…तकिया गीली है।
आँखें
सीली हैं?
आँसू
हैं या पसीना ?
अजीब
मौसम
आँसू
और पसीने में फर्क ही नहीं !
...... कमरे में आग लग
गई है।
आग!
खिड़कियों के किनारे
चौखट
के सहारे दीवारों पर पसरी
छत पर
दहकती सब तरफ आग !
बिस्तर
से उठती लपटें
कमाल
है एकदम ठंडी
लेकिन
शरीर के अन्दर इतनी जलन खुजली क्यों?
दौड़ता
जा रहा हूँ
हाँफ
रहा हूँ – बिस्तर के किनारे कमरे
में कितने ही रास्ते
सबमें
आग लगी हुई
साथ
साथ दौड़ते अग्नि पिल्ले
यह
क्या ? किसने फेंक दिया मुझे
खौलते तेल के कड़ाहे में?
भयानक
जलन खाल उतरती हुई
चीखती
हुई सी गलाघोंटू बड़बड़ाहट
झपट
कर उठता हूँ
शरीर
के हर किनारे ठंढी आग लगी हुई
पसीने
से लतपथ . . निढाल पसर जाता हूँ
पत्नी
का चेहरा मेरे चेहरे के उपर
आँखों
में चिंन्ता – क्या हुआ इन्हें ?
अजीब
संकट है
स्नेहिल
स्त्री का पति होना।
कृतघ्न, पाखंडी, वंचक
.... मनोवैज्ञानिक केस !
क्यों
सताते हो उस नवेली को ?
.... सोच संकट है। क्या
करूँ?
... भोर है कि सुबह?
पूछना
चाहता हूँ
आवाज
का गला किसने घोंट दिया?
खामोश
चिल्लाहट ...|
... ”अशोच्यानन्वशोचंते
प्रज्ञावादांश्च .....”
पिताजी
गा रहे हैं
बेसमझ
पारायण नहीं
गा
रहे हैं।
... आग अभी भी कमरे में
लगी हुई है।
लेकिन
शमित हो रहा है
शरीर
का अन्दरूनी दाह ।
शीतल
हो रही हैं आँखें
सीलन
नहीं, पसीना नहीं
..पत्नी का हाथ माथे पर
पकड़ता हूँ
कानों
में फुसफुसाहट
“लेटे रहिए
आप को
तेज बुखार है।“ ...
बुखार? सुख??
37 डिग्री बुखार माने
जीवन
तेज
बुखार माने और अधिक जीवन
इतना
जीवन कि जिन्दगी ही बवाल हो जाए !
यह
जीवन मेरे उपर इतना मेहरबान क्यों है?
ooo
बुखार
चढ़ रहा है
अजीब
सुखानुभूति।
पत्नी
से बोलता हूँ -
भला
बुखार में भी सुख होता है ?
बड़बड़ाहट
समझ चादर उढ़ा
हो
जाती है कमरे से बाहर।
ooo
कमरे
में एकांत
कोई
बताओ – भोर है कि सुबह?
....नानुशोचंति पंडिता:“
कौन
इस समय पिताजी के स्वर गा रहा?
क्यों
नहीं गा सकता ? सुबह है।
कमरे में घुस आई
है
धूप
की एक गोल खिड़की ।
कमाल
है आग कहाँ गई?
धूप
सचमुच या बहम?
ooo
हँइचो
हँइचो हैण्डपम्प
रँभाती
गैया
चारा
काटने चले मणि
कमरे
के कोने में नाच रही मकड़ी
चींटियाँ
चटक लड्डू पपड़ी
जै
सियराम जंगी का रिक्शा
खड़ंजे
पर खड़ खड़ खड़का।
धूँ
पीं धूँ SSssS हों ssss
रामकोला
की गन्ना मिल
राख
उगलती गुल गिल
दे
रही आवाज बाँधो रे साज
पिताजी
चले नहाने
खड़ाऊँ
खट पट खट टक
बजे
पौने सात सरपट।
रसोई
का स्टोव हनहनाया
सुबह
है, कस्बा सनसनाया।
ooo
गोड़न
गाली दे रही
बिटिया
है उढ़री
काहें
वापस घर आई?
बाप
चुप्प है
सब
ससुरी गप्प है।
बेटियाँ
जब भागतीं
घर की
नाक काटती
बेटा
जब भागता
कमाई
है लादता ।
ऐसा
क्यों है?
गोड़न
तेरी ही नहीं
सारी
दुनिया की पोल है,
कि
मत्था बकलोल है।
समस्या
विकट है
सोच
संक्कट्ट है।
ooo
बुखार
का जोर है ।
हरापन
उतर आया है कमरे में।
कप के
काढ़े से निकल हरियाली
सीलिंग
को रंग रही तुलसी बावरी।
छत की
ओस कालिख पोत रही
हवा
में हरियाली है
नालियों
में जमी काई
काली
हरियाली ..
अचानक
शुरू हुई डोमगाउज
माँ
बहन बेटी सब दिए समेट
जीभ
के पत्ते गाली लपेट
विवाद
की पकौड़ी
तल
रही नंगी हो
चौराहे
पर चौकड़ी।
रोज
की रपट
शिव
बाबू की डपट
से
बन्द है होती
लेकिन
ये नाली उफननी
बन्द
क्यों नहीं होती?
ooo
टाउन
एरिया वाले चोर हैं
कि
मोहल्ले वाले चोर हैं ?
ले दे
के बात वहीं है अटकती
ये
नाली बन्द क्यों नहीं होती?
ooo
रोज
का टंटा
कितने
सुदामा हो गए संकटा।
वह
क्या है जो नाली की मरम्मत नहीं होने देता?
इस
उफनती नाली में पलते हैं बजबजाते कीड़े
और
घरों के कुम्भीपाक
खौलता
तेल आग
ठंढा
काई भरा पानी हरियाला
अजब
है घोटाला
कौन
हुआ मालामाल है ?
ooo
धूँ पीं धूँ SSssS
हों ssss
ओं sss होंsss कीं
हें sss
साढ़े
नौ – पंजाब मिल की डबलदार
सीटी|
जंगी
का रिक्शा फिर खड़का है
अबकी
दारू का नशा नहीं भड़का है।
पीढ़े
से डकारते पिताजी उठते हैं ।
बगल
के घर से हँसी गुप्ता की
तकिए
की जगह नोट रखता है
जाने
बैंक जाते इतना खुश क्यों रहता है ?
गुड्डू
की डेढ़ फीट पीठ पर
आठ
किलो का बस्ता चढ़ता है।
इस
साढ़े नौ की सीटी से
पूरा
कस्बा सिहरता है।
ooo
कैसी
इस कस्बे की सुबहे जिन्दगी !
इतने
में ही सिमट गई !!
मुझे
बेचैन करता है
क़स्बे
की सुबह का ऐसे सिमट जाना!
लगता
है कि एक नरक में जी रहा हूँ
शायद
ठीक से कह भी नहीं पाना
एक
नारकीय उपलब्धि है।
कमरे
में बदबू है
मछली
मार्केट सी।
जिन्दा
मछलियाँ जिबह होती हुईं
पहँसुल
की धार इत्ती तेज !
जंगी
के शरीर में जाने कितनी मछलियाँ
ताजी
ऊर्जावान हरदम उछलती हुईं
शीतल
आग में धीरे धीरे
फ्राई
हो रही हैं
कौन
खा रहा है उन्हें ?
कौन
है??
चिल्लाता
हूँ
भागती
अम्माँ आती है
आटा
सने हाथ लिए
पीछे
बीवी ।
... चादर के नीचे शरीर
में दाने निकल आए हैं ।
सुति
रह !
कैसे
सो जाऊँ ?
ये जो
शराब पी कर वह जंगी जी रहा है
जिन्दगी
की जंग बिना जाने बिना लड़े
अलमस्त
हो हार रहा है।
वह
रिक्शे की खड़खड़ जो हो जाएगी खामोश
बस
चार पाँच सालों में टायरों को जला जाएगी आग
रह
जाएगा झोंपड़ी में टीबी से खाँसता अस्थि पंजर
मैं
देख रहा हूँ – कुम्भीपाक में खुद को
तल रहा हूँ।
अम्माँ
तुम कहती हो – सुति रह !!
मेरे
इतिहास बोध में कंफ्यूजन है !
मैं
मानता हूँ कि इस मुहल्ले में रहते
ये
पढ़े लिखे मास्टर – कोई डबल एम ए कोई
विशारद
दुश्मन
के सामने तमाशा देखती गारद ।
निर्लिप्त
लेकिन अपनी दुनिया में घनघोर लिप्त
करें
भी तो क्या परिवार और स्कूल
इन दो
को साधना
करनी
एक साधना कि
बेटे
बेटियों को न बनना पड़े मास्टर।
कोई
इतिहासकार न इनका इतिहास लिखेगा
और न
जंगी की जंग का
सही
मानो तो वह जंग है ही नहीं ...
इसका
न होना एक नारकीय सच है
समय
के सिर पर बाल नहीं
सनातन
घटोत्कच है।
गुड्डू
जो किलो के भाव बस्ता उठाता है
दौड़ते
भागते हँसते पैदल स्कूल जाता है
कॉलेज
और फिर रोजगार दफ्तर भी जाएगा
उस
समय उसे जोड़ों का दर्द सताएगा
जब
कुछ नहीं पाएगा
समानांतर
ही धँस जाएंगी आँखें
दीवारों
पर स्वप्नदोष की दवाएँ बाँचते
बाप
को कोसेगा जुल्फी झारते और खाँसते ।
बाप
एक बार फिर जोर लगाएगा
बूढ़े
बैल में जान बँची होगी ?
भेज
देगा तैयारी करने को – इलाहाबाद
सीधा
आइ ए एस बनो बेटा – मुझे मत कोसना ..
मैं
अकेला बदबूदार कमरे में
मांस
जलने की बू सूँघते
बेशर्म
हो हँसते
मन
में जोड़ता हूँ ये तुकबन्दी
भविष्य
देख रहा हूँ – सोच संकट है।
अर्ज
किया है:
”खेतों के उस पार खड़ा
रहता
हरदम अड़ा अड़ा
सब
कहते हैं ठूँठ ।
बढ़
कर के आकाश चूम लूँ
धरती
का भंडार लूट लूँ
कितनी
भी हरियाली आई
कोंपल
धानी फूट न पाई
चक्कर
के घनचक्कर में
रह
गया केवल झूठ
सब
कहते हैं ठूँठ।
हार्मोन
के इंजेक्शन से
बन
जाएगी पालक शाल
इलहाबाद
के टेसन से
फास्ट
बनेगी गाड़ी माल
आकाश
कहाँ आए हाथों में
छोटी
सी है मूठ
सब
कहते हैं ठूँठ ।
गुलाब
कहाँ फूले पेड़ों पर
दूब
सदा उगती मेड़ों पर
ताँगे
के ये मरियल घोड़े
खाते
रहते हरदम कोड़े
पड़ी
रेस में लूट (?)
सब
कहते हैं ठूँठ”
ये
जवानी की बरबादी
ये
जिन्दगी के सबसे अनमोल दिनों का
यूँ
जाया होना
मुझे
नहीं सुहाता।
..कमाल है इस बारे में
कोई नहीं बताता।
इस
बेतुके दुनियावी नरक में
तुकबन्दी
करना डेंजर काम है।
शिक्षा
भयभीत करती है
जो
जितना ही शिक्षित है
उतना
ही भयग्रस्त है।
उतने
ही बन्धन में है ।
गीता
गायन पर मुझे हँसी आती है
मन
करता है गाऊँ -
होली
के फूहड़ अश्लील कबीरे।
मुझे
उनमें मुक्ति सुनाई पड़ती है।
बाइ द
वे
शिक्षा
की परिभाषा क्या है ?
शिक्षा
, भय सब पेंसिल की नोक
जैसे
चुभो रहे हों
मुझे
याद आता है – सूरदास आचार्य जी का
दण्ड
मेरी
दो अंगुलियों के बीच पेंसिल दबा कर घुमाना!
वह
पीड़ा सहते थे मैं और मेरे साथी
आचार्य
जी हमें शिक्षित जो बना रहे थे !
हमें
कायर, सम्मानभीरु और सनातन
भयग्रस्त बना रहे थे
हम
अच्छे बच्चे पढ़ रहे थे
घर
वालों, बाप और समाज से तब भी
भयग्रस्त थे
वह
क्या था जो हमारे बचपन को निचोड़ कर
हमसे
अलग कर रहा था?
जो
हमें सुखा रहा था ..
नरक
ही साक्षात था जो गुजरने को हमें तैयार कर रहा था।
आज जो
इस नरक के रस्ते चल रहा हूँ
सूरदास
की शिक्षा मेरी पथप्रदर्शक बन गई है...
अप्प
दीपो भव .. ठेंगे से
अन्धे
बुद्धों! तुम मानवता के गुनहगार हो
तुम्हारे
टेंटुए क्यों नहीं दबाए जाते?
तुम
पूजे क्यों जाते हो?...
..यहाँ सब कुछ ठहर गया
है
कितना
व्यवस्थित और कितना कम !
गन्ना
मिलों के भोंपू ही जिन्दगी में
सिहरन
पैदा करते हैं,
नहीं
मैं गलत कह रहा हूँ –
ये
भोंपू हैं इसलिए जिन्दगी है। ..
ये
भोंपू बहुत सी बातों के अलावा
तय
करते हैं कि कब घरनी गृहपति से
परोसी
थाली के बदले
गालियाँ
और मार खाएगी।
कब
कोई हरामी मर्द
माहवारी
के दाग लिए
सुखाए
जा रहे कपड़ों को देख
यह तय
करेगा कि कल
एक
लड़की को औरत बनाना है
और वह
इसके लिए भोंपू की आवाज से
साइत
तय करेगा
कल का
भोंपू उसके लिए दिव्य आनन्द ले आएगा।
... और शुरुआत होगी एक
नई जिन्दगी की
जर्रा
जर्रा प्रकाशित मौत की !!
वह
हँसती हुई फुलझड़ियाँ
अक्कुड़, दुक्कुड़
दही
चटाकन बर फूले बरैला फूले
सावन
में करैला फूले गाती लड़कियाँ
गुड़ियों
के ब्याह को बापू के कन्धे झूलती लड़कियाँ
अचानक
ही एक दिन औरत कटेगरी की हो जाती हैं
जिनकी
छाया भी शापित
और
जिन्दगी जैसे जाँघ फैलाए दहकता नरक !
..कभी एक औरत सोचेगी
माँ
का बताया
वही
डोली बनाम अर्थी वाला आदर्श वाक्य!
क्या
उस समय कभी वह इस भोंपू की पुकार सुनेगी
भोंपू
जो नर हार्मोन का स्रावक भी है ! ..
चित्त
फरिया रहा है
मितली
और फिर वमन !
... चलो कमरे से
जलते मांस की बू तो टली ।
कमरे
में धूप की पगडण्डी बन गई है
हवा
में तैरते सूक्ष्म धूल कण
आँख
मिचौली खेल रहे
अचानक
सभी इकठ्ठे हो भागते हैं
छत की
ओर !
रुको
!!
छत
टूट जाएगी
मेरे
सिर पर गिर जाएगी
..अचानक छत में हो गया
है
एक
बड़ा सा छेद
आह !
ठण्डी हवा का झोंका
घुसा
भीतर पौने दस का भोंपा !
मैं
करवट बदलता हूँ
सो
गया हूँ शायद..
चन्नुल
जगा हुआ है।
तैयार
है।
निकल
पड़ता है टाउन की ओर
जाने
कितने रुपए बचाने को
तीन
किलोमीटर जाने को
पैदल।
खेतों
के सारे चकरोड
टोली
की पगडण्डियाँ
कमरे
की धूप डण्डी
रिक्शे
और मनचलों के पैरों तले रौंदा जाता खड़ंजा
...
ये सब
दिल्ली के राजपथ से जुड़ते हैं।
राजपथ
जहाँ राजपाठ वाले महलों में बसते हैं।
ये
रास्ते सबको राजपथ की ओर चलाते हैं
इन पर
चलते इंसान बसाते हैं
(देवगण गन्धाते हैं।)
कहीं
भी कोई दीवार नहीं
कोई
द्वार नहीं
राजपथ
सबके लिए खुला है
लेकिन
बहुत
बड़ा घपला है
पगडण्डी
के किनारे झोंपड़ी भी है
और
राजपथ के किनारे बंगला भी
झोंपड़ी
में चेंचरा ही सही – लगा है।
बंगले
में लोहे का गेट और खिड़कियाँ लगी हैं
ये सब
दीवारों की रखवाली करती हैं
इनमें
जनता और विधाता रहते हैं ।
कमाल
है कि बाहर आकर भी
इन्हें
दीवारें याद रहती हैं
न
चन्नुल कभी राजपथ पर फटक पाता है
न
देवगण पगडण्डी पर।
बँटवारा
सुव्यवस्थित है
सभी
रास्ते यथावत
चन्नुल
यथावत
सिक्रेटरी
मिस्टर चढ्ढा यथावत।
कानून
व्यवस्था यथावत।
राजपथ
यथावत
पगडण्डी
यथावत
खड़न्जा
यथावत।
यथावत
तेरी तो ...
.. मालिक से ऊँख का
हिसाब करने
चन्नुल
चल पड़ा अपना साल बरबाद करने
हरे
हरे डालर नोट
उड़
उड़ ठुमकते नोट
चन्नुल
आसमान की ओर देख रहा
ऊँची
उड़ान
किसान
की शान
गन्ना
पहलवान ।
एक
फसल इतनी मजबूत !
जीने
के सारे विकल्पों के सीनों पर सवार
एक
साथ ।
किसान
विकल्पहीन ही होता है
क्या
हो जब फसल का विकल्प भी
दगा
दे जाय ?
गन्ना
पहलवान
– बिटिया का बियाह गवना
– बबुआ का अंगरखा
- पूस की रजाई
- अम्मा की मोतियाबिन्द
की दवाई
- गठिया और बिवाई
- रेहन का बेहन
- मेले की मिठाई
- कमर दर्द की सेंकाई
- कर्जे की भराई
....
गन्ना
पहलवान भारी जिम्मेदारी निबाहते हैं।
सैकड़ो
कोस के दायरे में उनकी धाक है
चन्नुल
भी किसान
मालिक
भी किसान
गन्ना
पहलवान किसानों के किसान
खादी
के दलाल।
प्रश्न:
उनका मालिक कौन ?
उत्तर:
खूँटी पर टँगी खाकी वर्दी
ब्याख्या:
फेर देती है चेहरों पर जर्दी
सर्दी
के बाद की सर्दी
जब जब
गिनती है नोट वर्दी
खाकी
हो या खादी ।
चन्नुल
के देस में वर्दी और नोट का राज है
ग़जब
बेहूदा समाज है
उतना
ही बेहूदा मेरे मगज का मिजाज है
भगवान
बड़ा कारसाज है
(अब ये कहने की क्या
जरूरत थी? )....
आजादी
- जनवरी है या अगस्त?
अम्माँ
कौन महीना ?
बेटा
माघ – माघ के लइका बाघ ।
बबुआ
कौन महीना ?
बेटा
सावन – सावन हे पावन ।
जनवरी
है या अगस्त?
माघ
है या सावन ?
क्या
फर्क पड़ता है
जो
जनवरी माघ की शीत न काट पाई
जो
संतति मजबूत न होने पाई
क्या
फर्क पड़ता है
जो
अगस्त सावन की फुहार सा सुखदाई न हुआ
अगस्त
में कोई तो मस्त है
वर्दी
मस्त है – जय हिन्द।
जनवरी
या अगस्त?
प्रलाप
बन्द करो
कमाण्ड
! - थम्म
नाखूनों
से दाने खँरोचना बन्द
थम
गया ..
पूरी
चादर खून से भीग गई है...
हवा
में तैरते हरे हरे डालर नोट
इकोनॉमी
ओपन है
डालर
से यूरिया आएगा
यूरिये
से गन्ना बढ़ेगा।
गन्ने
से रूपया आएगा
रुक !
बेवकूफ ।
समस्या
है
डालर
निवेश किया
रिटर्न
रूपया आएगा ।
बन्द
करो बकवास – थम्म।
जनवरी
या अगस्त?
ये
लाल किले की प्राचीर पर
कौन
चढ़ गया है ?
सफेद
सफेद झक्क खादी।
लाल
लाल डॉलर नोट
लाल
किला सुन्दर बना है
कितने
डॉलर में बना होगा ..
खामोश
देख
सामने
कितने
सुन्दर बच्चे !
बाप
की कार के कंटेसियाए बच्चे
साफ
सुथरी बस से सफाए बच्चे
रंग
बिरंगी वर्दी में अजदियाए बच्चे
प्राचीर
से गूँजता है:
मर्यादित
गम्भीर
सॉफिस्टिकेटेड
खदियाया स्वर
ग़जब
गरिमा !
”बोलें मेरे साथ जय
हिन्द !”
”जय हिन्द!”
समवेत
सफेद खादी प्रत्युत्तर
“जय हिन्द!“
”इस कोने से आवाज धीमी
आई
एक
बार फिर बोलिए – जय हिन्द”
जय
हिन्द , जय हिन्द, जय हिन्द
हिन्द, हिन्द, हिन्
...द, हिन् ..
..हिन हिन भिन भिन
मक्खियों
को उड़ाते
नाक
से पोंटा चुआते
भेभन
पोते चन्नुल के चार बच्चे
बीमार
– सुखण्डी से।
कल एक
मर गया।
अशोक
की लाट से
शेर
दरक रहे हैं
दरार
पड़ रही है उनमें ।
दिल्ली
के चिड़ियाघर में
जींस
और खादी पहने
एक
लड़की
अपने
ब्वायफ्रेंड को बता रही है,
”शेर इंडेंजर्ड स्पीशीज
हैं
यू
सिली” ।
शेर
मर रहे हैं बाहर सरेह में
खेत
में
झुग्गियों
में
झोपड़ियों
में
सड़क
पर..हर जगह
सारनाथ
में पत्थर हम सहेज रहे हैं
जय
हिन्द।
मैं
देखता हूँ
छ्त
के छेद से
लाल
किले के पत्थर दरक रहे हैं।
राजपथ
पर कीचड़ है
बाहर
बारिश हो रही है
मेरी
चादर भीग रही है।
धूप
भी खिली हुई है -
सियारे
के बियाह होता sss
सियारों
की शादी में
शेर
जिबह हो रहे हैं
भोज
होगा
काम
आएगा इनका हर अंग, खाल, हड्डी।
खाल
लपेटेगी सियारन सियार को रिझाने को
हड्डी
का चूरन खाएगा सियार मर्दानगी जगाने को ..
पंडी
जी कह रहे हैं - जय हिन्द।
अम्माँ
ssss
कपरा
बत्थता
बहुत
तेज घम्म घम्म
थम्म!
मैं
परेड का हिस्सा हूँ
मुझे
दिखलाया जा रहा है -
भारत
की प्रगति का नायाब नमूना मैं
मेरी
बकवास अमरीका सुनता है, गुनता है
मैं
क्रीम हूँ भारतीय मेधा का
मैं
जहीन
मेरा
जुर्म संगीन
मैं
शांत प्रशांत आत्मा
ॐ
शांति शांति
घम्म
घम्म, थम्म !
परेड
में बारिश हो रही है
छपर
छपर छ्म्म
धम्म।
क्रॉयोजनिक
इंजन दिखाया जा रहा है
ऑक्सीजन
और हाइड्रोजन पानी बनाते हैं
पानी
से नए जमाने का इंजन चलता है
छपर
छपर छम्म।
कालाहांडी, बुन्देलखण्ड, कच्छ
... जाने कितनी जगहें
पानी
कैसे पहुँचे - कोई इसकी बात नहीं करता है
ये
कैसा क्रॉयोजेनिक्स है!
चन्नुल
की मेंड़ और नहर का पानी
सबसे
बाद में क्यों मिलते हैं?
ये
इतने सारे प्रश्न मुझे क्यों मथते हैं?
घमर
घमर घम्म।
रात
घिर आई है।
दिन
को अभी देख भी नहीं पाया
कि
रात हो गई
गोया
आज़ाद भारत की बात हो गई।
शाम
की बात
है
उदास बुखार में खुद को लपेटे हुए।
खामोश
हैं जंगी, गोड़न, बेटियाँ, गुड्डू
सो
रहे हैं कि सोना ढो रहे हैं
जिन्हें
नहीं खोना बस पाना !
फिर
खोना और खोते जाना..
सोना
पाना खोना सोना ....
जिन्दगी
के जनाजे में पढ़ी जाती तुकबन्दी।
इस
रात चन्नुल के बेटे डर रहे हैं
रोज
डरते हैं लेकिन आज पढ़ रहे हैं
मौत
का चालीसा - चालीस साल
लगते
हैं आदमी को बूढ़े होने में
यह
देश बहुत जवान है।
जवान
हैं तो परेड है
अगस्त
है, जनवरी है
जवान
हैं परेड हैं
अन्धेरों
में रेड है।
मेरी
करवटों के नीचे सलवटें दब रही हैं
जिन्दगी
चीखती है - उसे क्षय बुखार है।
ये सब
कुछ और ये आजादी
अन्धेरे
के किरदार हैं।
मेरी
बड़बड़ाहट
ये
चाहत कि अन्धेरों से मुक्ति हो
ये
तडपन कि मुक्ति हो।
मुक्ति
पानी ही है
चाहे
गुजरना पड़े
हजारो
कुम्भीपाकों से ।
कैसे
हो कि जब सब ऐसे हो।
ये
रातें
सिर
में सरसो के तेल की मालिश करते
अम्माँ
की बातें
सब
खौलने लगती हैं
सिर
का बुखार जब दहकता है।
और?
.. और खौलने लगता है
बालों
में लगा तेल
अम्माँ
का स्नेह ऐसे बनता है कुम्भीपाक।
(हाय ! अब ममता भी असफल
होने लगी है।)
माताएँ
क्या जानें कि उनकी औलादें
किन
नरकों से गुजर रही हैं !
अब
जिन्दगी उतनी सीधी नहीं रही
जिन्दगी
माताओं का स्नेह नहीं है।
भीना
स्नेह खामोश होता है...
सब
चुप हो जाओ।
अम्माँ, मुझे नींद आ रही है..जाओ सो जाओ।
..एक नवेली चौखट पर रो
रही है
मुझे
नींद आ रही है...
________________________________
- गिरिजेश राव
- गिरिजेश राव
सन् ~ 1995
पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट, दिल्ली
bahut badiya prastuti,
जवाब देंहटाएंsab kuchh ek baar main
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
मैं अकेला बदबूदार कमरे में
जवाब देंहटाएंमांस जलने की बू सूँघते
इंसानी...
अच्छा किया की संकलित किया, हमारे सब्र का इम्तिहान भी हो गया. ज़िंदगी में पहली बार इतनी लम्बी कविता एक बार में पढी है.
महाराज की जय हो!
... यूं ही याद आया, गयासुद्दीन गाजी कोटपाल का नाम सुना है?
जवाब देंहटाएंमाताएँ क्या जानें कि उनकी औलादें
जवाब देंहटाएंकिन नरकों से गुजर रही हैं !
अब जिन्दगी उतनी सीधी नहीं रही
जिन्दगी माताओं का स्नेह नहीं है।
भीना स्नेह खामोश होता है...
सब चुप हो जाओ।
अम्माँ, मुझे नींद आ रही है..जाओ सो जाओ।
..एक नवेली चौखट पर रो रही है
मुझे नींद आ रही है...
.....
अद्भुद....अनिर्वचनीय... जैसे कोई ज्वार मुझे बहा ले जाए और... और मै असहाय बहता रहूँ ,... निरालम्ब ... अंतर की छटपटाहट को अनावृत करती गहन रचना ...
अद्भुत बुखार काव्य । वाह ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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जवाब देंहटाएंमन के भीतर दबे हुए बवंडर और बेचैनी को अभिव्यक्त करती हिन्दी की उत्कृष्ट कविता!
जवाब देंहटाएंभैया ! मुझे बहुत्त नाज़ है आप पर ........
आज इस कविता के सापेक्ष,
post-colonial literature (जो अब तक पढ़ा है ) को तोलने कि इच्छा हो रही है ......
इतना मनोवेग तो jimmy के चरित्र में भी नहीं दिखा.....
जारी रखें........
सादर नमन!
कविता निरक्षर हूँ गुण दोष पर कोई टिप्पणी नहीं कर पाउंगा ! आप अच्छा लिखते हैं ये स्थापित है ! हाँ एक कविता का मैराथन आश्चर्य चकित कर रहा है :)
जवाब देंहटाएं@ स्मार्ट भैया,
जवाब देंहटाएंगयासुद्दीन गाजी कोटपाल का नाम नहीं सुना। कोई विशेष प्रयोजन उन्हें याद करने का?
@ कविता निरक्षर :)
महराज 4 बार पढ़िए, सब समझ में आ जाएगा और विश्वास कीजिए आप जो विवेचन करेंगे वह अद्भुत होगा। यह भी स्थापित है।
आहि रे दादा....एतना तेज जेहन....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर...एकदम बुखरीया कोलाज।
लंबी कविताएं तो पहले भी औरों की पढ़ी हैं लेकिन यहां शिल्प और कथ्य एकदम अलग रहा सो रूचि अंत तक बनी रही।
कविता बहुत लम्बी हो गयी है -बाकी गुण दोष तो मित्रों ने बांच ही दिया है !
जवाब देंहटाएंनरक के रास्ते नहीं, नरक के ढ़ेर कहें हुज़ूर।
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ब्लॉगवाणी माहौल खराब कर रहा है?
बाउ के बाद आपकी सामर्थ्य को उद्घाटित करती कविता है यह ! विस्मित करने वाली रचना-सामर्थ्य !
जवाब देंहटाएंइस कविता का इकट्ठा हो जाना सही हुआ ! अब इस एक प्रविष्टि का लिंक दिया जा सकेगा ।
बेचैन करती है कविता !
गिजेश जी
जवाब देंहटाएंलगता है बुखरवा 105 डिग्री था ।
माल गाड़ी के सौ डिब्बों
पर लदी
पूरे कस्बे का
हाल, चाल, ढाल
सुनाती
एक बेरहम, रसेदार
सांय सांय करती
जबरदस्त
जबरदस्ती करती
एक दम बुखर सी
गर्म,
खौलते पसीने सी
सरपट दौड़ती
कविता ।
बाप रे बाप.........
जवाब देंहटाएंराजपथ से पगडण्डी तक........
अमेरिका से कालीहांडी तक....
तेज ज्वर में तपता
ये भारत माता का बच्चा.....
आचार्य कितना बड़ा केनवस इस्तेमाल करते हो.....
आपकी कुची थकती नहीं........
जीवन के रंग खत्म नहीं होते..
इतना इस्तेमाल करने के बाद भी...
प्रणाम.
your best poem. I have read it so many times
जवाब देंहटाएंIt was your master piece , after this you could not produce anything like this (exclude prose). Through this poem only, I know You . :)
जवाब देंहटाएंगजब
जवाब देंहटाएंगजब
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