नगरपालिका, जल संस्थान वगैरह के गड्ढों को मैं इस देश की छाती के नासूर मानता हूँ। ये गड्ढे भारत के प्रशासन को चलाते लोगों की सम्वेदनहीनता के मवाद सँजोते हैं और गन्धाते रहते हैं। ये गड्ढे आम नागरिक की सहिष्णुता और कष्टसह्य प्रकृति को उजागर करते हैं। हमारे उन्नत राष्ट्र होने की गाड़ी इन्हीं में फँसी पड़ी है।
ये हैं इसलिए हैं - बँगलों में चाँदी के तम्बू तले बाँसुरी बजाते कृष्ण कन्हैया; भयानक ठंड में पॉलीथीन के आशियाने में ठिठुरते मजदूर; राशन की लाइन में खाँसते बुजुर्ग; खेलने पढ़ने की उमर में घरों में काम करती लड़कियाँ; चन्द रुपयो की नौकरी में शोषित होते हमारे जवान; आत्महत्या करते किसान ..... भारत की यह जैव विविधता इन गड्ढों की बदौलत अक्षुण्ण है।
वेतन की स्केल से कैसे भी न नापी जा सकने वाली समृद्धि की ऊँचाई इन गड्ढों की गहराई से अपनी उठान लेती है।
गड्ढे बताते हैं कि हम कितने भ्रष्ट हैं।
मेरा पड़ोसी गड्ढा मेरे तमाम प्रयासों जैसे नेट शिकायत, पत्र, रजिस्टर्ड पत्र, टेलीफोन, फॉलोअप के बावजूद पिछले आठ महीनों से वैसे ही है। इस देश में अगर व्यक्ति जागरूक है तो या तो वह आत्महत्या कर लेगा या हत्या कर देगा । और कोई रास्ता भी नहीं है। मैं इस कथन द्वारा अपनी जागरूकता को लगाम लगाता रहता हूँ। ... All is well, All is well … लेकिन आज मेरी आशंका सचाई में बदल गई। उस बिना चैम्बर के खुले सीवर मैन होल में एक भैंस गिर गई। जिन मजदूरों को हम जागरूक लोग रस्टिक कहते हैं, उन लोगों ने बिना किसी अपील के स्वत: आ कर प्रयास कर भैंस को बाहर निकाला। नीचे चित्रों में देखिए । ऐसा उन लोगों ने इसलिए किया कि वे लोग 'विशिष्ट श्रेणी के आम' नागरिक हैं - पर दु:ख कातर। संतोष हुआ कि पॉलीथीन के आशियाने में ठिठुरते बिहारी मजदूरों में संवेदना जीवित है।
हिंसक प्रसन्नता भी हुई कि जो अहिर मेरे तमाम बार कहने पर भी अपनी भैंसों को खुले छोड़ मेरे पौधों का नाश करता रहा, उसे आज सबक मिला। नहीं, वह गरीब नहीं है - बाइस लाख की जमीन में भैंसियाना खोले हुए है बड़े साहब का जिनके बँगले में चाँदी के तम्बू तले बाँसुरी बजाते हैं कृष्ण कन्हैया। कन्हैया जी को भोग के लिए शुद्ध दूध दधि चाहिए।
हाथी के दाँत नहीं अब हजारो हाथियों के संगमरमरी बुतों की शक्ल में हजारो करोड़ पानी में बहाए जाते हैं लेकिन एक सीवर के मैनहोल को ढकने के लिए धन नहीं है।तंत्र नहीं है। जन नहीं हैं। सीवरों के मैनहोल ढक्कन कागजों में लग कर दीमकों द्वारा खाए जा चुके हैं। इन सीवरों का पानी कहीं नहीं जाता, इन धनपशुओं के भगवान को स्नान कराने के लिए प्रयुक्त होता है।
.. क्या होता अगर उस गड्ढे में कोई मनु संतान गिर गई होती ! जो किसी की हँसती बिटिया होती, किसी का लाल होता !!
क्या इस समय मैं ऐसे पोस्ट लिख रहा होता ? थाने के चक्कर लगा रहा होता या हॉस्पिटल में पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट का इंतजार कर रहा होता। मुझमें कहीं अभी संवेदना जीवित है लेकिन उन हरामखोर मक्कारों का क्या करें जिनके मुर्दाघरों में मवाद पल रहा है ...
अरे आपकी नाराज़गी में हमरो दो-चार बाल्टी खीस मिला लीजिये...
जवाब देंहटाएंइसमें का शक है कि ससुरे चाँदी के तम्बू तले बाँसुरी बजाते कृष्ण कन्हैया की आरती उतारेवाले अन्दर से खुजलीवाले स्वान हैं...
आपके आलेख की मौलिकता हमेशा की तरह कुरेद गई...
प्रशासन वाले पढ़ लेवें तो तो दुछत्ती से नीचे कूद जावें :)
हा-हा-हा-हा , ढूंढ के लपेटा आपने भी ! बहुत खूब !!
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट का लिंक हो सके तो प्रशासन के किसी आला-पाला अधिकारी को दई दिहो....और आप गंगा जमुना वाला गाना गईहो...
जवाब देंहटाएंकौनौ गाडी फंस जईहै तो
मनवा मा कसक होईबै करी
ससुरे में गर गैरत होई
तो कुछ न कुछ करबै करी....
ताक धिनक धिन ताक धिनक धिन धा :)
गिरिजेश, हम भी लिखते तो सेम टू सेम ऐसी ही पोस्ट लिखते। यह जरूर है कि शायद इतनी बढ़िया न होती!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी पोस्ट।
[हां, फुल फीड देने की सोचो। उससे पाठक ज्यादा मिलेंगे।]
bahut saartahk post hai.chitron ke. saath,.badhaai sweekaren.
जवाब देंहटाएंबहुतय खूब .
जवाब देंहटाएंइस रिपोर्ट को मैं यूनेस्को पुरस्कार के लिए भेजना चाहता हूँ -डिस्कवरी चैनेल फेल !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद बन्धु, लखनऊ की इस रपट का. एक और रपट अभिषेक ओझा जी के ब्लॉग पर हाल ही में छपी थी. शुक्र है संवेदना और कर्मठता के लिए कोई जगह तो बची है.
जवाब देंहटाएंकेतना आलसी हैं जी बताईए तो पूरा सडक, मैदान, प्लौट छोड के खाली छांट छांट के गड्ढवा सब को पकड के ठेल दिए न , ऊ भी अईसन ठेले कि जाने कौन कौन उतर गया ,अद्भुत इस साल की पढी गई सबसे बेहतरीन पोस्ट में से एक
जवाब देंहटाएंऔर हां ९९ का स्कोर दिख रहा है बोर्ड पर , सेंचुरी की बधाई अभिए दिए दे रहे हैं , काहे से कि चूक गए तो अफ़सोस रहेगा , ओईसे चूकेगा नहीं जानते हैं ,
अजय कुमार झा
लेकिन उन हरामखोर मक्कारों का क्या करें जिनके मुर्दाघरों में मवाद पल रहा है ...
जवाब देंहटाएंवाह! ये तो बड़ा स्कूप है जी...। ब्लॉगर रिपोर्टर विद ब्रेन...
जवाब देंहटाएंकाश वह मेनहोल जल्दी बन्द हो जाता।
गड्ढे और उसमे गिरी भैंस की बदौलत एक कसी हुई स्क्रिप्ट के माफिक प्रविष्टि तो पढने को मिली ...
जवाब देंहटाएंगड्ढे हमारे देश की शान है ....वो चाहे सीवर लाइन के हो या हर बारिश में या कई बार उससे पहले भी सडको की शोभा बढ़ाने वाले ...बारिश से तुरंत पहले इन गड्ढों की सफाई होती है ...बाकायदा कंक्रीट, सीमेंट से भरा जाता है ...ताकि बारिश में फिर से धुल कर और किसी राहगीर , पशु आदि के निःशुल्क भ्रमण के काम आ सके ...
निरीह पशुओं और पोलीथिन हवेलियों के मालिकों के प्रति संवेदना प्रभावित करती है ...!!
ई त बहुते बडिए और तगड़ा झटका दे दिया कुम्भ्करनी प्रशासन को........
जवाब देंहटाएंलगता है आज दिन गड्डे का है, आज ही व्यंग्यकार ज्ञान चतुवेर्दी का व्यंग्य राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हुआ है, गड्ढे विषय को लेकर ही। बढिया प्रस्तुति, बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया गड्ढायमान पोस्ट रही.. अब समझ में आया, लोग सेंचुरी कैसे बना लेते हैं..? छौ सात ठो पोस्ट तो आप ई नामुराद गड़हवे में ठेल दिये..!
जवाब देंहटाएंऔर हाँ.. पोस्ट पढ़कर कौनो प्रशासन वाला दुछत्ती से नीचे नहीं कूदेगा..! इतनी संवेदना बची होती तो कागज पर लगे हुए बीसन ठो ढक्कन में से एक सहिये में मैनहोल की साइट पर लग जाता..!
.
जवाब देंहटाएं.
.
अच्छी, मौलिक और विचार-कुरेदक पोस्ट,
पर एक शक है दिमाग में, गिरी या खुद ही गई भैंस पानी में...
...... :)
आभार!
बेचारी भैंसिया !
जवाब देंहटाएं