शुक्रवार, 11 मई 2012

राम को जब तड़ीपार से मुक्ति मिली

कुछ लोग 6 दिसम्बर को याद करने के बहाने ढूँढ़ते रहते हैं। उन्हें घनघोर चिंता रहती है कि वे यदि याद नहीं करते रहे तो कैलेंडर से एक दिन ही ग़ायब हो जाय! अल्लाताला की दुनिया से एक दिन हर साल कम होता गया तो क़यामत भी जल्दी से आ धमकेगी, यह बात मुझ जैसे बेवकूफ नहीं समझते इसीलिये वे बुद्धिमान बार बार बताते रहते हैं - करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। मुझे तो आज तक यही नहीं समझ में आया कि जड़मति कौन है और सुजान कौन?
  ये नये जमाने के टुटपुजिये जूलियस और आगस्टस हैं लेकिन उनसे कई गुनी वासना रखते हैं, उन बेचारों की वासना तो महीनों के नाम बदल कर ही तुष्ट हो गई! इनकी चले तो लीपवर्ष की तर्ज पर हर साल कुछेक दिन बाबरी दिन के तौर पर अलग से जुड़वा दें, भले उसके कारण सूर्य पृथ्वी की गति गणित के सूत्र बदलने पड़ें!
मुझे लगता है कि इस देश में दो ही तरह के लोग पाये जाते हैं – एक वे जिन्हें केवल बाबरी बीमारी है और दूजे वे जिन्हें बाबरी के अलावा हर बीमारी है। स्वस्थ कोई नहीं। हो भी कैसे – शरीरं व्याधि मन्दिरं या मस्जिदं!
 
जितने भी शायर टायर हैं वे बाबरी बीमारी से ग्रस्त हैं। शायरी की चासनी में सोच की नापाकी परोसना बहुत सुरक्षित है। सुनने वाला शायरी पर मुग्ध होते होते नापाकी की परख ही भूलने लगता है। वाह वाही मिलती है सो अलग।
अयोध्या विवाद और बाबरी विध्वंस पर कभी किसी ने ये शेर कहकर बहुत वाहवाही लूटी थी (अब भी जारी है):
 
सरकशीं की किसी महमूद ने सदियों पहले
इसलिए क्या खूब खबर ली मेरे सर की तुमने,
चंद पत्थर गिराए थे किसी बाबर ने कभी
ईंट से ईंट बजा दी मेरे घर की तुमने।
 
इन भावुक दिखती पंक्तियों में वही मक्कारी छिपी है जिसे ओसामा की मौत नहीं पचती। महमूद और बाबर से ऐसे जन लगाव नहीं छोड़ सकते। उन्हें याद करते हैं और मूर्ख बनाने को बात ऐसे करते हैं जैसे कोई मतलब ही नहीं! बहुत खूब! हर दिल बसिया का स्थान चन्द पत्थर हो जाता है और अपना घर ईंट दर ईंट!  
 सरकशीं और 'चन्द पत्थरों' के गिराये जाने से वाकई तकलीफ है तो ठीक करने को आगे क्यों नहीं बढ़ते? उस समय अपने सर और घर नजर आने लगते हैं! बहुत खूब!
  
 मुझे वाहवाही का लोभ नहीं और न चाहता हूँ कि आप करें। बस गुजारिश है कि मक्कारियों को देखने और समझने हेतु आँख, कान और दिमाग खुले रखें। दिल की बात न कीजिये, पम्पिंग मशीन में सोचने समझने की क्षमता नहीं होती। जो बातें मामूली लग रही हैं, असल में वे नासूर हैं। सँभलिये। मालिकाना हक़ पर माननीय न्यायालय का अंतिम निर्णय प्रतीक्षित है, उसका सम्मान होना चाहिये लेकिन जबरी के मालिकाना हक़ की लड़ाई में हक़-ए-मुहब्बत को कठमुल्ली सोच की जो आँच सदियों से जला रही है उसका क्या? कभी यह सरकशी बुझेगी भी या ऐसे ही रहेगी? 
 
मेरे महबूब का घर पत्थर नजर आता है,
खुद का टाट छ्प्पर महल नजर आता है।
चिल्लाने कान फाड़ने को वो दुआ कहते हैं,
मेरा कराहना उन्हें कहर नज़र आता है।
निकाल फेंका मवाद सना नेजा जो सीने से,
उनकी बिलबिलाहटों में भरम नजर आता है।
राजी हम इश्क-ए-नूर में दीवार बँटवार को,
उनको दीनो ईमान पर तरस नजर आता है।
क़ौमों की जिन्दगी में सदियाँ मायने रखती हैं,
रोज सहना उन्हें मंजर-ए-फुरसत नजर आता है।
 
एक और बड़े नामी गिरामी शायर हुये आजमी। बड़े प्रगतिफील कहलाते थे सो उन्हें भी बाबरी बीमारी थी। अंतिम सन्देश की प्रतीक थी वह इमारत जो बुतखाने को नेस्तनाबूत करके बनाई गई थी लिहाजा जब इमारत नेस्तनाबूत हुई तो उन्हें बहुत तकलीफ हुई और उन्हों ने एक नज़्म लिख मारी। कल उनकी पुण्यतिथि थी, खुदा उन्हें जन्नत की हूरें बख्शे, भले कौमनिस्ट थे।
 
अब नये जमाने के भ्रमित फायर शायर को उन्हें याद करने को वह नज़्म न सूझे, कैसे हो सकता है? उन्हों ने यह जताने को बकवास छौंकी कि उन्हें भी बाबरी है, क्रांति की भ्रांति बिना उसके हो ही नहीं सकती। अपन को बाबरी के अलावा सब बीमारियाँ हैं, आज कल तो वैसे भी हालात बहुत नासाज हैं।
  कहने सुनने को अपन भी शायर हैं। जो अपन लिख सकते हैं वो वह कितना भी खाँस लें नहीं लिख सकते और जो वे लिख सकते हैं वो हम कितना भी काँख लें, नहीं लिख सकते। तो उन्हीं की नज़्म की तर्ज और नकल कर अपन ने भी नज़्म लिख मारी, दोनों साइड बाई साइड नोश (या जो भी कोस फोस होता हो) फरमाइये:

 
बाबरी नज़्म - आखिरी बनवास

राम बनवास से लौट कर जब घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्स-ए-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसम्बर को श्री राम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आए

जगमगाते थे जहां राम के कदमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां
मोड़ नफरत के उसी राहगुजर में आये

धर्म क्या उनका है क्या जात है यह जानता कौन
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा यार लोग जो घर में आये

शाकाहारी हैं मेरे दोस्त तुम्हारा खंजर
तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की खता जख्म जो सर में आये

पांव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नजर आये वहां खून के गहरे धब्बे
पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फजा आयी नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे

 अबाबरी नज़्म - तड़ीपार से मुक्ति

राम बनवास से लौट कर जब घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्स-ए-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
देख फौज-ए- मीर श्री राम ने सोचा होगा
इतने बहसी दरिन्दे कहां से मेरे घर आए?

जगमगाते थे जहां राम के कदमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां
मोड़ नफरत के उसी राहगुजर में आये
वो जिन्हों ने बाँटा इंसाँ को सारा जहाँ
दीनी, काफिर और दिम्मियों की सूरत
बलवा करने ढहाने राक्षस बुतशिकन आये।

हरण करता था और लाज लूटता था जो
भालू बन्दर कह मासूमों को मारता था जो
एक उसका करने को नाश जग हारा राम
देखा वैसे कइ रावण, अवाक बेचारा राम
नहीं उठा धनुष फिर हुआ बेघर बेचारा राम। 
  
मजहब मुजाहिद दीन उनका सब जानें
सदियों से कर रहे सरकशी वे सब जानें
शायर भी पहचानें पर् कहें जानता कौन
कौन हैं जो घरों के जलने पर रहे खामोश?
कौन हैं जो छटपटाती जंघाओं को कहते रक्स?
उनके हर्फ भटकाते वो रातों के मौन
करने जमीं का जिना जार घर में आये।

लाज में कहतीं हिन्दुआनियाँ हाय राम
सह लेते हर तरह की यातना मर्द राम
मिलते बाँट लेते हँसी राम राम।
मेरा नाम मिटाने को जन्मस्थान ढहाया
प्यारी सीता की सूधी रसोई भी ना बख्शी
तामीर हुये मलबे से तीन भद्दे से गुम्बद 
है मेरे सर की खता जख्म जो सर में आये।

सदियाँ बीतीं सर सहते और जख्म पकते
लोग भूले नहीं राक्षसों की करनी सहमते
एक बावरे ने कहा राम से बड़ा राम नाम
उसके हर्फ जमे जीभ, था वह भी शायर
दीन था वह, न डरा दीन से, न था कायर -
सदियों की सदायें सिरफिरे जुटे - जय श्रीराम
जन्मभूमि मम पुरी सुहावन - जय श्रीराम
सरयू हुई लाल बलिदानी लहू - जय श्रीराम!  

पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नजर आये वहाँ खून के गहरे धब्बे
पाँव धोये बिना सरयू के धारे मजधारे गये
जल की अँजुरी बही जलसमाधि मिटी 
राम विभोर हुये, कहते हुये अपने तम्बू गये
अब बेघर नहीं मैं फजा रास आयी मुझे
छह दिसम्बर को मिटा तड़ीपार मेरा।
अब कौन साम्प्रदायिक है? यह बताइये। 

24 टिप्‍पणियां:

  1. साहेब होश में तो हैं आप, लाहोल बिला कूवत, ये क्या होशोहवाश में नोश फरमा गए, वो भी शब्द चिह्न "साम्प्रदायिकता" के साथ.

    प्रगतिफील लोगों का वक्त है, और आप हैं की अपने पूर्वजो का तडीपार मिटाने का संकल्प लिए बैठे हैं,

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  2. ಏನ್ ಆಗಿದೆ sir ರೀ ? sudden ಆಗಿ ನೀವು ಇದು ಏನು ಬರದ ಬಿಟ್ಟಿದಿರಾ ?

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    1. बिना आहत करने की भावना के यह बताना चाहूँगा कि यह लिपि मुझे वैसी ही लग रही है जैसे लकड़ी को रन्दे से रनने के बाद निकलीं अद्भुत भिन्न भिन्न वक्राकारों की चिन्दियाँ। उनके आकारों में एक निश्चित गणित होता है - curve tracing याद आती है।
      वैसे अनुवाद तो बता दीजिये दोनों जन!

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    2. क्या अद्भुत पर्यवेक्षण है गिरिजेश जी आपका, और सटीक बिंब :)

      कन्नड़ लिपि से पूर्ण आदर सहित निर्मल परिहास!!

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    3. @ smart indian ji - "ಸುಮ್ಮನೆ ರೀ !! ಗೊತ್ತಾಗಿಲ್ಲ girijesh ಸರ್ ಯಾಕ್ ಇದು ಪೋಸ್ಟ್ ಹಾಕಿದಾರೆ - ಅಡಿಕೆ ಕೇಳಿದೀನಿ " :) :) :) :)

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    4. i said up there in the first comment "
      "what happened sir ji ? what (and why)is this, that you have written all of a sudden "
      ---------
      smart ji is asking - "why kannada?"
      ---------
      i replied "just for fun :) i could not understand the reason for this post - so i asked girijesh ji "

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    5. :) यह भी खूब रही। वैसे कारण पोस्ट में ही है:

      एक और बड़े नामी गिरामी शायर हुये आजमी। बड़े प्रगतिफील कहलाते थे सो उन्हें भी बाबरी बीमारी थी। अंतिम सन्देश की प्रतीक थी वह इमारत जो बुतखाने को नेस्तनाबूत करके बनाई गई थी लिहाजा जब इमारत नेस्तनाबूत हुई तो उन्हें बहुत तकलीफ हुई और उन्हों ने एक नज़्म लिख मारी। कल उनकी पुण्यतिथि थी, खुदा उन्हें जन्नत की हूरें बख्शे, भले कौमनिस्ट थे।

      अब नये जमाने के भ्रमित फायर शायर को उन्हें याद करने को वह नज़्म न सूझे, कैसे हो सकता है? उन्हों ने यह जताने को बकवास छौंकी कि उन्हें भी बाबरी है, क्रांति की भ्रांति बिना उसके हो ही नहीं सकती।

      हटाएं
    6. :)
      kya karein - itttiiii serious post likh diye aap - ham to dar hi gaye ki jaane kya ho gayaa hai | to yun hi socha kuchh mahaul halka fulka kiya jaaye :)

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    7. आजमी बहुत बड़ा नाम है। उसे कुछ कहने से लोग सहमते हैं लेकिन मुझसे नहीं सहा जाता ... अभी फेसबुक पर स्टेटस लगाया:

      'नहीं! वे आईने नहीं हैं, शीशे में जड़े आदमकद चित्र हैं। उनके सामने खड़े होने पर एक ही सूरत दिखती है जो कि अपनी नहीं होती और बदलती तो कभी नहीं।
      मैं ऐसे आईनों पर पत्थर मारता हूँ - एक शरारती बच्चे की तरह, एक बड़े लंठ की तरह। उनके टूटने की छनाक पर मैं ताली पीट पीट हँसता भी हूँ।'

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  3. हाय रे उर्दू! वाह-वाह नज़्म!
    क्या पलट के मारते हैं आप भी!

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  4. नोश (या जो भी कोस फोस होता हो) अभी कुछ नहीं फरमाये हैं, हमारे इस आने को आना न समझा जाए जाना :)
    शाम को ऑफिस से आते हैं और तसल्ली से फरमाएंगे|
    Salute once again.

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  5. @शाकाहारी हैं मेरे दोस्त तुम्हारा खंजर, तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर
    - देश के कई ठेले इन फटे टायरों के भरोसे ही चल रहे हैं! :(

    मजहब मुजाहिद दीन उनका सब जानें
    सदियों से कर रहे सरकशी वे सब जानें
    शायर भी पहचानें पर् कहें जानता कौन
    कौन हैं जो घरों के जलने पर रहे खामोश?
    कौन हैं जो छटपटाती जंघाओं को कहते रक्स?
    उनके हर्फ भटकाते वो रातों के मौन
    करने जमीं का जिना जार घर में आये।

    लाज में कहतीं हिन्दुआनियाँ हाय राम
    सह लेते हर तरह की यातना मर्द राम
    मिलते बाँट लेते हँसी राम राम।
    मेरा नाम मिटाने को जन्मस्थान ढहाया
    प्यारी सीता की सूधी रसोई भी ना बख्शी
    तामीर हुये मलबे से तीन भद्दे से गुम्बद
    है मेरे सर की खता जख्म जो सर में आये।
    - अति सुन्दर!

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  6. अरे 'कमबख़्त' तुम नहीं जानते कि ये क्या लिख डाला ! यह नज़्म तवारीखी साबित होगी।

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  7. जो अपन लिख सकते हैं वो वह कितना भी खाँस लें नहीं लिख सकते और जो वे लिख सकते हैं वो हम

    कितना भी काँख लें, नहीं लिख सकते। Bahut hi badhiya.

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  8. जितने भी शायर टायर हैं वे बाबरी बीमारी से ग्रस्त हैं। शायरी की चासनी में सोच की नापाकी परोसना बहुत सुरक्षित है। सुनने वाला शायरी पर मुग्ध होते होते नापाकी की परख ही भूलने लगता है। वाह वाही मिलती है सो अलग।

    गहन प्रेक्षण!! सोचने को प्रेरित करता आलेख!!

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  9. सिर्फ ये बता रहे हैं आचार्य, अपनी रीडिंग तो यही कहती है कि यह सरकशी बुझेगी|
    @ 'जो अपन लिख सकते हैं वो वह कितना भी खाँस लें नहीं लिख सकते और जो वे लिख सकते हैं वो हम कितना भी काँख लें, नहीं लिख सकते'
    पिछले कमेन्ट में वंस अगेन कहा था, अभी अगेन एंड अगेन कह रहा हूँ|

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  10. I have always believed that writer of any kind (poet, prose writer or blogger)can use his craft to bring about a change in attitude of a nation or at least his readers. I have been lucky enough to read best of Hindi writing along with Bankim Ghosh, Sarat Chnadra and Gurudev Tagore and found them quite convincing and true to my opening line.

    Please take my views as an independent observer (obviously with no religious sentiments or overtures)when I say distributing hatred of any colour (saffron or green) or trying to find fault in each other’s whether for past or current, will not be ending up solving any problems.

    I strongly believe that neither the action of Babar nor the action of those who destroyed an ancient structure have anything to do with religion, culture or nationalism. They were hood looms who have wasted their energy in destructive ways rather than constructive.
    Hope to see, a person of your caliber to help society find answers and new energy to solve problems.

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    उत्तर
    1. I'm glad that you sensed the cunningness in quoted writings of Azami and the other Urdu poet. Yes, such poets have failed the nation.

      It is really painful to North Indian Hindus that all the three most sacred places of Ram, Krishna and Shiv were demolished and mosques were erected on the same places using same material to sustain the pains in their hearts. It will be same feeling which a muslim would have if the three holiest places Kaba, Medina Mosque and Al-Aqsa Mosque are demolished and some temples are churches are erected there.

      Acceptance of others faith is vital for peaceful co-existence. People must realise that entire world can never be monotheist or follower of a single faith.

      Answers are there in our past. Hope you have read this:
      http://girijeshrao.blogspot.in/2011/10/blog-post.html
      and this series
      http://girijeshrao.blogspot.in/2009/09/blog-post_21.html

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  11. No sensible person has any reason to disagree with you that tolerance and respect for other’s faith is very vital for peaceful coexistence in any society and obviously there have been, are and will be black sheep in our society who have aroused religious sentiments through their writings, poetry and speeches to achieve their narrow objective of gaining cheap publicity or a moment of false short lived glory.
    The religions instead of being codes for building progressive societies, which I believe being the primary purpose, have been converted into tools for dividing the societies for misguiding people to achieve selfish ends by manipulators. I strongly believe that this statement was, is and will be true for societies on the planet earth. This have been done through various means like raising fears, reviving the feeling of old hatred or insult, quoting history or religious scriptures out of context not for any betterment of humanity but to use them to meet selfish ends.
    We should seek our ways in the creations of people like Kaabeer and Raheem or in the religious scriptures like Vedas, Bible and Quran, which have a treasure of codes for building a progressive and growth oriented society encompassing tolerance, care and love.
    Sorry for being so long and irritating, but I felt the urge of writing my views and hear the views of mature people like your goodself, who have got the gift of language and putting their though in very arranged manners on paper.

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