गुरुवार, 10 मई 2012

साधु स्त्रियों! - 1

तुम वह आग हो जिसे छूते ही सारे दोष स्वाहा हो जायेंगे।“ – पिताजी

“गन्दगी मिट्टी की दीवार से चिपक सकती है, पॉलिश किये हुये संगमरमर से नहीं।“ – विवेकानन्द

विवेकानन्द और पिताजी में कुछ खास पटरी कभी नहीं रही जब कि विवेकानन्द किशोरावस्था में मेरे हीरो रहे। इंजीनियरिंग करते करते मैं विवेकानन्द सम्पूर्ण पढ़ चुका था, पिताजी कहते ही रह गये – महापुरुष हैं लेकिन मुझे नहीं जमते। वह पंजाब की धरती के स्वामी रामतीर्थ की बातें करते। इन दो व्यक्तियों की ऊपर दी गई संस्कार कसौटियों पर मेरे कैशोर्य और यौवन कसे गये। पिताजी ने घर में टी वी नहीं लगने दिया (विवाह हुआ तो श्रीमती जी के साथ टी वी हमारे घर आया)। रेडियो पर भी खासा प्रतिबन्ध था और मैंने टेपरिकॉर्डर कैसे खरीदा, यह कहानी तो बता ही चुका हूँ।

इतने पारम्परिक पिताजी का मित्र जैसा उन्मुक्त भाव भी रहा। आज भी उतने बोल्ड पिता बहुत कम होते होंगे। “दूर कोई गाये”, “जरा सी आहट होती है”, “होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा”, “तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा”  जैसे गीतों के बारे में उन्हों ने स्वय़ं बताया। ये गीत जब भी ‘अनुशासित रेडियो श्रवण सेशन’ में आते, मुझे फोर्सफुल्ली सुनने पड़ते। इस दौरान कई ऐसे गीत भी आते जिन्हें पिताजी रिकमेंड करते। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की लत उन्हों ने ही लगायी।

बारहवीं में आया तो पिताजी ने किशोरावस्था में पहली बार जिनसे सामना होता है, उनके बारे में बताया। एकांत अध्ययन और यौन संयम की महत्ता बताई। स्वप्नदोष तक की चर्चा कर डाली! अंग्रेजी हिन्दी कवियों और महापुरुषों के व्यक्तिगत जीवन की चर्चा करते और साथ ही सौन्दर्य आकर्षण के साथ जुड़ी बहकाने वाली प्रवृत्तियों के बारे में भी बताते। एकाधिक बार ऐसा हुआ कि पिता पुत्र साथ साथ जा रहे हैं और कोई सुन्दर लड़की दिखी तो दोनों उसे देख एक दूसरे को देखे और मुस्कुरा उठे। इंजीनियरिंग करने जाने के बाद तो यह स्थिति हो गई कि वह चर्चा करने लगे – फला लड़की बहुत ही तेज, सुन्दर और सुशील है। उसके पिता अगर मेरे यहाँ आयें तो तुरंत तुम्हारे विवाह को तैयार हो जाऊँ।

उनके हर काम से सुन्दरता टपकती है। खाट बुनने से लेकर रस्सी के विभिन्न गाँठों तक वह सब जानते हैं और बहुत ही सलीके से करते हैं। सूर्योदय के पहले ही दुआर साफ हो जाता है, एक भी मोथा या खर नहीं दिखते। धोती पहनते समय उनकी तन्मयता दर्शनीय होती है। घर में कहीं भी गिलास या कप इधर उधर नहीं दिख सकते। कभी सुन्दर रही मेरी लिखावट खासी बिगड़ चुकी है लेकिन आज भी जब वह लिखते हैं तो उनकी डायरी के पन्नों पर अक्षर सुगढ़ दिखते हैं। कई बार उनकी डायरी मैं चोरी से पढ़ता और अगले दिन ही वह जान जाते।
 पहले ऐसे ही पूछते – किसी ने मेरा बस्ता खोला था क्या (कई बार किसी और काम से अम्मा खुलवाती थीं)? अगर अम्मा नहीं कहतीं तो सब को छोड़ सीधे मुझसे पूछते – तुमने डायरी पढ़ी क्या? मेरे हाँ कहने पर कहते – दूसरों की डायरी पढ़ना अच्छी बात नहीं है। थोड़े और बड़े हो जाओगे तो स्वयं तुम्हें पढ़ने को कहूँगा। मेरे मरने के बाद चुने हुये अंशों को छपवा देना (आजकल वह अपनी डायरियों के स्वाध्याय में लगे हैं। छपने, छपाने और छापने की मेरी योग्यताओं पर उन्हें सन्देह है L)। इंजीनियरिंग पूरी करने के बाद उन्हों ने बताया कि कैसे गाँठ की पहचान और बस्ते में पारायण पुस्तकों और डायरी की क्रमविभिन्नता से वह जान जाते थे कि किसी ने बस्ता खोला था!
     
पिताजी ने पढ़ने से कभी नहीं रोका। कर्नल रंजीत और गुलशन नन्दा के लिखे उपन्यास, वाल्मीकि की रामायण, सनत्सुजातीयदर्शन, मनु स्मृति, संभोग से समाधि की ओर, द वेस्टलैंड, फ्रेंच रिवोल्यूशन, गीता रहस्य, प्रेमचन्द, केशवचन्द्र, अंग्रेजी की कवितायें, मुंशी के उपन्यास आदि आदि को समेटे हमारे घर की ‘टेम्परेरी लाइब्रेरी’ विचित्र और समृद्ध थी। कुछ ऐसा वैसा पढ़ते देखते तो टोकते – अभी यह सब मत पढ़ो, बस!... पिताजी खासे हिंसक भी थे लेकिन मुझे नहीं याद आता कि कभी पढ़ने के कारण मार पड़ी हो - चौपाटी पर रजनीश की कुंडलिनी जागरण के प्रयोगों वाली सचित्र पुस्तक को पढ़ते ‘पकड़ा’ गया होऊँ या खलील की पैगम्बर को पढते, कभी जोर की डाँट तक नहीं पड़ी। 

अन्य मामलों में अलबत्ता पिटाई तक कर डालते! पिटाई करने के बाद वह रोते और शेखर के पिता की तरह ‘सुलह’ करते। अम्मा के साथ ऐसा नहीं था। उनकी मार शत्रु जैसी जान पड़ती – शेखर की माँ की ही तरह। पतित होने, बहकने के जाने कितने प्रलोभनी अवसर आये लेकिन मैं सुरक्षित रहा। अब इसमें विवेकानन्द का योगदान था या पिताजी का या दोनों का, नहीं पता।

मेरी कोई सगी बहन नहीं है लेकिन चचेरी, मौसेरी बहनें पिताजी की सरपरस्ती में हमलोगों के साथ रहती पढ़ती रहीं। एकाधिक बार ऐसा भी हुआ कि किसी सम्बन्धी के लड़के भी साथ में रहे। पट्टीदारी की मेरी एक बुआ के बारे में अम्मा ने कभी बताया कि कैसे पिताजी उनकी आगे पढ़ने की इच्छा को प्रोत्साहित करते रहे, उन्हें पढ़ाते भी रहे और बाद में पत्र लिख लिख गाइड करते रहे। वह बुआ हमारे गाँव की स्त्रियों में पहली बी ए पास बनीं। 
     
मेरा विवाह हुआ तो यौन सम्बन्ध और संयम दोनों पर पिताजी ने प्रकाश डाला। जब शाम को हमलोग नीचे बैठे रहते और नवब्याहता छत पर अकेली होती तो पिताजी मुझे ऊपर भेज देते – अकेली ऊब रही होगी! पिताजी ने ‘बोरियत’ शब्द बहुत बाद में सीखा।  
इस पिता ने तो गर्भावस्था के दौरान यौन सावधानियों तक पर बात कर डाली!
   
पिता पुत्र का यह सम्बन्ध आज भी कायम है और मैं अपने मन के इस प्रश्न से सहम जाता हूँ कि क्या आज के बोल्ड, तेज और उन्मुक्त दौर में मेरा अपने बच्चों के साथ ऐसा सम्बन्ध है?...

...आप लोग सोच रहे होंगे कि इस भूमिका का शीर्षक से क्या सम्बन्ध? सम्बन्ध है जो कि अगली कड़ी में पता चलेगा। हम मध्यमवर्गीय प्रगतिशील कहीं अपने पुरनियों की तुलना में पिछ्ड़ तो नहीं रहे हैं – विशेषकर संतान को पालने पोसने और संस्कारित करने के मामले में? तेजी से बदलते संसार से उनका तारतम्य बैठ सके, इसमें हम कितना योगदान कर पा रहे हैं? क्या आजकल के स्मार्ट बच्चे वाकई स्वयं समर्थ हैं? क्या उन्हें हमारे निर्देशन की आवश्यकता नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं तो हम अन्धों को स्वयं दिशाओं का ज्ञान नहीं या हम स्वयं ही कंफ्यूज हैं?

इसके पहले कि वे नासूर बन जायँ, शुरुआत में ही नई चुनौतियों और समस्याओं को सामने आकर हम कितनी बार आगे बढ़ने से रोक पा रहे हैं? क्या हम अपने बच्चों को अग्रसक्रिय हो ऐसे तमाम ‘सामान्य, सामाजिक एवं प्राकृतिक अवसरों और खतरों’ से आगाह करा रहे हैं जो अपरिहार्य हैं? (जारी)                    

14 टिप्‍पणियां:

  1. आभार - अगली कड़ी का इंतजार रहेगा |

    आपके पिता जी बहुत special पिता लगते हैं , जिनके पिता ऐसे हों उनके पुत्र की अनूठी प्रतिभा का समुचित विकास हो पाना समझ में आता है |

    अक्सर देखती हूँ - कई बच्चे प्रतिभावान होते हैं - विकसित नहीं हो पाती उनकी प्रतिभा | और यह भी की जो सच में ही स्ट्रोंग और सच्चे लोग हैं - अक्सर बहुत अच्छी पेरेंटिंग से आये हैं (सब नहीं - अधिकतर केसेस में )|

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  2. मैं बस यही कहूँगा कि संभवतः यही पिता का आदर्श रूप है, अभिव्यक्ति मुखरित न भी हो पाये पर हर पिता कुछ इसी तरह से सोचना चाहते होंगे।

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  3. फैले हाथ में कुछ भी आ जाये नियामत है। मगर जिनके पास अपना बहुत कुछ था और अब नया बहुत कुछ आ रहा है उनके लिये यह संक्रमण काल है। असीम क्षमता वालों को कोई अंतर नहीं पड़ता। जयंत नरलीकर जी शायद वेदांत पर भी उसी तन्मयता के साथ भाषण दे सकते हैं जैसे अंतरिक्ष भौतिकी पर। जवाहरलाल नेहरू राष्ट्र विकास के लिये इनपुट लेते समय विनोबा और म्हालानोबिस को एक साथ बिठा सकते हैं (क्या विंची का ज़िक्र रेलिवेंट है?) लेकिन सबकी क्षमता, समझ, परिस्थितियाँ, शिक्षा एक सी नहीं होती। यह ध्यान देना ज़रूरी है कि क्या पाने की क्या क़ीमत दी जा रही है। यह लिखते समय मुझे तो कबीर बाबा ही याद आ रहे हैं, "सार-सार को गहि रहै, थोथा देइ उडाय"

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    1. बस यह कहूँगा - आज प्रसन्न हूँ कि टिप्पणी का विकल्प खोल दिया था कभी। इस टिप्पणी का एक एक वाक्य कम से कम दो बार पढ़ा जाना चाहिये। यह उन बातों की ओर संकेत करती है जिन्हें छोड़ दिया था। पात्रता...ज्ञानवृद्ध...
      ... पिता ने छोटे पुत्र को अलग ढंग से संस्कारित किया!

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    2. अपने बाबूजी की झलक देख रहा हूँ पिताजी में! हर चीज के लिए मुक्त किया गया हूँ। क्यों जो मैं लिखना चाहता हूँ(सँजो कर रख छोड़ा होता है मन में लिखने को) झट से,खूब सधे भाव से लिख डालते हो भईया! खूब तृप्त हो रहा हूँ।
      खुद के लिए आशीर्वाद लग रहा है यह लेखन! आभार ।

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  4. ... कहना भूल गया था कि भूमिका भी अच्छी लगी और दो पीढियों का जुड़ाव भी जो वर्तमान भारत के "जेनरेशन गैप" की शब्दावली में कहीं छूटता जा रहा है।

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  5. क्या आजकल के स्मार्ट बच्चे वाकई स्वयं समर्थ हैं? क्या उन्हें हमारे निर्देशन की आवश्यकता नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं तो हम अन्धों को स्वयं दिशाओं का ज्ञान नहीं या हम स्वयं ही कंफ्यूज हैं?


    jai baba banaras...

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  6. पिता अगर मित्र और मार्गदर्शक बन जाए तो इससे अच्छा कुछ हो नहीं सकता

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  7. मुझे ठीक से याद तो नहीं पर आपसे ही या किसी और से इस प्रश्न को कहीं तो पूछा था कि संतान को पालने का सही तरीका क्या हो सकता है, मेरा मुख्य फोकस यौन शिक्षा को लेकर था, बच्चे को कब किस समय (वैसे बदलते ज़माने के हिसाब से समय भी बदल जाता है) कौनसी सी बात समझा देनी है |

    मेरे लिए ये श्रृंखला खासी महत्वपूर्ण होगी कल को अगर मुझे बच्चे पलने पड़े तो ;-)
    बेसब्री से इन्तेज़ार है अगले अंक का भी |

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  8. मैं भी इसी दुविधा से जूझ रही हूँ आजकल. मेरे पिताजी आपके पिताजी की तरह अनुशासनप्रिय नहीं थे, शायद अम्मा के जल्दी देहांत हो जाने के कारण. वो बहुत मस्तमौला थे और उतने ही प्रबुद्ध भी. मेरे दोस्त तक ये कहते हैं कि बाऊ अपनी उम्र से पचास साल आगे की सोच रखते थे. हमें उन्होंने भरसक पूर्वाग्रहों से मुक्त रखा, जाति, धर्म, लिंग इन सभी चीज़ों से ऊपर रखकर पालन-पोषण किया. मेरे और मेरे पिताजी के बीच दो पीढ़ियों [बयालीस साल] का उम्र का फासला था, तो भी वे इतने प्रगतिशील थे. और आज अपने दोस्तों की अजीब सी हालत देखकर छटपटाहट होती है कि क्या बताऊँ. बाऊ की बहुत याद आती है. लगता है कि वो होते और मेरे दोस्तों के माँ-बाप को समझाते तो शायद कुछ बात बन जाती.

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  9. पिता-पुत्र का यह संबंध अनुकरणीय है ,यही दाय संतान को संस्कारवान बनाता है !

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  10. अब मैं यह तो नहीं कहूँगा कि मेरे और आपके पिता एक दूसरे के प्रतिछाया रहे मगर साम्य बहुत हैं -
    १-दोनों बी एच यू के विद्यार्थी रहे ..
    २-दोनों साहित्य के विद्यार्थी रहे
    ३.दोनों के साईंस पाठी निकम्मे पुत्र हुए ,एक ज्यादा दूसरा कम -
    ४-दोनों ने ही पढने ,विद्याध्ययन,श्रेष्ठ साहित्य मनन चिंतन को प्रेरित करते रहे
    ५-दोनों ने ही समृद्ध घरेलू लाईब्रेरी बनायी ...
    ६-दोनों ही ने सेक्स विषय पर अपने पुत्रों से बेबाक चर्चायें की
    कहीं कोई ग्रंथि नहीं
    ७-एक उम्र के बाद दोनों ही पुत्र से प्रेमवत हुए ...
    ८.दोनों ही जार जवार के सम्मानित शख्सियत हैं /रहे ...
    ९-दोनों ही जीवन भर एक निष्ठ दाम्पत्य जीवन जिए हैं
    और पुत्रों को यह असहज जीवन विरासत में सौंपे हैं
    १०-दोनों परले दर्जे के सेल्फ रिलायंट-पुत्र से कोई अपेक्षा नहीं की ....न साथ रहे ...
    ११-दोनों रामचरित मानस के अनन्य प्रेमी रहे /हैं ..यह संस्कार उनके अदरवाईज ज्ञान से रहित पुत्रों में भी आया है और राहत की बस यही बात है
    १२-बाकी कुछ दुर्गुण भी पुत्रों ने सीखे हैं और इसके लिए भी वे ही जिम्मेदार हैं :)
    किमाधिकम ......हाँ मेरे पिता जी का मात्र ६२ वर्ष में अचानक हृदयाघात से निधन हो गया १९९९ में ..मैं बिलकुल भी इस
    रिक्तता के लिए तैयार नहीं था ..
    आप कितने भाग्यशाली हैं ..उनकी छत्रछाया आप पर हैं ...
    यह पिता पुत्र का स्नेह सम्बन्ध बना रहे....चिरन्तन काल तक मेरी तो यही अभिलाषा है !

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  11. अब आपका अगला (हो सकता है लिख चुके हों ) नहीं तो अगला शीर्षक होना चाहिए
    साध्वी स्त्रियाँ :)

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