सोमवार, 7 मई 2012

गुम्मी


कुछ कहानियाँ भीतर घुटती हैं। डराती हैं कि पहले कही जा चुकी होंगी। सताती भी हैं । बाथरूम में उनके कई ड्राफ्ट मन में लिखे जा चुके होते हैं लेकिन की बोर्ड पर पहुँचते ही सब डायनासोर! गुम!! ओर छोर ढूँढ़े कहाँमिल भी जायँ तो लिखें कैसे? ... लिहाजा पोस्ट कर रहा हूँ। यहाँ रहेगी तो लिखा भी जायेगी। मन-मानी बहुत हो गई! ...इतना छुटंगी सा अंश पढ़ कर मुझे न कोसियेगा। 
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  एक दिन वह गुम हो गयानाम शलभपरिवार वाला साधारण सा क्लर्क आदमी जिसके पास पहचान के नाम पर कुछ खास भी था – वह लेखक था। इस जमाने में जब कि हिन्दी कहानीउपन्यास वगैरह पढ़ने वाले वाकई अल्पसंख्यक हैंउसका एक खास तरह का पाठक वर्ग भी था।

जब वह शाम को ऑफिस से आता तो उसके दोनों बच्चे बाहर खेल रहे होते और पत्नी टहल रही होती। वह अपनी पसन्द की तेजपत्ते वाली चाय बनाताउसे मिश्री की तरह घुलाते सिप सिप पीते हुए अपनी कहानियों के प्लॉट के बारे में सोचता रहता और इतने देर में उसका परिवार घर में आ जाता। कुछ देर बच्चों के साथ बातें करने के बाद वह लिखने लगताबच्चे पढ़ाई में लग जाते और पत्नी रसोई में। वह प्रात: सैर को अपने दो और साथियों के साथ निकलता। उनकी बातों में बौद्धिकता का दूर दूर तक पता नहीं होता। मुहल्ले वाले उन्हें नाम से कमनम्बर एकदोतीन से अधिक जानते थे। अगर उसका कोई पाठक उसके मुहल्ले में आ जाता तो अपना सिर नोचता क्यों कि एक लेखक की तुलना में उसकी ज़िन्दगी कुछ अधिक ही सपाट और साधारण सी थी लेकिन वह था और लेखक था।

जैसा कि होना ही था उसके लापता होने का पता सबसे पहले उसकी गृहिणी पत्नी सुखदा को चला। शलभ का मोबाइल स्विच ऑफ था। सुखदा ने अपनी जान भीतर बाहर हर उस जगह ढूँढ़ा जहाँ एक मनुष्य पाया जा सकता था। उसने बच्चों से कह दिया कि पापा का फोन आया थाउन्हों ने देर से आने को कहा है। रात घिर आने पर भी जब वह नहीं आया तो उस भली महिला को ध्यान आया कि विवाह के बाद सिवाय हॉस्पिटल के वह कभी पति के बिना नहीं सोई है। सुबह पर मामला टाल कर वह चुपचाप सो गई।... हाँकभी कभी ऐसा भी होता है।

सुबह नम्बर एक यानि मिलन और नम्बर दो यानि भुवन ने घंटी बजाई तो सुखदा ने उन्हें बताया। वे दोनों बहुत नाराज़ हुए कि रात को ही बताना था। असल में वे सुखदा में घबराहट की कमी देख कुछ अधिक ही घबरा गए। पास की चौकी पर पुलिस को सूचना देने के बाद दोनों ने समय होने पर शलभ के ऑफिस जाना तय किया लेकिन उसके पहले वे हर परिचित से नम्बर तीन के बारे में पूछते रहे और सूचना फैलाते रहे। बच्चों को सुखदा ने बहला कर स्कूल भेज दिया। उस समय तक बात फैल चुकी थी।

ऑफिस से भी कुछ पता न चलने पर पूछ्ताछ का दूसरा दौर प्रारम्भ हुआ। अब उसे इस तरह ढूँढ़ा जाने लगा जैसे गायब होने या भाग जाने पर पालतू पशुओं को ढूँढ़ा जाता है। आते जाते हर पहचान बिना पहचान वाले से मिलन और भुवन शलभ का हुलिया बताते और पूछते कि कहीं देखा ऐसा आदमीकिसी किसी के यह पूछने पर कि पागल था क्या?, दोनों एक दूसरे का मुँह देखतेचुप होते और कुछ देर बाद उदास साँस ले कर प्रक्रिया पुन: प्रारम्भ कर देते। रात घिर आने पर भी पुलिस या किसी और से सुराग न मिलने पर दोनों शलभ के घर आयेसुखदा से खेद प्रकट किये और उसे कुछ खास चिंतित न देख कभी बेहूदे शक करते तो कभी अपनी अपनी घरवालियों की सोच कि वे तो अब तक आसमान सिर पर उठा ली होतींउन्हें कोसते अपने अपने घर गये। उस समय दोनों कर्तव्यपूर्ति की भावना से संतृप्त थे। (जारी)

9 टिप्‍पणियां:

  1. कहाँ गया वो आसमान उठा ले गया या जमीन खा गयी ....इंतज़ार

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  2. कितने ही शक्सियत ऐसे खो जाते हैं, गहन अंधकार में - गुम एक दम से. क्योंकि जो परकाश अवलोकित करता है, किसी किसी को ही नसीब हो पता है, अक्सर अपने में गुम रहने वाले एक दिन गुम हो जाते हैं.

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  3. कोई गुम हो जाता है - तो कौन फ़िक्र करता है ? कोई जीता भी होता है - तो कौन फ़िक्र करता है की वह जी रहा है या तिल तिल मर रहा है ? रोज़ मिलता रहे - तो दो शब्द बातें हो गयीं - खो गया - तो दो दिन ढूँढने की औपचारिकता खानापूर्ति कर के हम सब ही अपनी राह पर चल देते हैं .. :(

    गुरुदत्त जी का एक गीत है - "ये दुनिया अगर मिल भी जाए - तो क्या है ?"
    :(

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  4. ये एक अलग तरह की लिखाई लग रही है, और ये क्रमशः! उफ़! :(

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