गरमी की दुपहर की अपनी सुन्दरता होती है। आज मुझे एक गुजरा दौर याद आ गया। गाँव में तब संयुक्त परिवार थे और लोग डट कर खेती करते कराते थे। सिंचाई के लिए धनिक पट्टिदारों ने पक्की नालियों का जाल बनवाया था जो जमीन से उपर थीं। जहाँ रास्ते क्रॉस होते थे वहाँ साइफन विधि से पानी इस पार से उस पार पहुँचाया जाता था। जब सिंचाई के लिए डीजल इंजन से बोरिंग चालू किया जाता तो हम लोग भाग कर सड़क किनारे चैम्बरों तक जाते थे और आँखें फाड़े पानी को इस पार एक चैम्बर में गिरते और उस पार दूसरे में उठते देखते थे। छापक छूपक और कागज की नावों के खेल होते थे।
इंजन से धनकुट्टी भी चलती थी जिसके इक्झास्ट पर उल्टी कब्जेदार टिमकी लगी रहती थी। चालू होने पर जोर जोर से टिक्क टिक्क की आवाज़ आती, लोग जान जाते कि धनकुट्टी चालू हो गई है और धान कुटाने आ पहुँचते थे। एक तरफ पानी नालियों में चलता तो दूसरी तरफ कोठरी में धनकुट्टी से चावल गिरता।
लोग पूरे सिस्टम को 'सइफन' के नाम से जानते थे। नन्दलाल मेरे यहाँ सेवक थे जिन्हें 'नन्नन' कह कर बुलाया जाता था।
..तो संत जनों ! यह पुरनिया उसी जमाने की दुपहर के कुछ बिम्ब उकेर रहा है।
____________________________________________(1)
सइफन बोले टिक्क टिक्क
टिकिर टिक्क टिक्क टिक्क
पानी के साथ साथ
दाना भी झर रहा।
खेत और थाली
दोनों की फिकर है
सइफन की टिकिर है।
(2)
खेत से लौटे काका
दुपहर में कुएँ नहाए
गमछा लपेटे भोजन कर रहे।
ग़जब गर्मी !
नंगे पिठासा पर पसीने की बूँदे
यत्र तत्र टपक रहीं
काकी पंखा डोला रहीं
भीग रहे दोनों
जो नेह बदली बरस रही।
(3)
हुई रड़हो पुतहो
घर में सास पतोहू लड़ीं।
भरी दुपहरी
मर्दों को अगोर रही
दुआरे खटिया खड़ी।
(4)
ललमुनिया ** की थाली
नन्नन भोजन कर रहे
घेर बैठे जो कुत्ते दुआरे
नज़र बचा रोटी फेंक रहे ।
बड़की दुलहिन
परोस देती हैं कितना !
समा गईं अन्नपूर्णा
दाल भात में -
दुलार की हद है !!
_________________
**अल्मुनियम
@
जवाब देंहटाएंखेत से लौटे काका
दुपहर में कुएँ नहाए
गमछा लपेटे भोजन कर रहे।
ग़जब गर्मी !
नंगे पिठासा पर पसीने की बूँदे
यत्र तत्र टपक रहीं
काकी पंखा डोला रहीं
भीग रहे दोनों
जो नेह बदली बरस रही।
(3)
हुई रड़हो पुतहो
घर में सास पतोहू लड़ीं।
भरी दुपहरी
मर्दों को अगोर रही
दुआरे खटिया खड़ी।
आई हो दादा...इतना तेज जेहन। एकदम से झन्नाटेदार लगी ये दोनों बातें.....एकदम सरस.....
और लिखो भाई....इसके पहले कि ये बातें खो बिला जाएं।
आपकी पोस्ट पढ़ने के बाद गर्मी कुछ ज्यादा ही महसूस हो रही है। एसी, कूलर की कृत्रिमता सहज जीवन का कैसे भी मुकाबला नहीं कर सकतीं।
जवाब देंहटाएंआभार।
अपना संयुक्त परिवार और खेत-खलिहान याद आ रहा है............
जवाब देंहटाएं@हुई रड़हो पुतहो
जवाब देंहटाएंघर में सास पतोहू लड़ीं।
भरी दुपहरी
मर्दों को अगोर रही
दुआरे खटिया खड़ी
इसके पीछे की कहानी यह रही--
धर दिया सिलबट पर
टिकोरा को छीलकर
सास बोल गई
लहसुन संग पीस दे पतोहू
मरिचा मिलाय दई
खोंट ला पुदीना...
बहू जम्हियाय
उठ के न आय
तो...
वहीं शुरू हुआ
रड़हो-पुतहो
आपके लेख हमेशा कोई ना कोई धागा दे जाते हैं मेरी अगली रचना के लिए.. :) सजीव वर्णन किया है वैसे.. पानी की धार के साथ मैं भी चल उठा था..
जवाब देंहटाएंसरलता और सहजता का अद्भुत सम्मिश्रण बरबस मन को आकृष्ट करता है। चूंकि कविता अनुभव पर आधारित है, इसलिए इसमें अद्भुत ताजगी है।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंऔर नन्नन ?
नन्नन यदि आज हमारे बीच आ जायें.. तो बिलख पड़ें
" कलेवा खात हईं, घोंटाते नईखे
आऽ मड़ुआ के रोटी भेंटाते नईखे "
आज के नन्ननों ने एक नई तरह की समृद्धि (?) में मोटा अनाज देखा ही नहीं !
बिम्ब पसंद आये साथ ही अपना प्रिय जून मास याद आ गया,
जवाब देंहटाएंआलसी के चिठ्ठे में दुपहर के बिम्ब नींद से जागने और स्मृतियों को सहेजने के लिए प्रेरित करती है.
जवाब देंहटाएं..
ललमुनिया की थाली
नन्नन भोजन कर रहे
घेर बैठे जो कुत्ते दुआरे
नज़र बचा रोटी फेंक रहे ।
बड़की दुलहिन
परोस देती हैं कितना !
समा गईं अन्नपूर्णा
दाल भात में -
दुलार की हद है !!
...इसे पढ़कर मन भावुक हो जाता है...नन्न्न, लाल्मुनियाँ की थाली और अन्नपूर्णा ...एकसाथ कहाँ मिलते हैं..!
अथ श्री रणहो पुतहो कथा ..जारी रहे !
जवाब देंहटाएंयह टिप्पणी पिछली पोस्ट के लिए - सिद्ध करने की क्या ज़रुरत थी भाई, पता सबको है.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर गीत । सइफन बोले टिक्क टिकर ।
जवाब देंहटाएंअसली मीनाकुमारी की रचनाएं अवश्य बांचे
जवाब देंहटाएंफिल्म अभिनेत्री मीनाकुमारी बहुत अच्छा लिखती थी. कभी आपको वक्त लगे तो असली मीनाकुमारी की शायरी अवश्य बांचे. इधर इन दिनों जो कचरा परोसा जा रहा है उससे थोड़ी राहत मिलगी. मीनाकुमारी की शायरी नामक किताब को गुलजार ने संपादित किया है और इसके कई संस्करण निकल चुके हैं.
धनकुट्टी की आवाज आ रही है अभी भी ...ये शब्द ही भूल गयी थी
जवाब देंहटाएंगज़ब गर्मी ...नेह बदली बरस रही ...गज़ब का साम्य लिए विरोधाभास ....गज़बे-गज़ब
बड़की दुलहिन
परोस देती हैं कितना !
समा गईं अन्नपूर्णा
दाल भात में -
दुलार की हद है !!
गृहिणियों का लाड़ दुलार खाना परोसने में दिखता है ...
सरल सहज सरस पंक्तियाँ ...!!
बड़की दुलहिन..
जवाब देंहटाएंBeautiful creation !
आपकी रचना से गांव का नज़ारा दृष्टिगत हो गया...बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएं@ मीनाकुमारी ने कचरा न लिखा हो ऐसा हो ही नहीं सकता। वैसे भी अपने को उर्दू कम समझ में आती है। कभी मौका लगा तो फिल्मी साहित्यकारों को भी पढ़ लेंगे।
जवाब देंहटाएंहुई रड़हो पुतहो ...
जवाब देंहटाएंइसमें और पूरी रचना में अद्भुत बिम्ब है...
वारे पुरनिया !
जवाब देंहटाएंदोपहर में लौटे काका के श्रमवारि के ऊपर
नेह-बदली का बरसना आत्मीयता की सजल-परिणति है !
दुलार की हद है !!
------- सिसका रही है बात !
सुन्दर यादें, चौकस बिम्ब!
जवाब देंहटाएंभीग रहे दोनों
जवाब देंहटाएंजो नेह बदली बरस रही।
बहुत सुन्दर.
इतना कुछ स्मृतिपटल पर आकर कूदने फांदने लगा और रसविभोर कर गया कि आकंठ निमग्न ह्रदय निःशब्द हो गया....
जवाब देंहटाएंकोटिशः आभार आपका इस सुन्दर सुखद अन्यतम प्रविष्टि के लिए...
गिरिजेश भैया ... सोने की चमक है इस ब्लोगनगरी में.
जवाब देंहटाएंबहुत आनंद आया इसलिए भी की हमने अपने बचपन में भी बहुत कुछ सहेजा है.
आप बस्स आप है
चार माह गुजर गये थे
जवाब देंहटाएंफोन का बिल था पैडिंग ।
काट दिया ससुरों ने
नेट का कनेक्शन ।
परसों जा कर भरा मैंने
पसीना चुआ कर लाइन में ।
तब जाकर चालू हुआ
अपना कनेक्शन ।
अब आयें है आपके पास
पढ़ी ये कविता, तो
पूरी हुयी दिल की आस ।
बुझ गयी मन की प्यास ।
गिरिजेश भइया की जय ।