शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

बाउ, क़ुरबानी मियाँ और दशहरा -1

(अ)  
क़ुरबानी मियाँ - सही नाम क़ुरबान अली। उनके प्रचलित नाम के जनक, जाहिर है, बाउ थे। बदले में उन्हों ने पुकार नाम पाया था – बउटा।
क़ुरबानी मियाँ मझोले कद काठी के इंसान थे।  चेहरे पर रहता था बच्चों वाला भोलापन। दाढ़ी मूँछ सफाचट रखते थे क्यों कि बाल और कहीं नहीं बस बकरे के माफिक सिर्फ ठुड्डी पर चन्द तादात में उगे। भाई पट्टीदार पीठ पीछे निमुछिया कहते थे – ऐसा मर्द भरोसे के क़ाबिल नहीं होता। उन लोगों की यह धारणा क़ुरबानी मियाँ की चन्द आदतों से पक्की भी हो गई थी।
पाँच वक़्त के नमाजी थे लेकिन इसके लिए अल्ला को ध्यान दिलाना पड़ता  - मतलब कि जब याद आ जाए या भान हो जाए तो अदा कर दी नहीं तो कोई बात नहीं। रोज़े कभी नहीं रखे – इसका कारण अभी स्पष्ट हो जाएगा।
पुरनियों की परम्परा निबाहते हुए पितरपख के दिन दाढ़ी मोछ मुड़ा देते जो क़ुरबानी के लिए एक फर्ज अदायगी ही होता – बाल थे ही कहाँ? फिर भर नवरातन उस्तरा नहीं फिरता। तहमद नहीं पहनते थे – पण्डितों की तरह धोती बाँधते भरपूर कमरबंध के साथ, मजाल क्या कि कभी ढीली हो जाय ! मतलब कि पूरे क़ाफिराना तेवर।
उपर मारकीन की दोहर बण्डी और सर पर कभी कभी जालीदार टोपी।
रोज़े न रखने का सम्बन्ध पहलवानी से था। अखाड़िया क़ुरबानी शरीर को किसी भी तरह की भूख की यातना देने से बँचते थे।
बला की फुर्ती, क्षिप्रता और दाँवों के ज्ञान ने क़ुरबानी को जीते जी मिथकीय मल्ल बना दिया था। आखाड़े पर लंगोट पहन नंगे शरीर उतरते तो लगता कि नेवचा किशोर उतरा है लेकिन जब अपने से डेढ़े दूने को खिलन्दड़ई से पटकते तो लोग आहें भरते। सबसे मनोरंजक होता उनका व्यवहार – कूद, फाँद, अजीब आवाजें – हुरिए हुर्र टी टि टी ..कूँ और एकदम साधारण से लगने वाले क्षण में सामने वाला अचानक चित्त।  समय के साथ ही यह क्रीड़ा पक्ष निखरता गया और साथ ही उनके लिए एक नाम भी विकसित होता गया - खेलड़िया पहलवान – खेलाड़ी – खेलाड़ी वस्ताद
(आ)           
वह दिन ताजिए के मेले का था। बसकौटी के शेखों का गाँव इस मेले के कारण मशहूर था । जोलहों में इस दिन आपस में तना तनी तो रहती थी लेकिन बात बिगड़ती नहीं थी। मातमपुर्शी में भले सब न शामिल हों लेकिन मेले के गदका में सभी शरीक होते। दस कोस के भीतर ही गदके का इतना बड़ा आयोजन हो और बाउ न जाँय, हो नहीं सकता था।
मार सिर !
बच
गटई हे मार!
बच !
कन्धा हे मार!
बच।
खेलते खेलते जाने कैसे बाउ का गदका बचाते बचाते भी एक शेख के सिर पर लगा और उछ्ल कर दूसरे को भी घाही कर गया।
मुहर्रम का मौसम और शेखों के शरीर से खून ! जाने कितनी आँखों में खून उतर आया। खेल अब खेल नहीं रहा था । खून के प्यासे शेखों ने बाउ को घेर लिया।    
खड़े साँड़ों से बड़े बड़े खूँखार शेख। तमाशाई क़ुरबान अली को अपने अब्बू की कही दास्तान याद हो आई । इस बनमानुख को किसी भी तरह बचाना था । पुरखों की किरिया !    
खिलन्दड़ ने झपट कर अपनी लाठी को जमीन पर टेका और छलांग मार घेरे के भीतर कूद गया।
दो धुरन्धरों का पीठ से पीठ मिला कर तलवार, गदका और लाठी रोकन ।
चक्राकार गति, चार आँखें चौकन्नी।
घेरा तोड़।
काट दे !
खट्ट – तलवार का वार लाठी पर।
तड़ तड़ तड़ ...
कई लाठियाँ रोक दी गईं एक ही लाठी पर ।
...
...
घेरा कसता देख क़ुरबान अली चिल्लाए,
”अरे अभागा, तमाशा जनि देखाउ, भागु । अब त हमरो जान सासति में परि गइल बा !”
बाउ ने एक को टीपा और दुर्जय हाथों का दाँव – शेख जमीन पर पड़ा छटपटाने लगा। दोनों घेरा तोड़ भाग चले । तलवार के एक दो सधे वारों से दोनों खासे घायल हो चुके थे ...लेकिन जानें बच गईं।
जाने अकेले बाउ होते तो क्या होता !
लेकिन उस दिन मेले की भींड़ ने लाठी की जुगल कलाकारी देखी थी और बीसियों तलवारों और खून के प्यासे शेखों के घेरे से सिर्फ दो लाठियों के बल हुआ पलायन देखा  था - एक किम्वदंती ने जन्म ले लिया।
 ...
कुटी चिंतामणि- वैरागियों का प्रसिद्ध आश्रम जिसे लोग  चितामन कुटी कहते थे। बाउ को क़ुरबान अली ने चितामन कुटी आखाड़े पर आने का न्यौता दिया। वृद्ध मल्ल महंत एक और सुजोग चेला पा निहाल हो गए।
...
प्रेतों, ब्रह्मराक्षसों और गोनई नट से जुड़ी गाथाओं ने बाउ के कुश्ती कौशल को साधारण सा बना दिया था – एक अतिमानव तो कुछ भी कर सकता था, आखाड़ा और कुश्ती क्या चीज है? लेकिन खेलाड़ी वस्ताद तो भाई खाँटी पहलवान !
कुटी चितामन के दंगलों में इन दोनों को देखने के लिए ही भारी भीड़ जुटती। क़ुरबानी मियाँ चिल्ला कर आखाड़े में उतरते - आ SSSSली sssss, तो बाउ का उद्घोष था - जा s s S बजरंगी। ये आ और जा मिल कर आखाड़े पर जनरंजन का 'खाजा' उड़ेल देते थे, जनता निहाल हो जाती। महंत वस्ताद को इससे बड़ी गुरु दक्षिणा क्या हो सकती थी कि कुटी चितामन को शिष्यों के नाम से जाना जाने लगा !
कुटी चितामन ?
अरे बाउ और खेलाड़ी वस्ताद वाला भाई !
(इ)   
ठाकुर सबरन सिंघ और अबरन सिंघ। गाँव गड़वा। छ: बाँके बेटे भतीजे – इलाके में आतंक। पुश्तैनी जमींदारी।
घरौठा गाँव से पुरानी दुश्मनी थी – चउवनबिघवा जमीन को लेकर। जिस जमीन को भर और गोंड़ों से हड़पने की ताक में उनके पुरखे थे , बड़े और छोटे ने उसे खरीद कर अपने और अपनी आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए स्थाई दुश्मनी पक्की कर दी थी।
निठल्लई का जमींदारी शौक – सबरना ने बड़े बेटे का नाम तक यह सोच कर रखा था कि नामी पहलवान होने पर कितना अच्छा लगेगा कहना – ‘कमानी पहलवान’। ऐश्वर्य के दर्प के कारण बाप बेटे में ज्ञान ग्रहण करने के पारम्परिक ढंग के प्रति आदर नहीं था इसलिए कमानी का आखाड़ा स्वतंत्र आखाड़ा था। गड़वा गाँव के बड़े खलिहान के केन्द्र में – एक वस्ताद फेंकू मियाँ और एक ही शिष्य कमानी बाबू।    
काली गायों की गौशाला, काबुली वाले की खालिश अफगानी सूखे फलों की निर्बाध आपूर्ति, क़ुरबानी के पट्टीदार द्वारा खँसी के सीरा गोड़ी का नियमित नज़राना और नौकरों की फौज। गुरु शिष्य के मजे ही मजे थे।
लेकिन बाउ ! मुसमात का बेटा !             
बड़े बेटे कमानी सिंघ को नामी पहलवान बनाने के सबरना के शौक को बाउ का गरहन लग गया था। वस्ताद और चेले छ: दिन जम कर दण्ड सरो पेलें, आपस में कुश्ती लड़ें और पसीना बहाएँ लेकिन सतवरिए बाउ बुध की हाट भरे मजमें में कमानी को पटक आएँ। सबरना दाँत पीस कर रह जाय। भेदिए लगाए तो पता चला कि मुसमात झलकारी देई तो बेटे को केवल साग और मकुनी खिलाती है। उपर से सेर भर भैंस का दूध । मुसमात के कोले का साग अफगानी काजू बादाम पर भारी था।




फेंकू वस्ताद के साथ एक और वस्ताद लगा दिया गया – कल्लन । कल्लन पहलवानी में कम और जरायम पेशे में अधिक वस्ताद था।
(ई)   
इमिरती बी ने बाउ की आवाज सुनी तो खाविन्द क़ुरबान अली को दुआरे भेजा और खुद ठंढई घोंटने में लग गई। उनके हाथ की बनी ठंढई बाउ को बहुत पसन्द थी। उनके लिए घर में हमेशा बट्टा रखा रहता। कामकाजी और खेतों की खाक छानने वाली इमिरती पर्दा कहाँ तक करतीं लेकिन बाउ और उनमें बात चीत नहीं थी।
सामान्य दिनों में केवल ठण्ढई मिलती थी लेकिन आखाड़े से वापस आने पर दोनों पहलवानों को पहले थोड़ा गरम दूध मिलता और उसके आध घड़ी बाद ठंढई जिसकी फरमाइश तो कभी नहीं होती लेकिन इंतजार हमेशा रहता। इमिरती बी को इस बात पर पूरा यकीं था कि गरमी जिन्दगी के लिए अच्छी होती है और ठण्ड मौत लाती है। लेकिन इन बड़े बच्चों के आगे कहाँ चलती थी? सो जाने किस तर्क से यह नुस्खा इजाद हुआ और जबरदस्ती लागू कर दिया गया।
बात क़ुरबानी ने छेड़ी थी,
”सुनलीं हे कि ए दसहरा में हमरो गाँवे दंगल होई।“
”हें।“
”हँ sss । सबरन सिंघ बड़ बड़ पहलवान बोलइहें। कुटी के टक्कर देवे के बा।“
“ऊ बहानचो का खा के कुटी के टक्कर देई ? ससुर के पूत त एक्के दाँव में चित्त हो जालें।“
”नाहीं । बहरा से पहलवान अइहें त बढिेएँ होई।“
”त हम्मन के कहाँ जाइल जई?”
”देखल जाई। बकत के फेरा ठीक रही त दुन्नू जगहि जाइल जा सकेला।“
“हम त कुटिए जाइब।“(1)  
बाउ कहते हुए उठ खड़े हुए थे । इमिरती बी ने यह संवाद सुन लिया था। जाने क्यों कलेजे में कहीं डर कुलबुलाने लगा था ! मन ही मन उन्हों ने पीर को गोहराया था।
...
काल को कभी पीर रोक सकता था क्या ? ..... जारी।
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अनुवाद:
(1) “सुना है कि इस दशहरे मेरे गाँव भी दंगल होगा।“
”हैं !”
“हाँ, सबरन सिंघ बड़े बड़े पहलवान बुलाएँगे। कुटी को टक्कर देनी है।“
”वह बहनचो- क्या खा कर कुटी को टक्कर देगा? ससुरे का बेटा तो एक ही दाँव में चित्त हो जाता है।“
”नहीं। बाहर से पहलवान आएँगे तो अच्छा ही होगा।“
”तो हम लोग कहाँ चलेंगे?”
”देखा जाएगा। वक्त का फेर ठीक रहा तो दोनों जगह जाया जा सकता है।“
”मैं तो कुटी ही जाऊँगा।“
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 शब्द सम्पदा:

(1) निमुछिया – जिसकी मूँछे न हों, (2) पितरपख – पितृपक्ष का श्राद्ध दिवस, (3) मोछ – मूँछ, (4) भर नवरातन – पूरे नवरात्रि दिवस, (5) नेवचा – कम उमर का, (6) खिलन्दड़ई – कौतुक और क्रीड़ामय स्वभाव, (7) वस्ताद – उस्ताद का देहाती रूप, (8) जोलहा – इस्लाम मानने वालों का सामूहिक नाम, (9) घाही – घायल, (10) किरिया – शपथ, (11) सुजोग – सुयोग्य, (12) खाजा - चीनी और मैदा से बनी एक मिठाई, (13) चउवनबिघवा – करीब तैंतालिस एकड़ जमीन, (14) खँसी – बकरा, (15) सीरा गोड़ी – बकरे का मस्तिष्क और पैरों के  निचले भाग की मांसपेशी, , माना जाता है कि इनमें बहुत ताकत होती है, (16) मुसमात – विधवा, (17) गरहन – ग्रहण, (18) दण्ड सरो – दण्ड बैठक और सपाट खींचने का पारम्परिक व्यायाम, (19) सतवरिया – सातवें दिन की आवृत्ति, (20) कोला – आंगन घर की सब्जी वाटिका, (21) ठंढई – केसर, सूखे मेवे और थोड़ी भाँग घोंट कर और ठंडे दूध को मिला कर बनाया गया पेय, बर्फ आवश्यक नहीं, (22) बट्टा – पकाया गया मिट्टी का बर्तन, कुल्हड़                           

14 टिप्‍पणियां:

  1. साँस रोक कर सुनता हूँ बाऊ का कारनामा ! पता नहीं कब कौन-सी दुर्निवार घड़ी सामने आ खड़ी हो, और बाऊ ...

    शेष की प्रतीक्षा .. आभार ।

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  2. समझ में नहीं आता ।
    कभी वेणु की तरह बजते हैं
    कभी रेणु सा चित्रण
    अजीब संयोग
    आप ही के साथ संभव है ।
    आगे की कड़ियों का इन्तजार ।

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  3. ई त बहुत आगे ल लिखनिहार क लछन देखात बा।

    अगोर बा़डे, अगला पोस्ट क।

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  4. गजब भईये गजब!! का कहा जाये!! जबरदस्त!!

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  5. ांअपने शब्द अर्थ दे कर बहुत अच्छा किया नहीं तो समझने मे दिक्कत आती । बहुत अच्छी लगी ये रचना बहुत बहुत धन्यवाद अगली कडी का अब इन्तज़ार रहेगा। पूरी पढने पर ही बाऊ के कारनामे पटा चलेंगे। धन्यवाद मुझे प्रोत्साहित करने के लिये भी शुभकामनायें

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  6. .
    .
    .
    बेहतरीन !
    आगे क्या हुआ... बेसब्री से इंतजार रहेगा...

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  7. आप बहुत ही कुशलता पूर्वक अपने क्षेत्र की बोली-बानी
    से सबका परिचय करा रहे हैं
    नि:संदेह् आपका यहाँ क्रत्य नमनीय है........


    अगली प्रविष्टि लिखने में आलस्य ना ही दिखायें तो बेह्तर होगा.........

    पाठ्क की भी तारतम्यता बनी रहनी चाहिये.....

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  8. रोमंचक कथा. लेकिन कथा के रोमांच से अधिक आंचलिक कथा का रस. आज जब हिन्दी हिंग्लिश हो रही है तब ऐसे में आंचलिक हिन्दी के शब्दों और मुहावरों को प्रयोग कर आप उन्हें जीवित रखने का कार्य कर रहे हैं.

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  9. जमाये रहिये. बात बाऊ के साथ दंगल की भी है तो रोचकता कइसे नहीं होगी?

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  10. बेहतरीन।राही याद अा गये अाधा गांव के साथ

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