- हम जिन अपराधों की पोल खोलेंगे उनका फैसला कम्युनिस्ट सत्ताओं के मानकों से नहीं बल्कि मानवता के अलिखित प्राकृतिक नियमों से होना चाहिए। स्टीफेन कोर्टवोइस
[द ब्लैक बुक ऑफ कम्युनिज्म, क्राइम्स, टेरर, रिप्रेशन , निकोलस, जीन-जुइस पन्ने, अन्द्र्ज़ेज चकोवस्की आदि, अनुवादित जोनाथन मरफी और मार्क क्रेमर, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1999, पृ.3 ]
- एक अपराधी को छोड़ना ठीक नहीं भले सौ निर्दोषों की हत्या करनी पड़े। डोलोरेस इबर्रुरी ("ला पैसनरिआ"), स्पेनी कम्युनिस्ट [वही, पृ.343]
- हमने पर्याप्त लोगों को नहीं मारा ... क्रांतियाँ तभी सफल होती हैं जब नदियाँ खून से लाल हो जाती हैं और जब आप का उद्देश्य मानव जाति की सम्पूर्ण उत्तमता का हो तो खून बहाना अनिवार्य हो जाता है। अरेस वेलूचिओटेस, ग्रीक कम्युनिस्ट, [वही, पृ.329]
- कम्युनिज्म आर्थिक उत्पाद की उत्कृष्ट्ता सुनिश्चित करने में उन्नीसवीं सदी की असफलता के विरुद्ध प्रतिक्रिया नहीं है। यह इसकी तुलनात्मक सफलता के विरुद्ध प्रतिक्रिया है। यह आर्थिक कल्याण के खोखलेपन के विरुद्ध प्रतिवाद है, हम सबके भीतर के तपस्वी के लिए एक अपील है ... आदर्शवादी युवा कम्युनिस्ट अवधारणा को आजमाते हैं क्यों कि यह एकमात्र आध्यात्मिक आकर्षण है जो उन्हें समकालीन लगता है। जॉन मेनार्ड कीनेस, 1934
- किसी भी बुद्धिजीवी के लिए यह कोई बचाव का रास्ता नहीं है कि उसे [कम्युनिज्म के द्वारा] ठग दिया गया। एक बुद्धिजीवी के रूप में उसे ऐसा कत्तई घटित नहीं होने देना चाहिए था। ग्रेनविल हिक्स
- यह अजीब है कि राजनैतिक रूप से सही (अवसरवादी) समतावाद बहुतेरे विद्वज्जनों के बौद्धिक दम्भ और उच्छिष्टवर्गवाद को आकर्षित करता है; साहित्यिक मार्क्सवाद के प्रति उनका झुकाव इसके आर्थिक सिद्धांत पर आधारित न हो कर इसके व्यापार (पण) और मध्य वर्ग के विरोध के कारण है। इसीलिए इस बुर्जुवाविरोधी भावना के चरित्र की संगति समतावाद के बजाय निचले तबके के प्रति इनके कुलीन तिरस्कार से अधिक बैठती है। जॉन एम. एल्लिस, लिटेरेचर लॉस्ट [येल यूनिवर्सिटी प्रेस, 1997], पृ.214
- कॉस्मिक अंतर्दृष्टि(विजन) वालों का मध्यवर्ग - बुर्जुवा - के प्रति करीब सर्वव्यापी तिरस्कार भाव इससे समझा जा सकता है कि ये विजन व्यक्तिगत संतुष्टि और व्यक्तिगत वैधता प्रदान करते हैं। निचले और धनाढ्य़ कुलीन दोनों वर्गों की तुलना में परम्परा से ही मध्य वर्ग नियमों और परम्पराओं को मानने वाले और आत्मानुशासित लोगों का रहा है। जहाँ निचला तबका मध्य वर्ग जैसा आत्मानुशासित न होने की कीमत ग़रीबी और कैदखाने के रूप में अदा करता है वहीं धनाढ्य और शक्तिशाली लोग बहुधा नियम और क़ानून को बिना कुफल भुगते धता बता सकते हैं। सामाजिक अनुशासन और बन्धनों को स्वाभाविक के बजाय मनमाना मानने वाले कॉस्मिक अंतर्दृष्टिप्राप्त लोग उनसे मुक्ति चाहते हैं। वे निचले तबके की उच्छृंखलता और कुलीनों की खुद को नियमों से उपर मानने की प्रवृत्ति का रोमानीकरण करते हैं। थॉमस सोवेल्ल, द क्वेस्ट फॉर कॉस्मिक जस्टिस [द फ्री प्रेस, 1999], पृ. 139-140.
- बहुतेरे जिनकी निष्ठा सोवियत संघ के साथ थी अपने देश और लोकतांत्रिक संस्कृति के प्रति गद्दार की तरह देखे जाते हैं। लेकिन उनका सबसे बड़ा दोष और भी बुनियादी था। खुद को स्वतंत्र मस्तिष्कधारी की तरह देखते, एक समझदार की तरह अपने विकल्प चुनते उन्हों ने अपने मानदंडों की ही अवहेलना की। कम्युनिस्ट शासन की वास्तविकताओं पर तीसरे दशक में पहले से ही उपलब्ध बहुआयामी सबूतों की उन्हों ने जाँच पड़ताल नहीं की। यह कहा जा सकता है कि वे मानव मस्तिष्क के और स्वयं चिंतन के भी गद्दार थे। रॉबर्ट कॉंक़्वेस्ट, रिफ्लेक्संस ऑन अ रैवेज्ड सेंचुरी [डब्ल्यू ड्ब्ल्यू नॉर्टन एण्ड कम्पनी, 2000], पृ.118
- एक बौद्धिक रचना के रूप में द कैपिटल (मार्क्स) उत्कृष्ट कृति थी। लेकिन कुछ और बौद्धिक उत्कृष्ट कृतियों की तरह ही यह एक विस्तृत और परिष्कृत शिल्प था जिसकी नींव एक आदिम मिथ्या अवधारणा थी।
... विचारों के क्षेत्र में मार्क्स की अंतर्दृष्टि, उनके इतिहास के सिद्धांत के साथ, न केवल विभिन्न कालों में बहुआयामी क्षेत्रों में अपनी धाक जमाए रखी है, बल्कि पूँजीवाद की फलती फूलती समृद्धि और समाजवाद के आर्थिक पतन दोनों के दरम्याँ बची रही है। प्रमाण और तर्क के क्षयकारी प्रभावों से अभेद्य यह बुद्धिजीवियों की जमात के बीच स्वयंसिद्ध सी हो गई है।
लेकिन अर्थशास्त्र के क्षेत्र में मार्क्स का क्या योगदान था? योगदान केवल प्रस्ताव पर नहीं बल्कि स्वीकार पर भी आधारित होता है, और आज के अर्थशास्त्र में कोई प्रमुख आधार वाक्य, मत, सिद्धांत या विश्लेषण यंत्र मार्क्स की रचनाओं से नहीं आया है। यह नकारने की कोई जरूरत नहीं है कि कई अर्थों में मार्क्स उन्नीसवीं सदी के एक प्रमुख इतिहास पुरुष थे, जिनकी लम्बी छाया इक्कीसवीं सदी की दुनिया पर अभी भी पड़ रही है; फिर भी शायद यह कहना कठोर हो, अर्थशास्त्र प्रोफेसनल के लिहाज से, जैसा कि प्रो. पॉल सैमुएल्सन ने कहा है, मार्क्स एक "अदने उत्तर-रिकार्डियन" थे। थॉमस सोवेल्ल, ऑन क्लासिकल इकोनॉमिक्स [येल, 2006] पृ.184-186
"तुम जो आ रहे हो, हर आशा का त्याग कर दो"
दांते एल्लीघीरी, द डिवाइन कॉमेडी, इंफर्नो, 3:9
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कार्ल मार्क्स (1818-1883) के पास नैतिकता का सिद्धांत नहीं था; उनके पास इतिहास का सिद्धांत था। इस प्रकार, मार्क्सवाद सही या ग़लत का सिद्धांत न होकर इतिहास में क्या घटेगा इसका सिद्धांत था। मार्क्स उन लोगों के प्रति निन्दा भाव रखते थे जो बात, वस्तु या तथ्य को नैतिक अवधारणाओं से परखते थे। लेनिन, स्टेलिन, माओ, कास्त्रो, हो और डेनियल ओरटेगा की अपने कृत्यों के प्रति अवधारणा के बावजूद भी जब कट्टर अनुयायी यह कहते हैं कि मार्क्सवाद वास्तव में कभी 'आजमाया' नहीं गया, वे यह नहीं समझते कि मार्क्सवाद व्यवहार या कर्म के कार्यक्रम का कोई नियम नहीं बल्कि निश्चयात्मक क्रियातंत्र का सिद्धांत था, यह क्रियातंत्र भविष्य का 'उत्पादक' होने वाला था, ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण सहज स्वाभाविक तरीके से उठ खड़े होने वाली क्रियाओं का सिद्धांत -- हालाँकि हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि लोग , जिनमें हम भी सम्मिलित हैं, किस तरह के कर्म करेंगे -- जैसा कि, मार्क्स ने कहा था कि उनके काम का उद्देश्य संसार को केवल समझना नहीं, बदलना था। (जारी)
पूर्वानुमति के बाद डा. केली रॉस के अंग्रेजी लेख के अंश का ब्लॉग लेखक द्वारा अनुवाद
अच्छा लिखा है आपने.
जवाब देंहटाएंक्या हिंदी ब्लौगिंग के लिए कोई नीति बनानी चाहिए? देखिए
काफी कुछ पढ़ने और समझने का मसाला है इस पोस्ट में।
जवाब देंहटाएंवैसे छुपे तौर पर मीडिया आरूषि और निरूपमा वाले केस में स्टीफेन कोर्टवोइस का यह कथन शब्दश: सच करता दिख रहा है कि - एक अपराधी को छोड़ना ठीक नहीं भले सौ निर्दोषों की हत्या करनी पड़े।
जिस प्रकार कमजोर वृक्षों की मजबूती 'आंधी' के आगे नतमस्तक हो जाती है; उसी प्रकार कमजोर या असत्य सिद्धान्त भी समय की आंधी को नहीं झेल पाते। अन्त में वे ही सिद्धान्त विजयी होते हैं जो सत्य के अधिक पास होते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि कम्युनिज्म एक शताब्दी के अन्दर ही धराशायी हो गया।
जवाब देंहटाएंसतीश पंचम ji se sahmat
जवाब देंहटाएंकाफी कुछ पढ़ने और समझने का मसाला है इस पोस्ट में।
@ नहीं मित्रों ! इस तरह की हिंसा अंतत: वही तर्क वही रूप लेती है जिनकी परिणति दंतेवाड़ा और बीजापुर में दिखती है।
जवाब देंहटाएंएक त्रुटि सुधार -
जवाब देंहटाएंमेरे कमेंट में 'स्टीफेन कोर्टवाइस' की जगह 'डोलोरेस इबर्रुरी' पढ़ें...
कम्बख्त नाम ऐसे ऐसे हैं कि बस ...
:)
जारी रहने तक पढ़ लें ...फिर देखें क्या विचार बनते हैं ?
जवाब देंहटाएं( गिरिजेश जी , किसी टिप्पणी की प्रतिक्रिया स्वरुप आपने दो स्थानों का ज़िक्र किया है तो बता दें कि कल एन.एच. १६ से हम भी गुजरे थे बल्कि पिछले २ माह से गुजरते आ रहे थे और...शाम ३.१५ बजे उसी स्पाट से घर फोन करने का ख्याल आया क्योंकि वहीं आस पास से मोबाइल में सिग्नल मिलने की उम्मीद जागी थी...)
एकतरफा कामरेडी प्रलापों के बीच में इस तरह के निष्पक्ष चिंतन का स्वागत है. अनुनाद सिंह जी के कथन में एक बड़ा सत्य छिपा है. अब तक देखी गयी सभी राजनैतिक विचारधाराओं के वृक्षों में से मात्र एक शताब्दी में ही पूर्णतया फ्लॉप हो जाने वाली विचारधारा मार्क्सवाद/साम्यवाद की ही रही है. यहाँ तक की राजतंत्र जैसी पिछड़ी परम्पराएं भी दीर्घजीवी रही हैं लोकतंत्र जैसे उन्नत विचारों की तो बात ही क्या है. बन्दूक और हत्याओं के सहारे जहां कहीं जबरन मार्क्सवाद फैला भी वहां भी जनता के निरंतर विरोध ने उनकी बंदूकों, प्रचारी भोंपुओं और तानाशाही बुतपरस्ती को अंततः रसातल में ही भेजा. चीन-आदि में जहां शोषण, पूंजीवाद और तानाशाही के आसुरी मिश्रण वाला माओवाद बचा भी है वह भी सिर्फ इसलिए कि वहां सर्वहारा का गला घोंटा हुआ है - मगर वहां भी कब तक? अंतर्राष्ट्रीय साम्यवाद की लंका समझा जाने वाला अजेय सोवियत संघ भी ढह गया और बर्लिन की क्रूर दीवार भी ढही. चीन की खंडहर हो रही साम्यवादी इमारत भी किसी सुबह जागने पर अचानक ही धूलधूसरित दिखाई दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
जवाब देंहटाएंसत्यमेव जयते नानृतम - जो सही है वही टिकेगा - टिकेगा वही जो बन्दूक के बिना मानने योग्य - बहुजन हिताय बहुजन सुखाय हो.
एक सार्थक बौद्धिक विमर्श का आरम्भ किया है आपने......अभी तो कोई टिपण्णी करना जल्दबाजी होगी....आगे की पोस्ट्स का बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी.
जवाब देंहटाएंयह श्रृंखला बढ़िया शुरू की है आपने....
जवाब देंहटाएंइसके जरिए इतिहास की और मार्क्सवादी-लेनिनवा्दी सिद्धांतों की आपकी समझ से दोचार होने का और उसे समझने का मौका मिलेगा....
आते आते बहुत देर हुई सो विकट रात में बैठा हूँ टीपने , विकट रात
जवाब देंहटाएंदुनिया बदलने की चाह भरे इस दर्शन पर भी है ! अनुसरण और विरोध
दोनों 'कौवा कान लिहे भागा जाय' की तर्ज पर लीक-बद्ध ढंग से हो रहा
है ! सिद्धांत पक्ष पर अभी कुछ नहीं बोलूंगा , क्योंकि - सच कहूँ तो - पूर्वोक्त
टीपों से निराश हुआ हूँ , और जल्दबाजी में कुछ बोलूंगा तो स्वयं से भी
निराश हो जाउंगा ! इसलिए पढूंगा , गुनूंगा , किसी भी पूर्वाग्रह से रहित होने
को लेकर चौकस रहूंगा , फिर कुछ समझ में आयेगा तो बकूंगा नहीं तो
'आंय बांय सांय' कुछ भी बोलने के लिए बोलने से क्या लाभ !
.............
एक निवेदन यह है कि अनुवाद में लोकाग्रह ( मरकस-नुमा ) बढ़ा दीजिये और
नीचे ही सही , इस परिप्रेक्ष्य से सम्बद्ध चिंतन करने वाले किसी हिन्दी के विचारक
की बात भी रखिये ! विषय से सघन जुड़ाव होगा ! संग्रहनीय !
सराहनीय प्रयास ...!!
जवाब देंहटाएं@ रवि जी,
जवाब देंहटाएंमैं एक सतत यात्री हूँ। यात्रा मुझे तराशती रही है लेकिन चलते रहने के कारण 'बुत' नहीं बन पाया। मुझे लगता है कि जीने का यह ढंग मेरे लिए ठीक है।
@ अमरेन्द्र जी,
इतनी रात गए टिपियाना ! यह दर्शन दुनिया बदलना चाहता है लेकिन "ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण सहज स्वाभाविक तरीके से उठ खड़े होने वाली क्रियाओं का सिद्धांत" है। दुनिया बहुत बदली इसके कारण जिसमें स्पॉंटेनियस जैसा कुछ नहीं था - सोवियत संघ, पूर्वी जर्मनी, चेकोस्लावाकिया, क्यूबा, चीन, उत्तर कोरिया...दुनिया जितनी बदलती है उतनी ही 'वैसी ही' रहती है।
@ अनुवाद में लोकाग्रह ( मरकस-नुमा ) बढ़ा दीजिये - जरा स्पष्ट कीजिए महराज !
@ अली जी,
जवाब देंहटाएंशुक्र है। संयोग बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। उस क्षेत्र के बारे में विस्तार से कुछ लिखिए न ।
आदरणीय अमरेन्द्र जी ,
जवाब देंहटाएंमेरा ख्याल है कि मैंनें स्वयं , सिंह एस.डी.एम, और रवि कुमार जी नें आलेख को आगे पढने के लिहाज़ से आलेख पर फिलहाल कोई टिप्पणी नहीं करने जैसी टिप्पणी की है...कुछ मित्रों नें टिप्पणियां भी की हैं ! आलेख पर प्रतिक्रिया द्वैध स्पष्ट है फिर भी आपने किसी विशिष्ट टीप का उल्लेख किये बगैर कहा कि " सच कहूं तो - पूर्वोक्त टीपों से निराश हुआ हूँ " तो मुझे ये समझ में नहीं आया कि आप कौन सी पूर्वोक्त टीपों से निराश हुए और भला क्यों ?
@ गिरिजेश जी
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार ! विषयवस्तु चयन और लेखन के मामले में , शासकीय सेवा कई बार हाथ बांध देती है ! विशिष्ट मसलों पर कुछ लिखें भी तो यथार्थ पर चांदी का वर्क चढ़ा दिखाई देता है यूं समझिये मन मसोस कर रह जाते हैं !
bahut khub
जवाब देंहटाएंमुझे तो कभी समझ में ही नहीं आया कम्यूनिज़्म ।
जवाब देंहटाएं@ गिरिजेश जी ,
जवाब देंहटाएंमेरा आग्रह इस बात को लेकर है कि विषय प्रवर्तन इतना सहज कर दें आप
कि वह अनुवाद - रुढ़ि ( अ-सम्प्रेषणीयता ) से अप्रभावित रहे ..
@ आदरणीय अली जी ,
हुजूर , अपनी बात वापस लेता हूँ , बातें राकस हैं और उनमें अलि-गुंजार तो
कतई नहीं है !
जो विचार करना चाहते हैं , उनके लिए काफी मसाला है यहॉं पर । खासकर कम्युनिज्म की कमजोरियों के परिप्रेक्ष्य में । और आज के संदर्भ में मंथन करने के लिए ।
जवाब देंहटाएंलेकिन कम्युनिज्म ने जो किया वह कम्युनिज्म ही कर सकता था । वो कहते हैं न कि राजा के आगे महतिमापन नहीं चलै । कहने का आशय यह कि औद्यागीकरण से उपजे अमानवीय अत्याचारों के खिलाफ सिर्फ कम्युनिज्म का दैत्य ही खडा हो सकता था ।
यह उस वक्त की जरूरत के हिसाब से पैदा हुआ विचार और आंदोलन था ।
यह भी सही है कि इससे जितना इसके मानने वाले प्रभावित हुए उतने ही इससे न मानने वाले, इसके चपेट में आने से बचने के लिए खुद में सुधार करने के लिए मजबूर हुए ।
इतिहास को शायद ही किसी विचार ने इतना झकझोरा हो । कम्युनिज्म ने बखूबी अपना काम किया है । आज ठप्प दिख रहा है तो क्या हुआ । ठप्प तो गॉधीवाद भी हो चुका है । लेकिन अपना काम तो कर ही गया ।
शुक्रिया ।
बढ़िया श्रृंखला... संग्रहणीय और विचारणीय होगी ये.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअनुवाद तो जबर्दस्त है, पर पढने के लिए मन को कन्संट्रेट करना मुश्किल हो रहा है। दुबारा मौका मिला, तो फिर से कोशिश करूंगा।
जवाब देंहटाएं--------
कौन हो सकता है चर्चित ब्लॉगर?
पत्नियों को मिले नार्को टेस्ट का अधिकार?
प्रिय ढपोरशंख जी,
जवाब देंहटाएंलगता है आप ने टिप्पणी पूर्व यह अनुरोध नहीं पढ़ा,"कृपया केवल विषयवस्तु से सम्बन्धित टिप्पणियाँ करें। सहयोग के लिए आभार।"
चूँकि आप की टिप्पणी,"आज हिंदी ब्लागिंग का काला दिन है। ज्ञानदत्त पांडे ने आज.....मैं इसका विरोध करता हूं आप भी करें.", जो आप ने अन्य ब्लॉगों पर भी की है, विषयवस्तु से सम्बन्धित नहीं है इसलिए मिटा रहा हूँ। आप से अनुरोध है कि अपने बहुमूल्य समय का उपयोग जनवरी में लिखे अपने एकमात्र महाभारत आधारित पोस्ट को पूरा करने में करें। पांडे जी के ब्लॉग पर मैं टिप्पणी कर चुका हूँ। आप वहाँ देख सकते हैं।
ऐसे अपवादी लेखों को अधिक महत्व न दें।
बहुत सारे विचारकों के विचार यहाँ एक साथ पढ़ने को मिले यह अच्छी बात है ।
जवाब देंहटाएंअर्कजेश जैसी ही सोच हमारी भी है।
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