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रविवार, 21 अक्टूबर 2012

चचा के हन्नी हन्ना, तिनजोन्हिया, मृगशिरा, मृगव्याध, रुद्र, प्रजापति, ऋषि अगस्त्य और दत्तात्रेय

पिछले भाग से आगे ...
Orion_constelation_PP3_map_PLहन्नी हन्ना पर मैं एक पुस्तक लिख सकता हूँ। कैशोर्य के इन आकाशी मीतों के बारे में इतना कुछ पढ़ चुका हूँ कि स्वयं आश्चर्य होता है –ऐसा क्या है इनके सम्मोहन में! भीतर बैठा शिशु मन तो अन्य बहुत से कारकों के प्रभाव से विस्मित होता है लेकिन इनकी बात खास है। याद कीजिये बाऊ कथा की तिनजोन्हिया और उसके आस पास कथा की बुनावट! इस लेख को लघु रख पाना एक चुनौती है।
दो वर्ष पहले मैं एक यात्रा पर था। महाविषुव 20 मार्च के आसपास का कोई दिन था जब दिन और रात बराबर होते हैं। आदि काल से ही महाविषुव का यह दिन उत्तरी गोलार्द्ध में वसंत ऋतु के आगमन का संकेत देता है। इस दिन से सूर्य की झुकान विषुवत वृत्त के उत्तर की ओर होनी प्रारम्भ होती है। विभिन्न सभ्यताओं में इस दिन को अपनी अपनी तरह से मनाया जाता रहा है। सूर्य और चन्द्र दोनों गतियों को लेकर चलने वाले भारतीय पंचांग में इसी दिन के आस पास वसंतोत्सव यानि होली मनाई जाती है। पुरा वैदिक काल में जब कि वर्ष भर चलने वाले यज्ञ सत्रों का चलन था, वर्ष को देवयान और पितृयान दो भागों में बाँटा गया था। इस दिन से देवताओं की ऋतुयें प्रारम्भ होती थीं वसंत, ग्रीष्म और वर्षा और यही दिन नववर्ष का प्रारम्भ होता जब कि नये सत्र प्रारम्भ होते। चन्द्रगति की दृष्टि से वर्ष में मात्र 353/4 दिन होते जब कि सौर गति से 365/6। लगभग बारह दिनों के इस अन्तर को वर्षांत में नये सत्र के प्रारम्भ होने के पहले की तैयारियों के लिये रखा जाता और यह काल कहलाता था - द्वादशाह।    बीच का जल विषुव यानि आज का 22 सितम्बर जब कि पुन: दिन और रात बराबर होते, सूर्य ठीक पूर्व में उगता और ठीक पश्चिम में अस्त होता, वर्षा ऋतु के अंत का सन्देश ले आता। वर्षा के अंत के बाद से शरद, शिशिर और हेमंत ये तीन ऋतुयें पितरों की मानी जाती थीं। यह समय पितरों का होता। देवयान का स्वामी जैसे इन्द्र था वैसे ही पितृयान का स्वामी यम। पितृविसर्जन का अध्याय फिर कभी।
तो मार्च 2010 के उस दिन थोड़ी सी वर्षा हुई थी। स्मृति साथ नहीं दे रही कि सूर्योदय के आसपास का समय था या सूर्यास्त का, मैंने कार के भीतर से ही सूर्य का फोटो खींचा था। उसी रात लौटते हुये किसी ढाबे पर हम सभी रुके थे और खुले भूदृश्य के ऊपर नभ में अद्भुत दृश्य दिखा। आकाशगंगा के किनारे सबसे चमकदार तारे लुब्धक (Sirius), व्याध नक्षत्र (Hunter, Orion), झुलनिया (कृत्तिका) और शुक्र को मैं पहचान गया। बाकी महानुभावों के बारे में कुछ पता न होने पर भी मैं उस दृश्य में खो गया। उस दिन तो नहीं खींच सका लेकिन अब सॉफ्टवेयर से पुन:सृजित वह दृश्य देखिये:
Untitled 

घर पहुँचने पर नेट से चित्र डाउनलोड कर मैंने यह रचना पोस्ट की।
vyadh reptilianisis_osirus_goddess

इसमें अनुभूतियों पर कोई विराम नहीं था और प्रेरणा बना था प्राचीन मिस्र का मिथक – मातृशक्ति देवी आइसिस (Sirius) और देव ओसिरिस (Orion) की प्रेम कहानी। हत्या कर दिये गये ओसिरिस को प्रेमस्वरूपा आइसिस ने अपने प्रेम से पुनर्जीवित किया और उनके मिलन से जो पुत्र हुआ उसने घृणित वातावरण में पुन: व्यवस्था की स्थापना की। नील नदी की बाढ़ कुछ नहीं ओसिरिस की हत्या के पश्चात रोती हुई देवी आइसिस के आँसू हैं तो नई फसल अभिचार के बाद ओसिरिस का पुनर्जीवन। मिस्र के तीन पिरामिड व्याध के तीन तारों की प्रतिकृति हैं। pyramids
जब ज्ञान जी ने पूछा था तब मुझे कचपचिया और कृत्तिका की संगति नहीं पता थी। संगति जानने के पश्चात राह आसान हो गई। कचपचिया के दूर यानि दृष्टिपटल में ऊपर जाने पर उगता है हंटर यानि पश्चिमी ज्योतिष का व्याध नक्षत्र और हमारे भोजपुरी इलाके का तिनजोन्हिया । कहावत अवधी क्षेत्र की है जहाँ मारने के लिये संस्कृत के हनन से बना शब्द ‘हनना’ चलता है। भारोपीय भाषा होने से अंग्रेजी का
Hunter भी इसी हन् से बना है।मैंने तिनजोन्हिया की संगति हंटर यानि हनने वाले ‘हन्ना’ से लगाई। समस्या अब आई कि तब ‘हन्नी’ क्या है? हन्नी हन्ना के क्रम से स्पष्ट है कि पहले हन्नी उगती है और उसके पश्चात हन्ना। तो मेरे बचपन के साथी हण्टर के पहले कौन उगता है आकाश में? कहावत से स्पष्ट है कि यह किसी ज्योतिष  विशारद की नहीं बल्कि आम घरनी या गृहस्थ की गढ़ी हुई है जो उन्हीं नक्षत्रों को आसमान में पहचान सकते हैं जो कि आकाश में स्पष्ट आसान आकार में दिखें।कचपचिया और व्याध जैसा कौन और है जो इनके बीच में पूर्व और दक्षिण-पूर्व आकाश में कुआर और अगहन महीनों के मध्य उगता हो? मैं उलझ गया।
राह मिली घाघ भड्डरी की इस कहावत से:
ऊगी हरनी फूले कास। अब का बोये निगोड़े मास ॥(कास फूल गये हैं। हरनी यानि अगस्त्य तारा उग आया है। निगोड़े! अब उड़द बोने से क्या लाभ?)  

कास तो अपना खूब जाना पहचाना हुआ है। उसका फूलना माने वर्षा का अंत और पितृयानी शरद ऋतु का प्रारम्भ। अगस्त्य के लिये ‘हरनी’ शब्द का प्रयोग चौंका गया। एक स्थान पर और ढूँढ़ा तो उस सज्जन ने अर्थ दिया था हरनी माने ‘हस्त’। हस्त नक्षत्र, इस समय? अचानक ही मन में आया ‘अगस्त्य’ से ही लोक में ‘हस्त’ हो गया होगा। अगस्त्य यानि आकाश में इस समय देर रात क्षितिज पर उसी दिशा क्षेत्र में उगने वाला तारा Canopus
अगस्त्य
अगस्त्य ऋषि! अपने ज्ञान से लोपा को लुभाने वाले। ऋषि लोपामुद्रा उनके प्रेम में ऐसी रीझीं कि ऋचायें रचती गईं:
पूर्वीरहं शरद: शश्रमाणा ....नदस्य मा रुधतः काम आगन्नित आजातो अमुतः कुतश्चित।
लोपामुद्रा वृषणं नी रिणाति धीरमधीरा धयति श्वसन्तं॥ 
अंतरिक्ष के प्रेम! तू कितना व्यापक है रे! यह आदर्श दम्पति वनवास के समय राम और सीता का पथ प्रदर्शक बना।अगस्त्य का काल 4000 से 5000 ई.पू. माना जाता है। अगस्त्य विन्ध्य पार करने वाले पहले ऋषि थे। उत्तर भारत में वर्षाकाल के अंत का सूचक और रात में दक्षिणपूर्व दिशा में दिखने वाला अगस्त्य तारा उनके नाम पर है। यह तारा ई.पू. 10000 से पहले भारत में नहीं दिखता था। उस समय कन्याकुमारी में दिखना प्रारम्भ हुआ। वर्तमान चेन्नई के के स्थान पर 8500 ई.पू. और विन्ध्य पर्वतमाला के आसपास इसके दर्शन लगभग 5000 ई.पू. में होने शुरू हुये जब कि उत्तर से विन्ध्य को पार करते अगस्त्य ने इसे पहली बार देखा। अब समूचे भारत में दिखने वाला यह तारा सन् 3400 , में जम्मू में दिखना बन्द हो जायेगा, सन् 5300 में दिल्ली में, सन् 7400 में विन्ध्य क्षेत्र में और अंतत: सन् 11700 के आस पास कन्याकुमारी में दिखना बन्द हो जायेगा। आजकल जो लोग देर रात तक जग सकते हैं वे पूर्व से दक्षिणी पूर्वी आकाश के मध्य तेज चमकते लुब्धक sirius और अगस्त्य canopus के दर्शन कर सकते हैं।

व्याध, लुब्धक और अगस्त्य के उगने के क्रम और घाघ की बात से हन्नी हन्ना के बारे में संकेत तो मिले किंतु प्रकरण और उलझ गया। संख्या तीन थी जब कि अभिज्ञान दो का करना था। सबसे बड़ा प्रश्न यह कि एक साधारण ग्रामीण क्षितिज के पास देर रात अल्प समय उगने वाले तारे को क्यों कर पहचानेगी तब जब कि आकाश में तेज चमकता लुब्धक तिनजोन्हिया जैसे एकदम से पहचान में आ जाने वाले नक्षत्र के साथ विराजमान हो? भूख से तड़प रही है या गणित  ज्योतिष पढ़ने बैठी है?
mrigshiraतब आये लोकमान्य टिळ्क (तिलक)। उनके कारण पहली बार हंटर orion का भारतीय नाम पता चला – मृगशिरा नक्षत्र। मिथकों का पूरा संसार सामने खुल गया और साथ ही पुराने समय गाँवों में इसका कहा जाने वाला नाम पता चला – हरनी यानि हिरणी। मृगशिरा यानि हिरण या हिरनी का सिर। उसके सिर में शिकारी का चलाया तीर उन तीन तारों द्वारा व्यक्त होता है जो उसकी पहचान हैं। यह हरनी ही हन्नी है यानि बाऊ युग की तिनजोन्हिया!  कृत्तिका कचपचिया के ऊपर चढ़ दूर चले जाने पर उग आती है हन्नी...  
...”और हन्ना?”  
“हन्ना जो हनता है मिरगा या हरनी।  हन्नी का हंता हन्ना, मृग का शिकारी मृगव्याध।“  
“हैं? वह तो orion था।“  
“मिथकों का मिश्रण न करो, सुनो...व्याध नहीं, मृगव्याध। मृगव्याध है लुब्धक। लुब्धक यानि लुभाने वाला। उसकी चमक देखो। प्राचीनकाल में शिकारी यानि मृगव्याध रात में वस्त्र में अनेक जुगनुओं को बाँध कर उनके प्रकाश से हिरणियों को सम्मोहित कर उन्हें बन्धक बना लेते या मार देते थे!
हन्नी हन्ना उइ आये माने आकाश में मृगशिरा और लुब्धक यानि मृगव्याध उग आये हैं।“  
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“तो घाघ ने अगस्त्य को हरनी क्यों कहा?”
“ज्योतिष ज्ञाता घाघ ग्रामीण पंडित थे। नक्षत्रों के आकार पूरा करने की प्रवृत्ति बहुत पुरानी रही है। मृगशिरा में केवल सिर है। बाकी देह कहाँ गई? उन्हों ने देह को नीचे अगस्त्य तारे तक ला कर पूरा किया। इस तरह से अगस्त्य तारे के उग आने पर हिरनी के पूरी तरह साक्षात हो जाने की बात भी हो गई और ग्रामीणों की अधिक रात हो जाने की भी।“...
अवधी क्षेत्र की यह कहावत सास बहू का झगड़ा ही नहीं, ऋतुचक्र और फसल के चक्र की ओर भी संकेत करती है। अगहन या आग्रहण्य महीने का नाम मार्गशीर्ष भी है। मार्गशीर्ष अर्थात मृगशिरा, हमारे हन्नी का महीना। इस महीने वर्षा के बाद की फसल होती है - अगहनी धान जो कि प्रमुख अन्न आहार है।
का सास हांड़ी ढगढोरू, कांछ-पोंछ गयें घूर
(सास जी क्या मुझे देने के लिये हांड़ी टटोल रही हो। उसको तो कांछ-पोंछ कर मैं घूरे पर डाल आयी)
यह पंक्ति वर्षा ऋतु में बैठ कर बिना कुछ  कमाये खाते रहने जाने के कारण खाली हो चुके बखार की त्रासद बात करती है, साथ ही अगहनी धान के आने की आशा की ओर संकेत भी।
21 दिसम्बर को शीत अयनांत होता है। जब सूर्य दक्षिणी झुकाव से उत्तर की ओर पलटने लगता है। यह दिनांक अगहन के महीने में पड़ता है। कालान्तर में वर्ष यानि संवत्सर का प्रारम्भ महाविषुव के बजाय शीत अयनांत से होने लगा - अगहनी धान यानि वृहि की बलि से नवसत्र का आरम्भ। मिस्र की नई फसल की कथा की स्मृति हो आई।   
हजारो वर्षों में महाविषुव का सूर्य मृगशिरा (हन्नी) नक्षत्र से कृत्तिका(कचपचिया) में, कृत्तिका से अश्विनी में.... मृगशिरा को लेकर मिथक बनते बिगड़ते इकठ्ठे होते रहे। उनके साथ हमारी अनेक पौराणिक कथायें बनती चली गयीं:
  • कटि में यज्ञोपवीत पहनने वाला प्रजापति यानि अब का मृगशिरा काममोहित हो कर अपनी पुत्री यानि आकाश के रोहिणी नक्षत्र की ओर दौड़ा तो व्याध यानि किरात रुद्ररूपी लुब्धक ने उसका सिर काट डाला। इस बलि द्वारा नये वर्ष का प्रारम्भ हुआ।  
  •  शिव द्वारा प्रजापति का यज्ञ ध्वंश, कुछ नहीं एक युग में वर्षांत में लुब्धक के उदय के साथ समाप्त होने वाले यज्ञ सत्र का रूपक है।
  • इसी स्थान पर इन्द्र रूपी लुब्धक द्वारा आकाशगंगा रूपी फेन के अस्त्र से वृत्र रूपी वर्षा का ध्वंस और उसके पश्चात पूजित होना, शीत अयनांत से नवसत्र के प्रारम्भ का रूपक है। उत्तरायण दक्षिणायन सूर्य की अयनांत सापेक्ष अवधारणा यहीं से प्रारम्भ हुई जिसमें देवताओं के राजा इन्द्र की पूजा और शुभ कार्यों हेतु इस काल की महत्ता देवयानी सत्रों की स्मृति में स्थापित हुई।    
  •  तीन सिर वाले दत्तात्रेय तीन प्रमुख  तारों वाले मृगशिरा हैं। उनके पैरों के पास घूमते वेद रूपी कुत्ते  कुछ नहीं श्वान नक्षत्र हैं। यह उस समय का रूपक है जब भिन्न धाराओं के संगम संयोजन द्वारा वैदिक संहितायें अपने वर्तमान रूप में आईं। वह समय भी एक नये सत्र का प्रारम्भ था जब संवत्सर शीत अयनांत से प्रारम्भ हुआ...
... मिस्री देवता अनूबिस यानि भेड़िया रूपी श्वान नक्षत्र का प्रतिरूप है स्फिंक्स।
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ऋक् संहिता कहती है कि संवत्सर का प्रारम्भ श्वान से हुआ।
श्वानं बस्तो बोधयितारमब्रवीत्संवत्सर इदमद्या व्यख्यन। (1.161.13) 
इसका अर्थ हुआ कि संहिता अनूबिस के मिथक इतनी तो पुरानी है ही अर्थात प्रजापति मृगशिरा के समय नववर्ष का प्रारम्भ करने वाले जन कम से कम ईसा से 4500 वर्ष पुराने तो थे ही!
अगली बार कोई मैक्समूलर की मनबढ़ बाँट का सन्दर्भ देते यह कहे कि ऋक् संहिता ईसा से 1500 वर्ष ही पुरानी है तो न मानना, अड़ जाना! ...
...यायावर के पास कथाओं की कमी नहीं है।
अभी तो उसे विदिशा जाना है – शेषशायी विष्णु की बात तो रह ही गयी थी न?
क्षितिज के पास अंतरिक्ष में कभी न डूबने वाले उस महासर्प को देखा है आप ने, जो सागर से सिर ऊपर किये दिखता है और जिसके ऊपर विष्णुरूपी सूर्य लेटे दिखाई देते हैं? योगनिद्रा कब होती है? विष्णु की नाभि से निकलता ब्रह्मा कहीं तिनजोन्हिया प्रजापति तो नहीं?
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