दिव्य शय्या पर सोए बड़े मगन थे। निठ्ठले मरद का पैर दबाने को अभ्यस्त लक्ष्मी अपना काम कर रही थीं कि अचानक प्रभु ने अपनी आँखें खोलीं,
"देवी ! आज मैं एक नास्तिक को दर्शन दे रहा हूँ।"
"नाथ ! आप की लीला अबूझ है। तपवान लोग मरे जा रहे हैं और आप नास्तिक को कृतार्थ कर रहे हैं।"
"देवी ! शब्द का सही प्रयोग करें। वह कभी अर्थ के लिए कृत नहीं हुआ। मुझे मानता नहीं। इसीलिए उसे चुना । भक्तों को दर्शन दे अपनी गरिमा का ह्रास मैं क्यों होने दूँ?"
"आप प्रयोजन बताएँ प्रभु !"
"भारत भू ,जहाँ हमेशा अवतार लेने का हमने ठीका ले रखा है, की एक भाषा है - हिन्दी। आज कल पूरे ब्रह्मांड में आभासी संसार की धूम मची हुई है। धरती भी अछूती नहीं है। उसी में लेखन की एक विधा के रूप में 'ब्लॉग' का विकास हुआ है। . . ."
". . . प्रभु ! विकास की अवधारणा मानव अवधारणा है। आप के मुख से शोभा नहीं देती।"
"अवतार भी विकास के ही विभिन्न सोपान हैं, ऐसा मैंने नास्तिकों के मुँह से सुना है। आप बात काटे नहीं देवी। .... हाँ तो ब्लॉग में हिन्दी लेखन भी होता है। उस त्वरित आभासी संसार की गति नारद गति से भी तीव्र है। भाँति भाँति के मानव लेख रच रहे हैं - कुछ मूढ़ तो कुछ अबूझ तो कुछ सूझे सूझ। कुछ कठमग़ज। ..."
"यह कठमग़ज क्या होता है प्रभु ?"
" ...मूढ़ता, मन्दबुद्धि और अविनय के संयोग को कहते हैं।...
इन लिक्खाड़ों में कुछ घोर साम्प्रदायिक और मानव जीवन के शत्रु भी हैं। तुम्हें तो पता ही है देवी कि हमारा कल्कि अवतार होने में अभी बहुत समय बाकी है लेकिन इन लोगों में उसे हजारों वर्ष पहले ही हुआ बताने की होड़ सी मची है। घोर अनर्थ हो रहा है। कुछ में यह होड़ मची है कि किस तरह नारी तत्त्व को नर तत्त्व से श्रेष्ठ सिद्ध किया जाय।"
"नाथ ! नारी और नर तत्त्व अलग कहाँ हैं? दोनों के संयोग और सम्मिलन से ही तो मानव बनता है। विभिन्न दिखते हुए भी दोनों गतिज संतुलन वाले आवर्त में घूमते रहते हैं। इनमें विरोध या नीच-ऊँच की कल्पना करना मूढ़ता है।"
" तो मैं किसकी बात कर रहा हूँ? आँ ? ..
देवी ! नारी और नर तत्त्व गूढ़ प्रकरण हैं और इसके आचार्य महादेव हैं। मुझसे इस बारे में अधिक बात न करें। मुझे तो ऐसे ही और कितने ही मुद्दों से चिंता सी हो रही है।"
"क्यों भगवन ?"
"देवी ! भारत भू आज कल हिन्दी के नाम से जाना जाता है। अत: इससे जुड़े किसी भी अनर्थ का बहुत भयावह प्रभाव होगा। मैं अवतार लूँगा।"
" प्रभु ! समय से इतने पूर्व आप का यह कर्म ब्रह्मा के हृदयाघात का कारण बन जाएगा। क्या कल्कि ... ? "
" सशंकित न हों देवी। कुछ मन्दमति तो अपने एक गुरु से इतने प्रभावित हैं कि दूत को ही अवतार बता रहे हैं। मैं इतनी इतनी सी बात पर अवतार लेने लगूँगा तो आप तो क्षीरसागर में सर्वदा एकान्त में ही रहेंगी। तुम्हारी और शक्ति की पूजा के इस काल में मैं पत्रावतार ले रहा हूँ। प्रेम पत्रावतार।"...
"यह क्या कौतुक प्रभु?"
"प्रेम कौतुक नहीं होता देवी ! कृष्णावतार में मैं यह दिखा चुका हूँ। तीन लोक से न्यारी नगरी काशी के विश्वविद्यालय में एक प्रेम प्रसंग चल रहा है। मैं प्रेमी के हृदय में प्रेमपत्र का लेख बन भाव अवतार लूँगा।"
"वही प्रेमी-युगल क्यों प्रभु ?"
"उनका प्रेम दैहिक और मानसिक दोनों पक्षों से परिपक्व हो चुका है। इस युग में ऐसे उदाहरण कम दिखते हैं।"
...
इस संवाद के चलते हुए ही लेंठड़े को सपने में एक रूठी युवती दिखी जिसने कागज के एक टुकड़े को कूड़ेदान में फेंका। आसमान से एक कबाड़ी वाला झाल बजाता आया और उसे उठा ले गया। कबाड़ी वाला झाल क्यों बजा रहा था ?
फिर एक मूँगफली वाले का ठेला दिखा। एक चौड़ा आदमी उससे मोल तोल कर रहा था जब कि ठेले वाला कबाड़ी सी दलीलें दे रहा था।
उसे हिन्दी के कवि निराला वहीं मूँगफली खरीदते दिखे। पैसे की जगह उन्हों ने चंद पंक्तियाँ सुनाईं जिन्हें ठेले वाले ने बटखरा ले हाथ जोड़ कर श्रद्धा पूर्वक सुना:
"..शत घूर्णावर्त तरंग भंग उठते पहाड़
जल राशि राशि पर चढ़ता खाता पछाड़
तोड़ता बन्ध प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष .."
. . अचानक एक अंग्रेजी नस्ल की कुतिया जोर जोर से भोंकने लगी। शेषनाग सहम कर सागर में घुस गए। विष्णु और लक्ष्मी तो कभी के अंतर्ध्यान हो चुके थे। .. .
....
लेंठड़े की नींद खुल गई। सुबह के पाँच बज रहे थे। उसे सपने में कोई तारतम्य नहीं नज़र आया। सपने भी अजीब होते हैं ! वह सोचने लगा कि भोर का सपना क्यों और कैसे सच हो सकता है? ...
बहुत अतार्किक सा समुच्च्य था - विष्णु-लक्ष्मी-क्षीरसागर, अवतार पर वार्तालाप, प्रेम पत्र, युवती, कबाड़ी, मूँगफली का ठेला, चौड़ा आदमी, निराला, 'राम की शक्ति पूजा' कविता, अंग्रेजी नस्ल की कुतिया, शेषनाग .. दिमाग भन्ना गया। वह बेचैन टहलने लगा कि इन्द्रदेव का आगमन हो गया, भाग कर उसने आभासी दुनिया में प्रवेश किया कि यह पोस्ट दिखी . .
पढ़ने के बाद उसने विष्णु को नमन किया और तार से तार जोड़ने लगा।
उस मन्दमति में इतनी सामर्थ्य कहाँ ? सब विष्णु की लीला है। तो प्रस्तुत हैं तार से तार के जोड़ - तार तार। लेंठड़े ने अपने मन के गुहा खोह की अबूझ धारणाएँ भी इसमें जोड़ दी हैं सो आप को थोड़ा अधिक दिमाग लगाना पड़ेगा :
" देह को तुमने पवित्र कुरान बना लिया है ! जबकि मन का एक क्षणिक समर्पण भी देह की अनंत आहुतियों के आगे गौण है ! तुमने खुद स्वीकार किया है कि क्षण भर के लिए तुम विचलित होती हो ,मनुष्य होती हो और फिर अगले ही पल दानवता के आगे घुटने टेक देती हो !
" तुम देह को पवित्र काबा और कुरान बनाए रखो -मुल्लों की कमी नहीं है इस देश में ! उन्ही का हक़ ज्यादा है इन पवित्रतम चीजों पर -और वे इनके लिए मरने मारने के लिए भी उतारू रहते हैं ! मुझे तो त्याग के आनंद का पूर्व अनुभव भी है -बहुत असहज नहीं रह गया है त्याग मेरे लिए ! पर चिंता तुम्हारी है -तुम्हे अकेला छोड़ देने की सोच से ही आत्मा कांप उठती है !"
" पाषाण होना मनुष्यता का पर्याय मान लिया गया -पुरुषार्थ मान लिया गया है ! कहीं खुद राम का दिया कोई स्पष्टीकरण नहीं मिलता और नहीं यह अपेक्षा की गयी कि जाना जाय कि सीता के परित्याग पर उन पर क्या बीती होगी -उनकी मनोदशा क्या थी ? तब टीवी के रिपोर्टर नहीं होते होंगें शायद ..... .!" और इसकी आवश्यकता ही नहीं समझी गयी ! कौन कहता है दुनिया पुरुषों की ,पुरुषों के लिए और पुरुषों द्वारा ही बनायी गयी है ! राम के मन का झंझावत सीता ने भी नहीं समझा हो शायद ! . . . जारी क्यों कि प्रेमपत्र अभी अधूरा है, अवतार पूर्ण नहीं हुआ।
स्तब्ध हूँ तुम्हे बादरायण कहू या नारदायन -बहरहाल इस अद्भुत फंतासी ने एक अधूरे प्रेम पत्र को भी परिप्रेक्ष्य प्रदान कर दिए ! दिव्य दृष्टि पायी है बंधुवर !
जवाब देंहटाएंजिस गति से आप पोस्ट पर पोस्ट पोस्ट किये जा रहे हैं अब ब्लाग का नाम एक आलसी का चिठ्ठा जमता नहीं. जैसे आपने अपना आलस त्यागा, ब्लाग के नाम का आलस भी त्याग दीजिये.
जवाब देंहटाएंयह प्रसंग तो रोचक होता जा रहा है :-)
जवाब देंहटाएंचलिये हमे भी पता चल गया कि प्रेमपत्र कोन सी मुगफ़ली वाले से हासिल हो सकता है, मजे दार.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
अब जरा तनिक बताएंगे कि ईर्ष्या कहां और किसको होनी चाहिए। देखिए कहा से कहां पहुंचा दिया।
जवाब देंहटाएंआपके पास एक विशेष अंदाज़ है, गंभीर बातों को कहिन-कहिन में निपटा देना।
अब जिन तक इशारे पहुंच पाए ठीक, नहीं तो लंठ महाराज लट्ठ तो बजा ही रहे हैं।
कई महत्वपूर्ण इशारे किए हैं आपने समसामयिक ब्लॉग-विमर्श के मंज़र पर।
कल्कि लगता है पत्रावतार नहीं लेंगे, लण्ठावतारी होंगे!
जवाब देंहटाएंनारायण! नारायण!
अदभुत !!!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंबडा अच्छा लगा कि भगवान को भी कठघरे में खडा कर दिया...........
वैसे अब मूंगफली के खोखे आकर्षण बने रहेंगे......
एक और चर्चा का अवतार!!!!!!!!!! प्रभो, शरणं गच्छामि:)
जवाब देंहटाएंadhbhut.....
जवाब देंहटाएंबहुत क्षुद्र अनुभव कर रहा हूँ । टिप्पणी का साहस नहीं है । ये हाजिरी रही !
जवाब देंहटाएंभये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी...
जवाब देंहटाएंघनघोर रहस्यबोध है। प्रेमपत्र-ठेला-अवतार की त्रयी हम कठमग़जों की समझ में जब आयेगी, तभी टिपियायेंगे।
कल्कि अवतार लम्बी दाढी ओर जालीदार टोपी पहने कैसे लगते होंगे भला :)
जवाब देंहटाएंkhte hai spne bhi jo ham sochte hai
जवाब देंहटाएंusi ka link bankar dikhai dene lgte hai .
bhrhal sarthk post.
abhar
Hey bhagvaan raksha karo!
जवाब देंहटाएंChittha likh likh jag mua pandit bhaya na koi,
sote-sote chittha jo likhe Mhalanth so hoi!!
लिंकों को पढता हूँ. तो थोडा और क्लियर होगा कि तार किधर-किधर जुड़ते हैं.
जवाब देंहटाएंअपनी लंठई जारी रखें............किंतु पहले अधूरे पडे ब्लागों को पूरा करें ............ताकि पाठक अपने आपको ठगा हुआ महसूस ना करे....
जवाब देंहटाएंहमारी भी चर्चा हुई वैसे काफी कम चर्चित रहते है।
जवाब देंहटाएंगज़ब! गज़ब! गज़ब!
जवाब देंहटाएंसपने में भी ऐसा गज़ब दिमाग दौड़ता है, कंप्यूटर के की-बोर्ड पर अंगुलियाँ थिरकती हैं और ऐसी बेहतरीन/ लाजवाब स्तब्धकारी पोस्ट तैयार हो जाती है................
और क्या लिखों, शब्द कम पड़ रहे है ...........
हार्दिक बधाई, सादर नमन.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
आपका सपना तो गज़बै ढा गया राव साहेब. निराला के साक्षात दर्शन की तमन्ना तो हमें भी थी, लगता है सपने में मूंगफलियाँ खरीदनी (या बेचनी/बांटनी) ही पड़ेंगी.
जवाब देंहटाएंप्रणाम,
जवाब देंहटाएंहाँ ...तो सबेरे सबेरे (हमरे हियाँ तो रात है ) आप जो हमको धीरा के आये.....तो देखिये दौड़ल-दौड़ल आये हैं हम अइसन बात नहीं है......फूल आज्ञा का पालन किये हैं....बाकि इहाँ आने पर काफी गड़बड़ झाला लगा है.....सबसे पाहिले तो फोटुवा बुझैबे नहीं किया का है.....
आपका आलेख बहुते नीमन और रोचक लगा है, इसमें हम पढ़ लिए कि राम जी को भी तकलीफ हुआ रहा होगा सीता मैया का परित्याग करके.....तो हम पूछते हैं .....उ बोले काहे नहीं......मनाही था का.....जब रावन ले गया था जानकी मैया को तब तो पंख पाखरू को बताते रहे अपना तकलीफ.....फिर सीता जी को दोबारा बनवास देकर एक दम चुप काहे बैठ गए .....इ का बात हुआ भला ......इ तो अच्छा हुआ की सीता मैया में आत्मसम्मान था की उ धरती में समां गयी नहीं तो दोबारा फिर बोलाने का औचित्य का था ....का तब का उ सब ठीक था जो पाहिले ठीक नहीं था......
आपसे हाथ जोड़ कर माफ़ी मांगते हैं....इतना लम्बा लिख दिए....कुछ भूल-चूक हो तो क्षमाप्रार्थी हैं हम.... हम बहुत छोटे हैं लेखन में भी और बुद्धि में भी...
आपकी शैली और विशुद्ध चिन्तन का हम लोहा मान गए!
जवाब देंहटाएंआप की टिप्पणी जँची। फोटो का फंतासी दुनिया से सम्बन्ध है। जब कहने वाली बात अति जटिल हो जाय तो फंतासी प्रतीकों का सहारा लिया जाता है। ... पुरुष और नारी; इस्लाम, जिहाद और हिन्दू लड़कियों को जाल में फँसा कर धर्म परिवर्तन और फिर शोषण अत्याचार; नारी और पुरुष के जटिल सम्बन्धों में धर्म का हस्तक्षेप; पुरुष प्रधान समाज में पुरुष आधिपत्य के विरुद्ध / प्रतिकार में नारी के व्यक्तित्त्व का विकास; पुरुष का श्रेष्ठता भाव तो नारी की निष्ठुरता/प्रेम; दोनों की सनातन मिलन आकांक्षा आदि... जाने कितनी ही बातें इस प्रतीक के माध्यम से अपनी उपस्थिति जता पाई हैं। ...
जवाब देंहटाएं...रही बात सीता और राम की तो सम्भवत: भारत भू ही अकेली ऐसी है जहाँ पूज्य 'सीताराम' और 'राधेकृष्ण' का जितना सम्मान है, उतना उनका अलग अलग नहीं। अर्ध नारीश्वर की परिकल्पना स्त्री पुरुष के जटिल सम्बन्धों को व्याख्या देने के लिए ही की गई थी। सम्बन्धित पोस्ट पर की गई अपनी टिप्पणी उद्धृत कर रहा हूँ, शायद बात स्पष्ट हो जाए:
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गिरिजेश राव said...
मिथकों और तथ्यों को मिला कर भावुकता का ढाँचा न खड़ा कीजिए।
स्वयं वाल्मीकि रामायण पढ़िए। स्पष्ट हो जाएगा कि बालकाण्ड(राम को ऐश्वर्य इसी में मिलता है)और उत्तरकाण्ड दोनों बाद और बहुत बाद में जोड़े गए हैं।
उत्तरकाण्ड एक तरह से रावण काण्ड ही है जिसमें चर्चा के बहाने उसकी स्थापना सी की गई है। क्या आग से गुजर कर कोई व्यक्ति जीवित बच सकता है? आप इसे कवि का अतिरेकी वर्णन क्यों नहीं समझते?
सीता त्याग भी उत्तरकाण्ड में आता है। उसी उत्तरकाण्ड में जिसमें यह भी कहा गया है कि राम ने 11000 साल तक राज्य किया। आप इसे मानेंगे?
महाकाव्यों से डपोरशंखई निकाल कर हमें अपनी जड़ों को समझना होगा। न तो वाल्मीकि ने सीता त्याग लिखा और न नए जमाने में तुलसीदास ने।
रावण के उपासकों ने यह बकवास लिख डाली। अधिक नहीं कहूँगा, स्वयं पढ़िए- सब समझ में आ जाएगा।
रही बात लोकमान्यता की तो वह सीता के प्रति सहानुभूति ही झलकाती है। धोबी प्रकरण कौतुक का सृजन करता है सो पॉपुलर हो गया। कुछ ऐसे ही जैसे आज के जमाने में 'शोले' या किसी भी लोकप्रिय फिल्म के प्रसंग पॉपुलर हो गए हैं जब कि उनका सचाई से कुछ लेना देना नहीं।
September 30, 2009 7:00 AM
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अगर उत्तरकाण्ड को ही सही मानें तो राम की सारे अयोध्यावासियों के साथ सरयू में सामूहिक आत्महत्या (नई शब्दावली यही कहेगी, जल समाधि नहीं) को क्या कहेंगी? ऐसा क्या हुआ कि इतना वीभत्स कदम उठाना पड़ा (मिथकों को किनारे कर दें)? सीता त्याग को लेकर इतनी चर्चा, इस अतुल्य आत्महत्या की क्यों नहीं? बात वही है - हम भारतीयों का कौतुक प्रेम ?
छोड़िए एक और पोस्ट बन जाएगी। मैं कत्तई मूड में नहीं हूँ
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.... आप सभी का आना और टिपियाना अच्छा लगा। धन्यवाद।
इस टीप का लेख से कोई लेना देना नहीं है
जवाब देंहटाएंलेख तो पढ़ना शुरू ही किया था तो .. रस्तोगी जी आ गए... फोटू देखकर चेहक उठे.... दिखो भाई और दिखाओ..... और उसके बाद लक्ष्मी नारायण को पढ़ा तो ..... मुंह बिदका कर उपदेश देते रहे जो मुझ जैसे "कठमग़जों" के पल्ले नहीं पड़े....