दुपहर फैल गई है - शुभ्र चादर। मौन। दुपहर लोगों और अन्य जीवों, सब की गतिविधियों के होते हुए भी कितनी शांत लगती है! क्रियाकलाप की शांति, एक निश्चित कार्यक्रम में सब डूबते जाते हैं। ध्यान सी अवस्था कि सम्मोहन सी? - बन्दरों की चिक चिक, दूर कहीं से आती गीत की धीमी ध्वनि - लगातार फुसफुसाहट, पीपल की पत्तियों की झिलमिल, खेत में पानी उलीचते पम्पिंग सेट की फट फट, गन्ने के खेत से जानवरों का चारा चुराते हँसियों की खर खर ... सबके होते हुए भी कितनी शांति ! जैसे लगता है किसी कड़क अध्यापक की कक्षा लगी है और सब पढ़ाकू चुपचाप अपने काम में लगे हैं...
यह मौन दुपहर टुकड़ा टुकड़ा है अस्तित्त्व की ज्यामिति में भी और कालखण्ड में भी। पीपल के पेंड़ केउपर ऊपर की दुपहर अहाते में सोई चौकी पर छायी दुपहर से अलग है।
घर में एक युवक और एक वृद्ध अकेले हैं । घर की दुपहर अलग सी है। छत की मोटाई को भेदती दुपहर अपनी उमस दोनों को पिला रही है। दोनों बात करना चाहते हैं लेकिन उन्हें पता है कि बातों में कोई नयापन नहीं होगा - घूम फिर कर वही पुरानी बातें - इसलिए मौन है। उमस है, बदली भी है लेकिन संवाद की वर्षा की कोई आशा नहीं है। जैसे जैसे मनुष्य बूढ़ा होता है, मौन के अनुभवी खोल में सिमटता चला जाता है। जवान आधा बूढ़ा हो चला है - कहीं मन में झोंक सा आता है, पिता की आधी उमर हो गई है उसकी और पिता? वे तो बस तीन चार वर्ष और ! चुप्पी कहीं उसके भीतर फाँस की तरह सरकती चली जाती है - चिकनी फाँस भीतर भीतर भीतर... कैसा घाव है यह ! इतनी उमस, इतनी ऊब, इतनी चाह, इतना मोह ! सब एक साथ इतना सारा!
दुपहर !!
ढेर सारी चुप्पी । पिताजी ! आप कुछ कहते क्यों नहीं? बेचैन सा दुपहर की ऊर्जा से चलते सोलर पंखे की हवा की लिपटन को झिटक बाहर आता है - वृद्ध आँगन में लेटे लेटे सो गए हैं। गौर शरीर में झुर्रियाँ कहीं नहीं बस चेहरा सिकुड़ गया है - दाँत जो नहीं रहे! युवक के गले में कुछ फँस जाता है... डबडबी दो आँख भर उमस नहीं निकलती। कमरे में वापस आता है। कमाल है ! दुपहर उमस भी दे रही है और उससे निपटने को हवा भी ! जी चाहता है कि पंखे को इतना तेज़ कर दे कि आँधी सी उठ चले। सम्भवत: वृद्ध जाग जाँय और उसी बहाने कुछ बात हो जाय लेकिन इस पंखे में तो कोई रेगुलेटर नहीं! दुपहर जैसा ही एक गति से सन सन न न न ... एकरस... पंखा बन्द कर देता है। पसीना पसीना। बाहर निकलता है।
यह मौन दुपहर टुकड़ा टुकड़ा है अस्तित्त्व की ज्यामिति में भी और कालखण्ड में भी। पीपल के पेंड़ के
घर में एक युवक और एक वृद्ध अकेले हैं । घर की दुपहर अलग सी है। छत की मोटाई को भेदती दुपहर अपनी उमस दोनों को पिला रही है। दोनों बात करना चाहते हैं लेकिन उन्हें पता है कि बातों में कोई नयापन नहीं होगा - घूम फिर कर वही पुरानी बातें - इसलिए मौन है। उमस है, बदली भी है लेकिन संवाद की वर्षा की कोई आशा नहीं है। जैसे जैसे मनुष्य बूढ़ा होता है, मौन के अनुभवी खोल में सिमटता चला जाता है। जवान आधा बूढ़ा हो चला है - कहीं मन में झोंक सा आता है, पिता की आधी उमर हो गई है उसकी और पिता? वे तो बस तीन चार वर्ष और ! चुप्पी कहीं उसके भीतर फाँस की तरह सरकती चली जाती है - चिकनी फाँस भीतर भीतर भीतर... कैसा घाव है यह ! इतनी उमस, इतनी ऊब, इतनी चाह, इतना मोह ! सब एक साथ इतना सारा!
दुपहर !!
ढेर सारी चुप्पी । पिताजी ! आप कुछ कहते क्यों नहीं? बेचैन सा दुपहर की ऊर्जा से चलते सोलर पंखे की हवा की लिपटन को झिटक बाहर आता है - वृद्ध आँगन में लेटे लेटे सो गए हैं। गौर शरीर में झुर्रियाँ कहीं नहीं बस चेहरा सिकुड़ गया है - दाँत जो नहीं रहे! युवक के गले में कुछ फँस जाता है... डबडबी दो आँख भर उमस नहीं निकलती। कमरे में वापस आता है। कमाल है ! दुपहर उमस भी दे रही है और उससे निपटने को हवा भी ! जी चाहता है कि पंखे को इतना तेज़ कर दे कि आँधी सी उठ चले। सम्भवत: वृद्ध जाग जाँय और उसी बहाने कुछ बात हो जाय लेकिन इस पंखे में तो कोई रेगुलेटर नहीं! दुपहर जैसा ही एक गति से सन सन न न न ... एकरस... पंखा बन्द कर देता है। पसीना पसीना। बाहर निकलता है।
चौकी चुपचाप दुपहर की धूप का नहान कर रही है। रोज करती है। कभी कुछ सुखाया गया था इस पर - दाग पड़ गए हैं। चौकियाँ जाने कितनी करवटों के स्वप्न भरे दाग समेटे रहती हैं - ऐसा क्या नया है इन दागों में ? ... युवक जब नहीं रहता है तो वृद्ध पिता इस पर सोते हैं। उनके सपने अब सिमट चले हैं। गिनता है दाग धब्बों को एक, दो, तीन ... नहीं ! उल्टी गिनती चल रही है - दुपहर शाम की तरफ टिक, टिक, टिक ... शून्य से समाप्ति होगी। यह चौकी भी चुक जाएगी क्या कभी मौन को समेटे? ...एकाएक पसीने का लावा सा फूटता है। युवक टी शर्ट निकाल फेंकता है। उपरी शरीर निर्वस्त्र।
अहाते के गेट से बाहर नीम दिखती है - हरी भरी कोई 45 बसंत पुरानी। पिता ने लगाई थी। कहते हैं 5 कोस दूर से सिर पर रख कर लाए थे। ग्रीष्म ऋतु ही थी। अहाते के भीतर लगा कोई 8 साल पुराना शमी फूलाया हुआ है। तीन दशकों से भी अधिक के कालखण्ड अन्तर से दुपहर कटी हुई है - एक टुकड़ा नीम को घेरे तो दूसरा शमी को । युवक आह भरता है - क्या दिन रहे होंगे ! पिता सम्भवत: उस समय 30 के आसपास के रहे होंगे। कितना अपनापन ! 5 कोस पैदल !! संजीवनी भर दिया था उन्हों ने इस नीम में। कितने अन्धड़ों को झेल चुका आज यह गाँव का अकेला बचा नीम का पेंड़ है। शमी ही नहीं, फूले हैं - घेंवड़ा, करैली, बोड़ा, लौकी, अड़्हुल की लताएँ पौधे... सब माँ के रोपे । उसने जीवन को बाँट दिया है टुकड़ा टुकड़ा ठीक दुपहर जैसा। पिता इतना क्यों समेटे हुए हैं ? इतने चुप क्यों हैं ? युवक बावला सा शमी के नीचे आ जाता है। इस काँटेदार पौधे के फूल सुन्दर हैं। तभी तो पूजा जाता है। माँ दिया जलाती है रोज, गाँव से वापसी पर इसके पत्ते तोड़ जेब में रख देती है माँ! भर भर जेब जीवन लिए युवक शहर आता है तो वाशिंग मशीन में धुलने को डालने से पहले पत्नी शमी के पत्ते हाथ में ले कुछ सोचती है, मुस्कुराती है और कहीं धीरे से रख देती है जैसे आशीर्वाद सहेज रही हो। कितना कुछ दोनों बतिया लेती हैं इन चुप सूखे पत्तों की जुबानी... इन पर दुपहर का कोई असर नहीं होता लेकिन पिता ?
.."क्या कर रहे हो धूप में?"
वृद्ध जाग गए हैं। युवक धीमे धीमे चलता उनके पास आता है।
"बेटा, अब नियंत्रण नहीं रहा। सब कुछ छूट रहा है। सारे खेत बटाई पर हैं लेकिन मेड़ ..."
"..."
युवक के पास कहने को कुछ नहीं। मौन फाँस कुछ और गहरे धँस गई है।
"बहुत कोशिश करता हूँ मुक्त होने के लिए लेकिन आसक्ति बढ़ती ही जा रही है। राम कब कृपा करेंगे?"
"..."
"बेटा मैं एकदम अकेला हो गया हूँ। किससे बात करूँ? कोई इस लायक नहीं। तुम्हारी माँ जिलाए जा रही है। नहीं तो ..."
"..."
"तुम्हारी पत्नी ने बुलाया था। कह देना अभी नहीं सावन में आएँगे। अधिक दिनों के लिए नहीं। अभी तो देखो यह करैली, भिण्डी...तुम्हारी माँ ने बहुत मेहनत की है। छोड़ कर आएँगे तो सब बन्दर चबा जाएँगे।"
"..."।
युवक सोचता है मुझसे अच्छी ये सब्जियाँ हैं और ये बन्दर भी।
" पंखा बन्द क्यों कर दिए हो? चला लो। ... अरे बेटा, बड़ी राहत है। हम दोनों इसे दुपहर में लगा कर सो जाते हैं। बदली हो तो परेशानी रहती है नहीं तो जितनी तेज़ धूप उतनी देर तक हवा ! "
"..."
पंखे को चलाता युवक छ्लक आए आँसुओं को पसीने के बहाने पोंछ देता है। पिता झूठ बोल रहे हैं। वे कभी आना नहीं चाहते। आँगन में सावन बरसे तब भी। ...यह अकेली टुकड़ा भर दुपहर उन्हें बहुत प्रिय है। संतान से भी अधिक। उमस कहीं पैठ लगा गई है, लग गई है छुड़ाए नहीं छूटती...
माँ ! तुम कब वापस आओगी ?
युवक गेट खोलता है लेकिन दुपहर अभी भी टुकड़ों में बँटी हुई है। पिता के लिए, माँ के लिए, उसके लिए, धूप में छत पर पति से मोबाइल पर बात करती एक युवती के लिए, नीम के लिए, शमी के लिए, करैली के लिए, अडहुल के लिए ... दुपहर टुकड़ा टुकड़ा है। इसके मायने सब के लिए अलग हैं।
"..."
क्या किया जाय इन परिस्थितियों का.....
जवाब देंहटाएंपिता- माता अपने इस टुकडे वाले सूकून को नहीं छोडना चाहते....। गाँव घर का सूकून बेटे से प्रिय हो उठता है....और बेटा भी यह बात अच्छी तरह समझ रहा है।
परिस्थितियां तो मेरी भी यही हैं। बस नाम, गाँव का फर्क है ।
भावुक करती पोस्ट है। ज्यादा कहने की अपेक्षा महसूस करना श्रेयस्कर लग रहा है मुझे।
मुझे अफ़सोस होगा अगर कल यह पोस्ट दाहिनी ओर सबसे ऊपर न दिखी।
जवाब देंहटाएंटुकड़ा टुकड़ा दोपहर में सारी ज़िंदगी समेट दी है....बहुत अच्छी लगी ये कहानी....
जवाब देंहटाएंमैं निशब्द हूँ...बस दो पल को स्तब्ध रह गई हूँ ..आजकल हर जगह यही परिस्थितियां हैं.क्या करें.
जवाब देंहटाएंअभी फिर आता हूँ....
जवाब देंहटाएंपम्पिंग सेट के साथ पानी के ''उलीचने'' का तुक
जवाब देंहटाएंसधता हुआ नहीं दिख रहा है ! यह क्रिया यहाँ सटीक नहीं बैठ रही है , साहब !
'उपर' की जगह ऊपर होगा शायद !
नीम के पेड़ में व्यक्ति है , धूप को अपनी संजीवनी शक्ति से झेलता ! झेलता ?
न ! उत्सव मनाता ! मौन - उत्सव ! उत्सव मनाता व्यक्ति भी उस उत्सव से
अज्ञ या इतना विज्ञ कि २४ कैडेट के सोने वाले अज्ञ का ठोस भ्रम ! खुद को
इतना प्रौढ़ होकर साध लेने की कला कहाँ से लाते हैं ये धूपधर्मी !
भूमिका में ही पांच कोस पैदल की जीवटता ! निमकौरी से लदने के बाद
यह नीम कैसी लगती है आर्य ?
शहर और गाँव का द्वंद्व भी दिखा , क्या चीजों को महज नास्टाल्जिया ही कहा
जाएगा ? मुझे यह सिर्फ साधारणीकरण ही लगेगा ! वह हर दिन का सावन क्या
किसी ख़ास सावन की राह देखेगा ?
पोस्ट पढ़ते हुए जीने जैसा अनुभव हुआ है !
पीड़ा समझ में आती है और भावुक कर जाती है..
जवाब देंहटाएंपिता यहाँ आना नहीं चाहते उसी जानी पहचानी गंध और आवाजों को छोड़ कर...हम जा नहीं पाते..
वाकई!!
दुपहर टुकड़ा टुकड़ा है। इसके मायने सब के लिए अलग हैं।
"बहुत कोशिश करता हूँ मुक्त होने के लिए लेकिन आसक्ति बढ़ती ही जा रही है। राम कब कृपा करेंगे?"
जवाब देंहटाएंलिखा तो लाजवाब है, उसके बारे में क्या कहूं. मगर सोलर पंखे की थोड़ी जानकारी दो. क्या प्रचलन में (popular) हैं? गाँवों में? कीमत वाजिब है?
टुकड़ा- टुकड़ा दुपहर का यह गर्मी भरा सुकून (!!)... नहीं छूटता है इसका मोह ...
जवाब देंहटाएंऐसी शिकायतें कई सुन चुके ...
वहीँ दूसरी ओर शहर में बुजुर्ग खुद को पूछे न जाने की पीड़ा ढोते हैं ...
@ कुमार राधारमण जी,
जवाब देंहटाएंपसन्द करने के लिए धन्यवाद। ब्लॉगवाणी में ऊपर पहुँचने के लिए कई अन्य योग्यताओं की भी आवश्यकता पड़ती है जो मुझमें नही हैं। मैं परवाह भी नहीं करता। आप जैसे सुधी जन की सलाह, प्रोत्साहन और लगाव मिलते रहें, यही बहुत है।
@ अमरेन्द्र जी,
'उपर' और 'ऊपर' का पाठभेद स्थानीय उच्चारण से प्रभावित है। पूरब में दीर्घ तो पश्चिम में लघु। थोड़ा और श्रम कर बताइए कि सही क्या है? 'हिन्दी' अभी भी आप की राह देख रही है। पम्प के साथ उलीचने के प्रयोग इन स्थानों पर देखें:
http://www.lekhni.net/1306934.html
http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttarpradesh/4_1_6389773.html/print/
http://www.patrika.com/print/emailarticle.aspx?id=3606
http://hindi.indiawaterportal.org/content/%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%AC-%E0%A4%B8%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B6%E0%A4%B0-%E0%A4%B6%E0%A4%AF%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%AA%E0%A4%B0
इतने सतर्क पाठन के लिए धन्यवाद। आप जैसे पाठकों के कारण ही कई बार उचाट के बाद भी लिखा जाता है।
@ अनुराग भैया,
यह 12 वोल्ट का डी सी पंखा है जो बैटरी से चलता है। तेज़ ठंडी क्षैतिज हवा। कीमत 500 से 700। बैटरी सोलर पैनल से चार्ज होती है। सोलर सिस्टम मय बैटरी 7-8 वर्ष पहले ब्लॉक से सब्सिडी पर रु.7500/- में लिया था। पहले केवल प्रकाश व्यवस्था थी, पंखा बाद में जोड़ा। आज तक कोई समस्या नहीं आई - बैटरी में भी नहीं। बस डिस्टिल्ड पानी समय समय पर डालना पड़ता है। यह सिस्टम'नेडा' के लिए भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड द्वारा निर्मित किया गया था। सरकारी चीजें हमेशा खराब ही नही होतीं। आज प्राइवेट दुकान से लिया जाय तो करीब 27000 का पड़ेगा।
दु:ख यही है कि यह सिस्टम पॉपुलर नहीं हो पाया। मार्केटिंग की कमी और सरकारी काहिली इसके कारण लगते हैं।
... दुपहर टुकड़ा टुकड़ा है। इसके मायने सब के लिए अलग हैं।
जवाब देंहटाएं...सशक्त लेखन. उम्दा पोस्ट.
शिकायत दर्ज करें ,कभी कभी आप ज्यादा रुला देते हैं ...
जवाब देंहटाएंटुकड़े टुकड़े दोपहर का चिथड़ा चिथड़ा सुख भी तलाशिये आर्य नहीं तो यह पूरा जीवन ही दुखमय है ..
सब कुछ -वियोग विराग ,शक्ति -असहायता सब कुछ यहीं झेलते हुए मनुष्य का पराभव हो जाता है !
आईये हम सब मिलकर रोज गीता पढ़ें !
इन बद्ली परिस्थितियों मे आकर भी क्या करेंगें। सबसे महत्वपूर्ण बात आज की सन्तान द्वारा अपने माता पिता की भावनाओं को समझ उसका सम्मान करने से है। अतएव बुजुर्गो द्वारा यह समझा जाता है कहीं अपमान का घूंट न पीना पडे अपने गांव घर मे ही ठीक है। मार्मिक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंराव साहब ,
जवाब देंहटाएंमैं तो 'ऊपर' ही कहूंगा और पसंद करूंगा ! पर आपकी बात आपकी बात !
वैसे तो 'उलीचने' क्रिया में प्राथमिक रूप से हाथ वा (या भी )बर्तन के द्वारा जमा पानी
फेंकने ( उलचने ) का भाव है , इसलिए खटका ! चूंकि पम्पिंग सेट खुदौ
एक जगह पर ठहरे पानी ( भूगर्भ जल से अलग ) को दूसरी जगह फेंकता
है इस तर्ज पर इसके साथ भी उलीचना चलेबुल माना जा सकता है !
अच्छा रहा इसी बहाने अच्छे लिंक तक गया !
@ गिरिजेश राव
जवाब देंहटाएंयह सब कह पाने के लिए संवेदनशील मन की जरुरत होती है फिलहाल इतना मानकर चल रहा हूं कि कुदरत ( धूप भी ) टुकड़ों में बंटी हुए नहीं होती वो जिस कार्य के लिए नियत / तैनात है केवल वही करती है... ये तो हम और हमारी अनुभूतियां है जो परिवेशगत कारणों से इसे टुकड़ों में जीने / देखनें जैसा अनुभूत करते हैं... यह भी मानकर चल रहा हूं कि गिरिजेश राव एक भावुक इंसान है और वो जीवन...संबंधों ..के वैषम्य / विविधताओं को 'प्रतीकात्मक ऊष्मा' के 'सौन्दर्य-आलेप' (मेकअप) के साथ देख पाने और अभिव्यक्त कर पाने का सामर्थ्य रखते है ! कहने में कोई हर्ज़ नहीं कि इस नस्ल के लोग अंगुलियों में गिने जा सकते है ...बाकी तो संसार है ...माया है...भीड़ है ...की बोर्ड तोड़ू लोग है ...ईश्वर का धन्यवाद ...कि गिरिजेश इनमे से एक नहीं !
जहां तक शब्द शिल्प / गूंथने का प्रश्न है ब्लागर मुझे सुघड़ स्त्री से प्रतीत हुए ठीक वैसे, जैसे उन्हें धूप के महातापी ' पीत / हल्दुआ वर्ण ' 'शुभ्र' लगे ! ...यहां मैंने जो भी लिखा उसमें मित्रता की कोई भूमिका नहीं यह रचनाकार की सृजन धर्मिता का प्रतिकार / बकाया स्वत्व है , जो लौटा रहा हूं !
@ कुमार राधारमण जी
गिरिजेश की रचना 'क्लास' ( शास्त्रीय ) है ! इसके लिये दाहिने... बायें... ऊपर... नीचे की बात थोड़ा असम्मानजनक सी लगी ! अच्छेपन का ये पैमाना ...ये दौड़ किसी की भी हो... गिरिजेश की बिलकुल भी नहीं ! उम्मीद है आप बुरा नहीं मानेंगे , अंतत: आप भी गिरिजेश की रचना की तारीफ ही कर रहे है बस ज़रा भेड़ चाल वाल॓ अंदाज में ! खेद सहित !
बात है बन्धु!
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी!
जवाब देंहटाएंक्या कहूँ ? भावुक हो गया हूँ ...... हिरदय का एक-एक कोना भिगो दिया है ...आभार
जवाब देंहटाएंseedha dil katk pahunch gayi yah kriti ....kuch panktiyaan yaad aa gayeen meena kumari likhi hui ..
जवाब देंहटाएंtukde tukde din beeta , aur dhajji dhajji raat mili
jiska jitna aanchal tha, bas utni saugaat mili..
उम्मीद थी टुकड़ा टुकड़ा भावनाओं का प्रस्फुटन होगा, पर यहाँ तो पूरा सैलाब आ गया...
जवाब देंहटाएं--------
क्या आप जवान रहना चाहते हैं?
ढ़ाक कहो टेसू कहो या फिर कहो पलाश...
आपका पाठक होना उस सम्मान से भी बडा है मेरे लिए जितना कि आपका इस पोस्ट को लिखने का सम्मान । लेखन शैली , शब्द संयोजन , उनकी ऊबड खाबड , रपटीली सांप सी प्रस्तुति , कौन है जो इससे लिपटे बिना निकल जाए । ये निकलने ही नहीं देती कभी मुझे तो । बहुत दिनों से मन अशांत था , शांत हो गया पढ कर ये तो नहीं कह सकता , मगर जाने क्यों सुकून बहुत मिला । शायद और भी बार बार पढना पडे ।
जवाब देंहटाएंमन का सुकून भी अजीब शय है। इसका भौतिक सुख से शायद ही कोई लेना-देना हो। अपने पूर्वजों की सौंपी हुई थाती को संजोकर उसे सीने से चिपकाए रखने में ही यदि बुजुर्ग बाप सुकून महसूस करता है तो युवा पुत्र अपने सभी ऐशो-आराम उसे देने की हसरत मन में दबाकर रह जाता है।
जवाब देंहटाएंपुत्र के मन का सुकून भी तो छिनता है पिता की ऐसी तपस्या से। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दिए जाने वाले संदेश भी बदल रहे हैं।
मैं तो ऐसे पुत्र की ओर से पिता को शिकायत दर्ज कराने की सोच रहा हूँ।
सौर उपकरण की जानकारी का शुक्रिया. सौर प्रकाश तो उत्तर प्रदेश के पहाडी गाँवों (अब उत्तराखंड?) में देखा था, पंखे की बात नयी रही.
जवाब देंहटाएंहमसे नहीं पूछा मगर टांग अडाने में क्या जाता है - 'ऊपर' सर्वमान्य और स्वीकृत है, पश्चिम में भी.
@ अनुराग भैया,
जवाब देंहटाएं'उपर' को ठीक कर दिया है। मैं अमरेन्द्र जी को कसे हुआ था, आप आ कर मामला बिगाड़ दिए :)
हिमांशु जी और इन महाशय के साथ 'हिन्दी' ब्लॉग (http://naagaree.blogspot.com/) बनाया था। उद्देश्य था - मानक हिन्दी पर एक ब्लॉग की प्रस्तुति। बस एक प्रार्थना ही वहाँ है।
हिमांशु जी तो जैसे लगता है ब्लॉगरी ही छोड़ दिए हैं और ये महाशय अपनी ऊर्जा और ज्ञान को इधर उधर बिखेरते रहते हैं।
इस टिप्पणी के माध्यम से अब सार्वजनिक रूप से इन दोनों महारथियों से अनुरोध है कि श्रीगणेशाय नम: से आगे अब श्लोक पढ़ें।
waah waah !
जवाब देंहटाएंaise aalekh bahut kam milte hain padhne ko...aaj mila hai, aaj ka din saphal ho gaya !
jai ho !
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंहुजूर ! सार्वजनिक तौर पर काहे भद्द पिटा रहे हैं हमारी ! :)
जवाब देंहटाएंआप आलसी तो हम दर आलसी हैं ! :)
[ मेरे साथ आलस परम्परा प्रदत्त अर्थ में है ]
पर अब देर-सबेर ही सही मेरे कान में जूं रेंगेगी , हुजूर !
jitni bhi tareef karun kam hogi..
जवाब देंहटाएंRula dene wali post hai. Emotional kar diya !
सुन्दर पोस्ट! दो आलसी एक-दूसरे को धकियाते हुये काम जल्दी शुरू करें भाई!
जवाब देंहटाएंकही भीतर तक ठहर गया हूँ ......ओर शायद निकलने में वक़्त लगे ..आपकी ये पोस्ट वाकई भीतर कई आत्माओं को खटखटाती है.....
जवाब देंहटाएंमैं तो इस दृश्य में डूब गया हूँ ।
जवाब देंहटाएंyeh apanaapan neem hi de sakata hai... baaki sab yaa to pratidaan dete hain yaa gyan dete hain. Aisee hi kayee dupaharyaa maine bhi dekhi aur mahsoos ki hai.... aisa kyon hota hai ki bharataa to mann hai par chhalakati aankhein hain?
जवाब देंहटाएंजैसे जैसे एक एक मंजर आपने फ़्रीज कर लिया हो और फ़िर धीरे धीरे पिघलने दिया हो उन्हे और फ़िर बहने और खडा कर दिया हो हमें उस बहाव के सामने .. जिसमें बहते, उतराते, डूबते हुये भी हम इन पलों को बहते देख सकते हैं...
जवाब देंहटाएंरात के इस पहर में भी जैसे आपकी इस दोपहर के टुकडे जी गया और ये आपकी इस पोस्ट की सफ़लता है..