सामान्यत: मैं सुपरलेटिव में बात करने से बचता हूँ। क्यों कि पग पग, रोज रोज औसत दर्जे का अभ्यस्त हूँ। अत्युत्तम लिखने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है जो मुझ आलसी से कम ही हो पाती है। जब जब अत्युत्तम लिखता हूँ तो नियमित स्मार्ट भैया, सतीश पंचम और अरविन्द मिश्र जैसों का साथ देने अनूप शुक्ल और डा. अनुराग जैसे जन आ ही जाते हैं। लिखा हुआ अत्युत्तम है - यह निर्णय करने की मेरी तमीज नहीं, मैं तो बस इन लोगों के आ जाने से ही कयास लगा लेता हूँ। साथ ही यह भी समझ जाता हूँ कि अधिक मेहनत कर दिया और अब स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए दस पन्द्रह पोस्टों तक मेहनत स्थगित करना ठीक रहेगा (लिख तो दिया लेकिन अब स्मार्ट भैया वगैरह भी मुँह बिचका कर भाव न दिखाने लगें - यह डर लग रहा है। )
बहुधा ऐसे मौकों पर समीर जी ग़ायब हो जाते हैं। यह समीकरण मुझे रोचक लगता है। आज कल हिमांशु जी, अदा जी और ज्ञान जी टाइप के लोग ग़ायब रहने लगे हैं। कोई भगवान जैसा होता हो तो उन्हें कुशल मंगल से रखे।
खैर, टिप्पणियों के अलग अलग रंग देखने का मजा ही अलग है। रंग से याद आया - एक होते हैं 'रंगकार' और एक होते हैं 'रंगबाज'। उसी तर्ज पर एक होते हैं व्यंगकार और एक होते हैं व्यंगबाज । कार चाहे दुमछल्ला शब्द हो या चलने वाली - इसके लिए श्रम अपेक्षित है। रगडघिस्स किए बिना कोई 'कारवान' नहीं हो सकता। वैसे ही जैसे खान कुमार को अभिनय करने के लिए बड़ी और कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी - उन्हें मेहनत की ऐसी आदत लगी कि अंतिम फिल्म तक भी मेहनत कर कर के अभिनय करते रहे। अभिनय कर कर के अभिनय करते रहे। और कुछ न सूझा तो फ्रेम से जानी टाइपों का थोबड़ा भी हटवाते रहे।
'बाज' टाइपों के लिए सब कुछ सहज ही होता है। हो जाता है। आ जाता है। कभी बाज को आप ने हवा में उड़ते देखा है ? परम वैज्ञानिक डा.अरविन्द मिश्र जी की जुबान में कहें तो उनके जीन में कुछ अधिक ही मोड़ सोड़, वजन वगैरह होते हैं।
अब तक आप लोग मेरी फालतू की भूमिका से तंग आ चुके होंगे। देखिए, बात यह है कि आज कल श्रेष्ठता का जमाना है। रोज रोज श्रेष्ठ लोगों को कान खींच कर सामने लाया जा रहा है। हिन्दी ब्लॉगरी में इतने श्रेष्ठ जन हैं, यह पता ही न चलता अगर यह अभियान न चलता। वैसे ही जैसे हर दसवे साल जनगणना होने पर ही हमें पता चलता है कि हम इतने ढेर सारे हैं और होते जा रहे हैं, बाकी समय तो हमलोग ढेरों ढेर लगाने में ही व्यस्त रहते हैं। आप लोगों को भी अपनी श्रेष्ठता के बारे में जानना हो, दूसरों की श्रेष्ठता से जलना हो और अपना नाम न देख कर इंतजार करना हो या सिर पीटना हो तो अभियान के सक्रिय पाठक बन कर लाभ ले सकते हैं।
प्रेरणा भी अजीब होती है। वो वाली नहीं भावना वाली। भावना भी वो वाली नहीं भावना वाली (अमाँ मैं भटक रहा हूँ, खुदे समझ लीजिए)। ... तो अपन को भी कुछ अनूठा करने की खुजली हो रही थी, ठीक वैसे ही जैसे कभी रानी के डंडे को लेकर हो रही थी। आज भटकता हुआ अपने पुराने मुरीद के इस लेख पर पहुँचा तो खुजलाने को मन कर बैठा।
कृष्ण मोहन मिश्र जी को मैं हिन्दी ब्लॉगरी का सर्वश्रेष्ठ व्यंगबाज मानता हूँ। कारें तो बहुत हैं लेकिन बाज एक ही है। वाकई सुदर्शन हैं । उनकी कोई फोटो मेरे पास नहीं है और उनसे अपील है कि कभी घूमते घामते यहाँ आएँ तो (उम्मीद कम ही है।) अपना सुदर्शनी फोटो मुझे मेल करें ताकि यहाँ लगा सकूँ। {फोटो मिल गई, लग गई।}
उनके बारे में इतना पता है कि प्रयाग में उस पेशे में है जिससे बचने की प्रार्थना मुझ जैसे नास्तिक भी करते हैं - भाई साहब वकील हैं। न देखने से लगते हैं और न बातचीत से। कभी कभी लगता है कि मुझसे सुनने में भूल हुई होगी। स्पष्टीकरण भी उन्हीं के जिम्मे।
'मैला आँचल' नाटक में अभिनय भी किए थे। मुझे निर्माता की परख से ईर्ष्या होती है - मुझसे पहले ही ताड़ जो गया!
... बात बहुत हो गयी । अब आप लोग जल्दी से यहाँ पहुँचें और बाजगीरी का मज़ा लें।