गुरुवार, 13 अगस्त 2009

हवा, बड़ा और लेंठड़ा -1: लण्ठ महाचर्चा

केंकड़ा कथा पर मेरे ब्लॉग के बचपने के हिसाब से अच्छी संख्या में उत्तर मिले। अन्ना सतर्क दिखे तो अभिषेक जी ने उसे कहानी सा स्पर्श देते हुए पूरा किया। झा जी बोधकथा पूर्ति किए। सिद्धार्थ जी ने मुझे अपना खोदा खुद पाटने की सलाह जैसी दे डाली। एक लाइना चन्द शब्दी टिप्पणियों में आगम के प्रति आशंका दिखी।
लेकिन बहु सम्भावनामयी पूर्ति फुर्तीले भारतीय (स्मार्ट इंडियन) ने की। कथा क्रम की कई सम्भावनाओं को उन्हों ने जैसे चन्द लाइनों में समेट सा दिया। यह सब देखना हो तो इस कथामाला की पहली पोस्ट पर प्राप्त टिप्पणियों को देखें। मैं इन सबका आभारी हूँ।
अस्तु कथा प्रारम्भ करते हैं।
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पिछले भाग से जारी.....

" हवा हवा...बड़ा बड़ा ..." मुहाने पर ठड़ा लंठ केंकड़ा चिल्ला रहा था।
एक बात आप को बता दूँ । परम्परा से बर्तन खाली भी किया जाता था और नए केंकड़े भर दिए जाते थे। लेकिन कमाल की बात थी कि नए केंकड़ों को सारी पुरानी बातें पता रहती थीं और हर जाते केंकड़े की भूमिका एक नया केंकड़ा ले लेता था। उस उन्नत सभ्यता में निरंतरता इस तरह बनी रहती थी। कहना न होगा कि लंठई की परम्परा भी पुरानी थी और हमारा यह 'लंठ केंकड़ा' भी बाकियों की तरह ही शाश्वत था। उसे प्यार से 'लेंठड़ा' कहा जाता था।
न जाने कितनी सदियों से बर्तन की घुटन में रहते लेंठड़ा को पहली बार स्वच्छ हवा मिली थी। उस गिजगिजे बदबूदार जगह और सगोती केंकड़ों की लघुता की तुलना में लेंठड़े को यह बाहर की दुनिया विराट दिखी। लिहाजा वह चिल्लाया ,"हवा हवा...बड़ा बड़ा..."
केंकड़ा बस्ती में कुहराम मच गया। रात में सोने वाले केंकड़ों के मुखिया 'खान' ने अनिद्रा की बिमारी से ग्रस्त केंकड़ों के मुखिया 'जमीर' से पूछा ," ये क्या चिल्ला रहा है? ऐसा कुछ होता है क्या? " प्रत्युत्तर में जमीर ने मीटिंग बुलाने की सलाह दे डाली। आनन फानन में केंकड़ों की आपात बैठक प्रारम्भ हुई। लेंठड़ा मुहाने पर चिल्लाता रहा।
कार्यवाही की शुरुआत में ही खान ने प्रस्ताव रखा कि लेंठड़ा से चिल्लाना बन्द करने का अनुरोध किया जाय नहीं तो शान्तिपूर्ण तरीके से सोचना समझना नहीं हो सकेगा। जब जमीर ने लेंठड़ा से यह कहा तो वह और जोर से चिल्लाया, " भाँड़ में गई तुम्हारी बस्ती और उसकी शांति! अरे आकर देखो तो सही बाहर क्या है? "
जमीर को लगा कि एक बार देख लेने में क्या हर्ज है। उसने चढ़ना शुरू किया। लेकिन मामला दिन का था। तुरंत उसकी टांग खिंचाई शुरू हो गई और वह नीचे गिर गया। खान ने जमीर को ऐसा दुस्साहस न करने की सलाह दे डाली। शोर शराबे के बीच मीटिंग फिर चालू हुई।
खान ," जैसा की आप सभी जांनते हैं कि यह बैठक इस दु:ख को प्रकट करने के लिए बुलाई गई है कि अब इस बस्ती में तीन नहीं दो ही दल रह गए हैं। लेंठड़ा बाहर चला गया है।" उसने एक पंजे से रुमाल निकाला और अपनी आँसू वाली आँख को साफ किया। सारे सोने वाले केंकड़ों ने भी इसे दुहराया। अनिद्रा के शिकार केंकड़ों को रोना नहीं आता था। जिस दिन कोई रोता था दूसरे दल का हो जाता था।
" भले एक ही था लेकिन था तो। एकदली भी दल होता है। समस्या यह है कि वह उपर से चिल्ला रहा है।हवा और बड़ा । ऐसी चीजें होती हैं क्या?"
जमीर ने उत्तर दिया," तुम लोगों ने मुझे देखने ही नहीं दिया। "
खान," इस बर्तन की दीवारों पर चढ़ना हमारी महापातक की सूची में पहले नम्बर पर आता है। तुम्हें हम ऐसा कैसे करने देते? जानते ही हो कि ऐसा करने या करने देने पर हमारा अस्तित्त्व ही समाप्त हो जाएगा।"
जमीर," अस्तित्त्व समाप्त हो जाएगा? लाखों सालों से हम जीवित हैं। ऐसा एक बार करने से क्या फर्क पड़ेगा।"
खान," कालकूट या सायनायड जैसे विष को एक बार भी लेना मारक होता है। "
जमीर,"कमाल है, आज तक इतने लम्बे अंतराल में इस डर से किसी ने ऐसा दुस्साहस नहीं किया। लेंठड़ा पर तरस आता है। सवाल यह है कि अब वह केंकड़ा रहा भी कि नहीं?"
सभा ने पहला प्रस्ताव पास किया - लेंठड़ा अब केंकड़ा नहीं रहा। अब वह केंकड़ा तभी कहलाएगा जब बर्तन में वापस आएगा और एक लाख साल तक बर्तन की दीवारों पर चढ़ने की भूल नहीं करने का शपथपत्र अपने दाहिने पंजे में बाँधेगा और उसका पालन करेगा।
साधु ! साधु !! बाकी केंकड़े चिल्लाए।
अगला प्रस्ताव एक मोटे से केंकड़े ने रखा - “ लेंठड़ा अब और कुछ नहीं कहेगा।"
इस केंकड़े को हर बात रहस्य सी बुझाने की आदत थी। लिहाजा सभी उसे देखने लगे।
"मतलब कि हम कुछ सुन नहीं रहे हैं। कहने और सुनने में दो प्रक्रियाएँ समाई हुई हैं। अगर एक को भी समाप्त कर दिया जाय तो बात खल्लास। उसे चिल्लाने दो हम अनसुना कर देंगे। यह ऐसा होगा जैसे लेंठड़ा ने कुछ कहा ही नहीं।"
सोने वाले केंकड़ों में उसे वाहवाही देने की होड़ लग गई।
लेकिन अनिद्रा पीड़ित केंकड़ों को यह रास नहीं आया। जमीर ने कहा ,"यह तो हमें विकलांग करने जैसा होगा।" खान ने फिर भी इस बात का समर्थन किया। बात बढ़ गई। अनिद्रा पीड़ित और सोने वाले केंकड़े एक दूसरे की टाँग खिंचाई में लग गए। लेंठड़ा चिल्लाता रहा।
आखिरकार उन्हें वैसा ही छोड़ उसने मुहाने से बाहर छलांग लगाई। तय किया कि हवा और बड़ा के बारे में और जानकारी इकठ्ठी करेगा और बीच बीच में मुहाने पर आकर चिल्लाता रहेगा।
कभी तो कोई सुनेगा !...जारी

8 टिप्‍पणियां:

  1. लेंठड़ा ने बहुत बड़ी कदम उठाई। अब देखते हैं वह उसे कहां पहुंचाता है और क्या कराता है।

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  2. लो हमतो सोचते थे कि सिर्फ आदमी ही लंठ होते हैं । यहां तो केकड़े भी लंठ निकल गये । केकड़ा पुराण शुरू करने के लिये बधाई स्वीकार करें । टांग खिचावन वार्ता का अपना ही रस है ।

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  3. यह केंकड़ों की कुड़-कुड़ क्या क्या कहानी कहेगी, कह नहीं सकते...। अब आप ही कहते जाइए। हम हाथ में अच्छत‌ (अक्षत्‌) लेकर सुन रहे हैं। जब आखरी शंख बजेगा तो परसादी खाने फिर आएंगे। जय हो!

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  4. ये तो लिविंग्स्टन सीगल की तरह केकडा निकला.
    क्रांति लाएगा क्या केकड़ों में?

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  5. केकड़ों की आपसी बिरादरी में भी दीगर किस्म के केकडे होते हैं -केकडा कथा को समझने की कोशिश कर रहा हूँ !

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  6. केकड़े की लंठई ....बहुत कुछ कह और समझा रही है...सच कहूँ तो आपकी कल्पनाशक्ति ..आपकी शैली ..और सब कुछ इतना मौलिक है ..कभी देखा , पढ़ा और सुना नहीं...की लगता है की आप बिलकुल अलग हो..केकडा अभी समाज को बहुत कुछ समझायेगा ..और हम समझ रहे हैं...

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  7. ’अज्ञेय ’ की इस कविता-पंक्ति से काम चलेगा ? -

    "क्योंकि वह जो है न, वह धुनी है और समर्थ है
    और वह बन्दी नहीं रहेगा । किवाड़
    चाहे खोलेगा, खुलवायेगा तोड़ेगा
    पर तभी चैन लेगा
    जब पार
    खुला दृश्य दिख जायेगा
    ..................
    और वह बोलेगा
    बुक्का फाड़कर बुलवायेगा.."।

    हतप्रभ करते रहते हैं हर-क्षण ।

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