बुधवार, 7 सितंबर 2011

श्राप

नींद खुल गई है। पाँच बज रहे हैं। कोलतार सड़क दूर तक चमक रही है। बारिश ने बिद्युत खम्भों से सोना चुरा उस पर मढ़ दिया है। पश्चिमी आसमान नहीं दिखता और पुरबिये को नहीं पता चल पा रहा कि इसे प्रात कहे या रात?
सूरज कब निकलेगा?
आज की रात चाँद कौन सी कला में था?
था भी या रोते भांजे को बहलाने किसी और लोक की वासी बहन के घर गया था?
... बस टप टप है, आसमान से नहीं पत्तों से झरती बूँदों के स्वर हैं, बाकी सब सन्नाटा है। दूर पहाड़ियों पर विमानभेदी तोपें लगी हैं जो दिखती नहीं लेकिन कल किसी की बताई बात मन में विकराल रूप लिये खड़ी हो गई है।
ढलान ली हुई सड़क पर ऊपर चढ़ रहा हूँ। कोई निर्वात खींच रहा है। कल, परसो कितना प्रसन्न था! और अब, अभी? ज्ञान की सीमा है। क्या यह मनधुन आवश्यक है? अभी इस समय जब कि कोई चिरई का पूत तक नहीं दिख रहा और गणपति उत्सव से थकी जनता सो रही है!
पुलिया की दीवार पर बैठ गया हूँ। साँसें तेज हो चली हैं और मन भूत में, दूर भूत में खो सा गया है। छ: वर्ष, वे छ: वर्ष कब तक ऐसे क्षणों में सालते रहेंगे? कितना अकेला हो जाता हूँ इन क्षणों में! सब भूल जाता है, सब कुछ और बस उन खो चुके वर्षों के आवर्त रह जाते हैं। विभोर भोर, शांत सिसकती प्रात, दुपहर करती बात और शाम को दिया बाती की सौगात। उन दिनों रातें तो जैसे होती ही नहीं थीं, तब भी नहीं जब सिर के ठीक ऊपर पंचपंडवा से बहती आकाशगंगा बिच्छू के डंक को धो देती थी और पास ही खड़ा धनुर्धर बस चाप ताने देखता रह जाता था।
कितने दिन हो गये आसमान को यूँ निहारे हुये?
अब नहीं देखा जाता। ध्रुवतारा हमेशा आँख की किरकिरी बन जाता है। कुछ भी थिर नहीं रहा। बस कसक बाकी रह गई, सनातन आँसुओं से धुली कसक...
...तुम्हारी कोई सगी बहन नहीं है न? होती तो समझते।
धक्क! भीतर चीरता घुसता सन्नाटा। एक झटके में सब सफेद और फिर ब्लैक ऐंड व्हाइट और फिर रंग धीरे धीरे...किसी का बहनापा पाने के लिये सुन्दर और बली होना आवश्यक होता है क्या? पंजाबी में भाई को वीर कहते हैं न? मैं तो वैसा नहीं, फिर भी... क्यों?
...चेहरा पीला क्यों पड़ गया? वह नर्स तो तुम्हें भाई मानती थी न? क्या हुआ उसका? कोई खबर भी है कि कहाँ है? तुम स्वार्थी हो। कभी उसके बारे में जानने की ज़हमत उठाई क्या? केरल में किसी कब्र में है। उसे कैंसर हुआ था और जब मरी तो उसके लबों पर तुम्हारा और जॉन का नाम था, उस जॉन का जिसकी शक्ल हूबहू तुमसे मिलती थी। न पूछ्ना कि मुझे कैसे पता?...
...याद है जब श्रावणी के दिन 15 अगस्त भी था? तुमने हाथ खींच लिये थे जब कि मैं देखना चाहती थी कि भाई के चौड़े ललाट पर रोचना कैसा लगेगा?
तुम मुझे अलग से सुन्दर लगते थे। याद है वह दिन जब मुझे दौड़ाते मरखहे बैल का पगहा तुमने पकड़ लिया था? तुम्हें कितनी चोटें, खरोंचे आई थीं! चाची ने मुझे कितना कोसा था!
तुम आज़ाद रहना चाहते थे न? भाई बिन अकेली लड़की तुम्हें जिस नज़र से देखती थी, तुम्हारी नज़र वैसी न थी। मुझे पता है कि तुम मुझे ... नहीं, उसे प्यार नहीं कह सकती। तुम ओछे हो लेकिन फिर भी मुझे भले लगते रहे। जाने वह क्या था। न मानो तो न सही। अब तो भाभी भी आ गई हैं। किसी दिन उसके आगे तुमसे हिसाब बराबर कर लूँगी। उन्हें बताऊँगी कि तुमने मुझे चूमा, कई बार – अलग अलग मौकों पर और मैं तुम्हें तब भी भाई ही मानती रही। वह सब जाने क्या था...घबराओ नहीं। हिसाब किताब में अभी बहुत देर है। वह तब करूँगी जब हमारे बच्चों की शादियाँ हो चुकी रहेंगी और हम तीनों बिना खाँसे हँस नहीं पायेंगे। तब तक के लिये विदा। इस श्राप के साथ तुम्हें छोड़ती हूँ कि तुम कभी एकांत को सह नहीं पाओगे। बेचैनी उन एकांत क्षणों का हिसाब करेगी जिन्हें तुमने अपने चुम्बनों से दूषित कर दिया ...
... पहली चिड़िया बोली है। टैक्सी की घर्र भी सुनाई दी है।
‘साब जी! टैक्सी आ गई। आप तो फ्रेश तक नहीं हुये! इतनी जल्दी क्यों मँगा लिये? जल्दी कीजिये। वैसे अभी टैम है। पी टी रोड से जायेंगे तो पौन घंटे का रास्ता। पुष्पक एक्सप्रेस ही तो पकड़नी है?’ ...
यह मराठी मानुख पहाड़ी जैसा क्यों बोल रहा है? कुछ अधिक ही बोल रहा है।
‘तुम चलो, आता हूँ।‘ ...
...अंतिम पत्र में भी उसने ‘श्राप’ ही लिखा था... हमेशा, जब भी गुस्साती तो श्राप तक पहुँच जाती थी – एकदम बच्चों की तरह। मैं शाप कह कर सुधारने की कोशिश करता तो हँस देती – वह कहूँगी तो पाप लगेगा पापी! भगवान तुम्हें हर दुख, खरोंच, चोट चाट से बचाये रखे। फिर भावुक हो जाती और ठीक उसी समय मैं उसे चूम लेता था। कैसा रिश्ता था वह? उसका श्राप इस जीवन में हमेशा मेरे साथ रहेगा। वह मुझे मुक्त करने नहीं आने वाली। नदी में बह चुकी राख कभी लौट कर आई है भला?...
... ‘साब जी, आप तो फ्लाइट से जा सकते थे?... आप लखनऊ में कहाँ रहते हैं?’
‘आशियाना में ... क्यों?’
‘मेरी एक बहन वहाँ ब्याही है।‘
‘तो तुम मराठी नहीं हो?’
‘नहीं... एक सौगात ले जायेंगे। सूट का कपड़ा है। बीती राखी जा नहीं पाया।‘
कोरियर से भेज देना ...अफसरों से इस तरह बात करते हो? तुम यहाँ के केयरटेकर हो न?
उसका चेहरा फक्क पड़ गया है। ...
... टैक्सी से सी एस टी की ओर... मुझे माफ करना यू पी के मराठी! मैं श्रापित हूँ। यह काम नहीं कर सकता।
आसमान में गंगा है जिसमें ब्रह्मांड की राख बहती है। इस वृश्चिक राशि जन्मा को डर लगता है कि उसका डंक धुल जायेगा। विमानभेदी तोपें भूल से हवाई जहाज को मार गिरा सकती हैं। आकाश का धनुर्धारी जाने कब किसकी मति फेर दे!
रेल सुरक्षित है। खरोंच, चोट चाट बस। मौत भी हुई तो राख होने और नदी से मिलने की सम्भावना बहुत अधिक है। ... आसमान में उड़ कर मुझे शापित नहीं होना।
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इस कहानी का पोडकास्ट श्री अनुराग शर्मा के स्वर में नीचे दिये लिंक पर उपलब्ध है: 
हिन्दयुग्म पर 'श्राप'

9 टिप्‍पणियां:

  1. यह किसी की भी आत्मकथा नहीं है - न जीवित की और न मृत की।

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  2. पर किसी का तो अनुभव है या किसी अनुभव से जन्मी है

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  3. @यह किसी की भी आत्मकथा नहीं है - न जीवित की और न मृत की।

    कहीं न कहीं अवचेतन मन को कुछ कमी खटक रही है..... उसी उधेड़बुन में शब्दों को पिरो लाये आप. धागा भावों से परिपूर्ण ताकि शब्द गुथे रहे.....

    पता नहीं क्यों मुझे आज मनु-उर्मी की याद आ रही थी, और दिन के अंत में ये पोस्ट.

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  4. "ध्रुवतारा हमेशा आँख की किरकिरी बन जाता है। कुछ भी थिर नहीं रहा। बस कसक बाकी रह गई, सनातन आँसुओं से धुली कसक..".

    आज रात ध्रुव तारे को दिखाने का विशेष अभियान है अर्थ स्काई पर ..जाईये..
    और केयर टेकर का काम न करके अच्छा नहीं किया गया ..
    यह किसी अपनी कमी के चलते या नैतिक दुर्बलता के तहत हुआ होगा होगा न ?

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  5. मन की अवस्था जैसी लगने लगती है सारी व्यवस्था।

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  6. आत्मकथा ना हो ना सही, आत्मकथात्मक कथा तो है, ;) वृश्चिक राशि जन्मे को डर भी लगता है?? शायद... अपनी पशुता खोने का डर किसको नही लगता है...

    रेल सही में सुरक्षित है? आप शायद यूरो रेल की बात कर रहें हैं, भारतीय रेल की नहीं. :)))

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  7. छोटी पर बांधकर रखने वाली कथा। कोई फ़िल्मी डायलॉग याद आ गया ज़िन्दगी लम्बी नहीं बडी/भरपूर होनी चाहिये। एक ग़ैर-फ़िल्मी कथन ने भी छलांग लगाई - किये के अफ़सोस से ज़्यादा न किये का अफ़सोस होता है। भारतीय परिवेश में सुधाकर से और क्या एक्सपेक्ट करते हैं आप?और बेचारे केयरटेकर से? गरीबी से बडा पाप क्या है? वाक्वीर को बन्धन नहीं होता पर मेरी बात अलग है। पहाडी मराठी (घाटी) तो फिर भी हो सकता है मगर यूपी वाला कैसे होगा? अब तो उत्तराखण्ड अलग है।

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  8. आँखें भर आयीं...और सचमुच मन में सन्नाटा पसर गया....

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