मुझे नहीं पता कि नारीवादी क्या कहेंगे? वैचारिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के झण्डाबरदारों को कैसा लगेगा? बस हक़ीकत बयाँ कर रहा हूँ:
घटना 1:
समय : रात 11 बजे
स्थान : पार्क
सिर पर जेबकतरों की स्टाइल में रुमाल बाँधे पुरुष, टिपिकल टपोरी । जींस टी शर्ट पहने उससे आधी उमर की लड़की। बेंच पर प्रेम लीला करते पाए गए। दूसरी लड़की और एक और लड़का भागने में सफल।
"इस समय यहाँ क्या कर रहे हो?"
"इसे मोबाइल देने आया था"
"नाम?"
"...(मुस्लिम नाम)"
"कहाँ से आए हो?"
".... (करीब 5 किमी. दूर)
लड़की से "तुम्हारा नाम क्या है?
"...(हिन्दू नाम)
"कहाँ से आई हो?"
"... (पास की ही एक कॉलोनी)"
भीड़ बढ़ चुकी है।
"साले! इतनी दूर से इसे मोबाइल देने के लिए यही समय और यही ज़गह मिली थी? जो कर रहे थे वह तो सबने देखा।
शरम नहीं आती ? "
"भाईजान! ऐसी कोई बात नहीं।"
"साले ! पूरे आधे घंटे झेलने के बाद परेशान सामने के घर वाले ने फोन किया तो लोग इकट्ठे हुए हैं और तुम कह रहे हो, ऐसी कोई बात नहीं? कान पकड़ कर उठो बैठो। फिर मत आना यहाँ!"
अकड़ दिखाता है। भीड़ में से एक शख्स निकल कर चार पाँच तमाचे जड़ देता है। तत्काल उठक बैठक शुरू। पुलिस बुलाने की बात होती है, कोई कहता है कि लड़की की ज़िन्दगी नरक हो जाएगी। साथ में जोड़ता है - इसके घर वालों को कोई ऑबजेक्सन नहीं , आप लोग आसमान सिर पर उठाए हैं।
कोई लड़की को 'रंडी' कहता है।
"ज़बान सँभाल कर बात करो!"
"अरे खुद को तो सँभाल नहीं पा रही, हमें सँभलने को कह रही है!"
घटना 2:
समय: शाम के पाँच
स्थान: पार्क के बाहर का कोना
स्कूटी पर लड़की आगे, लड़का पीछे। उम्र इतनी कि दसवीं या ग्यारहवीं में होंगे। लड़का बेतहाशा वह किए जा रहा है जिसे मॉलेस्टेशन के आगे का स्टेज कहा जा सकता है। लड़की खिलखिलाए जा रही है। दोनो मस्त हैं।
मैं अकेला। पास जा कर स्कूटी का नम्बर देखता हूँ।
"यह तुम्हारी पढ़ने लिखने की उम्र है, शर्म नहीं आती? भाग यहाँ से!"
स्कूटी स्टार्ट । फुर्र....
घटना 3:
समय: रात के आठ
स्थान: पार्क और खाली प्लॉटों के बीच का सड़क का अन्धेरा हिस्सा । खिलखिलाहट , सिसकारी। ..
ठक! ठक!!
कार पर पुलिस विभाग का चिह्न लगा है। कार का शीशा थोड़ा और नीचे होता है। लड़की स्कूल ड्रेस में - शायद ग्यारहवीं बारहवीं में होगी । जल्दी जल्दी कपड़े ठीक कर रही है। एक बार फिर लड़का उससे बहुत अधिक उमर का ।
लड़का "जी ?"
"क्या कर रहे हो?"
"हमलोग अलबम देख रहे हैं।"
"रोशनी में देखो, अन्धेरे में कौन सा अलबम देख रहे हो? भैया! यहाँ मत आया करो। खामख्वाह फँस जाओगे।"
"जी अंकल !"
तीन चार दिन बाद, बाज़ार से लौटते - फिर वही गाड़ी, समय शाम के छ:। लड़का वही, लड़की बदल गई है। पास जा कर घूरते ही गाड़ी स्टार्ट, फुर्र।
घटना 4:
भरी दुपहरी। स्कूल कम्पाउंड से लगे दो बच्चे 'दोस्ताना' में संलग्न है। डाँटने पर जल्दी जल्दी निकर ठीक करते स्कूल भवन की तरफ भागते हैं।
घटना 5:
समय : सुबह छ: के आसपास
टहलते हुए श्रीमती जी तीन दिनों से देख रही हैं। लड़की साइकिल से स्कूल ड्रेस में - शायद दसवीं में भी नहीं होगी। अधेड़ मर्द उसका इंतजार करता है, दोनों कभी इस कोने कभी उस कोने एकांत देख 'फोरप्ले' करते हैं। लोग देखते हुए भी नहीं देखते। कुछ देर के बाद लड़की साइकिल पर अकेले रवाना हो जाती है।
...आज उन्हों ने बताया है। कल कॉलोनी की 'ऐक्टिव ब्रिगेड' हिसाब किताब करेगी।
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हॉर्मोन जनित सेक्स रिलेटेड इस तरह की घटनाएँ हमेशा होती रही होंगी लेकिन इतने खुले में और इतनी? मैं अब ही देख रहा हूँ। तकरीबन हर बार लड़की कम उमर है जब कि लड़के/पुरुष आयु में बहुत बड़े।
...नहीं! मैं किसी घेट्टो में नहीं रहता। अच्छी कॉलोनी है, थोड़ी कम बसी है, बस। यह सब बस मेरे अलावा दो तीन और लोगों को दिखता है, बाकियों को नहीं।
तब तक जब तक कि यौन शिक्षा लागू होती है, जब तक समाज उलट कर 'पुरुषवादी' से 'व्यक्तिवादी' नहीं होता; अपने बच्चों को संस्कारों की सीख दीजिए। बच्चों के उपर नज़र रखिए। उन्हें अपनी और दूसरों की निजता का सम्मान करना सिखाइए।
एक्सपोजर बहुत बढ़ गया है। हमारी ज़िम्मेदारियाँ भी बढ़ गई हैं। जो देखने के अभ्यस्त हैं, जो देखना चाहते हैं ; उससे इतर भी देखने की कोशिश कीजिए। कहीं उल्टा पुल्टा होता दिखता है तो टोकिए, समझाइए। हाँ, अकेले नहीं - अपने जैसे दो तीन को जुटा कर। यह 'मॉरल पुलिसिंग' नहीं, हमारे आप के बच्चों के भविष्य का मामला है। लड़कियों के मामले में और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। माना कि यह एक हारी हुई लड़ाई है लेकिन कभी कभी ऐसे भी लड़ना ठीक होता है, अनजाने ही आप शायद भविष्य की किसी कल्पना चावला, किरण बेदी, इन्दिरा नुई .. को बचा लें। .. अभी मेरा साहस वहाँ तक नहीं पहुँचा कि मसीहा बनूँ, बच्चों के माँ बाप या पुलिस तक पहुँचने की ज़हमत उठाऊँ लेकिन मुझे लगता है कि कहीं न कहीं इस प्रयास में सार्थकता तो है... वक़्त भी कैसा हो चला है, जो बातें सीना तान कर की जाती थीं, उन्हें अब स्पष्टीकरण के साथ कहना पड़ रहा है। दकियानूसी पुरनियों की तुलना में शायद हम बहुत डरे हुए लोग हैं।
पांचों प्रकरणों से,हम महानगरीय लोग कभी न कभी ज़रूर रू-ब-रू हुए हैं। दिल्ली में तो अब मेट्रो भी प्रेम प्रदर्शन के स्पॉट बनते जा रहे हैं। कई बार मेट्रो की बोगियों में भी जोड़े तमाम भीड़ से बेखबर चूमते दिख जाते हैं। हम जैसे लोग ऐसों पर "पैनी" निगाह रखते हैं।
जवाब देंहटाएंराव साहब,
जवाब देंहटाएं’सुखिया सब संसार है, खावत है और सोत,
दुखिया दास कबीर है, जागत है और रोत’
हम तो पहले ही अपने सर्किल में आऊटडेटेड हो चुके हैं, इन बातों पर रो-कलप कर। और सबसे बड़ी समझाईश ये सुझाई जाती है कि यार तुम्हारे पास तो बेटे ही हैं, काहे चिंता करती हो ख्वाम्ख्वाह की।
समय सच में बहुत बदल रहा है, मूल्य बदल गये हैं। जो पहले गुण थे, अब वो कमियों में गिने जाते हैं।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हम भी समर्थक हैं, पर क्या हम स्वतंत्रता के काबिल हैं, मुझे तो नहीं ही लगता है।
कमेंट कर दिया है, ये पता नहीं कि कौन सा वादी हूं।
"काहे चिंता करती हो" को ’काहे चिंता करते हो’पढ़ा जाये,वैसे ही जमाना तैयार बैठा है कोंचने को ::))
जवाब देंहटाएंआज उन्हों ने बताया है। कल कॉलोनी की 'ऐक्टिव ब्रिगेड' हिसाब किताब करेगी।
जवाब देंहटाएंबहुत पते की बात कही है. लखनऊ शहर में यह सब इतने बड़े पैमाने पर हो रहा है? बहुत अफ़सोस की बात है. आपकी कालोनी के लोग तो पुलिसिंग कर लेंगे मगर वे प्राणी कहाँ हैं जिन्हें माँ-बाप कहा जाता है? यानी की नैतिक और कानूनी रूप से इन बच्चों की परवरिश और सुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार लोग?
... और हाँ, सृजनगाथा पर ...रोवें देवकी रनिया जेहल खनवा padhaa - बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंएकदम सही तथ्य, अपने बच्चो को तो ठीक से संभाल नहीं पाते , उनमे संस्कार दे नहीं पाते और कोसने लगते है समाज को और पुलिस को ! मुज्जफरनगर का अंशु मामला इसका जीता जागता उदाहरण है !
जवाब देंहटाएंहुम्म ! इत्ती सारी एक्टीविटी आपकी कालोनी में हो रही है और एक अपना पिछड़ा इलाका है ।
जवाब देंहटाएंपिछले कुछ वर्षों से इस विषय पर सोच रही हूँ ...लिखना चाह रही हूँ ....बस मेरा शीर्षक होता ..." अपनी बेटियों को बचाएं " ...और ये हूँ ही नहीं ....परिस्थितिवश कुछ दिन अपना STD-PCO बूथ संभालना पड़ा ...इतनी कम उम्र की लड़कियां आती थी फ़ोन करने (लड़कों की हिम्मत नहीं होती थी )...एक- दो को तो डांट भी दिया ...अभिभावकों से शिकायत करने का साहस नहीं जुटा पायी ...
जवाब देंहटाएंइस ज्वलंत विषय पर लिखना इस खुले होते समाज के लिए बहुत जरुरी हो गया है..इसमें नारीवाद जैसी कोई बात ही नहीं है ...
बहुत ही उम्दा सुझाव दिए है आपने ।
जवाब देंहटाएंइन सब का जिम्मेदार है मां बाप .उनकी आखो पर पर्दा पड गया है सब कुछ जानते हुये अन्जान बन्ते है . यह इंटरनेट और मोबाईल क्रान्ति जो ना कराये .
जवाब देंहटाएंधीरू जी,
जवाब देंहटाएंहर बात के लिए मां बाप को दोष नहीं देना चाहिए। हर जगह तो मां बाप साथ नहीं चल सकते। हाँ, थोड़ी बहुत डांट - डपट जरूरी है ऐसे लोगों के लिए वरना युवा खून वैसे ही किसी की परवाह नहीं करता।
यहां गिरिजेश जी ने एक बहुत ही महत्वपूरण बात कही कि -
जो देखने के अभ्यस्त हैं, जो देखना चाहते हैं ; उससे इतर भी देखने की कोशिश कीजिए। कहीं उल्टा पुल्टा होता दिखता है तो टोकिए, समझाइए। हाँ, अकेले नहीं - अपने जैसे दो तीन को जुटा कर। यह 'मॉरल पुलिसिंग' नहीं, हमारे आप के बच्चों के भविष्य का मामला है।
तो तात्पर्य यह कि केवल घरवालों से यह मामला नहीं सुलझेगा जब तक कि राह चलते लोग...आस पास के लोग इन बातों पर एतराज करना न सीखेंगे।
गिरिजेश जी, एकदम अलग मुद्दा उठाया है और संतुलित ढंग से उसे रखा भी है।
दोष किसे दें ? स्वयं को या समाज तो या उन लड़कियों को जिन्हे सब्र नहीं या उन्हें जो इस तरह के शिकार ढूढ़ते रहते हैं या उन्हें जिन्हें इन घटनाओं में असमान्यता नहीं दिखायी पड़ती है । पता नहीं किसका खोखलापन है यह ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं@ ढपोरशंख जी,
जवाब देंहटाएंआप ने पिछली पोस्ट पर भी असम्बद्ध टिप्पणी की थी जिसे हटाना पड़ा। दुबारा इस पोस्ट पर भी आप ने फिर से वही काम किया, पुन: हटा रहा हूँ।
ब्लॉग जगत किसी व्यक्ति का मुहताज नहीं है। लाल, पाण्डेय और शुक्ल के अलावा भी बहुत जन हैं जो चुपचाप अपना काम कर रहे हैं। ये तीन क्या करते हैं वे ही जानें लेकिन आप का यह काम भी हिन्दी ब्लॉगरी के हित में मुझे नहीं दिखता। इस तरह के तमाशे पहले भी होते रहे हैं और होते रहेंगे। कोई आप के उपर आक्षेप लगाए तो अपना पक्ष रखिए, 3 तिलंगों को उनके हाल पर छोड़ दीजिए।
अच्छा हो कि आप अपनी रचनात्मकता अपने ब्लॉग पर महाभारत आधारित अधूरे लेख को पूरा करने में दिखाएँ।
गिरिजेश जी ,
जवाब देंहटाएंयह नए समय की विकृति है , पुराने समय में छाती ठोंक के
पुरखे दूर कर देते थे पर एक विरोधाभास वहां भी रहा , 'गोदान' का
होरी अपनी बिटिया रूपा का हाँथ अधेड़ उम्र के व्यक्ति को देता है !
यहाँ दिल्ली में हूँ , असमान उम्र के ऐसे चक्कर बहुत दिखते हैं |
यहाँ देखकर नजर नीची करके निकलना पड़ता है , कोई टोके तो दो
परिणाम - १) साले तुम्हारी काहे फटती है , हम दोनों को दिक्कत नहीं
नहीं तो तुम कौन को , साले पिछड़ी दकियानूसी सोचवाले ! ,,,, और
२) तुमको नहीं मिल रहा है तो सामने वाला खराब , बड़े संत बन रहे हो !
मैं कभी कुछ कहने का जोखिम नहीं उठाता , क्या आप उठाते हैं ?
चार को जुटाने जाव तो सब अपना अपना देखने की बात कहेंगे !
आधुनिकता के साथ आये इस नए किस्म के 'व्यक्तिवाद' ने भी कम
घपला नहीं किया है !
इतना तो सवाल बार बार उठता है कि बाहर यही सब रहा तो संस्कारवान
घर भी कितना दिन तक बचते रहेंगे ?
umda post
जवाब देंहटाएंआज का एक सामाजिक यथार्थ बयान करती पोस्ट।
जवाब देंहटाएंपुराने जमाने में बारह-चौदह साल की बेटी के हाथ पीले कर दिये जाते थे। दामाद की उम्र कुछ भी हो सकती थी। क्या वे लोग ज्यादा समझदार न थे?
किशोर उम्र में शरीर के भीतर आ रहे परिवर्तनों को ‘एक्सप्लोर’ करने की प्रवृत्ति समाज में बढ़ते खुलेपन और स्वतंत्रता की पेंग पाकर परवान चढ़ रही है। भयमुक्त समाज हो गया है अब। लड़कियाँ भी अब झिझक त्याग रही हैं। मर्द तो मौका मिलने पर मुँह मारने से कम ही बाज आते हैं।
आपके ऊपर ‘मॉरल पोलिसिंग’ का लेबल न लग जाय इसलिए सफाई देने की कोशिश कर रहे हैं। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि समाज में कितना बदलाव आ चुका है।
बहुत ज्वलंत समस्या पर लिखा है....लेकिन अमरेन्द्र जी की बात सौ प्रतिशत सही है....
जवाब देंहटाएंहाँ कम से कम अपने बच्चों पर नज़र ज़रूर होनी चाहिए...लेकिन कभी कभी वहाँ भी मामला गड़बड़ा जाता है..
विचारणीय पोस्ट है
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जवाब देंहटाएं.
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"हॉर्मोन जनित सेक्स रिलेटेड इस तरह की घटनाएँ हमेशा होती रही होंगी लेकिन इतने खुले में और इतनी? मैं अब ही देख रहा हूँ। तकरीबन हर बार लड़की कम उमर है जब कि लड़के/पुरुष आयु में बहुत बड़े ।"
क्षमा करें देव,
यह पीडोफिलिया है...
देखें...
पीडोफिलिया (Paedophilia) एक अपराध-1
व
पीडोफिलिया (Paedophilia) एक अपराध-2...
इलाज सीधा-सादा है, पकड़ो, जम कर ठुकाई करो फिर पुलिस को दो... तभी रूकेगा यह!
समाज में हो रहे विनाशकारी, अश्लील बदलावों की इतनी दास्तानें सुन हिल गया.. कोई ऐसा समय नहीं जब ये हरकतें रुकती हों? हो क्या गया है हमें?
जवाब देंहटाएं@ अमरेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंसार्वजनिक स्थानों पर वयस्कों द्वारा सीमा लाँघना भी अपराध है। समाज में खुलेपन, भागती जिन्दगी में एकान्त की कमी और तनाव यह सब मिल कर ऐसी स्थिति ला रहे हैं। महानगरों की बिमारी अब क़स्बे और छोटे शहरों तक फैल रही हैं। जहाँ लोग जागरूक हैं वहाँ ऐसी हरकतें कम होती हैं। रुक नहीं सकतीं। आप ने सही कहा, ऐसों को टोकना मुसीबत मोलना है। लेकिन इस लेख का उद्देश्य कच्ची उमर में सेक्स के प्रयोग और बच्चों के शोषण की समस्या से सम्बोधित है। इस फ्रंट पर समाज को शुतुर्मुर्गी मानसिकता से मुक्त हो आगे आना ही होगा। मैं बिना टोके, समझाए, डाँटे नहीं मानता। यह बच्चों के भविष्य से जुड़ा है।
@ सिद्धार्थ जी,
14 साल की उमर में उम्रदराज या दोवाहे से लड़की की शादी ग़लत थी। उस समय भी ऐसी शादियों की निन्दा होती थी। कई बार तो बारातें भी वापस हो जाती थीं। शुक्र है कि वह रोग खत्म हुआ। हाँ, ऐसे मामलों में लड़कियों की मुखरता सोचनीय है - कोई अपराध बोध नहीं। इसीलिए संस्कारों की बात की मैंने। कच्ची उम्र में जोश अधिक रहता है और माता पिता की जिम्मेदारी बढ़ जाती है।
@ प्रवीण जी,
हाँ यह पीडोफीलिया ही है । यह बच्चों के शरीर में हो रहे हार्मोन जनित परिवर्तनों से उनके मन में उपजी उत्सुकता और रोमांच का एडवांटेज लेती है। ... 3 की पिटाई हो चुकी है। कम से कम इधर तो अब वे नहीं दिखते। :)पुलिस को सौंपना टेढ़ा है। यहाँ कॉलोनी की सोसाइटी डिफंक्ट सी है लेकिन आला अधिकारियों से मिल कर गस्ती शुरू कराने के अनुरोध जारी हैं। अभी कानों पर जूँ नहीं रेंग रही। किसी दिन कोई कांड हो जाने पर शायद ...
@ दीपक जी,
समस्याएँ तो हमेशा रहेंगी। हमें शुतुर्मुर्गी बिमारी हो गई है। इसीलिए मैंने पुरनियों की गलत का प्रतिरोध करने की प्रवृत्ति को सही बताया।
गंभीर मुद्दा !
जवाब देंहटाएंपिछले २ सालों से जूनियर हाई स्कूल में हूँ (6-8) ...उम्र का यह पड़ाव गावों में भी कम दुष्प्रभावित नहीं दिखता |
फिर कभी !
मै " निशब्द " हो गया हू .
जवाब देंहटाएंवैसे सलमान रुश्दी जब कम उम्र की लडकियों से इश्क फरमाते है तो वो कौन सा पीडोफिलिया है भाई ? बहुत बड़ी उम्र के शेख लोग भी तो कम उम्र की ही लडकियों से शादी करते है ? तो शादी हो जाने से दोष का प्रवाह कम हो जाता है शेख लोगो का क्या ?
Arvind K.Pandey
http://indowaves.instablogs.com/
बहुत कहने को नहीं है, आपकी पोस्ट से इस धारणा को बल मिला कि - नहीं, अब बहुत सहने को भी नहीं है। दोष उनका भी दर्ज होगा जो मौन रहेंगे, क्योंकि मौनं स्वीकृति लक्षणम्।
जवाब देंहटाएंनिष्कर्ष से पूर्ण सहमति कि निजता का सम्मान प्रमुख प्रश्न है, बाक़ी नैतिकता का मापदण्ड तो 'नीति'-गत है।
पहली बार यहाँ आया हूँ आज।
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जवाब देंहटाएंराव साहब . यह हारी हुई लड़ाई नहीं है । ऐसा हर युग में होता आया है । फर्क सिर्फ इतना है कि पहले जो दिखाई नहीं देता था अब दिखाई देने लगा है । पहले भी माता-पिता इस बात को लेकर चिंतित रहते थे और अब भी रहते हैं लेकिन सिर्फ यौन शिक्षा ही इसका हल नहीं है । पीढ़ी दर पीढ़ी कुछ अनैतिकता भी हस्तांतरित होती है । जिन लोगों के घर में भ्रष्टाचार का पैसा आता है क्या उन घरों के बच्चे उसका विरोध कर सकते हैं उसी तरह इस तरह की घटनाओं का विरोध करने के लिये भी संस्कारों की ज़रूरत होती है । आप ने और भाभी जी ने और मोहल्ले के कुछ संस्कारवान लोगों ने यदि इस अनैतिकता का बीड़ा उठाया है तो इसमें सफलता मिलेगी ही ।
जवाब देंहटाएंआप तो नाहक हलकान हुए जा रहे हैं !सारे समाज का ठेका ले रखा है क्या ?हार्मोनल समस्या का हल भी हार्मोनल ही है,सामाजिक नहीं !बात १९९१-93 की है ,हमने वर्सोवा बीच पर ५३ "लव पिट्स " खोजे थे जो बालू हटा कर -खोद कर बनाए गए थे ...हर शाम वे प्रणय गड्ढे गुलजार होते थे -एकाध में तो हम बाकायदा झाँक कर रतिलीला भी देखते थे -न उन्हें कोई इतराज था न हमें -श श श ....प्रेम चालू आहे !बनारस में ही एक नवयौवना पड़ोस के छत पर शोहदों के आते ही नग्न हो जाती थी और अपने वक्ष का खुला प्रदर्शन करती थीं -वैशाली की नगरवधू भी उनके सामने फेल -हमें तो वह भी बुरा नहीं लगता था वरन हमारे नारी सौन्दर्य परकता में इजाफा ही होता था ...गिरिजेश भाई ,सभी ऐसे नहीं होते और जो होते हैं वे होते हैं ..आप उन्हें रोक नहीं सकते....उनकी भवितव्यता उन्हें जहां ले जाय जाने दीजिये .वैश्यायों के कोठों पर कौन जाएगा आखिर ? वे खाली तो नहीं रह सकते ना ?
जवाब देंहटाएंअरे महराज! बात नवयौवना और वयस्कों की नहीं है, बच्चों की है। उन बच्चों की जो अनजाने ही शोषित हो रहे हैं और उनकी जो कच्ची उमर में ही सेक्स क्रिया में संलग्न हो रहे हैं।
जवाब देंहटाएंहाँ, वैशाली की नगरवधू की तुलना वक्ष खोल घूमती यौवना से तो हरगिज नहीं हो सकती।
वैसे आप जो बता रहे हैं वह तो सबने किसी न किसी रूप में देखा ही होगा। गड्ढे खोदने वालों को इतनी तो तमीज थी कि छिप कर संलग्न होते थे। अब तो खुलेआम सबके सामने ...छोड़िए यह प्रकरण विषयांतर है, अलहदा विषय है।
Cause-
जवाब देंहटाएं1-Uneducated parents.
2-Too busy parents.
3-Lack of loving atmosphere at home.
4-Kurushetra like home.
5-Improper guidance.
6-wrong upbringing.
7-children in wrong company.
8-children who feel lonely at home.
9-Those who do not have someone to talk and share.
10-Society who has turned a blind eye towards such incidences.
Solution-
"Charity begins from home."
1- Try to be friendly with your child.
2- Spend more and more time with them.
3- talk on all the topics and with the best possible knowledge of yours.
4- Sex education is a must.
5-Discuss the negative aspects of friendship between boys and girls.
6- Parents are supposed to guide their children on all aspects- The natural attraction, then closeness, intimacy, then sex, unwanted pregnancy, insults, humiliations, allegations, suicides, life imprisonments and so on....
7-Encourage them to watch current news and be updated on what's going on in society.
8-Don't hesitate in discussing 'Nirupama's case" with your child above 8 years. Update them on all the aspects in such issues.
9-Lack of knowledge (pros n cons) is the cause of such incidents.
9-Parents are forgetting their roles by being too busy with themselves.
Sex education is a solution---
teach your kids about --
PUBERTY- age of puberty in girls is 11-13 while in boys is 13-14.
Talk and discuss the normal biological, physical(sex organs and secondary sex organs ) hormonal, emotional changes with your kids.
Adolocents and teenagers need extra attention. So parents are supposed to have extra patience while talking and understanding them.
In my humble opinion parents need to learn more in order to guide their children properly and in right direction.. They need to be more patient and friendly.
The huge energy in growing kids should be channelised properly.
Education , proper understanding, proper guidance, being friendly, more loving and caring may help...
@ Girijesh ji-
All the problems..be it terrorism, sex scandels, murder, rape, women empowerment, child abuse, drug addiction, population, education, nasbandi, molestation, eve teasing, harrassment , job insecurity, busy schedule, right upbringing of children and so on......
All are related to both the genders. Its our common problem. Men and women both are part of society ....Then why ???
Why the mention of 'Nariwaadi" ??
I don't find it relevant.
Please pardon my ignorance.
Regards,
Divya
ओह! गिरिजेश यह सब हो रहा है, और हमें अन्देशा भी न था! यह तो बवण्डर है सामाजिक मूल्यों में! :(
जवाब देंहटाएं@ Zeal
जवाब देंहटाएंआप की बातें एकदम सही हैं। बच्चों को अधिक समय देना, संस्कार देना पहले से कहीं अधिक आवश्यक हो गए हैं। संक्रमण काल है और यौन शिक्षा का प्रारूप अभी तक विकसित होकर अपने देश में नहीं आ पाया है लेकिन मुझे यकीं है - आएगा अवश्य। तब तक बहुत सावधानी से माँ बाप को सीख देनी होगी। मगर कैसे ? यह प्रश्न मुँह बाए खड़ा है।
नारीवादी और नारी में अंतर है जैसे समाजवादी और समाज में। कोई भी वाद मनुष्य कल्याण के लिए होता है। जब वह उसके उपर चढ़ बैठे तो उपेक्षित कर देना चाहिए। तब तक जब तक कि:
- परिवार संस्था अपने वर्तमान रूप में है।
- बच्चों और गर्भिणियों की ज़िम्मेदारी राज्य की नही हैं
- लोगों की सोच पुरानी है। ;
संक्रमण काल में नारी को अधिक सतर्क रहना होगा क्यों कि शोषण के तरीके और बढ़े हैं। खतरे अधिक हो गए हैं। नारीवाद नाम इसलिए लिया कि इस जटिल विषय पर समग्र रूप से विचार न कर वे लोग बस वाद की कुछ स्थापनाओं को लेकर बेकार उत्पात मचाने लगते हैं।
@माँ बाप को सीख देनी होगी। मगर कैसे ? यह प्रश्न मुँह बाए खड़ा है।...
जवाब देंहटाएंGirijesh ji-
That is what i tried to answer in my comment.
I agree with rest of what you said.
thanks.
नारीवाद पर टिप्पणी अनावश्यक थी पर विषय निश्चित महत्वपूर्ण है। विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं तिस पर भी दिल्ली विश्वविद्यालयभरपूर प्रेम प्रसंग आसपास होते हैं हमें अच्छे लगते हैं अपने जीवन तथा देह को लेकर स्वतंत्र निर्णय लेते पढ़े-लिखे वयस्क युवा।
जवाब देंहटाएंकिंतु यदि मामला बच्चों का, पीडोफीलिया या चाइल्ड अब्यूज का है तो निश्चित तौर पर अपराध का डोमेन है उसी तरह हैंडल किया जाना चाहिए।
या तो आपका घटना चयन बेहद सेलेक्टिव है या हमारा आब्जर्वेशन अलग है... हमें बस इतना लगता है कि चूंकि आमने पब्लिक स्फेयर की घटनाएं चुनीं इसलिए केवल बच्चियॉं शिकार रूप में दिखीं। पीडोफीलिया व चाइल्ड अब्यूज बाहर से कहीं ज्यादा घरों में होता है और वहॉं लड़के लड़कियॉं दोनों शिकार होती हैं।
अगर वयस्कों के आपसी संबंध तथा पीडीए (पब्लिक डिस्प्ले आफ अफेकशन) को इस सवाल के साथ नत्थी करते हैं तो ये वाकई मोरल पालिसिंग ही है चाहे आप डिस्कलेमर लगाएं या नहीं।
कुल मिलाकर मामला जटिल है। समाधान भी सरल नहीं ही होगा।
@ मसिजीवी
जवाब देंहटाएंडी यू कैम्पस, मानसरोवर, खालसा, अंतर्राष्ट्रीय छात्रावास वाले इलाके में रहने का सौभाग्य मिला है मुझे। पीडीए ही नहीं पीडीसी (पब्लिक डिस्प्ले ऑफ कपुलेशन) भी अब पार्कों में आम हो चला है।वहाँ रिज, बुद्धा पार्क, रोज गार्डेन तो यहाँ लोहिया पार्क वगैरह। कोई मॉरल पुलिसिंग नहीं होती।.. लेकिन जो अब दिखने लगा है उससे चिंता होती है। जूनियर या ग्यारहवीं बारहवीं में पढ़ते बच्चे भी ... आपस में या वयस्कों के साथ पीडीए करें तो अलार्मिंग लगता है।
संवेदनशील पोस्ट!
जवाब देंहटाएं