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मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

अनु अल्पना

अपने ब्लॉग मैं घुमंतू पर अपने जुड़वे बच्चों के लिये चिट्ठियाँ सहेजती हैं ब्लॉगर अनु। निज जीवन के अनुभवों के निचोड़ भविष्य में बड़े हुये अपने बच्चों के लिये सहेजने वाली सम्भवत: यह अकेली हिन्दी ब्लॉगर हैं। बहुत बार सोचता हूँ कि कोई बीसेक वर्षों के पश्चात किसी मौन दुपहर में तीनों एक साथ जब इन आलेखों को पढ़ेंगे तो काल की सीमायें समाप्त हो जायेंगी और भावनायें उस कलर बॉक्स की तरह जिस पर किसी ने पानी उड़ेल दिया हो!

इन आलेखों में बड़े संजीदे से कथन मिलते हैं:

  • हर मोड़ पर ऐसे लोग मिलेंगे जो तुम्हारा फ़ायदा उठाएंगे (और उठाएंगे ही। अच्छे लोगों का सब फ़ायदा उठाते हैं।) लोग तुम्हें धोखे भी देंगे। तुम्हारे साथ फ़रेब भी करेंगे। उनकी फ़ितरत तुम नहीं बदल सकते, लेकिन अपनी फ़ितरत भी मत बदलना। उन्हें ये सोचकर माफ़ कर देना कि तुमसे बड़ा फ़रेब वे खुद के साथ करते हैं। उन्हें अपनी दुआओं में ढेर सारी जगह देना और इस बात पर यकीन रखने की कोशिश करना कि दुनिया में इंसान ज़्यादा हैं और लोग कम।
  • किसी बात का अफ़सोस मत करना। फिर भी अफ़सोस हो तो वो काम दुबारा मत करना। ये तुम्हारी मुक्ति का इकलौता रास्ता है।
  • प्यार बचाए रखना, हर क़ीमत पर। प्यार बचा रहेगा तो भरोसे और उम्मीद को भी जगह मिलती रहेगी।
  • किसी से नफ़रत मत करना। उदासीनता और बेरूख़ी ज़्यादा कारगर हथियार हैं।

अनु पत्रिकाओं और अखबारों के लिये भी लिखती हैं। प्रेम, समसामयिक मुद्दे, फिल्में, स्त्री विषय और अनदेखे संसार से आती खिलखिलाहटें - अनु की लेखनी सब समेटती है।
और अब प्यार क्या है ये भी समझ आने लगा है और इस प्यार को कैसे बचाए रखा जाए, ये भी। प्यार वो है जो दादाजी चश्मा लगाकर सुबह की चाय पीते हुए मेरी अनपढ़ दादी को अख़बार पढ़कर सुनाया करते थे। प्यार वो है जो मां डायबिटिक पापा के लिए अलग से खीर बनाते हुए दूध में मिलाया करती है। प्यार पति के खर्राटों में मिलने वाला सुकून है। प्यार गैस पर उबलता हुआ चाय का पतीला है, जिसमें शक्कर उतना ही हो कि जितना महबूब को पसंद हो। प्यार अपनी गैरमौजूदगी में भी मौजूद रहनेवाला शख्स है। प्यार आंखें बंद करके लम्हा भर के लिए उसकी सलामती के लिए मांगी हुई दुआ है। प्यार फिल्मों के ज़रिए हमें सिखाई-बताई-समझाई गई अनुभूति तो है ही, प्यार ‘दी एन्ड’ के बाद की बाकी पिक्चर है।

एक बैरागी भाव भी इनके लेखन में दिखता है जिसकी उदासी कभी कभी भीतर तक समा जाती है। टुकड़ा टुकड़ा उदास क्षण इनके ब्लॉग पर बिखरे पड़े हैं जो स्वयं उदासी का अतिक्रमण करते लगते हैं और मन के आकाश में गेरुआ पसरने लगता है।

तुमने झांककर
कमरे में देखा है
कहा कुछ भी नहीं।
मेरा तपता माथा
तुम्हारी उंगलियों की
छांव ढूंढता है।
मेरी गर्म हथेली पर
क्यों नहीं उतरती
तुम्हारे पसीने की ठंडक?
मैं घूमकर बिस्तर पर से
खिड़की को देखती हूं।
दो हरे पर्दे हैं,
और है नीम की हरियाली।
आंखें तब क्यों
लाल-सी लगती हैं?
क्यों सब
मुरझाया लगता है?
तुम तेज़ चले जाते हो,
मैं भी तो
थमती, रुकती नहीं आजकल।

नव्य लेखन के प्रतिमान गढ़ती अनु वसंत के बारे में लिखती हैं:
बसंत चुपचाप अपना साजो-सामान बांधने में लगा है। फूलों ने उदास होकर खिलना छोड़ दिया है। सेमल ने नाराज़ होकर अपने सैंकड़ों फूल ज़मीन पर फेंक दिए हैं। कचनार ने फूलों का गहना उतार दिया है। अब पत्तों से श्रृंगार की बारी है। कोने में खड़ा एक टेसू है जो गर्द-ओ-गुबार से निडर यूं ही खड़ा रहेगा, कम-से-कम तबतक कि जबतक अमलतास और गुलमोहर मोर्चा ना संभाल लें।

इस जाते हुए बसंत के लिए उदास होते-होते रह गई। इस कमबख़्त की तो फ़ितरत ही ऐसी है। मनमोहना आता ही दो-चार-दस दिनों के लिए है। आता भी इस अदा से है कि जैसे पूरी दुनिया को दीवाना बनाने में ही इसके अहं को तुष्टि मिलती हो। प्यास बढ़ाने आता है, प्यास बुझाने का कोई उपाय नहीं करता। आंखों पर रंगों के परत-दर-परत ऐसे पर्दे डालता है कि सच-फ़रेब, सही-गलत कुछ नज़र नहीं आता। ऋतुओं का राजा कहलाने भर के लिए हर तरह की चालबाज़ियां, हर तरह के छल-कपट करेगा। अगर इसकी बातों में आ गए तो ख़ुद को नाकाम समझ लीजिए। ऐसे दिलफेंक, आशिकमिज़ाज, किसी के ना हो सकनेवाले छलिया बसंत के लिए क्या उदास होना?

कभी कुछ अलग सा यूँ ही पढ़ने को मन करे तो अनु का ब्लॉग एक उपयुक्त स्थान है। घुमंतू की अनुभूतियों का फलक व्यापक है।   

अल्पना का ब्लॉग उनके नाम और अपने नाम के अनुरूप है; निश्चित ज्यामिति में रची कृति नहीं, बिखरे रंग जिन्हें कई बार फैलाने के लिये पाठकों के जिम्मे कर दिया जाता है, कभी तो आप ने भी नभ में फैले टुकड़ों को आकार देने का प्रयास किया होगा! 
 
चाह छाँव मीत प्रीत गीत अर्थ-बिन अर्थ समय-असमय बात -बेबात गुण -अवगुण उपेक्षा -अपेक्षा धुंध- स्वप्नशून्य- नैन

अलग से उपेक्षित विषय भी समेटती हैं:
लेकिन वह एक जिन्होंने कहा 'नहीं,जीते जी वसीयत नहीं  लिखनी चाहिए, वही इस समूह की सब से अधिक उम्र की महिला थीं। भय की छाया उनके मुख पर देखी जा सकती थी।
उन्हें सब ने समझाते हुए अपने तर्क दिए  तो उन्होंने  कहा कि इस विषय पर बात न करो क्योंकि वसीयत का संबंध मृत्यु से है और अभी से उस के बारे में क्यों सोचना ??जब वक्त आएगा तब देखेंगे। उनके भावों का सम्मान करते हुए फिर किसी ने उस बात पर अधिक बात नहीं की।

[लिखी तो मैंने भी अभी तक नहीं है ,न ही ' हाँ ' कहने वालों में से  किसी ने !]

और कभी कभी रहस्यमय भी हो जाती हैं:
याद आता है ,उस सांझ के धुंधलके में ,न जाने कैसे हलकी सी आँख लगी और
उन कुछ पलों में ही  सारे दृश्य  बदल गए थे।
बदल गया आकाश ,बदल गयी फिज़ा..
बादलों का रंग भी स्याह हो गया था ,ज्यूँ-ज्यूँ अँधेरा गहरा हुआ , बादल पानी बनते गए।
लगता है शायद उसी बरसात में  वे  मोती पिघल कर  बह  गए हैं।

चित्रों के माध्यम से मध्य पूर्व की अच्छाइयों से भी परिचित कराती हैं। इस ब्लॉग को पढ़ते हुये क्रमश: निखराव के दर्शन होते हैं। अल्पना गाती भी हैं। इस पोस्ट को देखिये तो! 
वास्तविक जीवन में यूँ तो हर रिश्ते की अपनी एक पहचान होती है उनकी एक नज़ाकत होती है ,अधिकार और अपेक्षाओं से लदे भी होते हैं .एक कहावत भी है 'जो पास है वह ख़ास है'. यथार्थ से जुड़े और जोड़ने वाले इन रिश्तों से परे होते हैं -कुछ और भी सम्बन्ध ! जो होते हैं कुछ खट्टे , कुछ मीठे,कुछ सच्चे ,कुछ झूटे! यूँ तो इन में अक्सर सतही लगाव होता है..जो नज़र से दूर होतेही ख़तम हो जाता है. इन के कई पहलू हो सकते हैं..

अप्रवासी की बहुविधा के दर्शन इस आलेख में होते हैं: 

भारत जाते हैं तो सब को देख कर ऐसा लगता है ...किसी के पास समय नहींहै,सब की अपनी दुनिया बस चुकी है, बहुत आगे निकल गए हैं परन्तु हम आजभी वक़्त के पुराने काँटों में रुके हुए हैं!
'देश' छुट्टियों में जाते हैं तो पहले कुछ दिन तक अडोस पड़ोस के लोग पूछते हैं'कब आये?'कितने दिन हो?इंडिया वापस नहीं आना क्या?
-------१०-१५ दिन गुज़रते ही उन्हीं लोगों का सवाल होता है ' कब की वापसीहै? कनाडा कब जा रहे हो?इंडिया आकर जाओगे या वहीँ दुबई से चले जाओगे?
जिस का दिल न हो ..उसे भी लगेगा जैसे अब तो जाना ही पड़ेगा...क्योंकि अब सच में ही लगने लगा है कि'एन आर आई' का अर्थ है--Not Required Indians !
बड़ी उलझन है......जाएँ तो कहाँ जाएँ और भागें भी तो कब तक और कहाँ तक?

अच्छा है कि ये उलझन में बनी रहें, ब्लॉग पर अल्पना सी छटायें जो बिखेरती रहेंगी!

______________

अब तक:
प्रतिभा शिल्प
हीर पुखराज पूजा
शैल शेफाली रश्मि
अनु अल्पना
आगे:
अर्चना आराधना
वाणी रचना

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

प्रतिभा शिल्प

इस देश में सेकुलरिज्म वैसे ही है जैसे सब्जियों में टमाटर। उत्तर भारत में दोनों कमबख्त बात बेबात और दाल तरकारी में आदतन डाल दिये जाते हैं, कभी तड़के के रूप में तो कभी पूरे कॉंसेप्ट का कबाड़ा करते हुये।
कई दिनों पहले सेकुलरिज्म के प्रदूषण से दुखी मैं ब्लॉग जगत में ऐसे ही भटक रहा था कि
प्रतिभा सक्सेना के ब्लॉग लालित्यम् के आलेख वाह टमाटर आह टमाटर पर पहुँच गया। पढ़ने के पश्चात मेरे मन में हुआ बिंगो! यही तो सेकुलरिज्म है! कहना न होगा कि मैं इनके लेखन से भयंकर प्रभावित हो गया।

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आगे पढ़ने पर इनके परास का पता चला और एक अकादमिक के प्रति जो गहन आदर भाव होना चाहिये वह उमगता पगता चला गया। द्रौपदी पर उपन्यास हो या पात्र भानमती के माध्यम से चुटकियाँ, इनकी लेखनी सिद्धहस्त है।
इनकी प्रतिभा बहुआयामी है। शिप्रा की लहरें ब्लॉग पर लोरी, दोहे, सोरठे और विविध काव्य मिलेंगे तो लोकरंग में विवाह गीत, बटोहिया, बाउल के फ्लेवर। मन: राग में लम्बी कविताओं के छ्न्दमुक्त और छन्दबद्ध उदात्त सौन्दर्य के दर्शन होते हैं तो स्वर यात्रा में शब्दों के संगीत सुनाई देते हैं। गद्य और पद्य में समान रूप से सिद्धहस्त प्रतिभा जी मौन साधिका हैं और गम्भीर पाठकों के लिये सरस्वती की निर्झरिणी!

शिल्पा मेहता अभियांत्रिकी क्षेत्र से हैं और जीवन समुद्र के किनारे रेत के महल बनाती हैं। अपने लेखन को जिन दो और खंडों में इन्हों ने बाँट रखा है, वे हैं - आराधना और गणित और विज्ञान। आराधना पर धर्म, विज्ञान और दर्शन से सम्बन्धित सामग्री है, गणित और विज्ञान तो नाम से ही स्पष्ट है।

इनके अतिरिक्त भी इनकी बहुआयामी प्रतिभा का अनुमान इनके लेखों के शीर्षक देख कर ही लगाया जा सकता है।  

ret_ke_mahalनिरामिष आन्दोलन हो या धर्म, पूर्वग्रहों के तर्क हों या तार्किक दिखते पूर्वग्रह - टिप्पणियों और बहस में दिखते शिल्पा जी के अकादमिक विश्लेषण अनूठे होते हैं। अपनी बात दृढ़ता और निर्भीकता के साथ रखती हैं, पॉलिटिकल करेक्टनेस के चक्कर में घुमाती फिराती नहीं।
इनके द्वारा रची जा रही सरल रामायण आम जन के लिये गेय है। पूर्वाग्रह और सभ्यता, शासन, क़ानून व्यवस्था की लेखमालायें गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय देती हैं। न्यूरल नेटवर्क और अन्य गणित एवं विज्ञान विषयक आलेख हिन्दी ब्लॉगरी में एक रिक्त से स्थान की पूर्ति कर रहे हैं।

बहुआयामी प्रतिभासम्पन्न ये दोनों शिल्पी ब्लॉगर ऐसे ही सक्रिय रहें, हम सबको अपने नियमित लेखन से समृद्ध करते रहें; यही कामना है।

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अगले अंकों में:
हीर पुखराज पूजा
शैल शेफाली रश्मि
अनु अल्पना
अर्चना आराधना
वाणी रचना
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गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

हिन्दी ब्लॉगरी की दशकोत्सव यात्रा - 5 [नौ गम्भीर]

पिछले से आगे...

पहले अश'आर बोलने का नुस्खा!
Anurag Sharma उवाच
_____________
मुंह में ज़र्दे वाला पान घोलकर बोलिए आ,फिर ज़रा (जरा नहीं वरना क़यामत हो जाएगी) रुकिए फिर बोलिए शआर, उसके बाद पान को बगल में थूक दीजिये, तब बनेगा खालिस अ'शआर
... और कहीं गलती से पिलूरल कर दिया तो शेर में तब्दील हो जाएगा ...
___________
फेसबुक पर यात्रा जारी है। ऊपर का नुस्खा भी वहीं से आयातित है
आज नौ गम्भीर ब्लॉग ब्लॉगर। इन नगीनों से हिन्दी ब्लॉगरी गौरवान्वित है।  
 

36 गढ़ की धरती ब्लॉगरी के लिये बहुत उपजाऊ है! राहुल सिंह के गम्भीर शोधपरक आलेख एकदम कसे बसे और नयी जानकारियों से भरे होते हैं। ब्लॉग जगत के जो कुछ जन अकादमिक गरिमा रखते हैं उनमें राहुल जी शीर्षस्थ हैं। इनके ब्लॉग का नाम है 'सिंहावलोकन' तो श्लेष बनता है, एक अर्थ में कुलनाम से संगति और दूसरे अर्थ में सिंह की प्रसिद्ध चाल जिसमें वह चलते हुये रह रह पीछे देख लेता है। अपने संस्मरणों को राहुल सिंह वैसे ही देख कर सबके सामने रख देते हैं।
इनके विषय हैं संस्कृति, लोक कला और पुरातत्त्व और सिंहावलोकन को यूँ बताते हैं 'आगे बढ़ते हुए पूर्व कृत पर वय वानप्रस्‍थ दृष्टि'। ललित गद्य भी बहुत अच्छा लिखते हैं।
देखिये एक पत्र का नमूना। पूरा ब्लॉग ही ऐसी जाने कितनी अछूती बातों पर लेखन से भरा हुआ है।
http://akaltara.blogspot.in/2013/01/blog-post.html

कविता, आलोचना, पुरातत्त्व, ज्ञान विज्ञान, पास पड़ोस सब पर समान अधिकार और उत्कृष्टता के साथ लिखने वाले शरद कोकास की ब्लॉगीय चुप्पी अब अखरने लगी है। आशा है कि पुकार सुनेंगे Sharad Kokas इनके ब्लॉग लिंक यहाँ मिल जायेंगे:
http://www.blogger.com/profile/09435360513561915427

उत्कृष्ट विश्व साहित्य अनुवाद, कवितायें, फिल्म, संगीत, फोटोग्राफी आदि विविध विषयों के कबाड़ी पाये जाते हैं अशोक पांडे के ब्लॉग कबाड़खाना पर। फुलाये फूलों, पसीजते प्रेम, उखड़ी उदासी, बुलाती प्रकृति के गद्य और काव्य यहाँ प्रचुर हैं। कभी कभी तो सन्दर्भ ब्लॉग सा लगता है। कोई आश्चर्य नहीं कि 910 जनों ने इससे स्वयं को जोड़ रखा है।
http://kabaadkhaana.blogspot.in/

दक्षिण के हिन्दी अध्येता हैं पा.ना. सुब्रमणियन। गाते हैं राग मल्हार - पुरातत्त्व, मुद्राशास्त्र, इतिहास, यात्रा आदि पर। http://mallar.wordpress.com इनके ब्लॉग पर ऐसे ऐसे स्थलों के रोचक और ज्ञानवर्द्धक विवरण मिलेंगे कि आप दंग रह जायेंगे - भारत में ऐसा भी है!
चुपचाप उत्कृष्ट रचनाकर्म में रत ये उन जनों में से एक हैं जिनके कारण हिन्दी ब्लॉगरी समृद्ध है। पढ़िये आदि शंकर की एक 'और' जन्मस्थली के बारे में:
आदि शंकराचार्य की जन्मस्थली और भी है!

'हिन्दी वालों' से रूठे साहित्यकार उदय प्रकाश का हिन्दी ब्लॉग UDAY PRAKASH लगभग डेढ़ वर्ष से चुप है। निर्वासन जैसी बातें करते ये पाठकों के प्रेम पर निहाल होते हैं। फेसबुक पर खासे सक्रिय हैं। प्रतिष्ठित कथाकार हैं, कई भाषाओं में अनुवादित भी! ब्लॉग जगत वाली एक विशेष आत्ममुग्धता इन पर भी छायी दिख जाती है।
पढ़िये कि ये आदिवासी हैं:
http://uday-prakash.blogspot.in/2011/07/blog-post.html

कविता, साहित्य, ललित गद्य, राजनीति, वाद प्रतिवाद, सम सामयिक मुद्दों पर लिखते हैं और प्रसिद्ध व्यक्तियों की रचनाओं से भी परिचय करवाते हैं कम्युनिस्ट बनारसी ब्लॉगर रंगनाथ सिंह। इनका ब्लॉग है 'बना रहे बनारस'।
पढ़िये मुक्तिबोध पर हरिशंकर परसाई का संस्मरण:
http://www.banarahebanaras.com/2013/01/blog-post_6729.html

कम लिखने वाले सौरभ मालवीय अपने ब्लॉग सुमन सौरभ पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को केन्द्र में रख कर लिखते हैं।
http://sumansourabh.blogspot.in/

संगणक, मुक्त सॉफ्टवेयर, लिनुक्स, तकनीकी, ग़ैजेट, इंटरनेट हिन्दी, व्यंग्य, कहानियाँ  एवं मुफ्त डाउनलोड जैसे विशाल परास पर रचना संसार है रविशंकर श्रीवास्तव उर्फ रवि रतलामी का। इनका ब्लॉग है छींटे और बौछारें
इनसे बस एक अनुरोध है कि अपने ब्लॉग का कलेवर बदलें। हम जैसे सौन्दर्य प्रेमी यहाँ पहुँच कर गड़बड़ा जाते हैं!  

अजय ब्रह्मात्मज अपने ब्लॉग चवन्नी चैप पर हिन्दी फिल्मों के बारे में हिन्दी में लिखते हैं और परिचय अंग्रेजी/रोमन में यूँ देते हैं:
i am a common audience of hindi cinema.critics and film industry call me CHAVANNI CHAP.i love this name.visit me to know my views. aur haan...yahan se aap apne pasandida sitaron aur filmon ki duniya mein seedhe ja sakte hain.to der kis baat ki..abhi click karen..aur bar-bar aayen. (और हाँ...यहाँ से आप अपने पसन्दीदा सितारों और फिल्मों की दुनिया में सीधे जा सकते हैं. तो देर किस बात की..अभी क्लिक करें..और बराबर आयें.)

(नोट : ब्लॉग क्रम का श्रेष्ठता कोटि से कोई सम्बन्ध नहीं है)

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

हिन्दी ब्लॉगरी की दशकोत्सव यात्रा - 4

अधिकांश हिन्दी ब्लॉगर अब फेसबुक पर हैं/भी हैं - 'हैं' उनके लिये जो ब्लॉग का लगभग त्याग ही कर चुके हैं; 'भी हैं' उनके लिये जो दोनों स्थानों पर अपने को स्थापित किये हुये हैं। कुछ तो ट्विटर पर भी सक्रिय हैं। आज के समय की आवश्यकता है इंटरनेट जिसे कतिपय जन अब नागरिक 'मौलिक अधिकारों' में सम्मिलित करने की माँग भी करने लगे हैं। जीवन की आपा धापी में पारम्परिक दृष्टि से देखें तो एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से दूर हुआ है किंतु एक दृष्टि से देखें तो इतना पास हुआ है जितना कभी नहीं था। भूगोल, लिंग, पंथ आदि की सीमायें ध्वस्त हो चली हैं और सोशल साइटों के द्वारा लोग बेतहाशा एक दूसरे से सम्वादित हो चले हैं। इस के नकारात्मक पहलू भी हैं लेकिन विधेयात्मक पक्ष यह है कि इसने उन्हें भी अभिव्यक्ति दे दी है जिन्हें व्यवस्था ने चुप कर रखा था। स्त्रियाँ इतनी मुखर पहले कभी नहीं हुईं! और वे आधी जनसंख्या हैं। यह एक बहुत बड़ा परिवर्तन है जिसके प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में दिखने लगे हैं।
फेसबुक या ट्विटर के 'हिट' होने के पहले सम्वाद की त्वरा की आवश्यकता की पूर्ति ब्लॉग प्लेटफार्म करता था। परिणामत: अधिक जीवन्त लगता था। इनके आने से त्वरित और लघु सम्वाद एवं उनके अन्य प्रकार ब्लॉग से हट गये। ऊबे और त्वरा की प्रचुरता के आदी जन ने ब्लॉग को बीते युग की बात घोषित कर दी एवं फेसबुक पर ‘फुल्ल' या 'प्रफुल्ल टाइमर' हो गये। हिन्दी ब्लॉगरी में ऐसा अधिक दिखा लेकिन अन्य भाषाओं से तुलना करें या आज भी स्वयं हिन्दी ब्लॉग जगत की सक्रियता और गुणवत्ता देखें तो 'बीते युग की बात' बकवाद ही लगती है। सोशल साइट और ब्लॉग एक साथ चल रहे हैं और चलते रहेंगे।
फेसबुक त्वरित है। अधिकतर विचार या अभिव्यक्ति आते हैं और बिना परिपाक हुये छप जाते हैं। विविधता और नयापन तो प्रचुर हैं लेकिन विकसित करने में समय न दिये जाने के कारण गुणवत्ता और गहराई की कमी ही दिखती है। सुतली बम कस के बाँधा न जाय तो धमाके और प्रभाव में कमी हो जाती है! यदि उन्हीं फेसबुकिया विचारों या अभिव्यक्तियों को ब्लॉग पर परिवर्धित और थोड़ा समय दे परिमार्जित कर डाला जाय तो क्या बात हो! फेसबुकिया ब्लॉगर या ब्लॉगर फेसबुकिये ध्यान दें! 
2013 में हिन्दी ब्लॉगरी के दस वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस अवसर पर मैंने सोचा कि क्यों न फेसबुक के उन जनों को हिन्दी ब्लॉगरी की झलकियाँ दिखाई जायँ जो इससे अनभिज्ञ हैं? फेसबुकिया शैली में ही बिना वर्तनी या व्याकरण पर अधिक ध्यान दिये मैंने ब्लॉग जगत का परिचय देना प्रारम्भ किया तो लोग रुचि लेने लगे। मित्र निवेदन और चैट सन्देश भी मिलने लगे। मैं सनातन कालयात्री आगे बढ़ता चला गया। शिवम मिश्र ने ब्लॉग बुलेटिन पर छापना चाहा तो मैंने कहा कि डाल दीजिये [जब सामने वाला पश्चात प्रभाव झेलने को तैयार है तो अपने को क्या?] उन्हों ने ये तीन लिंक छापे: 1, 2, 3 । वह चाहें तो इसे भी अपने यहाँ कॉपी पेस्ट कर सकते हैं, वहाँ रहने पर पहुँच बढ़ेगी ही।
फेसबुक पर ही इस घोषणा के बावजूद कि
हिन्दी ब्लॉगरी के दस वर्ष पूरे होने वाले हैं। अपनी पसन्द के लेख शेयर करता रहूँगा- दशकोत्सव की अपनी विधि! इसमें कोई 'राजनैतिक या गुटीय' मंतव्य न ढूँढ़े जायँ, प्लीज! ;)'परशुराम जी' ठाकुर विश्वामित्र और बाभन वशिष्ठ प्रकरण ले आये जिससे मामला तनि एक रोचक हुआ। कुछ जन बिदके भी लेकिन टिप्पणी का सार समझते हुये पब्लिक चुप ही रही! इस स्टेट्स पर नम्बरी बिलागर समीर लाल ने लिखा: jindaabaad!! किसका जिन्दाबाद? ये तो वही जानें।
आप सब अपने अपने ब्लॉगों पर कुछ नया करें। अपने बारे में कॉलर टाइट करते रहे, पल्लू लहराते रहे; अब दूजों की सोचें। छिपो को प्रगटो करें, प्रशंसा करें, उनके योगदान को चिह्नित करें।  फागुन का महीना आ ही रहा है, नमकीन या रंगीन भी हो सकते हैं।
कविता के मारे हैं तो गद्य का लठ्ठ भाँजें, चुपो रहे हैं तो अनुराग शर्मा, अर्चना चाव जी, पद्म सिंह, सलिल वर्मा, हिन्द युग्म, रेडियो प्लेबैक इंडिया आदि के सहजोग से मुखो हो पॉडकास्ट ट्राई करें। आवाज के मामले में निश्चिंत रहें, जब मेरी आवाज को भी पसन्द किया जा सकता है तो सबके पसन्दकर्ता उपलब्ध होंगे। अस्तु, आगे बढ़ते हैं।

फिल्मों पर लिखते हैं स्वघोषित आवारा मिहिर पंड्या अपने ब्लॉग http://mihirpandya.com पर। वह अपने इस ब्लॉग पर अनवरत रचना संसार सृजित कर रहे हैं। सेल्यूलाइड पर अमर कर दिए गए दृश्य, ध्वनियाँ, गीत, संगीत, भावनाएँ, प्रकाश, अन्धकार .... सबको बहुत बारीकी से विश्लेषित करते हैं और तह दर तह खोलते जाते हैं।
लाइट, कैमरा, ऐक्शन !!
ये तीन शब्द जो रचते हैं, उस पर बहुत कुछ रचा जा सकता है। ज़रा देखिए तो सही । बस समीक्षा नहीं, साहित्य भी मिलेगा। 
 
अंग्रेजी की मास्टरनी शेफाली पांडेय अपने को कुमाउँनी चेली कहती हैं। http://shefalipande.blogspot.in में ग़जब के व्यंग्य रचती हैं। स्वभाव से ही विरोधी हैं, पुरस्कारों की भी। ये बात और है कि 'जब मुझे पुरस्कार मिल जाता था तो मैं उन लोगों की बातों का पुरज़ोर विरोध करती थी जो पुरस्कारों की पारदर्शिता पर संदेह करते थे'  
राजस्थान की धरती से किशोर चौधरी के मित्र संजय व्यास ब्लॉग लिखते हैं http://sanjayvyasjod.blogspot.in/ अपने बारे में कहते हैं कि मुझे तैरना बिल्कुल नहीं आता लेकिन मरुस्थल की रेत पर लहरों सा आनन्द लेना हो तो इन्हें पढ़िये। राजस्थान का रंग है, गँवई प्रेक्षण हैं, खिलखिलाती लड़कियाँ भी हैं, कुछ कवितायें भी और कुछ अद्भुत गद्य भी। व्यक्तिगत कहूँ तो दोनों में मुझे ये अधिक पसन्द हैं।  
लखनवी विनय प्रजापति कम्प्यूटर तकनीकी के टिप्स देते हैं अपने ब्लॉग http://www.techprevue.com/ पर। अब अंग्रेजियाने लगे हैं। नज़र तखल्लुस (यही कहते हैं न?) से ग़जलियाते भी हैं और ब्लॉग की अलेक्सा वलेक्सा रैंकिंग कैसे दुरुस्त रहे इसका भी खयाल रखते हैं। कविताकोश पर भी पाये गये हैं। 
शिक्षा, विज्ञान, सामयिकी, कविता, ललित गद्य, स्त्री मुद्दे आदि में निष्णात हैं अल्पना वर्मा। व्योम के पार मध्य पूर्व से लिखा जाने वाला इनका ब्लॉग है http://alpana-verma.blogspot.in
वतन से दूर हैं लेकिन इसकी मिट्टी से खिंचते रहने की बात कहती हैं। इन्हों ने जावा स्क्रिप्ट एनेबल कर ब्लॉग से कॉपी पेस्ट बन्द कर रखा है :) गायन भी करती हैं।
उम्मतें http://ummaten.blogspot.in/ नाम से ब्लॉग रचते हैं अली सईद। सुन्दर ललित विचारपूर्ण गद्य लिखते हैं। लेफ्ट सेंटर चलते हुये कहते हैं जो जी चाहे ले लीजिये ! कोई कापी राईट नहीं !.
नहीं जी, इनका ट्रैफिक विभाग से सम्बन्ध नहीं, छत्तीसगढ़ शिक्षा में उच्च पद पर हैं।  
अलग तरह का साहित्य है ब्लॉगर नवीन रांगियाल के ब्लॉग औघट घाट http://aughatghat.blogspot.in पर। राजेश खन्ना के अवसान के बाद चुप हैं लेकिन ब्लॉग के पुराने लेख भी पठनीय हैं। उनके मित्र उनके बारे में लिखते हैं:क्‍या कहूं तुम्‍हें                                                                  
कि तुम जितने पुराने हो रहे हो
उतना ही ताजा बन पडे हो..
रंगों मे रहकर रंगहीन क्‍यों हो तुम
काफ्काई गद्य पढ़ना हो तो आई टी क्षेत्र से जुड़े युवा ब्लॉगर नीरज बसलियाल के ब्लॉग काँव काँव प्रकाशन लि. http://kaanv-kaanv.blogspot.in/ पर जाइये। कम सामग्री है लेकिन जो है वह कभी कभी गुरुदत्त के सिनेमाई बिम्बों सा भी लगता है।
दीपक बाबा अब कम बकबक http://deepakmystical.blogspot.in करते हैं लेकिन जो करते हैं अलगे अन्दाज में करते हैं। चचा जैसे जन इनके टाइप की ब्लॉगरी को ही ब्लॉगरी मानते हैं। बाकी तो साहित्त फाहित्त सभी रच लेते हैं! है कि नहीं?
रोटी की रोजी का टैम हो गया, फिर मिलते हैं।

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

सभी ब्लॉगरों से एक अपील

आज शीत अयनांत है। उत्तरी गोलार्द्ध में आज सूर्य अपने दक्षिणी झुकाव के चरम पर होगा। यह वार्षिक घटना जीवन प्रतीक ऊष्मा का नया सन्देश ले कर आती है – अब दिन बड़े होने लगेंगे, धरती को ऊष्मा और प्रकाश अधिक मिलने लगेंगे। संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं में इस दिन को मनाया जाता रहा है। भारत में भी इस दिन से नये संवत्सर सत्र प्रारम्भ होते थे जो कि कृषि से भी सम्बन्धित थे।
इस दिन एक राष्ट्र के रूप में हम सभी भीतर तक हिले हुये हैं। राजधानी दिल्ली में हुई बर्बर बलात्कार की घटना ने हमें उस चरम तक आन्दोलित कर दिया है कि जाने अनजाने हमारे भीतर की प्रतिहिंसा भी स्वर पा रही है, वही प्रतिहिंसा जिसके जघन्यतम रूप से हम साक्षी हैं। यह समय चिंतन, मनन और ‘ऐक्शन’ का है न कि कुछ दिन उबलने के पश्चात ठंडे हो जाने का। पिछले आलेख में मैंने इंगित किया था कि हिंसा सनातन रही है। साथ ही यह भी सच है कि प्रतिरोध भी सनातन रहा है। संघर्ष सनातन रहा है। अब हमारे ऊपर है कि हम साक्षी हो आमोद प्रमोद में लगे रहें, बड़ा दिन और नववर्ष मनायें या कुछ ऐसा सार्थक करें जो स्थायी परिवर्तन ला सके।
बीते दिन निराशा के रहे हैं। मैंने तंत्र में जिनसे भी बात की है उनसे छवि बहुत निराशाजनक ही उभर कर सामने आयी है। मेरे प्रश्न, मेरी बातें बहुत ही केन्द्रित रहीं, मैं वहीं केन्द्रित हुआ जिन्हें तत्काल साध्य माना:
·      न्याय और दंड प्रक्रिया तेज हो। बलात्कार सम्बन्धित विधिक प्रावधानों और प्रक्रिया का बहुत दुरुपयोग भी हुआ है और होता रहा है। इसलिये मैं केवल उसी पर केन्द्रित हुआ जहाँ प्रथम दृष्ट्या ही हिंसा और अपराध सिद्ध हों
·      न्याय व्यवस्था जनता के बीच विश्वास खो चुकी है। पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका का भय निषेधात्मक है जिससे शरीफ और सभ्य लोग डरते हैं न कि अपराधी। इस वास्तविकता और छवि को तोड़ने के लिये, सज्जनों में विश्वास स्थापित करने के लिये और ऐसे बलात्कार जैसे  जघन्यतम अपराध की स्थिति में त्वरित निर्णय और दंड सुनिश्चित करने के लिये व्यवस्था बने।
·      ऐसे मामलों के लिये समूचे देश में (केवल दिल्ली में नहीं) फास्ट ट्रैक न्यायालय स्थापित हों। हर राज्य में कम से कम एक ऐसी पीठ हो। यह सत्य है कि दिल्ली से भी जघन्यतम अपराध लोगों के ध्यान तक में नहीं आते और पीड़िताओं एवं उनके परिवार का जीवन पर्यंत उत्पीड़न और शोषण चलता रहता है। संसाधनों के अभाव में निर्धन और दुर्बल वर्ग सबसे अधिक प्रभावित हैं।
·      न्यायपीठ के लिये धन, जन और संसाधन आवश्यक होते हैं। इन सबसे ऊपर इच्छाशक्ति का होना अनिवार्य है जो कि नहीं है। परिणाम यह होता है कि कार्यपालिका मात्र वी आई पी या बहुत ही हाइलाइट हो गये मामलों में ही न्यायपालिका के पास फास्ट ट्रैक के लिये अनुरोध करती है और तदनुकूल व्यवस्था करती है। ध्यान रहे कि न्यायपालिका उस पर निर्भर है।
·      अब बचती है विधायिका यानि हमारी संसद जो इस सम्बन्ध में क़ानून बना सकती है। संसद के बारे में कुछ न कहना ही ठीक है। आप लोगों ने बहसें देखी ही होंगी। वे सभी जाने किससे कार्यवाही की माँग कर रहे थे? जाने कौन उन्हें क़ानून बनाने से रोक रहा है? सीधी बात यह है कि वे कुछ नहीं करने वाले। हमने चुना ही ऐसे लोगों को है। हम भी दोषी हैं। छोड़िये इसे, विषयांतर हो जायेगा।
·      ले दे के एक ही आस बचती है – सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका। एक बार और दुहरा दूँ – केवल दिल्ली के लिये नहीं, पूरे देश के लिये। यदि वहाँ से कोई आदेश आता है तो कार्यपालिका और विधायिका दोनों बाध्य हो जायेंगे। अब प्रश्न यह उठता है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे? सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं संज्ञान में तो लिया नहीं!  
जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग के कारण ही सर्वोच्च न्यायालय में कुछ ऐसे नियम या चलन हैं जो कि निर्धन और संसाधनहीनों के विरुद्ध जाते हैं:  
(1)  याचिका का प्रस्तुतिकरण एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड ही कर सकता है (उनका शुल्क कम से कम पचास हजार)
(2)  यदि याचिका सुनवाई हेतु स्वीकृत होती है तो कोई आवश्यक नहीं कि जिस बेंच ने स्वीकृत किया वही सुनवाई करे।
(3)  याचिका पर बहस केवल सीनियर एडवोकेट कर सकता है (प्रति सुनवाई शुल्क कम से कम लाख रुपये तो बनता ही है)
बिल्ली के गले घंटी कौन बाँधे?
·           अपारम्परिक तरीके जैसे इंटरनेट पिटीशन, फेसबुक, ब्लॉग आदि केवल अप्रत्यक्ष दबाव का काम कर सकते हैं। वैसे भी इन्हें सुनता देखता कौन है? चन्द अलग तरह के नशेड़ी ही जिनमें बहुलता वास्तविकता से पलायन कर सुरक्षित बकबक करने वालों की ही है।
मैं निराश हो गया हूँ। यदि आप में से किसी को मेरे द्वारा उल्लिखित बातों में कोई त्रुटि दिखती है तो मुझे ठीक करें। यदि दूसरे प्रभावी रास्ते हैं तो बतायें।
इस बार कुछ करना ही होगा।
कल एक मित्र ने बाऊ कथा की अगली कड़ी के बारे में पूछा तो मैंने कहा कि सहम रहा हूँ क्यों कि आगे बहुत ही वीभत्स हिंसा है। बीत युग के एक यथार्थ को कल्पना द्वारा बुनने की रचनात्मक चुनौती से तो निपट लूँगा  लेकिन वर्तमान के यथार्थ का क्या?
अपनी एक पुरानी नज़्म याद आ रही है:
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उतर गया उफक से सूरज उफ उफ करते
उमसा दिन बीता बाँचते चीखते अक्षर
लिखूँ क्या इस शाम को नज़्म कोई
जो दे दिल को सुकूँ और समा को आराम
चलता रहेगा खुदी का खुदमुख्तार चक्कर
चढ़े कभी उतरे, अजीयत धिक चीख धिक।
कालिखों की राह में दौड़ते नूर के टुकड़े
बहसियाने रंग बिरंगे चमकते बुझते
उनके साथ हूँ जो रुके टिमटिमाते सुनते
चिल्ल पों में फुसफुसाते आगे सरकते
गोया कि हैं अभिशप्त पीछे छूटने को
इनका काम बस आह भरना औ' सरकना।
हकीकत है कि मैं भी घबराता हूँ
छूट जाने से फिर फिर डर जाता हूँ
करूँ क्या जो नाकाफी बस अच्छे काम
करूँ क्या जो दिखती है रंगों में कालिख
करूँ क्या जो लगते हैं फलसफे नालिश -
बुतों, बुतशिकन, साकार, निराकार से
करूँ क्या जो नज़र जाती है रह रह भीतर -
मसाइल हैं बाहरी और सुलहें अन्दरूनी
करूँ क्या जो ख्वाहिशें जुम्बिशें अग़लात।
करूँ क्या कि उनके पास हैं सजायें- 
उन ग़ुनाहों की जो न हुये, न किये गये 
करूँ क्या जो लिख जाते हैं इलजाम- 
इसके पहले कि आब-ए-चश्म सूखें 
करूँ क्या जो खोयें शब्द चीखें अर्थ अपना
मेरी जुबाँ से बस उनके कान तक जाने में?
करूँ क्या कि आशिक बदल देते हैं रोजनामचा- 
भूलता जाता हूँ रोज मैं नाम अपना।

सोचता रह गया कि उट्ठे गुनाह आली
रंग चमके बहसें हुईं बजी ताली पर ताली
पकने लगे तन्दूर-ए-जश्न दिलों के मुर्ग
मुझे बदबू लगे उन्हें खुशबू हवाली
धुयें निकलते हैं सुनहरी चिमनियों से
फुँक रहे मसवरे, प्रार्थनायें और सदायें।
रोज एक उतरता है दूसरा चढ़ता है
जाने ये तख्त शैतानी है या खुदाई 
उनके पास है आतिश-ए-इक़बाली
उनके पास है तेज रफ्तार गाड़ी
अपने पास अबस अश्फाक का पानी
चिरकुट पोंछ्ने को राहों से कालिख
जानूँ नहीं न जानने कि जुस्तजू
वे जो हैं वे हैं ज़िन्दा या मुर्दा
ग़ुम हूँ कि मेरे दामन में छिपे कहीं भीतर
ढेरो सामान बुझाने को पोंछने को   
न दिखा ऐसे में पीरो पयम्बर से जलवे
सनम! फनाई को हैं काफी बस ग़म काफिराना।

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शब्दार्थ: 
उफक - क्षितिज; समा - समय; अजीयत - यंत्रणा; बुतशिकन - मूर्तिभंजक; अग़लात - ग़लतियाँ; आली - भव्य, सखी; इक़बाल - सौभाग्य; अबस - व्यर्थ; अश्फाक - कृपा, अनुग्रह; फनाई- विनाश, भक्त का परमात्मा में लीन होना 

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आप सबसे एक अपील है। हर वर्ष नववर्ष पर आप लोग कविता, कहानियाँ, प्रेमगीत, शुभकामना सन्देश,  लेख आदि लिखते हैं। इस बार एक जनवरी को बिना प्रतिहिंसा के, बिना प्रतिक्रियावाद के और बिना वायवीय बातों के बहुत ही फोकस्ड तरीके से ऐसे जघन्य बलात्कारों के विरुद्ध जिनमें कि अपराध स्वयंसिद्ध है; पीड़िताओं के हित में, उनके परिवारों के हित में, समस्त स्त्री जाति और स्वयं के हित में पूरे देश में फास्ट ट्रैक न्यायपीठों की स्थापना के बारे में माँग करते हुये लिखें।
यह ध्यान रहे कि बहकें नहीं। नये क़ानून के लिये अलग से माँग हो सकती है लेकिन सामूहिक रूप से एक ही दिन एक बहुत ही साध्य माँग हर ओर से उठेगी तो उसका प्रभाव और इतिहास कुछ और होगा। एक ब्लॉगर के तौर पर सार्थकता होगी कि एक हो हमने ऐसी माँग उठाई!
कम से कम एक मामले में तो हम कह सकें कि भारत देश में अन्धेर नहीं है!