माइग्रेशन के तार सभ्यता के विकास से जुड़े हुए हैं। बड़ा अजीब है कि आधुनिक सभ्यता को विकास का लांचिंग झटका भी एक अलग ढंग के माइग्रेशन से ही मिला। यह लुटेरे यूरोपियन्स का माइग्रेशन था, जिनका दंश एशिया, अफ्रीका, अमेरिका, आस्ट्रेलिया सभी ने झेला। यूरोप इनका शोषण और विनाश कर के समृद्ध हुआ। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में मानव सभ्यता में आपसी जान पहचान ही नहीं बढ़ी बल्कि एक सार्वभौमिक विश्व सभ्यता की नींव भी पड़ी जिसने विकसित होते होते कमोबेश ऐसा वातावरण तैयार कर दिया कि आज विश्व के किसी कोने का मनुष्य कहीं भी किसी भी समाज से जुड़ने, जीने खाने और फलने फूलने के स्वप्न ही नहीं देख सकता है बल्कि उन्हें साकार भी कर सकता है।
यह ऐसी व्यवस्था है जिसमें हर सभ्य, शिक्षित और समर्थ मनुष्य अपनी सम्भावनाओं के विकास और उनकी तार्किक परिणति के लिए जिस वातावरण को भी उपयुक्त पाए, उसे अपना सकता है और उसके द्वारा अपनाया जा सकता है। जब हम सभ्यता को इस कोण से देखते हैं तो पाते हैं कि मानव मानव में रूढहो चुकी विभिन्न सीमाओं को तोड़ने और एक विश्व मानव के विकास में इसने बहुत ही योगदान दिया है।
बहुत ही प्रगतिशील देन है यह। भारतीय छात्रों के आस्ट्रेलिया प्रयाण को इसी देन के प्रकाश में देखना होगा। मानव स्वतंत्र है अपने स्व के विकास के लिए। समूची धरा उसकी अपनी है।इस मानव का माइग्रेशन पूर्ववर्ती यूरोपियन माइग्रेशन से इसलिए एकदम उलट है इसलिए कि यह सभ्यता-संवाद और सम्मिलन के द्वारा एक इकाई और समूह दोनों का विकास और कल्याण करता है न कि एक के विकास के लिए समूह का विध्वंश। ।
जो लोग इस का विरोध कर रहे हैं, हिंसा फैला रहे हैं वे समूचे मानव वंश की इस बहुत ही मूल्यवान उपलब्धि को समाप्त करने पर तुले हुए हैं। यही कारण है कि चाहे देश के भीतर बिहारियों या उत्तर प्रदेश वालों का उत्पीड़न हो या विदेश में सिख या दक्षिण भारतीयों छात्रों का उत्पीड़न, यह न केवल निन्दनीय है बल्कि बहुत ही कड़ाई से समाप्त करने योग्य है। हमारी सरकारें दोनों सीमाओं पर विफल हुई हैं। दु:ख यही है और चिंता का कारण भी।
जब तक समूचा विश्व राष्ट्रहीन और सीमाहीन नहीं हो जाता (और ऐसा होने में बहुत समय लगेगा) तब तक सभ्य सरकारों का यह दायित्त्व बनता है कि इस तरह की प्रवृत्तियों को पनपने ही न दें, उन्हें फलने फूलने देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इनके समर्थक और तर्क पुरुष इन्हें जायज ठहराने, पर्दा डालने या अतिवादिता से आँख चुराने के लिए बहुत से कारण ढूढ़ लेंगें – जैसे भूमिपुत्रों का असंतोष, रोज़गार के अवसरों की कमी, असुरक्षा की भावना आदि आदि।
यदि कोई माइग्रेण्ट उस धरा के नियम कानून को मान रहा है और सभ्य तरीके से रह रहा है तो उसे खँरोच भी नहीं आनी चाहिए। अब यह सरकारों को देखना है कि रोजगार के पर्याप्त अवसर हों या कोई किसी से अपने को असुरक्षित न समझे।
मानव के अन्दर की प्रतिक्रियावादी और ह्रासशील शक्तियाँ समाहार और उदात्तीकरण के लिए अनवरत संस्कार की धारा की चाहना रखती हैं। शिक्षा और तंत्र के द्वारा सभ्य समाज की सरकारें ऐसा वर्षों से कर रही हैं। परिवर्तन की यह पूरी प्रक्रिया बहुत ही धीमी होती है और परिणाम के बीज बहुत ही नाज़ुक। उन्हें जरा भी विपरीत वातावरण मिले तो वे अंकुरित ही नहीं होते। वर्षों की साधना एक छोटी सी दुर्घटना से मटियामेट हो जाती है। यहाँ तो दुर्घटना नहीं जातीय घृणा पूरी चेतना के साथ विनाश ताण्डव कर रही है। परिणाम सामने हैं।
भारत और आस्ट्रेलिया दोनों सरकारें मानवता के गुनहगार हैं, इनकी जितनी निन्दा हो कम है ।
भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में अपने को विकसित करना चाहिए क्यों कि यह मानव समाज के दूसरे सबसे बड़े समुदाय के आत्मसम्मान की बात है। इसका पतित होना या निर्बल होना सभ्यता के विकास में एक बहुत बड़ा रोड़ा है। भले भारतीय छात्र नागरिकता छोड़ने पर ही आमादा हों, भारत के नागरिकों और भारत सरकार को डँट कर उनके समर्थन में सामने आना चाहिए क्यों कि यह सार्वभौम मानव सभ्यता का मुद्दा है, केवल दो देशों या उनके चन्द नागरिकों का नहीं।
बेहद गम्भीर विषय उठाया है आपने। बेशक यह सार्वभौम मानव सभ्यता का मुद्दा है। लेकिन सच्चाई यह है कि इतने उच्च आदर्श को इस मानव प्रजाति ने कभी अपने व्यवहार में उतारा ही नहीं है। भारतवर्ष में जरूर यदा-कदा वसुधैव कुटुम्बकम् की सूक्ति दुहरा ली जाती है लेकिन केवल वैचारिक जुगाली के लिए। व्यवहार में तो हमने यहाँ भी असंख्य विभाजक रेखाएं खींच रखी हैं।
जवाब देंहटाएंवस्तुतः यह समस्या बढ़ते भौतिकवाद और उपभोक्तावाद से प्रसूत है। हमारी धरती के सीमित संसाधनों के उपभोग करने का अधिकार किसके हाथ में रहे इसी की लड़ाई लड़ी जा रही है। बल्कि सदा से लड़ी जाती रही है। वीर भोग्या वसुन्धरा की पहचान भारतवंशियों ने ही की है न? कुछ नया नहीं हो रहा है। इसका समाधान भारतीय दर्शन के संयम, अस्तेय, अपरिग्रह, अहिंसा और त्याग की अवधारणाओं में मिल सकता है लेकिन दुनिया अभी उल्टी दिशा में भाग रही है। अभी और मार-काट मचेगी।
एक सामयिक मुददे पर गम्भीर चिंतन।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
1. उत्पादन के दो साधन होते हैं, एक पूंजी और एक श्रम। पूंजी की सार्वभौमिकता को तो मान्यता लगभग सबने दे दी है, लेकिन श्रम की सार्वभौमिकता को नहीं। यह इसलिए क्योंकि पूंजी के धनि विकसित देश हैं, और विश्व संरचना पर उन्हीं का वर्चस्व है। श्रम के धनी गरीब विकासशील देश हैं, जिनका विश्व संरचना पर कोई वश नहीं है। इसलिए आज भी सारे विश्व में वीज़ा राज कायम है, जिसके सामने देश के बड़े-बड़ों को अपमानित होना पड़ता है। अभी हाल में तमिल के सुप्रसिद्ध सुपरस्टार और फिल्म प्रोड्यूसर कमल हसन को, जो शत-प्रतिशत हिंदू हैं, अमरीका के एक एयरपोर्ट में अपमानित होना पड़ा था, क्योंकि उनके नाम में हसन शब्द शामिल है, जिसे कंप्यूटर ने पकड़कर रेखांकित कर दिया। अब कंप्यूटर को कौन बताए कि यह हसन अरबी भाषा का नहीं बल्कि संस्कृत के हंस धातु से निकला ठेठ हिंदू शब्द है। खैर, यदि श्रम का सार्वभौमीकरण हो गया होता तो आज आस्ट्रेलिया की आबादी का 90 फीसदी भारतीय और चीनी ही होते और गोरों के उत्पीड़न की नौबत वहां आ गई होती (शायद नहीं भी, क्योंकि हमारी अभिरुचि इस तरह की नहीं है)।
जवाब देंहटाएं2. भारत विश्व के राष्ट्रों में तभी सम्मान पाएगा, जब यहां से निरक्षरता, भुखमरी, बेरोजगारी, आदि का उन्मूलन हो जाएगा। जिन लोगों को अपने ही देश में इज्जत नहीं प्राप्त हो, वे दूसरे देशों में जाकर इज्जत की आशा ही कैसे कर सकते हैं? साठ साल की आजादी के बाद भी यदि इस देश में 60 प्रतिशत महिलाएं और 40 प्रतिशत पुरुष निरक्षर हों, देश की 30 प्रतिशत आबादी रोज 1 डालर की आय पर जीवित रहने को मजबूर हो, इत्यादि, इत्यादि, तो इससे यहीं पता चलता है कि इस देश में लोगों को इज्जत की जिंदगी बसर करना संभव ही नहीं है। इसलिए दूसरे देशों के लोगों का यह समझना कि भारतीय उनके देश में शरणार्थी के रूप में ही आए हैं, और उनके साथ वे वैसा ही तिरस्कारपूर्ण ढंग से पेश भी आते हैं, तो इसमें हमारी भी तो गलती है। हमने कहां अपनी आबादी के परवरिश पर पर्याप्त ध्यान दिया है?
आस्ट्रेलिया में जो हो रहा है, उससे दुख तो होता है, पर आश्चर्य नहीं।
पोस्ट के साथ-साथ टिपण्णीयाँ भी विचार करने को सामग्री दे रही हैं !
जवाब देंहटाएंआपके भाग 2 को पढ़ने पर भाग 1 में उठे कुछ सवालों का सपष्ट उत्तर मिलाता है| किन्तु यहाँ भी एक सवाल और उठता है और वो है सभ्यता के आदान-प्रदान का| जहाँ तक यूरोप का सवाल है यह हम जानते हैं कि विश्व भर से कच्चा माल अपने यहाँ ले जाने कि जों वहां के व्यापारियों नें शुरुआत कि थी उसका दुनिया भर कि सभ्यताओं और संस्कृतियों पर असर पड़ा है| परन्तु भारत आज भी अपनी सभ्यता को बचाए रखने के लिए कुछ भी करता हुआ नज़र नहीं आ रहा| ऐसा लग रहा है कि आने वाले समय में हमारी संस्कृति और सभ्यता कहीं कुछ पुराणी किताबों में ही दफ़न होकर रहा जायेगी|
जवाब देंहटाएंआवाज़ें - बेखौफ़ गूंज़ती हुई
आपके लेखा पढ़कर अत्यंत ख़ुशी हुई| आपने विषय को बड़ी ही गंभीरता से शब्दों में उतरा है| इसके लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंबहुत ही उपयोगी टिप्पणियों के द्वारा आप लोगों ने इस पोस्ट में रह गई बातों को भी जोड़ दिया है। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंपूँजी और श्रम का मुद्दा चिंतनीय है। पूँजी निर्माण के लिए श्रम के अलावा भी बहुत कुछ आवश्यक है, जिसके शायद अनैतिक पहलू भी हैं।
आत्मसम्मान का मुद्दा 'first deserve then desire' से युत है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सही मायने में सम्मान पाने के लिए हमें अपना जीवन स्तर और गुणवत्ता बढ़ाने होंगे । मात्र आबादी बढ़ाने से कुछ नहीं होने वाला। उसकी गुणवत्ता सुनिश्चित करनी होगी।
'वीर भोग्या वसुन्धरा' की अवधारणा तो सही है लेकिन 'वीरता' की परिभाषा अलग अलग सभ्यताओं में अलग अलग है।
अपनी संस्कृति को विश्व संस्कृति 'से अलग' नहीं 'में अलग' रूप से विकसित करना होगा। सभ्यता की तरह ही संस्कृति भी गतिशील और विकासशील है। हर राष्ट्र को विश्व संस्कृति को अपनी 'स्वाभाविक देन' को सुरक्षित भी रखना होगा। यह एक चुनौती है।
इन सब के बीच कहीं न कहीं संतुलन, समन्वय और सर्व स्वीकार्यता का विन्दु तो होगा जहाँ सारी मानव सभ्यता एकजुट हो सके - एक बेहतर सभ्यता के विकास हेतु !