प्रेमपत्र की अगली कड़ी की प्रतीक्षा कर लें। खिलन्दड़ किस्म के गम्भीर पाठक बाउ की प्रतीक्षा कर लें। यह लेख 'दलभतवा' दम्पति के लिये है - स्त्री गृहिणी और पुरुष कमाऊ टाइप या स्त्री पुरुष दोनों दुकान पर टाइप वालों के लिये। देह में हल्दी लगने से अब तक बच गये लोग या सभी हाथों पैरों से जाने किसके लिये कमाने वाले लोग अपने लिये दूसरे लेखक का जुगाड़ कर लें।अधेड़ी सहसा होने वाला एक रोग है। कभी कभी इसका सम्बन्ध हर्पीज और उच्छृंखल यौन व्यवहार से भी जोड़ा जाता है। अधेड़ी नामप्रसिद्ध यह रोग बच्चों को भी हो जाता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है - इसका बिना किसी पूर्व चेतावनी के अचानक हो जाना और मन को चकित कर देने वाली गति से पसरना तथा परिपक्व होना। असह्य पीड़ा और कभी कभी तीव्र ज्वर भी इसके प्रमुख लक्षण हैं।
शरीर के ऐसे भाग में घाव हो जाता है जिसे आप बिना किसी सहायता के देख नहीं सकते - पीठ, कान के पीछे, मुख आदि और तब यह पसरता चला जाता है। अपने योग्य भाग कर लेने के पश्चात घाव खुल जाता है और पीव बहने लगती है। पुराने समय में इसकी चिकित्सा के लिये औषधि के अतिरिक्त टोटके भी किये जाते थे किंतु अब डॉक्टर लोग एंटी बायटिक से निपटा देते हैं। एक बार हो जाने के पश्चात दुबारा नहीं होता, आप शेष जीवन उसकी त्वरा और तीव्र पीड़ा का यदा-कदा स्मरण कर आश्चर्य करते रहते हैं।
अधेड़ावस्था भी कुछ कुछ अधेड़ी जैसी ही होती है।
यदि मनुष्य़ की औसत आयु 80 वर्ष मानें तो 40 की आयु आधी यात्रा पूरी होने को दर्शाती है - अधेड़ावस्था। 40 की अवस्था के पश्चात किसी एक दिन अचानक आप अपने को विचित्र स्थिति में पाते हैं। भीतरी कार्यव्यापार तो बहुत पहले से चल रहा होता है किंतु अनुभव अचानक ही होता है। ऐसा उन्हें होता है जो तथाकथित 'सेटिल - व्यवस्थित' जीवन जी रहे होते हैं। आप अपने को पूर्णत: नई स्थिति में पाते हैं। व्यवसाय या सर्विस करते 15-16 साल बीत चुके होते हैं। अपने समवय साथियों की प्रगति देख दूसरे की थाली में घी अधिक को चरितार्थ करते सोच बैठते हैं - अब तक तो व्यर्थ गया। ऑफिस या कार्यस्थल के सारे नकारात्मक व्यक्ति और परिस्थितियाँ 'एकोत्वम् द्वितीयोनास्ति' लगने लगते हैं। वदन की लटकती पेशियाँ, सिर का चाँद, उजले होते केश, अधपकी दाढ़ी मूँछ, निकलता पेट आदि (महिलायें जो लागू न हो उसे हटा लें।) पर ध्यान जाता है और आप व्यर्थबोधी बुद्ध हो जाते हैं - अज्ञान, अनिर्वाण की प्राप्ति।
सबसे बड़ी त्रासदी यह होती है कि आप 'अंकल' या 'आंटी' हो जाते हैं। पड़ोस की षोडसी बाला अंकल कह कर आप को रीतिकालीन दोहे के 'बाबा' की याद दिलाती है और क्रिकेट का व्यसनी किशोर लाइन मारना तो दूर, ताकता तक नहीं। कोढ़ में खाज यह कि आप के बच्चे भी आप के ‘बड़प्पन’ की अनुभूति कराने लगते हैं। कुल मिला कर सॉलिड केमिकल लोचा।
जी हाँ, यह केमिकल लोचा ही होता है - महिलाओं में रजोनिवृत्ति या मेनोपॉज और पुरुषों में एंड्रोपॉज का प्रारम्भ। शरीर के हॉर्मोन साँठ गाँठ कर स्त्री से प्रजनन क्षमता छीनने की प्रक्रिया में लग जाते हैं और पुरुष का वह पौरुष भी गड़बड़ाने लगता है जो कभी सर्वत्र अपना वंशविस्तार करने के मनपुये पकाया करता था। दम्पति में यदि आयु अंतर अल्प हो या स्त्री आयु में बड़ी हो तो मामला कुछ और जटिल हो जाता है। पुरुष अभी भी 'युवान' होता है और स्त्री के मन में वैराग्य हिलोर मारने लगता है। ऐसे में 'रतियाँ डरावन लागी रे'। दोनों को जीवन ही व्यर्थ लगने लगता है।
यह प्रश्न उठता है - क्या परिस्थिति वास्तव में इतनी होपलेस है?
कदापि नहीं! यही समय है जब आप स्थिरता, सेटल्ड जीवन से भरपूर निचोड़ सकते हैं। अपनी रचनाशीलता को, अपनी उन सारी अधूरी इच्छाओं को, जो मन के फ्रिज में पड़ी रहीं, बाहर निकाल कर पूरी कर सकते हैं। ठहराव और जीवन साथी का लम्बा सान्निध्य वह समझ, वह अनुराग और वह साझाभाव देता है जो जीवन को पूरित परिपूर्ण कर सकते हैं। आप दोनों मिल कर अपनी संतानों को समझ सकते हैं, सम्वाद कर सकते हैं और उन्हें उनकी क्षमता के चरम तक पहुँचने में सहायता कर सकते हैं। उन्हें वह अँगुली पकड़ा सकते हैं जो आप को कभी नहीं मिली। अच्छे और जीवन से भरपूर नागरिक गढ़ने में योगदान अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि है।
यह वह समय है जब नर-मादा के आदिम सम्बन्ध में सख्य भाव प्रबल होता है। अब तक आप एक दूसरे के सारे दोष, गुण, अभिरुचि, विरक्ति, काम, प्राथमिकतायें आदि से पूरी तरह परिचित हो चुके होते हैं। यह वह समय होता है जब गृहिणी समाचारपत्र को देखकर ही बता देती है कि 'वे' दिनचर्या के किस बिंदु पर होंगे। बालम दाल के स्वाद से ही बलमी या सजनी के मूड का अनुमान लगा लेते हैं।
तो मित्रों! यह समय अपनी इस विकसित हो चुकी नैसर्गिक सी आपसी समझ को और पैना करने का होता है। संसार में अपने आप कुछ भी नहीं होता, करना पड़ता है। प्रश्न यह है कि करें क्यों? मनुष्य से खजुहटी श्वान जाति में परिवर्तित न हो जायें, इसलिये करें।
यह वह समय है जब बॉस को उसकी सीमा बताते हुये साँझ को मोबाइल बन्द कर देना होता है। जब बच्चे अपनी पढ़ाई कर रहे हों, टीवी देख रहे हों उस समय एकांत में नेह तंतुओं की मौन बुनाई करनी होती है। स्पर्श का सुख, सान्निध्य का सुख, चुप साथ साथ बैठने का सुख और एक दूसरे की आँखों में झाँकने का सुख - इन सबको समेटने को एकाध घंटे चुरा लेने का यह समय होता है, भले गैस पर रखी भाजी जल जाय। कुछ ही दिनों में आप एक परिवर्तित व्यक्ति हो जाते हैं। रतियाँ डरावन नहीं सुहावन हो जाती हैं। वह विराम जो महीनों नहीं टूटता था, हर दूसरे तीसरे टूटने लगता है और आप पुराना 'उद्दाम उत्ताल नर्तन' नहीं 'चन्द्रिका के वेष्टन में कलकल जल विहार' कर रहे होते हैं।
षोडसी बालायें केवल शरीर नहीं, दपदप दमकती और चहकती सम्भावनायें हो जाती हैं जिनसे बतियाते हुये आप अपने भीतर सुखद भविष्य की प्रतिध्वनियाँ सुनते हैं। आप का मन किशोर की जोड़ी की किशोरी तलाशने लगता है, वह आप को 'दुष्ट बच्चा' लगने लगता है जो आप के बड़े हो रहे बेटे के भविष्य की भाँति लगता है। आप पाते हैं कि परिवेश को आप के योगदान की कुछ अधिक ही आवश्यकता है और मन के कबाड़ी कोने में फेंक दिये गये 'प्रोजेक्ट ब्लूप्रिंट' साकार होने लगते हैं।
सारांश यह कि ठहराव वाली अधेड़ावस्था कथित जवानी से भी जीवंत और आनंदमयी होती है। आप की सृजन सम्भावनायें आप को उपलब्धि की पराकाष्ठा तक ले जाने को तत्पर होती हैं किंतु जड़ता तोड़नी होती है, आप को चलना होता है। पहले से अन्तर यही होता है कि उस समय आप जड़त्त्व के कारण रुकने में असुविधा का अनुभव करते थे और अब आप उसी जड़त्त्व के कारण चलने में असुविधा का अनुभव करने लगे हैं।
तो आलस किस बात का? उठिये, चलिये। बेटे की टेनिस रैकेट उठाइये या बेटी की कूदने वाली रस्सी। घुटने के दर्द के लिये तो डाक्साब हैं ही। क्रीड़ा से मधुमेह का प्रकोप तो विरम जायेगा!
सबसे बड़ी त्रासदी यह होती है कि आप 'अंकल' या 'आंटी' हो जाते हैं। पड़ोस की षोडसी बाला अंकल कह कर आप को रीतिकालीन दोहे के 'बाबा' की याद दिलाती है और क्रिकेट का व्यसनी किशोर लाइन मारना तो दूर, ताकता तक नहीं। कोढ़ में खाज यह कि आप के बच्चे भी आप के ‘बड़प्पन’ की अनुभूति कराने लगते हैं। कुल मिला कर सॉलिड केमिकल लोचा।
जी हाँ, यह केमिकल लोचा ही होता है - महिलाओं में रजोनिवृत्ति या मेनोपॉज और पुरुषों में एंड्रोपॉज का प्रारम्भ। शरीर के हॉर्मोन साँठ गाँठ कर स्त्री से प्रजनन क्षमता छीनने की प्रक्रिया में लग जाते हैं और पुरुष का वह पौरुष भी गड़बड़ाने लगता है जो कभी सर्वत्र अपना वंशविस्तार करने के मनपुये पकाया करता था। दम्पति में यदि आयु अंतर अल्प हो या स्त्री आयु में बड़ी हो तो मामला कुछ और जटिल हो जाता है। पुरुष अभी भी 'युवान' होता है और स्त्री के मन में वैराग्य हिलोर मारने लगता है। ऐसे में 'रतियाँ डरावन लागी रे'। दोनों को जीवन ही व्यर्थ लगने लगता है।
यह प्रश्न उठता है - क्या परिस्थिति वास्तव में इतनी होपलेस है?
कदापि नहीं! यही समय है जब आप स्थिरता, सेटल्ड जीवन से भरपूर निचोड़ सकते हैं। अपनी रचनाशीलता को, अपनी उन सारी अधूरी इच्छाओं को, जो मन के फ्रिज में पड़ी रहीं, बाहर निकाल कर पूरी कर सकते हैं। ठहराव और जीवन साथी का लम्बा सान्निध्य वह समझ, वह अनुराग और वह साझाभाव देता है जो जीवन को पूरित परिपूर्ण कर सकते हैं। आप दोनों मिल कर अपनी संतानों को समझ सकते हैं, सम्वाद कर सकते हैं और उन्हें उनकी क्षमता के चरम तक पहुँचने में सहायता कर सकते हैं। उन्हें वह अँगुली पकड़ा सकते हैं जो आप को कभी नहीं मिली। अच्छे और जीवन से भरपूर नागरिक गढ़ने में योगदान अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि है।
यह वह समय है जब नर-मादा के आदिम सम्बन्ध में सख्य भाव प्रबल होता है। अब तक आप एक दूसरे के सारे दोष, गुण, अभिरुचि, विरक्ति, काम, प्राथमिकतायें आदि से पूरी तरह परिचित हो चुके होते हैं। यह वह समय होता है जब गृहिणी समाचारपत्र को देखकर ही बता देती है कि 'वे' दिनचर्या के किस बिंदु पर होंगे। बालम दाल के स्वाद से ही बलमी या सजनी के मूड का अनुमान लगा लेते हैं।
तो मित्रों! यह समय अपनी इस विकसित हो चुकी नैसर्गिक सी आपसी समझ को और पैना करने का होता है। संसार में अपने आप कुछ भी नहीं होता, करना पड़ता है। प्रश्न यह है कि करें क्यों? मनुष्य से खजुहटी श्वान जाति में परिवर्तित न हो जायें, इसलिये करें।
यह वह समय है जब बॉस को उसकी सीमा बताते हुये साँझ को मोबाइल बन्द कर देना होता है। जब बच्चे अपनी पढ़ाई कर रहे हों, टीवी देख रहे हों उस समय एकांत में नेह तंतुओं की मौन बुनाई करनी होती है। स्पर्श का सुख, सान्निध्य का सुख, चुप साथ साथ बैठने का सुख और एक दूसरे की आँखों में झाँकने का सुख - इन सबको समेटने को एकाध घंटे चुरा लेने का यह समय होता है, भले गैस पर रखी भाजी जल जाय। कुछ ही दिनों में आप एक परिवर्तित व्यक्ति हो जाते हैं। रतियाँ डरावन नहीं सुहावन हो जाती हैं। वह विराम जो महीनों नहीं टूटता था, हर दूसरे तीसरे टूटने लगता है और आप पुराना 'उद्दाम उत्ताल नर्तन' नहीं 'चन्द्रिका के वेष्टन में कलकल जल विहार' कर रहे होते हैं।
षोडसी बालायें केवल शरीर नहीं, दपदप दमकती और चहकती सम्भावनायें हो जाती हैं जिनसे बतियाते हुये आप अपने भीतर सुखद भविष्य की प्रतिध्वनियाँ सुनते हैं। आप का मन किशोर की जोड़ी की किशोरी तलाशने लगता है, वह आप को 'दुष्ट बच्चा' लगने लगता है जो आप के बड़े हो रहे बेटे के भविष्य की भाँति लगता है। आप पाते हैं कि परिवेश को आप के योगदान की कुछ अधिक ही आवश्यकता है और मन के कबाड़ी कोने में फेंक दिये गये 'प्रोजेक्ट ब्लूप्रिंट' साकार होने लगते हैं।
सारांश यह कि ठहराव वाली अधेड़ावस्था कथित जवानी से भी जीवंत और आनंदमयी होती है। आप की सृजन सम्भावनायें आप को उपलब्धि की पराकाष्ठा तक ले जाने को तत्पर होती हैं किंतु जड़ता तोड़नी होती है, आप को चलना होता है। पहले से अन्तर यही होता है कि उस समय आप जड़त्त्व के कारण रुकने में असुविधा का अनुभव करते थे और अब आप उसी जड़त्त्व के कारण चलने में असुविधा का अनुभव करने लगे हैं।
तो आलस किस बात का? उठिये, चलिये। बेटे की टेनिस रैकेट उठाइये या बेटी की कूदने वाली रस्सी। घुटने के दर्द के लिये तो डाक्साब हैं ही। क्रीड़ा से मधुमेह का प्रकोप तो विरम जायेगा!