सोमवार, 9 जुलाई 2012

कोणार्क सूर्यमन्दिर - 10 : ज़िहादी इस्लाम पर विजय का स्मारक

भाग 12, 3, 4, 5, 6, 7, 8 और 9 से आगे...
... अपने जन्म के कुछ ही वर्षों के भीतर फारस सहित भारत पर ज़िहादी आक्रमण करने वाला इस्लाम 500 वर्षों से भी अधिक पुराना हो चला है किन्तु उसमें सहिष्णुता के चिह्न लेश भर नहीं हैं। भारत को दारुल इस्लाम बनाने के लिये एक ओर असि अत्याचार है तो दूसरी ओर आक्रान्ता ग़ोरी के साथ आये छ्द्म सहिष्णु सूफी मत का। पश्चिम से लेकर पूरब तक इस्लाम अपनी तेग की चमक दिखा चुका है। पश्चिमी तट का प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग सोमनाथ मन्दिर अब तक दो बार ध्वस्त किया जा चुका है।
... एक और लौटता आक्रान्ता मुहम्मद ग़ोरी अजमेर मार्ग के भव्य मन्दिर को नहीं सह पाता। आदेश देता है कि साठ घंटों के भीतर मन्दिर को मिसमार कर मस्ज़िद तामीर की जाय जहाँ मैं नमाज़ अदा कर सकूँ। भारत के भूपटल पर अपने भीतर मन्दिर की विविध सुन्दरताओं को सहेजे एक और कुरूप मस्जिद जन्म लेती है - अढ़ाई दिन का झोपड़ा। इससे उल्लसित हो कर उसके साथ आया सूफी ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती इसी समय 1192 में अजमेर पहुँच कर हिन्दुओं को मूर्ख बना धर्मांतरित करने का अभियान प्रारम्भ करता है...
... 27 हिन्दू और जैन मन्दिरों को तोड़ कर उन्हीं पत्थरों से इस्लाम की क़ुव्वत कही जाने वाली निहायत ही बेहूदी क़ुव्वत अल-इस्लाम मस्ज़िद तामीर की जा चुकी है। प्रांगण में ज्योतिष निरीक्षण के लिये उपयोग में लाया जाने वाला विष्णु स्तम्भ क़ुतुब मिनार के नाम से जाना जाने लगा है जिसकी भित्तियों पर अरबी नक्काशियाँ उकेर दी गई हैं...
इस प्रकार जाने कितने मन्दिर ध्वस्त कर दिये गये हैं। दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठा क़ुतुबुद्दीन ऐबक  काशी के मूल भव्य विश्वनाथ मन्दिर को ध्वस्त करा चुका है और उसके ऊपर रज़िया सुल्तान अपने मात्र चार-पाँच वर्षों के शासन काल में ही मस्ज़िद तामीर कराना नहीं भूली है – काफिरों के लिये मक्का समान पवित्र काशी की धरती पर इस्लाम का परचम! अल्ला हो अकबर!! अल्लाह सर्वश्रेष्ठ है...
ऐसे में रज़िया की मृत्यु के पश्चात बिहार का प्रशासक तुगन खान अब स्वतंत्र शासक है। इस्लामी परचम लहराने की ज़िहादी ललक नया नया राज पाये शासक में उठती है और अछूते रह गये वर्तमान बंगलादेश(पूर्वी बंगाल) यानि तब के गौड़ प्रदेश की ओर इस्लामी तलवारें उठ जाती हैं। कायर शासक लक्ष्मणसेन बिना संघर्ष ही समर्पण कर देता है और उसके पश्चात राजधानी लखनावती सहित पूरे पूर्वी बंगाल में इस्लामी लूट, हत्या, बलात्कार और बलात मतपरिवर्तन का जो भयानक अभियान चलता है, उसकी परिणति आज के पूर्वी बंगाल में इस्लामी बहुसंख्या में दिखती है।
तुगन खान अति उत्साहित है। उसकी दृष्टि प्राचीन सनातन धर्म की पवित्र उत्कृष्ट कलाओं वाली भूमि उत्कल यानि उड़ीसा पर पड़ती है जहाँ पुरी के पुरुषोत्तम का प्रभाव है, एक ओर लहराते समुद्र और दूसरी ओर हिंसक वन्य पशुओं से भरे विशाल घने वन प्रांतर के कारण यह प्रदेश अभी तक ज़िहादी इस्लाम से अछूता है -  यदि मैं यहाँ अल्लाह की अजान लगवा सकूँ तो गाजी के रूप में मेरा भी वैसे ही नाम हो जाय जैसे काशी के विश्वनाथ को ध्वस्त करने और वहाँ मस्ज़िद तामीर करने पर कुतुबुद्दीन  और रज़िया रानी का हुआ है!
किन्तु न तो उसे ज्ञात है, न जनसामान्य को कि मगध बिहार भले सूर्योपासक मग ब्राह्मणों की संतान चाणक्य की कूटनीति को भूल चुका हो, उत्कल की राजधानी जाजपुर से शासन करते राजा नरसिंहदेव प्रथम के महल में जो राजमाता जीवित है उसे पुरनियों की स्मृति है।
तुगन खान को नहीं ज्ञात है कि कभी कलिंग ने दिग्विजयी अशोक के दाँत खट्टे कर दिये थे! उसे नहीं पता कि कभी यहाँ के राजा खारवेल ने यवनों को धूल चाटने को बाध्य किया था!
उसे नहीं पता है कि जिस पुरी के पुरुषोत्तम को वह पददलित करना चाहता है उसमें केवल शैव मत के ज्योतिर्लिंग की शक्ति नहीं, शाक्त और वैष्णव मतों की शक्ति भी सम्मिलित है। उसके प्रांगण में त्रिशूल है, सुदर्शन है और रक्तपिपासु भवानी का खप्पर भी है। उस पुरुषोत्तम ने बौद्ध और जैन मतों की करुणा से अपने को संस्कारित कर समूची जनता को भक्त बना रखा है।
उसे नहीं पता है कि अलग विलग से रहने के कारण उड़िया जन में प्रतिरोध की शक्ति कहीं अधिक ही है...   
... ईस्वी संवत 1248।
राजा नरसिंहदेव के पास तुगन खान के दुस्साहस भरे प्रस्ताव आये:
  • पवित्र पुरी को दीन के हाथ सौंप दो जिससे कि उसे इस्लामी केन्द्र बनाया जा सके।
  • सारे शस्त्रास्त्र इस्लामी आक्रमणकारियों को समर्पित करो।
  • पुरी के पुरुषोत्तम (वर्तमान जगन्नाथ) मन्दिर के समक्ष प्रांगण में वहाँ की समस्त जनता सामूहिक रूप से इस्लाम कुबूल करे या जजिया देना स्वीकार करे।
  • समर्पण के स्मारक रूप में मन्दिर को हमारे हवाले करो जिससे कि उसे ढहा कर वहाँ अल्लाह की शान में मस्ज़िद तामीर की जा सके।
अंत:पुर के मन्त्र और राजसभा की सम्मति के पश्चात राजा ने छलयुद्ध का निर्णय लिया। तुगन खान को सारे प्रस्ताव मान लेने का सन्देश दे दिया गया। राजा ने कहलाया कि वह इस्लाम की शक्ति से भयभीत है और गौड़ के राजा लक्ष्मणसेन की भाँति ही समर्पण करना चाहता है।
समर्पण हेतु दिन और समय नियत कर दिये गये। स्थान निश्चित हुआ, पुरी के जगन्नाथ मन्दिर का प्रांगण। राजा के आदेश से पुरी को श्रद्धालुओं से खाली करा उन्हें गुप्त स्थान पर भेज दिया गया। पूरे मन्दिर में सशस्त्र योद्धा छिप कर सन्नद्ध हो गये और बाहर नगर की सँकरी वीथियों में सुदृढ़ गुप्त व्यूहजाल लगा दिया गया।
बिना युद्ध के ही विजय का हर्ष मनाती इस्लामी सेना वीथियों में बिखरती हुई मन्दिर के प्रांगण में पहुँची और सहसा ही नियत समय पर मन्दिर के घंटे घड़ियाल बज उठे। यह आक्रमण का संकेत था। उड़िया योद्धा ज़िहादियों पर टूट पड़े। ज़िहादी जैसे चूहेदानी में फँस गये। पूरे दिन और रात युद्ध होता रहा जिसमें सनातनी विजयी हुये और कुछ इस्लामी ही जीवित बचे।
पहली बार इस्लामियों को उन्हीं की भाषा में उत्तर मिला था। पहली बार उनके विरुद्ध किसी हिन्दू राजा ने धर्म आधारित युद्ध के स्थान पर कूटनीति आधारित छलयुद्ध लड़ा था। अब तक छल छ्द्म से जीतते आ रहे इस्लामियों को यह पाठ सदियों तक भयभीत रखने वाला था। 
प्राय: तीन सदियों के बाद काला पहाड़ पुन: दुस्साहस कर सका और उसे भी बहुत कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। परिणामत: आज भी उड़ीसा प्रांत में इस्लामी जनसंख्या अत्यल्प है।
एक ही समय के दो राजाओं की भिन्न नीतियों के इतने भिन्न परिणाम यह दर्शाते हैं कि यदि नेतृत्त्व ठीक हो तो जनता बहुत कुछ कर सकती है और किताबी मजहबों के विपरीत समस्त मानवीय मूल्यों और मत मतांतरों को समाहित किया हुआ सनातन धर्म अफीम नहीं, जनजीवन की प्राणशक्ति है। पुरी के पुरुषोत्तम का समन्वयी जगन्नाथ रूप उसका प्रमाण है। अंतिम किताब और अंतिम दूत में विश्वास करने वाले ज़िहादी जाहिल तो ऐसे समन्वय की कल्पना भी नहीं कर सकते!
राजा नरसिंहदेव ने विजय के स्मारक स्वरूप प्राचीन अर्कक्षेत्र और मग ब्राह्मणों की मित्रभूमि पर वहीं विराट सूर्यमन्दिर के निर्माण का निर्णय लिया जहाँ कभी पहली बार सकलदीपियों ने चमत्कार दिखाया था। ज्योतिर्विद्या के साधक राजा ने मन्दिर स्थान को नाम दिया – कोणार्क अर्थात शिल्प और ज्यामिती का निचोड़ सूर्य विरंचि नारायण। कोणार्क किसी अभिशाप से सम्बन्धित नहीं है, यह तो पुरखों के साहसी कल्याणमय आशीर्वाद का पुण्य स्मारक है।
राजा ने निर्माण की अनूठी योजना  प्रस्तावित करने के लिये सदाशिव समन्तराय महापात्र और बीसू महराना को बुलावा भेजा जो आगे क्रमश: स्थापत्यकार सूत्रधार और प्रधान शिल्पी नियुक्त हुये।
(जारी) 
(अगले अंक में कोणार्क सूर्यमन्दिर का स्थापत्य और योजना)
_______________________
सन्दर्भ:
(1) History of Orissa, Vol I, R D Banerji, Prabasi Press, Calcutta

(2) http://www.indiadivine.org/content/topic/1492252-great-hindu-heroes-who-saved-india/
(3) Konark Sun Temple - The Gigantic Chariot of the Sun God, CE&CR AUGUST 2012
(4) http://asi.nic.in/asi_monu_whs_konark_intro.asp
(5) http://research.omicsgroup.org/index.php/Tughral_Tughan_Khan
(6) 
http://research.omicsgroup.org/index.php/Narasimhadeva_I

37 टिप्‍पणियां:

  1. कभी कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी रचित 'सोमनाथ' पढ़ा था, खून खौल उठता था ये सब पढकर|
    उदारतावादी, बहुलवादी संस्कृति रही है हमारी, ये विलक्षणता हमारा प्लस प्वाईंट है और यही माईनस प्वाईंट भी| हम ये ही नहीं जानते कि जो कर रहे हैं, उसका अंजाम क्या होने वाला है|

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आचार्य चतुरसेन का "सोमनाथ" भी पढ़ लीज्यो, पता नहीं आपका खून कैसे खौलता है ....... हम जैसे अस्सी करोड के पानी नुमा खून जैसे द्रव्य में तो भाप भी नहीं उठती .

      हटाएं
  2. आज ही आपकी पिछली तीनों पोस्टें पढ़ी, इतिहास को पहली बार जान कर अभिभूत हूँ। पता नहीं इतिहास के पाठ्यक्रमों को सहिष्णुता से क्यों पोते हुये हैं सब।

    जवाब देंहटाएं
  3. अच्छा।
    १- हिन्दू राजा इसलिये भी इस्लाम के समक्ष नत होते चले गये, क्योंकि उनके लिये हिन्दुत्व एक स्वार्थ का तंत्र था, परंपरा से आता हुआ, कोई हार्दिक लगाव होता तो हिन्दुकुश से कन्याकुमारी तक हिन्दू धर्म की यह निरुपायता नहीं होती।
    २- जिस उड़ीसा के हिदुत्वानुराग को आप गाते नहीं थक रहे हैं वह आज भी दलितों को मंदिरों में नहीं प्रवेश करने देता, कई घटनाएं हैं। अगर हिन्दू धर्म की इस आदि ढोंग पर, उड़ीसा में इसकी वर्तमान दशा पर कुछ लिखेंगे तो देखना दिलचस्प होगा। ‘नेपाल’ जैसा देश अकेला हिन्दू राष्ट्र तो था, कैसा है, कहां पहुंचा, सबको पता है।
    आभार!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आचार्य! इतने दिनों बाद आप ने अनुग्रह किया भी तो आनन्द नहीं आया। मुझे पूरा विश्वास है कि यह टिप्पणी आप ने सारी कड़ियों को बिना पढ़े की है :) खैर...
      @ हिन्दुत्त्व - विडम्बना ही है कि जहाँ इस्लामी अत्याचारों की बात होती है हिन्दुत्त्व आ धमकता है। पूरी शृंखला में कहीं भी यह शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है। हिन्दू भी वहीं कहा है जहाँ विदेशी मजहब के सामने दर्शाया है वरना सनातनी शब्द का प्रयोग किया है और साथ ही ब्राह्म, वैष्णव, शैव, सौर, शाक्तादि मत मतांतरों के आपसी संघर्ष और समन्वय को दर्शाया है। पढ़िये तो सही! यह एक यात्रावृत्त है जिसमें यह प्रयास है कि धर्म, मिथक, इतिहास, भूगोल, साहित्य, शिल्प, स्थापत्य, वनस्पतिजगत आदि आदि सब को समेट दिया जाय। यह कड़ी या ऐसी कड़ियाँ बस अंग भर हैं जो कि सच हैं।
      @ हिन्दू राजा और स्वार्थ तंत्र - सभी शासन तंत्र ऐसे ही होते हैं। नये विधान और आज के शासकों को देख लीजिये। उद्देश्य यह है कि धनात्मक पक्ष और बातों को उजागर कर दिया जाय वरना आज के प्रगतिशीलों द्वारा शासित संसार में भी कुछ कम कचरा नहीं है!
      @ हिन्दू धर्म - सनातन कहिये जो कई मतों का समुच्चय था।
      @ उड़ीसा का हिंदुत्त्वाराग - पुन: त्रुटि। यहाँ हिन्दुत्त्व नहीं इतिहास की तीन ज्वलंत सचाइयों को और भूगोल के एक पक्ष को उद्घाटित किया है जब अत्याचार और ज़िहादी बेहूदगी के विरुद्ध जनसमूह संगठित हो खड़ा हो गया था। कोई आवश्यक नहीं कि किसी जनसमूह के गुण बताये जायँ तो उनके असन्दर्भी अवगुण भी गिनाये जायँ। पॉलिटिकल करेक्टनेस और बैलेंस की यह अकादमिक कला मुझे नहीं आती।
      @ दलितों का मन्दिर प्रवेश - यह एक यात्रावृत्त है और चाहे पुरी हो, लिंगराज हो या कोणार्क; मुझे कहीं भी दलित के मन्दिर प्रवेश पर पाबन्दी नहीं मिली। मैं जिस मन्दिर के बारे में लिख रहा हूँ वहाँ दलित विमर्श की सम्भावना शून्य है।
      @ हिन्दू धर्म का आदि ढोंग - इस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। असल में कइयों की तो रोजी रोटी इसी से चल रही है। इसी वृत्त की एक कड़ी अपराधी कौन पढ़ लीजियेगा। उसे लिखा क्यों कि प्रासंगिक था। दलितों के कोणार्क, पुरी या लिंगराज मन्दिरों में प्रवेश हेतु किसी आन्दोलन की सूचना मुझे उस काल में नहीं मिली। कोई हुआ हो तो बताइयेगा, अवश्य सम्मिलित कर दूँगा। मुझे तो यही पता चल पाया है कि तमाम ढोंग पोंग के बावज़ूद पुरी के जगन्नाथ के द्वार सभी हिन्दुओं के लिये खुले हुये हैं और कोणार्क में तो खैर ऊपर चढ़ कर कोई भी थूक मूत सकता है, कोई पाबन्दी नहीं है (यह वाक्य दलितों को लक्षित कर नहीं लिखा है। बताना आवश्यक लगा:))।
      @ वर्तमान दशा और नेपाल - माने जब कुछ लिखा जाय तो उसके साथ गैर जरूरी भी लिखा जाय। आम पर लिखा तो गली के मोड़ के नीम के बारे में क्यों नहीं लिखा? बिना गैर जरूरी के लिखे निस्तार नहीं! यह विषय आप के लिये छोड़ता हूँ, लिखियेगा। वैसे अब का नेपाल पुराने नेपाल की तुलना में सर्वहारात्मक रूप से तर गया है, ऐसी कोई सूचना मुझे नहीं है।... गया था कभी नेपाल जिसका अंश मनु और उर्मी की प्रेमकथा में आयेगा। उसे अवश्य पढ़ियेगा।
      @ गाते थक नहीं रहे - मैंने समझा था जहाँ वाकई गायन हुआ है वहाँ आप पहुँचेंगे लेकिन आप तो असल गायन देखे ही नहीं! कड़ियों में वैदिक और अंग्रेजी काव्यगायन यत्र तत्र बिखरे हुये हैं। वनसरू पर तोरू दत्त की पूरी कविता का उल्लसित आयोजन भी है। कमाल है कि आप वहाँ पहुँचे ही नहीं या पहुँचे भी तो मौन रहना श्रेयस्कर समझे! कहीं ऐसा तो नहीं कि मौन इसलिये टूट गया कि ज़िहाद और इस्लाम पर मैंने कुछ लिखने की गुस्ताखी कर दी या अजमेर के ख्वाजा साहब की असलियत पर थोड़ी सी रोशनाई छिड़क दी? :) नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मजाक कर रहा हूँ।

      हटाएं
    2. दोष आचार्य जी का भी नही है भैया जी, जनेवि के हवा पानी का असर है. वहाँ का तो बूटा-बूटा पत्ता-पत्ता सेक्युलर है. सोंचा था पहले हीं लिखने को लेकिन कुछ सोंच के आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था... आचार्य जी से क्षमा याचना सहित (पूर्वानुमानित या अग्रिम, जो भी कहें)

      हटाएं
    3. वैसे हिंदू राष्ट्र एक ही नहीं था कुल जमा तेरह हिंदू राष्ट्र वर्तमान है इस विश्व में :)

      हटाएं
    4. which 13 amit ji ? strange - in khasta sher also presently girijesh ji was talkin about the number 13, and now here. also friday the 13th ...

      हटाएं
    5. @ Shilpa ji हिन्दू राष्ट्रों के बारे में अधिक जानने के लिए इस लिंक पर पहुंचे >>>> http://www.hindusthangaurav.com/hindudesh13.asp

      हटाएं
    6. @ Shilpa ji हिन्दू राष्ट्रों के बारे में अधिक जानने के लिए इस लिंक पर पहुंचे >> http://www.hindusthangaurav.com/hindudesh13.asp

      हटाएं
  4. ऐसी दुर्लभ जानकारियों के लिए धन्यवाद! इसमें कुछ सन्दर्भ भी जोड़ दिए जाएँ तो लेख और भी सार्थक और प्रभावशाली बन सकता है।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत अच्छी और ऐतिहासिक जानकारी है, धन्यवाद, वन्देमातरम

    जवाब देंहटाएं
  6. पूर्वी बंगाल सहित देश के कई कोनों में इस्‍लाम के आगे बिना प्रतिरोध या हल्‍के प्रतिरोध से घुटने टेक देने वाले प्रकरण बहुत सुने हैं, लेकिन इनके साथ ही उड़ीसा का प्रकरण बताकर आपने सिद्ध किया कि अगर नेतृत्‍व सही हो तो इतिहास बदल जाता है।

    अमरेन्‍द्र त्रिपाठी से भले ही सहमत न होउं, लेकिन सनातनियों में घुसे हिंदू धर्म से मुझे भी तकलीफ है। चार वर्ण कार्य के आधार पर बने और बाद में कुछ लोग काबिज हो गए, धर्म की आड़ में ऊंचे पदों पर।

    क्‍या विनाश का यह आवश्‍यक कारण नहीं था कि धर्म और जाति की श्रेष्‍ठता ने कर्म आधारित प्रतिभा को कुचल दिया। मुझे भारत में बौद्ध, जैन, इस्‍लाम और अब इसाई संप्रदायों के बढ़ने का यही कारण दिखाई देता है। कुत्सित प्रयास तो कब नहीं हुए होंगे...

    जवाब देंहटाएं
  7. भारतीय इस बात से अनजान ही थे कि धर्म के लिए संघर्ष करना पडता है जिहाद का सामाना करना पडता है या रक्त बहाना पडता है। भारतीयों के लिए धर्म सदैव सुख शान्ति का पर्याय रहा।
    शायद पुरी का यह प्रथम शौर्य हो………गौड़ के राजा लक्ष्मणसेन की नियति सबक बनी हो………
    यही है…"पहली बार इस्लामियों को उन्हीं की भाषा में उत्तर मिला था। पहली बार उनके विरुद्ध किसी हिन्दू राजा ने धर्मनीति आधारित युद्ध के बजाय कूटनीति आधारित युद्ध लड़ा था।"

    "उसे नहीं पता है कि जिस पुरी के पुरुषोत्तम को वह पददलित करना चाहता है उसमें केवल शैव मत के ज्योतिर्लिंग की शक्ति नहीं, उसमें शैव, शाक्त और वैष्णव मतों की शक्ति सम्मिलित है। उसके प्रांगण में त्रिशूल है, सुदर्शन है और रक्तपिपासु भवानी का खप्पर भी है। उस पुरुषोत्तम ने बौद्ध और जैन मतों की करुणा से अपने को संस्कारित कर समूची जनता को अपना भक्त बना रखा है।"

    नमन उस समय संगठित रक्षकों को!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. @ भारतीय इस बात से अनजान ही थे कि धर्म के लिए संघर्ष करना पडता है जिहाद का सामाना करना पडता है या रक्त बहाना पडता है।
      वास्तव में भारतीय धर्म को तो जीते ही आये थे, और उपासना पद्दति के लिए शास्त्रार्थ के इतर शस्त्रों से भी लड़ाई होती है यह पहली बार क्रूर और बर्बर जाती वालों से ही जानने को मिला था ......

      हटाएं
    2. हिंसा जैसे वैष्णव शैव, बौद्ध सनातनी यहाँ भी थी। कई बातें स्मृतियों में थीं लेकिन वे ईश्वरीय वाणी नहीं थीं। यहाँ विधर्मियों के लिये हिंसा के पक्ष में कोई ईश्वरीय आदेश नहीं था। इस कारण बहुत शीघ्र ही हिंसा शमित कर समन्वय की राह पकड़ ली जाती। क़यामत तक काफिरों पर तलवार भाँजने का कोई अंतिम आदेश नहीं था।

      हटाएं
    3. सही कहा गिरिजेश जी, "हिंसा के पक्ष में कोई ईश्वरीय आदेश नहीं था"
      स्मृतियों आदि में उल्लेखित हिंसा भी विशिष्ट परिस्थितियों में विशिष्ट पुरूषों द्वारा अपवाद मार्ग की तरह प्रयुक्त हुई है वहाँ विवशता रेखांकित हुई है। हिंसा सर्वसामान्य, सर्वजनभोग्य नहीं थी। ऐसा तो किंचित भी नहीं था कि कोई आम-फ़हम अविवेकी मुँह उठाए गाज़ी बनने को निकल पडे!!

      हटाएं
  8. हमारे लिए सर्वथा नवीनत्तम और अद्भूत जानकारियाँ है। आपका बहुत बहुत आभार!!

    जवाब देंहटाएं
  9. कुछ जगहों पर जाकर. आध्यात्म और गर्व की मिश्रित अनुभूति होती है. भावुक. पढ़कर लग रहा है. सोमनाथ प्रांगन में ऐसा हुआ था. कोणार्क जाना नहीं हो पाया अब तक.

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत अच्छी और ऐतिहासिक जानकारी है, धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  11. सारे इतिहास को जो बारह सौ सालो से पीड़ा दे रहा है उसे वास्तविक रूप में इतने कम और सरलता से कैसे अभिव्यक्त किया जाता है अच्छी तरह समझ में आगया यह लेख पढकर ................
    बाकी सारे संसार को अपनी बर्बरता से मात्र एक सदी में पदाक्रांत कर लेने वाले इस बर्बर बेड़े को इस धरती को छूने में ही सदियाँ लग गयी थी .

    आभार इस पोस्ट के लिए !

    जवाब देंहटाएं
  12. यह लेख बहुत सारे लोगों को और चुभेगा अभी तो कुछ ही लोग सामने आये हैं, ये लोग सच्चा इतिहास क्यों नहीं सुनना चाहते हैं ।

    जवाब देंहटाएं
  13. अगर नेतृत्त्व ठीक हो तो जनता बहुत कुछ कर सकती है और किताबी मजहबों के विपरीत समस्त मानवीय मूल्यों और मत मतांतरों को समाहित किया हुआ सनातन धर्म अफीम नहीं, जनजीवन की प्राणशक्ति है।
    --
    काश! यह एक बात सभी को समझ आ जाए.
    ---
    उड़ीसा के राजा सही मायने में राजा धर्म निभा गए.गर्व होता है ऐसे शासकों पर.
    ज्ञानवर्धन हुआ.
    आभार.

    जवाब देंहटाएं
  14. मुझे तो इस बात पर भी हैरानी होती है कि, आखिर मुस्लिम शासकों को भारत के इतिहास में इतना तवज्जों क्यों दिया गया है ?? जब कि, इनमें से कोई भी हिन्दुस्तानी नहीं था, न अकबर, न बाबर, न हुमायूँ । ये सारे के सारे लुटेरे थे, जिन्होंने हमारे देश में आकर, हमारी आवाम को जी भर के लूटा है। फिर भी अकबर महान है ??? वो कैसे ???? भारतीय सरकार ने महाराणा प्रताप, शिवाजी को इतिहास की पुस्तकों में वो स्थान क्यों नहीं दिया, जबकि वो अपना देश इन लुटेरों के बचाने के लिए लड़ रहे थे, और ये लुटेरे विदेशी थे। ऐसा उल्टा इतिहास भारत में ही संभव है। इस बात के लिए एक मुहीम चलनी ही चाहिए। इन सारे तुर्कों को भारत के इतिहास के पन्नों से निकाल फेंकना चाहिए और भारत का सही इतिहास फिर से लिखा जाना चाहिए।

    आपने ऐसा लिखा है की पढ़ते-पढ़ते मेरा बी.पी हाई हो गया, बहुत ही ओजपूर्ण...आपका लिखा हिन्दुस्तान का बच्चा-बच्चा पढ़े ऐसा कुछ होना चाहिए, ताकि सबको सही जानकारी मिले..

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. वे इतिहास के अंग हैं। समस्या उनके पुस्तकों में रहने से नहीं, सच को छिपाने और विकृत करने से है। यह भी कि केन्द्र में क्या है? औरंगजेब जैसों के नाम पर राजधानी में मार्ग हैं।
      ताजमहल के शिल्पी का नाम सामान्य ज्ञान में प्रश्न होता है लेकिन कोणार्क मन्दिर का नहीं!
      यह तो बताया जाता है कि हिन्दुओं की जाति व्यवस्था और संगठन की कमी के कारण हमलावर विजयी हुये लेकिन यह नहीं बताया जाता कि हमला करने की मनोवृत्ति ही ग़लत है और ऐसी हर किताब वाहियात जिसमें इसके लिये खुदाई आदेश हों।
      और यह भी नहीं कि सूर्यमन्दिर एकता और प्रतिरोध के विजय का स्मारक है।

      हटाएं
  15. आज कुछ घंटों से आपकी पोस्टों को ही पढ़ रहा हूँ और साथ ही चिंतन मनन भी हो रहा है. असहमति अथवा इतर सोच की गुन्जायिश तो हर लेख के लिए बनती ही हैं परन्तु कुल मिलाकर (holistically) बेहद रुचिकर, ज्ञानवर्धक, विचारोत्तेजक श्रंखला रही. आपके परिश्रम को नमन.
    अंतिम तस्वीर कहाँ से मिल गयी?

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभार। आप को पसन्द आई तो समझिये श्रम सफल हुआ। गुणी जन सराहें तो आत्मविश्वास बढ़ता है। धन्यवाद।
      ...जहाँ तक मुझे याद है बचपन की इतिहास की पुस्तक में यह चित्र था। फिलहाल तो नेट पर टहलते हुये ही मिला। इसका उल्लेख और उपयोग तो पुनर्निर्माण वाली कड़ी में भी है... है बड़ा रहस्यमय क्यों कि 1809 की बनी पेंटिंग में भी मुख्य शिखर आंशिक रूप ही प्रदर्शित है। इतना अवश्य है कि आमलक तक था। बाद की पेंटिंगों में क्रमश: ऊँचाई कम होती गई है माने ढहता गया।... 1809 से पहले फोटोग्राफी का आविष्कार नहीं हुआ था। स्पष्ट है कि यह किसी सधे प्रशिक्षित अंग्रेज/यूरोपीय हाथ का बना पेंसिल चित्र या वुडकट जैसा कुछ है। ...अभी तो और भी ऐसा कुछ हाथ में है जो चौंकाता है। समय आने पर प्रस्तुत होगा, शीघ्र ही। साथ बने रहिये। पुन: धन्यवाद।

      हटाएं
  16. अत्याचारी को उसी की भाषा में प्रत्युत्तर देना, कूटनीति नहीं परम पवित्र धर्म है...

    जवाब देंहटाएं
  17. वे राई का
    पहाड़ बना लेते हैं

    मैं गोवर्धन भी
    ऊँगली पर थाम लेता हूँ

    वे रूहानियत के पर्दे में
    युद्ध के पैगाम देते हैं

    मुझे युद्ध में भी
    जीवन के गीत याद आते है

    उनके पास
    सब बना बनाया है..बातें भी
    मेरे पास
    बना बनाया कुछ भी नहीं

    वे हर चीज़ को
    तिरछी नजर से
    किसी ख़ास रंग के
    असर में देखते हैं

    मैं हर चीज़ को
    खुली आँखों से देख लेता हूँ

    तभी तो
    पूछता हूँ तुमसे...

    हे ईश्वर !
    जब तुमने इन
    आदमीनुमाओं को बनाया था
    सामान कहाँ से लाया था ?
    ***

    जवाब देंहटाएं
  18. काफिर नहीं कातिल नहीं शैताँ नहीं हूँ मैं
    अल्लाह तेरी रहमत मुसलमाँ नहीं हूँ मैं

    जवाब देंहटाएं
  19. इतिहास के बढ़िया विश्लेष्ण के साथ अति सुंदर आलेख .समझने में असमर्थ हूँ कि इस लेख के संदर्भ का हिंदू धर्म की जाति-व्यवस्था से क्या सम्बन्ध है कि इसकी चर्चा हुई . वैसे सभी धर्मों-समाजों में किसी ना किसी आधार पर विभेद अस्तित्व में है. इसलिए जाति व्यवस्था को हिंदुत्व के सभी गुणों पर भारी मानना सिरे से ही गलत है

    जवाब देंहटाएं
  20. कोणार्क विजय का स्मारक है, यह आज ही पता लगा।
    विचित्र तर्क हैं, सिर दर्द का उपचार करते समय घुटने में पट्टी क्यों नहीं बांधी?
    कथित आचार्यों की दूध में नीम्बू निचोड़ने की प्रवृत्ति नहीं बदलने वाली।
    मन्दिर में दलित प्रवेश को लेकर झूठ को अनवरत दोहराते देखकर हैरानी होती है।

    जवाब देंहटाएं

कृपया विषय से सम्बन्धित टिप्पणी करें और सभ्याचरण बनाये रखें। प्रचार के उद्देश्य से की गयी या व्यापार सम्बन्धित टिप्पणियाँ स्वत: स्पैम में चली जाती हैं, जिनका उद्धार सम्भव नहीं। अग्रिम धन्यवाद।