शनिवार, 17 अक्टूबर 2009

आओ गड्ढा सजाएँ


       भारतीय शहरों में गढ्ढे कई  प्रकार के होते हैं, नई कॉलोनियों में कूडा फेंकने वाली जगह (नगर निगम का कचरा डिब्बा तो बहुत बाद में आता है) के पास का उथला गढ्ढा जिसमें सूअर लोटते हैं; टेलीफोन/बिजली विभाग द्वारा खोदा गया सँकरा लेकिन लम्बोतरा गढ्ढा जो सड़क के बीचो बीच विराजमान होता है; नगर निगम द्वारा पानी सप्लाई और सीवर को ठीक करने और उस प्रक्रिया में दोनों को मिलाने के लिए किया गया गढ्ढा जिसे मैनहोल भी कहा जा सकता है।
                गढ्ढे का यह प्रकार जनता के स्वास्थ्य के लिए बहुत उपयोगी होता है। यह शरीर की प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाता है साथ ही आवश्यक मिनरल, लवण वगैरह की पूर्ति करता है। आप ने देखा होगा कि झुग्गियों वाले जो इस प्रकार से एनरिच किए पानी को वैसे ही पीते हैं, बँगलों में रहने वालों की तुलना में कम बीमार होते हैं। असल में अक्वा गॉर्ड वगैरह के कारण पानी से सारे पोषक तत्त्व निकल जाते हैं.।
                इस तरह के गढ्ढे की एक और खासियत होती है। इसमें शराबी कभी नहीं गिरते। इसमें केवल शरीफ किस्म के कम या बिल्कुल दारू नहीं पीने वाले इंसान या जानवर ही गिरते हैं। दारू पीकर टल्ली हुआ इंसान हमेशा सड़क के किनारे सुरक्षित रूप से उथली नाली में ही गिरता है। यह रहस्य आज तक मुझे समझ में नहीं आया। बहुत विद्वान लोगों से पूछने पर भी जब इससे पर्दा नहीं उठा तो मैंने एक शराबी से ही इसका राज उस समय पूछा जब वह सुबह सुबह ठर्रे से कुल्ली कर रहा था। उसने सरल शैली में बताया कि जो इंसान दारू नहीं पीता वह जानवर ही होता है. उसकी बुद्धि और चेतना बहुत सीमित होते हैं इसीलिए जानवर और गैरदारूबाज इंसान दोनों इस तरह के गढ्ढे में गिरते हैं। मैं उसका कायल हो गया।
                हम शहरियों को गढ्ढों से बहुत प्रेम है। हम उनके साथ अकोमोडेट कर लेते हैं। अब देखिए सड़क पर एक तरफ खुला सीवर हो, दूसरी तरफ पानी सप्लाई का खुला मैन्होल हो और बीच में गौ माता पगुरा रही हों तो भी हमलोग कितनी कुशलता से गाड़ी निकाल ले जाते हैं - बिना गड्ढों और गौ को क्षति पहुँचाए ! कभी कभी चूकवश हम अपना नुकसान कर लेते है, हॉस्पिटल पहुँच जाते हैं| यह हमारे प्रेम की प्रचण्डता को ही दर्शाता है।   हमारा खयाल करते हुए सरकार ने महकमें बना रखे हैं जैसे नगर निगम, जल संस्थान, दूरसंचार, बिजली विभाग, जाने कितने ! इन महकमों में ऐसे कर्मचारी हैं जो गढ्ढों को उत्पन्न करने और उनका पोषण करने की क्रिया में एक्सपर्ट हैं। उनको देख कर मुझे सरकारी ट्रेनिंग की सार्थकता और इफेक्टिवनेस पर कई बार गर्व हुआ है।
हम को गढ्ढों पर गुमान भी रहता है। जिसके जितने पास गढ्ढा होता है, वह उतना ही सीना फुलाए रहता है – “अरे! हमारे घर के पास तो ऐसा सीवर खुला हुआ है कि हाथी समा जाय। बदबू की तो पूछो मत !” लोग जब आँखें फाड़े तारीफ के साथ देखते हैं तो कितनी खुशी मिलती है !
मैं भी एक ऐसे ही गढ्ढे का पड़ोसी हूँ। जब नया नया आया तो बहुत क़ोफ्त हुई, हरदम मुँह चिढ़ाता था। लेकिन यह सोच कर  कि आप अपना पड़ोसी नहीं बदल सकते, मैंने उससे प्रेम कर लिया है। बगल से गुजरते लोग जब उस खुले सीवर मैनहोल को हसरत से देखते हैं तो मैं अपनी किस्मत पर बाग बाग हो जाता हूँ।
बुरा हो इस दिवाली का जो श्रीमती जी को चिंता सताने लगी – लक्ष्मी जी घर में प्रवेश करने के पहले ही सीवर में समा जाएँगी। अब मेरा जीना हराम हो गया। मर्दानगी को चुनौती दी जाने लगी। सीने पर पत्थर रख कर मैंने नगर निगम को ई मेल लिखा। फॉलोअप पर जब श्रीमती जी को बताया तो वह आपे से बाहर हो गईं – अरे, सामने रोता आदमी तो इन्हें दिखता नहीं, आप ई मेल की बात करते हैं। अब दौड़ान शुरू हुई। नगर निगम ने बताया कि इसका महकमा जल संस्थान है। लोकल जल संस्थान गया तो बताया गया कि ऐप्लिकेसन की पावती मुख्य ऑफिस में मिलेगी, हाँ काम यहीं से होगा। रिक्शे से मैनहोल का कवर मंगा लीजिए। यह बताने पर कि ढक्कन तो है लेकिन फेंका हुआ है क्यों कि चैम्बर की जुड़ाई पूरी नहीं हुई है, सामने वाले के चेहरे पर नाग़वारी के आसार नजर आए। उन्हों ने कहा कि बात को ठीक से बताइए और पान खाने चल दिए।
               उसी दिन एक गाय उसमें गिर गई। गाय वाले को तो पता ही नहीं चला लेकिन प्रेमी जनता ने गाय को बाहर निकाल पुण्य़ लाभ लिया। मैं भन्नाया, पत्र लिखा जिसमें इस घटना का जिक्र करते हुए बच्चों के गिरने और जान जाने की भी शंका जताई। जल संस्थान ऑफिस फोन किया तो अधिशासी अभियंता महोदय का नम्बर मिला। उन्हों ने तसल्ली से सुना और त्वरित कार्यवाही का आश्वासन दिया।
अगले दिन सरकार द्वारा ट्रेंड एक सज्जन पधारे। बड़े खफा थे, आप ने गाय गिरने और बच्चों के गिरने की आशंका वाली बात क्यों लिखी? इतना किनारे तो है, ऐसा कैसे हो सकता है? मुझे अपने उपर ग्लानि हो आई। जो प्रेमी न हो और अकोमोडेटिव न हो उसे गिल्टी फील तो करना ही चाहिए। श्रीमती जी को लक्ष्मी मैया के सीवर गढ्ढे में गिरने की चिन्ता है, मुझे बच्चों की चिंता है और जल संस्थान को एक असामाजिक और नॉन अकोमोडेटिव शहरी की मानसिकता बदलने की चिंता है। सभी चितित हैं। आप ने सुना ही होगा – चिंता से चतुराई घटे सो काम कैसे हो? खुला सीवर गढ्ढा जस का तस है। अब देखना है कि लक्ष्मी जी से पहले जल संस्थान के कर्मचारी आते हैं या नहीं? मैंने तो रास्ता सोच लिया है। दिवाली के दिन खुले सीवर के चारो ओर दिया जलाएंगे। लक्ष्मी जी को चेतावनी भी मिल जाएगी और हमारा यह पड़ोसी गढ्ढा भी खुश हो जाएगा । किसी ने आज तक ऐसा प्रेम नहीं दिखाया होगा कि पड़ोसी गढ्ढे को दियों से सजाया हो ! कहिए आप का क्या खयाल है ?
                

20 टिप्‍पणियां:

  1. लोग इन गड्ढ़ों से सम्भलते क्यों हैं ?
    इतना डरते हैं तो घर से निकलते क्यों हैं ?

    जवाब देंहटाएं
  2. आपके ब्लॉग मे गढ्ढे पर और भी पोस्ट हैं । धन्य है आपका गढ्ढा प्रेम ।

    जवाब देंहटाएं
  3. अरविन्दजी सच ही कह रहे थे आपके आलसी भाव के तिरोहित होने की सूचना देकर...दीपावली पर भी गड्ढे भरने की चिंता में हैं ...लम्बे आलस के बाद इतनी स्फूर्ति ...!!
    शुभ दीपावली.....!!

    जवाब देंहटाएं
  4. मैंने तो रास्ता सोच लिया है। दिवाली के दिन खुले सीवर के चारो ओर दिया जलाएंगे। आलसेश तेरा ये बलिदान/याद रखेगा ब्लागिस्तान।

    जवाब देंहटाएं
  5. धन्य है आपका गड्ढा प्रेम ..वैसे दिए जलाने वाला आइडिया बुरा नही है और गड्ढे हमारे घर के आगे भी हैं. :-)

    जवाब देंहटाएं
  6. भैया, जल संस्थान वालों ने आपके गढ्ढा प्रेम को पहचान लिया है। वे इन्जीनियर साहब पिछले दिनों मेरे लखनऊ प्रवास के दौरान मि्ले थे।

    कह रहे थे, “विजयन्त खण्ड (गोमतीनगर) में एक गढ्ढा ढँकने का ऑर्डर मिला है लेकिन वहाँ के एक साहब उस गढ्ढे से इतना प्रेम करते हैं कि मुझे आशंका है कि ढँकवाने पर वे दुखी हो जाएंगे, बल्कि नाराज हो जाएंगे।” बहुत दुविधाग्रस्त लग रहे थे।

    मैने कहा, “आशंका मत करिए, पूरा विश्वास करिए इस बात पर। ..देखिएगा नेट पर एक लेख बहुत जल्दी आने वाला है इस गढ्ढे पर।”

    अब मेरी बात सही साबित हो गयी है।

    इसलिए मेरी सलाह है कि खुद ही गढ्ढे की जुड़ाई कराकर ढक्कन लगवा दीजिए, और बिल भेंज दीजिए जल संस्थान वालों को। मैं उन्हें फोन करके पेमेण्ट करा दूंगा।

    जवाब देंहटाएं
  7. भाई ये गड्ढे ही तो हमारे देश के नगरों की विशेषता हैं, ये न हों तो कोई मानेगा ही नहीं कि वह भारत के किसी शहर में है।

    लक्ष्मीपूजन तो कल हो चुका, चलिए आज दीपावली मनाएँ।

    जवाब देंहटाएं
  8. लिजीये आपको पता नहीं इन गड्ढों का भारत के आर्थिक हालात पर कितना प्रभाव है । बहुतों की आर्थिक स्थिति , आय,जीवन यापन, सपने, दुविधायें...भावनायें सब इसी गड्ढे से जुडी होती हैं। इसलिये जीवन में होली के रंगों और दीपावली के प्रकाश की तरह गड्ढों का होना अनिवार्य है।
    जय गड्ढे जी की जय।

    जवाब देंहटाएं
  9. मजबूरी में ही सही आप ने गड्ढे तो नवाजा तो सही। उसे भी आखिर दीवाली मनाने का अधिकार तो है ही।

    जवाब देंहटाएं
  10. bahut sahi jagah par dhyaan dilaya aapne......happy bhaiya dooj
    http//jyotishkishore.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  11. आप तो भविष्य बांचते हैं। आज शाम वैतरणी नाले में रेत सूख गयी थी। पैर पड़ने पर सरक गयी। नाले में गिरते बचा!
    मैने कुछ भी न पिया था - गंगाजल भी नहीं। :)

    जवाब देंहटाएं
  12. कुछ लोग गिर जाएंगे तो गड्ढा तो भर ही जाएगा :)

    जवाब देंहटाएं
  13. वर्डप्रेस से आयातित:
    Mon, Oct 19, 2009 at 9:57 PM
    रवि कुमार, रावतभाटा
    E-mail : ravikumarswarnkar@gmail.com
    URL : http://ravikumarswarnkar.wordpress.com
    ________________________________
    क्या खूब गड्ढ़ा दर्शन है...
    और साथ ही इसका व्यवहार-शास्त्र भी....क्या खूब तरीके से क्षोभ को अभिव्यक्त करते हैं आप....

    जवाब देंहटाएं
  14. बहुत ही शुभ काम का आहवान कर रहे हैं आप। हार्दिक शुभकामनाएं।
    ( Treasurer-S. T. )

    जवाब देंहटाएं
  15. जै जै आपका गड्ढा प्रेम तो धन्य है:-)
    अच्छा लिखा है

    जवाब देंहटाएं
  16. का हुआ फिर दिया सजाया गया या नहीं गड्ढे पर? वैसे मैनहोल काहे कहते हैं जी? कंपनी वाले आजकल इंटरव्यू में पूछते हैं कि मैनहोल गोल क्यों बनाया जाता है !

    जवाब देंहटाएं

कृपया विषय से सम्बन्धित टिप्पणी करें और सभ्याचरण बनाये रखें। प्रचार के उद्देश्य से की गयी या व्यापार सम्बन्धित टिप्पणियाँ स्वत: स्पैम में चली जाती हैं, जिनका उद्धार सम्भव नहीं। अग्रिम धन्यवाद।