आज शीत अयनांत है। उत्तरी गोलार्द्ध में आज सूर्य अपने दक्षिणी झुकाव के चरम पर होगा। यह वार्षिक घटना जीवन प्रतीक ऊष्मा का नया सन्देश ले कर आती है – अब दिन बड़े होने लगेंगे, धरती को ऊष्मा और प्रकाश अधिक मिलने लगेंगे। संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं में इस दिन को मनाया जाता रहा है। भारत में भी इस दिन से नये संवत्सर सत्र प्रारम्भ होते थे जो कि कृषि से भी सम्बन्धित थे।
इस दिन एक राष्ट्र के रूप में हम सभी भीतर तक हिले हुये हैं। राजधानी दिल्ली में हुई बर्बर बलात्कार की घटना ने हमें उस चरम तक आन्दोलित कर दिया है कि जाने अनजाने हमारे भीतर की प्रतिहिंसा भी स्वर पा रही है, वही प्रतिहिंसा जिसके जघन्यतम रूप से हम साक्षी हैं। यह समय चिंतन, मनन और ‘ऐक्शन’ का है न कि कुछ दिन उबलने के पश्चात ठंडे हो जाने का। पिछले आलेख में मैंने इंगित किया था कि हिंसा सनातन रही है। साथ ही यह भी सच है कि प्रतिरोध भी सनातन रहा है। संघर्ष सनातन रहा है। अब हमारे ऊपर है कि हम साक्षी हो आमोद प्रमोद में लगे रहें, बड़ा दिन और नववर्ष मनायें या कुछ ऐसा सार्थक करें जो स्थायी परिवर्तन ला सके।
बीते दिन निराशा के रहे हैं। मैंने तंत्र में जिनसे भी बात की है उनसे छवि बहुत निराशाजनक ही उभर कर सामने आयी है। मेरे प्रश्न, मेरी बातें बहुत ही केन्द्रित रहीं, मैं वहीं केन्द्रित हुआ जिन्हें तत्काल साध्य माना:
· न्याय और दंड प्रक्रिया तेज हो। बलात्कार सम्बन्धित विधिक प्रावधानों और प्रक्रिया का बहुत दुरुपयोग भी हुआ है और होता रहा है। इसलिये मैं केवल उसी पर केन्द्रित हुआ जहाँ प्रथम दृष्ट्या ही हिंसा और अपराध सिद्ध हों।
· न्याय व्यवस्था जनता के बीच विश्वास खो चुकी है। पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका का भय निषेधात्मक है जिससे शरीफ और सभ्य लोग डरते हैं न कि अपराधी। इस वास्तविकता और छवि को तोड़ने के लिये, सज्जनों में विश्वास स्थापित करने के लिये और ऐसे बलात्कार जैसे जघन्यतम अपराध की स्थिति में त्वरित निर्णय और दंड सुनिश्चित करने के लिये व्यवस्था बने।
· ऐसे मामलों के लिये समूचे देश में (केवल दिल्ली में नहीं) फास्ट ट्रैक न्यायालय स्थापित हों। हर राज्य में कम से कम एक ऐसी पीठ हो। यह सत्य है कि दिल्ली से भी जघन्यतम अपराध लोगों के ध्यान तक में नहीं आते और पीड़िताओं एवं उनके परिवार का जीवन पर्यंत उत्पीड़न और शोषण चलता रहता है। संसाधनों के अभाव में निर्धन और दुर्बल वर्ग सबसे अधिक प्रभावित हैं।
· न्यायपीठ के लिये धन, जन और संसाधन आवश्यक होते हैं। इन सबसे ऊपर इच्छाशक्ति का होना अनिवार्य है जो कि नहीं है। परिणाम यह होता है कि कार्यपालिका मात्र वी आई पी या बहुत ही हाइलाइट हो गये मामलों में ही न्यायपालिका के पास फास्ट ट्रैक के लिये अनुरोध करती है और तदनुकूल व्यवस्था करती है। ध्यान रहे कि न्यायपालिका उस पर निर्भर है।
· अब बचती है विधायिका यानि हमारी संसद जो इस सम्बन्ध में क़ानून बना सकती है। संसद के बारे में कुछ न कहना ही ठीक है। आप लोगों ने बहसें देखी ही होंगी। वे सभी जाने किससे कार्यवाही की माँग कर रहे थे? जाने कौन उन्हें क़ानून बनाने से रोक रहा है? सीधी बात यह है कि वे कुछ नहीं करने वाले। हमने चुना ही ऐसे लोगों को है। हम भी दोषी हैं। छोड़िये इसे, विषयांतर हो जायेगा।
· ले दे के एक ही आस बचती है – सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका। एक बार और दुहरा दूँ – केवल दिल्ली के लिये नहीं, पूरे देश के लिये। यदि वहाँ से कोई आदेश आता है तो कार्यपालिका और विधायिका दोनों बाध्य हो जायेंगे। अब प्रश्न यह उठता है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे? सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं संज्ञान में तो लिया नहीं!
जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग के कारण ही सर्वोच्च न्यायालय में कुछ ऐसे नियम या चलन हैं जो कि निर्धन और संसाधनहीनों के विरुद्ध जाते हैं:
(1) याचिका का प्रस्तुतिकरण एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड ही कर सकता है (उनका शुल्क कम से कम पचास हजार)
(2) यदि याचिका सुनवाई हेतु स्वीकृत होती है तो कोई आवश्यक नहीं कि जिस बेंच ने स्वीकृत किया वही सुनवाई करे।
(3) याचिका पर बहस केवल सीनियर एडवोकेट कर सकता है (प्रति सुनवाई शुल्क कम से कम लाख रुपये तो बनता ही है)
बिल्ली के गले घंटी कौन बाँधे?
· अपारम्परिक तरीके जैसे इंटरनेट पिटीशन, फेसबुक, ब्लॉग आदि केवल अप्रत्यक्ष दबाव का काम कर सकते हैं। वैसे भी इन्हें सुनता देखता कौन है? चन्द अलग तरह के नशेड़ी ही जिनमें बहुलता वास्तविकता से पलायन कर सुरक्षित बकबक करने वालों की ही है।
मैं निराश हो गया हूँ। यदि आप में से किसी को मेरे द्वारा उल्लिखित बातों में कोई त्रुटि दिखती है तो मुझे ठीक करें। यदि दूसरे प्रभावी रास्ते हैं तो बतायें।
इस बार कुछ करना ही होगा।
कल एक मित्र ने बाऊ कथा की अगली कड़ी के बारे में पूछा तो मैंने कहा कि सहम रहा हूँ क्यों कि आगे बहुत ही वीभत्स हिंसा है। बीत युग के एक यथार्थ को कल्पना द्वारा बुनने की रचनात्मक चुनौती से तो निपट लूँगा लेकिन वर्तमान के यथार्थ का क्या?
अपनी एक पुरानी नज़्म याद आ रही है:
उतर गया उफक से सूरज उफ उफ करते
उमसा दिन बीता बाँचते चीखते अक्षर
लिखूँ क्या इस शाम को नज़्म कोई
जो दे दिल को सुकूँ और समा को आराम
चलता रहेगा खुदी का खुदमुख्तार चक्कर
चढ़े कभी उतरे, अजीयत धिक चीख धिक।
कालिखों की राह में दौड़ते नूर के टुकड़े
बहसियाने रंग बिरंगे चमकते बुझते
उनके साथ हूँ जो रुके टिमटिमाते सुनते
चिल्ल पों में फुसफुसाते आगे सरकते
गोया कि हैं अभिशप्त पीछे छूटने को
इनका काम बस आह भरना औ' सरकना।
हकीकत है कि मैं भी घबराता हूँ
छूट जाने से फिर फिर डर जाता हूँ
करूँ क्या जो नाकाफी बस अच्छे काम
करूँ क्या जो दिखती है रंगों में कालिख
करूँ क्या जो लगते हैं फलसफे नालिश -
बुतों, बुतशिकन, साकार, निराकार से
करूँ क्या जो नज़र जाती है रह रह भीतर -
मसाइल हैं बाहरी और सुलहें अन्दरूनी
करूँ क्या जो ख्वाहिशें जुम्बिशें अग़लात।
करूँ क्या कि उनके पास हैं सजायें-
उन ग़ुनाहों की जो न हुये, न किये गये
करूँ क्या जो लिख जाते हैं इलजाम-
इसके पहले कि आब-ए-चश्म सूखें
करूँ क्या जो खोयें शब्द चीखें अर्थ अपना
मेरी जुबाँ से बस उनके कान तक जाने में?
करूँ क्या कि आशिक बदल देते हैं रोजनामचा-
भूलता जाता हूँ रोज मैं नाम अपना।
सोचता रह गया कि उट्ठे गुनाह आली
रंग चमके बहसें हुईं बजी ताली पर ताली
पकने लगे तन्दूर-ए-जश्न दिलों के मुर्ग
मुझे बदबू लगे उन्हें खुशबू हवाली
धुयें निकलते हैं सुनहरी चिमनियों से
फुँक रहे मसवरे, प्रार्थनायें और सदायें।
रोज एक उतरता है दूसरा चढ़ता है
जाने ये तख्त शैतानी है या खुदाई
उनके पास है आतिश-ए-इक़बाली
उनके पास है तेज रफ्तार गाड़ी
अपने पास अबस अश्फाक का पानी
चिरकुट पोंछ्ने को राहों से कालिख
जानूँ नहीं न जानने कि जुस्तजू
वे जो हैं वे हैं ज़िन्दा या मुर्दा
ग़ुम हूँ कि मेरे दामन में छिपे कहीं भीतर
ढेरो सामान बुझाने को पोंछने को
न दिखा ऐसे में पीरो पयम्बर से जलवे
सनम! फनाई को हैं काफी बस ग़म काफिराना।
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शब्दार्थ:
उफक - क्षितिज; समा - समय; अजीयत - यंत्रणा; बुतशिकन - मूर्तिभंजक; अग़लात - ग़लतियाँ; आली - भव्य, सखी; इक़बाल - सौभाग्य; अबस - व्यर्थ; अश्फाक - कृपा, अनुग्रह; फनाई- विनाश, भक्त का परमात्मा में लीन होना
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आप सबसे एक अपील है। हर वर्ष नववर्ष पर आप लोग कविता, कहानियाँ, प्रेमगीत, शुभकामना सन्देश, लेख आदि लिखते हैं। इस बार एक जनवरी को बिना प्रतिहिंसा के, बिना प्रतिक्रियावाद के और बिना वायवीय बातों के बहुत ही फोकस्ड तरीके से ऐसे जघन्य बलात्कारों के विरुद्ध जिनमें कि अपराध स्वयंसिद्ध है; पीड़िताओं के हित में, उनके परिवारों के हित में, समस्त स्त्री जाति और स्वयं के हित में पूरे देश में फास्ट ट्रैक न्यायपीठों की स्थापना के बारे में माँग करते हुये लिखें।
यह ध्यान रहे कि बहकें नहीं। नये क़ानून के लिये अलग से माँग हो सकती है लेकिन सामूहिक रूप से एक ही दिन एक बहुत ही साध्य माँग हर ओर से उठेगी तो उसका प्रभाव और इतिहास कुछ और होगा। एक ब्लॉगर के तौर पर सार्थकता होगी कि एक हो हमने ऐसी माँग उठाई!
कम से कम एक मामले में तो हम कह सकें कि भारत देश में अन्धेर नहीं है!