बबुनवा परेशान है। वह फिर से बचपन जाना चाहता है। यूँ तो इस उमर में ऐसा हर कामकाजी को होता है लेकिन बहुधन्धी बबुनवा कुछ अधिक ही परेशान है सो कुछ अधिक ही मीथी मीथी (मीठी मीठी) चाहता है, परसाद की गोद में बैठ कर। डॉलर चढ़ रहा है और बुसट (बुश शर्ट) का कालर उतर रहा है। कल बबुनवा ने निफ्टी बेंचा तो चढ़ गई, वापस खरीदने में नाना की ना नुकुर याद आ गयी बबुनवा को – न बच्चा न, ओके(उसको) न छू, भगवान रिसिया जइहें (क्रोधित हो जायेंगे)। बबुनवा की तमाम जिम्मेदारियों में एक और जुड़ गया है – देश। जो अब तक भगवान भरोसे था उसकी भी फिकर होने लगी है। बबुनवा काफी परेशान है।
बबुनी पास आई है – सुनिये जी! बात की वात से ही बबुनवा समझ गया है कि बाबू से बतिया कर आ रही होगी। जब भी फोन आता है, आँगन में चली जाती है! जाने दोनों क्या क्या बतियाते हैं। उसे डाह होती है। बबुनवा की जान बबुनी उस खानदानी परम्परा में दूसरी कड़ी है जिसमें नार (स्त्री) की चलती है। चौदह साल की थी बबुनवा की माई तो बाबू ब्याह कर लाये थे। नाना ने अपने भाई जी को तिरबचा (तीन वचन या चुनौतियाँ) दिया था कि भाई जी, बरस भितरे मोछि सोझ क के आइब रउरे लगे (साल भर के भीतर ही मूँछ सीधी कर आप के पास आऊँगा)। बबुनवा की माई ने मूँछ टेंढ़ी करने का कोई काम तो नहीं किया था लेकिन तब भी धिया (पुत्री) तो धिया ही होती है।
बबुनवा के बाबा ने जब उस धिया को देखा तो एक्कुड़ दुक्कुड़ खेल रही थी। पंजी (धोती) ठेहुना (घुटने) तक उठाये धिया कु कु कु द द द द दप्प से कूद गई, लटकल गोड़ गिरल (लटकता पैर गिरा) धम्म से... बाबा मन में कहे कि बस्स! ईहे चाहीं (यही चाहिये) और पहुँच गये दन्न से!
नाना कहे कि सछाते भगवान जी धिया के हाथ माँगे आ गइलें (साक्षात भगवान जी पुत्री का हाथ माँगने आ गये)!
मनकूद कथ्था (कथा) बीच में ही रोक बबुनवा बबुनी को देखता है। मासपरायण कउथा बिसराम (कौन सा विश्राम)? देश की सब बेटियाँ भगवान भरोसे। बबुनवा की चिंता में एक और चिंता जब कि उसकी कोई बेटी ही नहीं है।
बोल बबुनी!
बाबू कह रहे थे कि परसा मामा ने नुनदारे के खेत की मेंड़ उलट दी है।
परसा माई का चचेरा भाई है जिसे हरदम यह जलन रहती है कि काका ने खेत धिया के नामे क्यों कर दिये! अब इसमें न तो खेत का दोष, न माई का और न मेड़ का लेकिन अगर कोई दोष न हो तो रोष कैसे हो? सोचने वाली बात है।
बबुनवा को परसाद याद आये हैं – मेड़, डाँड़ आ धिया के गोड़ भगवान के रखले रहेलें बबुना (मेड़, किनारे और पुत्री के पैर भगवान के कारण नियंत्रण में रहते हैं) ! माई के गोड़ आ कि पैर गिरे धम्म से, ये खेत हमारा है। धमक से आज भी कलेजा दलक जाता है परसा मामा का, इतनी दूर से बबुनवा क्या करे?
प्रकट में बबुनवा कहता है – उलट लेने दो मामा को। उन्हीं का हक़ मार तो नाना ने माई को लिख दिया था! बबुनी का पारा छ्त छेद बाहर टहलने को आतुर हो गया है – ए जी, फिर से यह बकवास मत करना। सासू जी का हक था वह।
तो जा अब हक को सीधा कर, बबुनवा फिर से कथ्था बाँचने लगा है और दमकती बबुनी टी वी।
तो नाना जो कहे उसका हिन्दी में यह अर्थ होता है कि बेटी के बाप को तो दुल्हा ढूँढ़ते ढूँढ़ते घुटने की बीमारी पकड़ लेती है – ठेहूनीया, ह पर ‘ऊ’ के मंतरा, न पर ‘ई’ के मंतरा आ य पर ‘आ’ के मंतरा – एक्को छोट नाहिं (एक भी लघु नहीं)। इहाँ त खुदे दुलहवा के बाप आ गइल बा (यहाँ तो स्वयं दुल्हे का पिता चल कर आ गया है)! चट्ट से हाँ कर दिये, बरस भितरे (साल भीतर) भाई जी को सीधी मूँछ जो दिखानी थी! लेकिन बाबा कहे कि नाहीं, पहिले लइका देख सुन लीं, तब हँ करीं (नहीं, पहले लड़का देख सुन लीजिये तब हाँ कीजिये)। तो नाना ने लड़के को देखा भी और सुना भी। ऐसे – वह फुसफुसाये बेटा, क बिगहा खेत बा (तुम्हारी कितने बीघे खेती है?) और बाबू ने उत्तर दिया – चालिस। नाना खुश हो गये – लड़का बहरा नहीं है। देहिं धजा, रूप सब सुन्नर (देहयष्टि और रूप सब सुन्दर)।
बिसराम के हुरका – हुर्र हुर्र , पिपिहरी – पे, पें लमहर तान (लम्बी तान)।
बबुनी ने फिर कथा में विघ्न डाला है – ए जी, इस प्रचार को तो देखो! कैसे बाप जगह जगह मउर ले बेटी से राय पूछ रहा है! दोनों में कितना समझदार प्यार है। ऐसा बाप भगवान सबको दें! समझदार प्यार और फिर से भगवान – बबुनवा भिनभिना रहा है। बाप भी माँगने का आइटम होता है!
आइटम से बबुनवा फिर से कथ्था में घुस गया है - टमटम। माई टमटम पर विदा हुई थी और बाबा बारात ले कलकत्ता गये थे। मुँहदेखाई में माई को घर की चाभी मिली और बहेरवा पट्टी का आखिरी घर त्रियाराज में आ गया जिसमें सब लोग खुशी खुशी सुख से रहते थे।
बबुनवा के सुख को जाने क्या हो गया है जब कि वह बबुनी की छत्रछाया में है।
॥इति प्रथमोध्याय:॥
दूसरे अध्याय का अथ भी परसाद से। जब माई बियह के आई तो घर में सास तो थी नहीं. कोई लौंड़ी दाई भी नहीं थी। भीतर भी परसाद और बाहर भी परसाद। ऊँची जात बालकनाथ! इतनी जायदाद और सुजाति का भृत्य तक नहीं! पट्टीदार कहें – चमार घर में हलाहल कइले रहेला, एकरे देंही में हरदी लागि गइल जजाति से (चमार घर में घुस हरकतें करता रहता है, इसकी देह हल्दी तो जायदाद के कारण लग गई)!
परसाद मैनेजर थे। हर खेत का हिसाब रखते। इतना कि पाँच साल पहले धूसी खेत के किस कोने अरहर की फसल मार गई थी, वह भी उन्हें याद रहता और यह भी कि धुरदहनी (घसियारिन का नाम) को गेल्हा (गन्ने के पौधे का ऊपरी भाग) काटते कौन से घोहे (खेत में फसल बोने के लिये हल से बनाई गई पंक्ति) में पकड़े थे!
वे दूध भी दूहते।
पुरोहित नाक सिकोड़ते। परसाद आदर से झुक कर, दूरी बनाये रखते हुये कि छाया न पड़े, जोर से जो बताते उसका अर्थ होता – बाबा, दूध में छूत छात नहीं होती और बाल्टी कभी अँगना दुवार से भीतर जाती नहीं। नदिया में दूध उड़ेला जाता है और गोंइठी पर चढ़ जाता है। सब शुद्ध। खाइये, मलकिन जैसी दही पूरे जवार में कोई मेहरारू नहीं जमाती। सजाव दही (उपले की धीमी आँच पर लाल होने तक गाढ़ा किये सोंधे दूध की मलाई सहित दही) दीवार पर मार दीजिये तो वहीं के वहीं चिपक जाय!
पुरोहित भुनभुनाते हुये कहते – हँ, अब चमारे बेद पढ़इहें (हाँ, अब चमार ही वेद पढ़ायेंगे)। उनका अँवटे दूध (सोंधे दूध) जैसा गोरा दपदपाता चेहरा लाल हो जाता लेकिन दही देख के ही आत्मा जुड़ा जाती। चनरकलिया तत्सम चन्द्रकला धान का चिउड़ा इसी घर मिलता है। पानी डालते ही महर महर (सुगन्धित) हो उठता है और वह भोजन मंत्र पढ़ने लगते – नमो नरायण परमो पवित्तरम।
मुस्कुराते परसाद वहाँ से हट जाते – ब्राह्मण भोजन, नजर पड़ जाय तो पाप शाप, घोर अशुद्ध!
बबुनवा के बड़े होने पर बाबू घोर अशुद्ध के अशुद्ध प्रयोग पर टीका टिप्पणी कर उसे दोष के गुण बताने लगे।
तो आज जब कि शेयर मार्केट गिर रहा है, डॉलर गिर रहा है, चीन दाँव खेल पटक रहा है, पाकिस्तान फिर से मीठी मीठी जप रहा है, तमाम बेटियाँ बिगड़ रही हैं और तमाम बेटे चरस पी रहे हैं, भूटान खुशी के इंडेक्स के गिरने से परेशान है और अमेरिका को पता ही नहीं चल रहा है कि करे तो क्या करे; बाबू ने अपनी बबुनिया के पास फोन कर मेंड़ उलटने की बात ऐसे जोड़ी है कि सब दुख एक ओर और मेड़ माड़ दूसरे पलड़े, बहुत भारी! बबुनिया का वजन भी जो जुड़ गया है।
बबुनवा क्या करे?
परसाद होते तो गाते –
बाबू खेलें चिरई, सुगना बा टार
सरकि जाये भगई, बाबू उघार।
(बाबू चिड़िया से खेलता है जब कि तोता टाल पर बैठा होता है। बाबू की धोती सरक जाती है, वह नंगा हो जाता है।)
बाबू अपने दिन ब दिन नंगे होते जाने की पीर किससे कहे? बबुनिया क्या खाक समझेगी?
बबुनवा फिर से कथा में समा गया है।
तिजहरिया (साँझ) है। दिन डूब गया है। दिन ऐसा लग रहा है जैसे हरवाह (हलवाहा) मुँह पर धोती डाले घर वापस आ रहा है – आगे आगे बैल, पीछे थकान, धूल तक मन से नहीं उड़ रही – बबुनवा बचपन को बड़प्पन की निगाह से देख रहा है।
माई पियरी पहनी है। दीया (दीपक) हलुमान (हनुमान) जी के अस्थाने (स्थान) रख कर हाथ जोड़े जाने क्या कह रही है। नीब (नीम) के नीचे परसाद गमछा से कभी इधर झोंका मार रहे हैं तो कभी उधर और बबुना सब कापड़ (सारे कपड़े) फेंक नंगे इधर उधर एक डँस (जानवरों का खून चूसने वाला उड़ने वाला एक फतिंगा) के पीछे दौड़ रहा है। बाबू खरिहाने (खलिहान) गये हैं। परसाद ने दौड़ कर बबुनवा को गोद में उठा लिया है – कुल आ कापड़ रखले से रहेला बबुना! कमीज पहिरि ल नाहीं त डँस गाँड़ी में ढुकि जाई! (कुल और कपड़े रखने से रहते हैं बबुना! कमीज पहन लो नहीं तो कीड़ा देह में घुस जायेगा)
ह, ह, ह, ह परसाद – हर कपड़े को कमीज ही कहते, माई की पंजी पियरी सब कमीज।
कहाँ गया कुल, कहाँ गया कपड़ा,
जिन्दगी हो गई बहुत बड़ा घपला।
बबुनवा तुकबन्दी जोड़ने की असफल कोशिश करता है। वह परसाद नहीं जो कि जिन्दगी को यूँ ही सुर में बाँधते साधते आधा मुस्कुराता, आधा हँसता रहे – ह, ह, ह, ह।
डिनर की टेबल पर बबुनवा ने बबुनी से कह दिया है – गाँव की कोई बात नहीं। रोटी का पहला निवाला दाँत तले रखते ही मुँह में धूस की धूल उड़ने लगती है – धूसी खेत पर के गेहूँ की रोटी है यह। बाबू राशन भेजवाते रहते हैं जिसे पहुँचाने के खर्च में यहाँ एम पी गेहूँ खरीदा जा सकता है – स्वादिष्ट रोटियाँ। बबुनी कहती है – नहीं, अपने खेत की रोटी का स्वाद ही और होता है। आज बबुनवा ने मन में यह नहीं कहा है – तितिया राज परसादी काज। आज वह रोना चाहता है लेकिन डिनर टेबल पर रोना मैनर के खिलाफ है। बच्चे क्या सोचेंगे?
उसने अपने पाँव की अंगुलियाँ नीचे बबनी की बिछुआ पर बिछा दी हैं। बबुनी समझ गयी है – आज सोते वक्त चिरई, खूँटा और बढ़ई की कथा की फरमाइश करेगा बबुनवा। अभी तक बच्चा है, कथा सुन कर के ही सोता है।
लेकिन बबुनवा जानता है कि आज की रात नींद नहीं।
॥इति द्वितीयोध्याय:॥
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कथा जारी रहेगी और सबसे प्रिय ब्लॉग की खोज भी।
आप लोग अपना मत व्यक्त करते रहिये।
महाराज खारवेल की धरती से बुलावा आया है। न जा कर आलसी उनकी शान में गुस्ताखी नहीं कर सकता। एक सप्ताह तक अनियमितता या चुप्पी खिंच सकते हैं।
Katha jaari rahe.....
जवाब देंहटाएंjai baba banaras.......
thanks for the translations
जवाब देंहटाएंsajav dahi! ab kahan milta hai!!!Daadi ki yaad aa gayee,wahi aisa dahi jamati thi.
जवाब देंहटाएं:)
जवाब देंहटाएंकिस युग से आते हैं महाराज?
कैसा सजाव दही खाया है, कौन से कुंए का पानी पिया है और कौन चिरई की बोली संग जागे हैं?
आगे के अध्याय शीघ्र आयें!
आज ही लौटा हूँ, मेल भी देखी।
प्रिय ब्लॉग बतलाता हूँ साँझ तक।
लेखक महाराज को समय मिला हो तो अगली कड़ी की ग़ुज़ारिश की जाय, पाठकवृन्द बेचैन हैं ...
जवाब देंहटाएं@बाबू राशन भेजवाते रहते हैं जिसे पहुँचाने के खर्च में यहाँ एम पी गेहूँ खरीदा जा सकता है – स्वादिष्ट रोटियाँ। बबुनी कहती है – नहीं, अपने खेत की रोटी का स्वाद ही और होता है.
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