मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

अनु अल्पना

अपने ब्लॉग मैं घुमंतू पर अपने जुड़वे बच्चों के लिये चिट्ठियाँ सहेजती हैं ब्लॉगर अनु। निज जीवन के अनुभवों के निचोड़ भविष्य में बड़े हुये अपने बच्चों के लिये सहेजने वाली सम्भवत: यह अकेली हिन्दी ब्लॉगर हैं। बहुत बार सोचता हूँ कि कोई बीसेक वर्षों के पश्चात किसी मौन दुपहर में तीनों एक साथ जब इन आलेखों को पढ़ेंगे तो काल की सीमायें समाप्त हो जायेंगी और भावनायें उस कलर बॉक्स की तरह जिस पर किसी ने पानी उड़ेल दिया हो!

इन आलेखों में बड़े संजीदे से कथन मिलते हैं:

  • हर मोड़ पर ऐसे लोग मिलेंगे जो तुम्हारा फ़ायदा उठाएंगे (और उठाएंगे ही। अच्छे लोगों का सब फ़ायदा उठाते हैं।) लोग तुम्हें धोखे भी देंगे। तुम्हारे साथ फ़रेब भी करेंगे। उनकी फ़ितरत तुम नहीं बदल सकते, लेकिन अपनी फ़ितरत भी मत बदलना। उन्हें ये सोचकर माफ़ कर देना कि तुमसे बड़ा फ़रेब वे खुद के साथ करते हैं। उन्हें अपनी दुआओं में ढेर सारी जगह देना और इस बात पर यकीन रखने की कोशिश करना कि दुनिया में इंसान ज़्यादा हैं और लोग कम।
  • किसी बात का अफ़सोस मत करना। फिर भी अफ़सोस हो तो वो काम दुबारा मत करना। ये तुम्हारी मुक्ति का इकलौता रास्ता है।
  • प्यार बचाए रखना, हर क़ीमत पर। प्यार बचा रहेगा तो भरोसे और उम्मीद को भी जगह मिलती रहेगी।
  • किसी से नफ़रत मत करना। उदासीनता और बेरूख़ी ज़्यादा कारगर हथियार हैं।

अनु पत्रिकाओं और अखबारों के लिये भी लिखती हैं। प्रेम, समसामयिक मुद्दे, फिल्में, स्त्री विषय और अनदेखे संसार से आती खिलखिलाहटें - अनु की लेखनी सब समेटती है।
और अब प्यार क्या है ये भी समझ आने लगा है और इस प्यार को कैसे बचाए रखा जाए, ये भी। प्यार वो है जो दादाजी चश्मा लगाकर सुबह की चाय पीते हुए मेरी अनपढ़ दादी को अख़बार पढ़कर सुनाया करते थे। प्यार वो है जो मां डायबिटिक पापा के लिए अलग से खीर बनाते हुए दूध में मिलाया करती है। प्यार पति के खर्राटों में मिलने वाला सुकून है। प्यार गैस पर उबलता हुआ चाय का पतीला है, जिसमें शक्कर उतना ही हो कि जितना महबूब को पसंद हो। प्यार अपनी गैरमौजूदगी में भी मौजूद रहनेवाला शख्स है। प्यार आंखें बंद करके लम्हा भर के लिए उसकी सलामती के लिए मांगी हुई दुआ है। प्यार फिल्मों के ज़रिए हमें सिखाई-बताई-समझाई गई अनुभूति तो है ही, प्यार ‘दी एन्ड’ के बाद की बाकी पिक्चर है।

एक बैरागी भाव भी इनके लेखन में दिखता है जिसकी उदासी कभी कभी भीतर तक समा जाती है। टुकड़ा टुकड़ा उदास क्षण इनके ब्लॉग पर बिखरे पड़े हैं जो स्वयं उदासी का अतिक्रमण करते लगते हैं और मन के आकाश में गेरुआ पसरने लगता है।

तुमने झांककर
कमरे में देखा है
कहा कुछ भी नहीं।
मेरा तपता माथा
तुम्हारी उंगलियों की
छांव ढूंढता है।
मेरी गर्म हथेली पर
क्यों नहीं उतरती
तुम्हारे पसीने की ठंडक?
मैं घूमकर बिस्तर पर से
खिड़की को देखती हूं।
दो हरे पर्दे हैं,
और है नीम की हरियाली।
आंखें तब क्यों
लाल-सी लगती हैं?
क्यों सब
मुरझाया लगता है?
तुम तेज़ चले जाते हो,
मैं भी तो
थमती, रुकती नहीं आजकल।

नव्य लेखन के प्रतिमान गढ़ती अनु वसंत के बारे में लिखती हैं:
बसंत चुपचाप अपना साजो-सामान बांधने में लगा है। फूलों ने उदास होकर खिलना छोड़ दिया है। सेमल ने नाराज़ होकर अपने सैंकड़ों फूल ज़मीन पर फेंक दिए हैं। कचनार ने फूलों का गहना उतार दिया है। अब पत्तों से श्रृंगार की बारी है। कोने में खड़ा एक टेसू है जो गर्द-ओ-गुबार से निडर यूं ही खड़ा रहेगा, कम-से-कम तबतक कि जबतक अमलतास और गुलमोहर मोर्चा ना संभाल लें।

इस जाते हुए बसंत के लिए उदास होते-होते रह गई। इस कमबख़्त की तो फ़ितरत ही ऐसी है। मनमोहना आता ही दो-चार-दस दिनों के लिए है। आता भी इस अदा से है कि जैसे पूरी दुनिया को दीवाना बनाने में ही इसके अहं को तुष्टि मिलती हो। प्यास बढ़ाने आता है, प्यास बुझाने का कोई उपाय नहीं करता। आंखों पर रंगों के परत-दर-परत ऐसे पर्दे डालता है कि सच-फ़रेब, सही-गलत कुछ नज़र नहीं आता। ऋतुओं का राजा कहलाने भर के लिए हर तरह की चालबाज़ियां, हर तरह के छल-कपट करेगा। अगर इसकी बातों में आ गए तो ख़ुद को नाकाम समझ लीजिए। ऐसे दिलफेंक, आशिकमिज़ाज, किसी के ना हो सकनेवाले छलिया बसंत के लिए क्या उदास होना?

कभी कुछ अलग सा यूँ ही पढ़ने को मन करे तो अनु का ब्लॉग एक उपयुक्त स्थान है। घुमंतू की अनुभूतियों का फलक व्यापक है।   

अल्पना का ब्लॉग उनके नाम और अपने नाम के अनुरूप है; निश्चित ज्यामिति में रची कृति नहीं, बिखरे रंग जिन्हें कई बार फैलाने के लिये पाठकों के जिम्मे कर दिया जाता है, कभी तो आप ने भी नभ में फैले टुकड़ों को आकार देने का प्रयास किया होगा! 
 
चाह छाँव मीत प्रीत गीत अर्थ-बिन अर्थ समय-असमय बात -बेबात गुण -अवगुण उपेक्षा -अपेक्षा धुंध- स्वप्नशून्य- नैन

अलग से उपेक्षित विषय भी समेटती हैं:
लेकिन वह एक जिन्होंने कहा 'नहीं,जीते जी वसीयत नहीं  लिखनी चाहिए, वही इस समूह की सब से अधिक उम्र की महिला थीं। भय की छाया उनके मुख पर देखी जा सकती थी।
उन्हें सब ने समझाते हुए अपने तर्क दिए  तो उन्होंने  कहा कि इस विषय पर बात न करो क्योंकि वसीयत का संबंध मृत्यु से है और अभी से उस के बारे में क्यों सोचना ??जब वक्त आएगा तब देखेंगे। उनके भावों का सम्मान करते हुए फिर किसी ने उस बात पर अधिक बात नहीं की।

[लिखी तो मैंने भी अभी तक नहीं है ,न ही ' हाँ ' कहने वालों में से  किसी ने !]

और कभी कभी रहस्यमय भी हो जाती हैं:
याद आता है ,उस सांझ के धुंधलके में ,न जाने कैसे हलकी सी आँख लगी और
उन कुछ पलों में ही  सारे दृश्य  बदल गए थे।
बदल गया आकाश ,बदल गयी फिज़ा..
बादलों का रंग भी स्याह हो गया था ,ज्यूँ-ज्यूँ अँधेरा गहरा हुआ , बादल पानी बनते गए।
लगता है शायद उसी बरसात में  वे  मोती पिघल कर  बह  गए हैं।

चित्रों के माध्यम से मध्य पूर्व की अच्छाइयों से भी परिचित कराती हैं। इस ब्लॉग को पढ़ते हुये क्रमश: निखराव के दर्शन होते हैं। अल्पना गाती भी हैं। इस पोस्ट को देखिये तो! 
वास्तविक जीवन में यूँ तो हर रिश्ते की अपनी एक पहचान होती है उनकी एक नज़ाकत होती है ,अधिकार और अपेक्षाओं से लदे भी होते हैं .एक कहावत भी है 'जो पास है वह ख़ास है'. यथार्थ से जुड़े और जोड़ने वाले इन रिश्तों से परे होते हैं -कुछ और भी सम्बन्ध ! जो होते हैं कुछ खट्टे , कुछ मीठे,कुछ सच्चे ,कुछ झूटे! यूँ तो इन में अक्सर सतही लगाव होता है..जो नज़र से दूर होतेही ख़तम हो जाता है. इन के कई पहलू हो सकते हैं..

अप्रवासी की बहुविधा के दर्शन इस आलेख में होते हैं: 

भारत जाते हैं तो सब को देख कर ऐसा लगता है ...किसी के पास समय नहींहै,सब की अपनी दुनिया बस चुकी है, बहुत आगे निकल गए हैं परन्तु हम आजभी वक़्त के पुराने काँटों में रुके हुए हैं!
'देश' छुट्टियों में जाते हैं तो पहले कुछ दिन तक अडोस पड़ोस के लोग पूछते हैं'कब आये?'कितने दिन हो?इंडिया वापस नहीं आना क्या?
-------१०-१५ दिन गुज़रते ही उन्हीं लोगों का सवाल होता है ' कब की वापसीहै? कनाडा कब जा रहे हो?इंडिया आकर जाओगे या वहीँ दुबई से चले जाओगे?
जिस का दिल न हो ..उसे भी लगेगा जैसे अब तो जाना ही पड़ेगा...क्योंकि अब सच में ही लगने लगा है कि'एन आर आई' का अर्थ है--Not Required Indians !
बड़ी उलझन है......जाएँ तो कहाँ जाएँ और भागें भी तो कब तक और कहाँ तक?

अच्छा है कि ये उलझन में बनी रहें, ब्लॉग पर अल्पना सी छटायें जो बिखेरती रहेंगी!

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अब तक:
प्रतिभा शिल्प
हीर पुखराज पूजा
शैल शेफाली रश्मि
अनु अल्पना
आगे:
अर्चना आराधना
वाणी रचना

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

शैल शेफाली रश्मि

शायरी, गायन, व्यंग्य, निबन्ध, स्त्री मुद्दे, खालिस ब्लॉगरी आदि में निष्णात हैं स्वप्न मंजूषा 'शैल'। कनाडा में रहते हुये भी भारत भूमि से गहराई से जुड़ी हुई हैं। भारतीय महाकाव्यों के स्त्री और अन्य पात्रों पर भी अलग दृष्टि से अवगत कराती हैं। इनके वेब साइट पर भी यह विविधा मिलती है:
 shail

रचनात्मक ऊर्जा और साहस इनकी विशेषता हैं; हल्की फुल्की रचनायें गुद्गुदा भी देती हैं:

ऊपर वाले की दया से
हैण्ड टू माउथ तक आये हैं
डालर की तो बात ही छोड़ो
सेन्ट भी दाँत से दबाये हैं
मोर्टगेज और बिल की खातिर
ही तो हम कमाए हैं
अरे बड़े बड़े गधों को हम
अपना बॉस बनाये हैं
इनको सहने की हिम्मत
रात दिन ये ही मनाये हैं
ऐसे ही जीवन बीत जायेगा
येही जीवन हम अपनाए हैं
तो दूर के ढोल सुहावन भैया
दिन रात येही गीत गावे हैं
फोरेन आकर तो भैया हम
बहुत बहुत पछतावे हैं

स्त्री विषयक और अन्य समसामयिक मुद्दों पर भी सीधी साफ टिप्पणियाँ करती हैं। जेब से झाँकते हुये नोट की तरह स्त्री देह में कहती हैं:

स्तन दिखना, कोई बड़ी बात नहीं हैं। बात सिर्फ नियत की है, आप इसे किस नज़रिए से देख रहे हैं। होलीवूड की फिल्में देख लीजिये, कहानी के हिसाब से, ये सब दिखाया ही जाता है, और वो बुरा भी नहीं लगता। अब तो बोलीवूड में भी इफ़रात है ये सब, ये अलग बात है कि कहानी की माँग का कोई लेना देना नहीं होता यहाँ । खुले स्तन, हमलोग तो बचपन से देखते आये हैं। मैं रांची की रहने वाली हूँ, आदिवासियों के बीच ही रही हूँ, बचपन में यही देखा है। आदिवासी महिलाएं ब्लाउज पहनती ही नहीं थीं। घर पर जितनी सब्ज़ी वालियाँ आतीं थीं, ऐसी ही आतीं थीं, खेतों में काम करने वालियाँ, खेतों में काम करतीं रहतीं थीं, नौकरानियाँ बर्तन माँजती रहतीं थी और उनके बच्चे दूध पीते रहते थे। नानी, दादी जितनी भी थीं, सबको देखा है हमने बिना ब्लाउज के भी और बाद में ब्लाउजमय भी ।आज भी बहुत सी ऐसी जनजातियाँ हैं, जो बहुत कम कपडे पहनती हैं। माताओं को स्तन-पान कराते हम सबने देखा है। इसमें इतनी विचित्र बात क्या हो गयी ?? सच पूछिए तो कभी इस बात की ओर ध्यान ही नहीं गया कि कुछ असहज हो रहा है। अगर आप इस विरोध की मंशा को समझेंगे तो कुछ भी बुरा नहीं लगेगा, इतने युगों से शोषित जाति, विद्रोह तो करेंगी ही। जब शोषण करने की ताब रखते हैं लोग तो विद्रोह झेलने का भी माद्दा होना चाहिए। यहाँ विदेशों में बिकनी पहनना बहुत आम है, इसलिए ये मुद्दा इतना भी बड़ा नहीं है जितना आप इसको बना रहे हैं।

अक्सर मैंने देखा है, स्त्री विमर्श के मामले में बात हमेशा मुद्दे से भटक जाती है। हम स्त्री-विमर्श की जगह पुरुष-विमर्श करने लगते हैं। पुरुष भी अब अपना रोना लेकर बैठ जाते हैं। हमारे समाज में नारी की समस्या 'फेमेन' से कहीं बड़ी है। इस समस्या को आप 'फेमेन' के झंडे तले लाकर इसे छोटा बनाने की कोशिश न करें। नारीगत समस्याओं को पुरुषों ने हमेशा ही, कपड़ों और देह के चक्रव्यूह में फँसा कर दिग्भ्रमित करने की कोशिश की है और नारियां भी इसी झांसे में आकर, खुद को बिना मतलब कपड़ों  और देह जैसे मुद्दों में उलझा कर, स्त्रीवादी क्रांति की कल्पना करने लगतीं हैं। देह और कपड़ों की बातें करके यह जंग कभी नहीं जीती जा सकती।

जयशंकर 'प्रसाद' की अमर रचना 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' का इनका गायन यहाँ सुनिये। ब्लॉग जगत में 'अदा' तखल्लुस और 'हाँ नहीं तो' जुमले से प्रसिद्ध हैं। आजकल 'एकला चलो रे' को अपना ध्वज वाक्य बनाये हुये हैं, कहती हैं:

थोड़ी शाम की अपनी उदासी, दिल भी था थोड़ा उदास
रंगत वाले सारे चेहरे, फिर रंगत क्यूँ उड़ जाती है
अक्सर अजनबियत के गिलाफ़, वो ओढ़ सामने आता है 
शातिराने खेल न खेल, 'अदा' पहचान जाती है
 

 

व्यंग्य लेखन का ताजापन, नवीनता और सुघड़ता देखनी हो तो जाइये स्वयं को कुमाउँनी चेली कहने वाली मास्टरनी शेफाली पांडे के ब्लॉग कुमाउँनी चेली पर। हरसिंगार नाम से प्रसिद्ध शेफालिका तो मधुर गन्ध वाले सुन्दर पुष्पों की वर्षा से ही जानी जाती है न! इनका होली आह्वान देखिये:

मत सुन महंगाई, मत सुन काली कमाई
मत सुन भ्रष्टाचार, मत सुन व्यभिचार ।
मत कह मेरी मर्जी, मत कह एलर्जी
मत कह शुगर, मत कह ब्लडप्रेशर
मत कह केमिकल, मत कह हर्बल
मत कह बुखार, मत कह अगली बार।    
....
सखी- सहेली, पास- पड़ोसी या प्रियतम के संग
खेल रंग की जंग, बस तू खेल रंग की जंग।

 
व्यंग्य और ब्लॉगरी अछूते विषयों पर कलमतोड़ी माँगते हैं। शेफाली कहाँ पीछे रहने वाली हैं। विविध बहाने स्त्री स्पर्श की चाहना पूर्ति वालों की मलामत देखिये:
आप कितना भी अपने कंधे को झटका दें, उनका सर धकेल कर दूसरी तरफ लुड़का दें, कोहनी मार -मार के आपकी कोहनी दुखने लग जाएगी, इन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा । ये फिर बैतलवा डाल पर की तर्ज़ पर आपके कंधे पर टिक जाते हैं । '' भाई साहब, ठीक से बैठिये '' के आपके निरंतर जाप करने का इन पर कोई असर नहीं होता । दरअसल ये पूरी तरह होशो - हवास में रहते हैं । बस महिला के कंधे पर ही इन्हें ठीक से नींद आती है । अगर कोई पुरुष इनके बगल में आकर बैठ जाए तो इनकी नींद वैसे ही काफूर हो जाती है जैसे सजा सुनकर संजय दत्त और उसके चाहने वालों की । कभी - कभी नींद के सुरूर में ये इस कदर बेहोश हो जाते हैं कि इन्हें अपने हाथ पैरों के इधर - उधर चले जाने का होश नहीं रहता, ठीक उसी तरह जिस तरह खेनी प्रसाद वर्मा को अपनी जुबां का भरोसा नहीं रहता जो माइक को देखते ही बेकाबू हो जाती है । ये ऐसा जानबूझ कर करते हैं या वाकई नींद में ऐसा हो जाता है इस विषय पर अभी व्यापक शोध की सम्भावना है ।
….
आप इनकी दूकान से कुछ भी  खरीदें, ये पैसा लेते या देते समय आपके हाथों को अवश्य स्पर्श करते हैं । ये स्पर्श थेरेपी के स्पेशलिस्ट होते हैं । इन्हें भय होता है कि यदि ये आपके हाथ को पकड़ कर पैसे ना लें तो इन पैसों को शायद धरती निगल जाएगी । आपके हाथों को छूकर इन्हें एहसास होता है कि पैसा एकदम सही हाथों में गया है । पुरुषों के साथ इन्हें कोई ख़तरा नहीं होता है । … इधर कुछ समय से भारत में जो मॉल कल्चर आ गया है उससे ये दुकानदार बहुत हताश हो गए हैं । यह भी क्या बात हुई कि कार्ड से पेमेंट कर दिया जाए और हाथों को गर्मी का एहसास ही न हो । इस तरह से दुकानदार और ग्राहक के मध्य सौहार्दपूर्वक सम्बन्ध कैसे स्थापित होंगे ? रीटेल में एफ़. डी. आई के. आने का जो विरोध हो रहा है उसका सबसे बड़ा कारण यही है । लेकिन इसे आउट नहीं किया गया ।
….
अगर आप अपना पुराना सूट नाप के लिए देना चाहें तो ये फ़ौरन मना कर देते हैं '' नहीं जी, ये फिटिंग पुरानी है, हम नई नाप लेंगे ।'' …ये महाशय आपके हर अंग की तीन - तीन, चार - चार बार नाप लेता है । आप मन मसोस कर रह जाती हैं । एक हफ्ते बाद दी गयी तारीख पर आप अपने सूट के विषय में पूछने जाती हैं तो यह कहता है '' दीदी, आपकी नाप मिल नहीं रही है, दूकान में सफाई की वजह से खो गयी शायद ''।
….
इन्हें बच्चों से बहुत लगाव होता है ख़ास तौर से बच्चियों से । ये आपके घर की बच्चियों पर जब तब प्रेम की वर्षा करते रहते हैं । बच्चियां देखते ही ये अपने को रोक नहीं पाते हैं और लपक कर उन्हें गोद में उठा लेते हैं, चुम्बनों की वर्षा करते हैं, …प्यार करते - करते ये भावातिरेक में यह भूल जाते हैं की इनके हाथ - पैर कहाँ जा रहे हैं । इस समय इनकी हालत साधु - महात्मा सरीखी हो जाती है । वास्तव में ये आध्यात्मिक उच्चता की स्थिति में पहुँच जाते हैं । अब ऐसे इंसान पर घर वाले किस प्रकार संदेह कर सकते हैं?

व्यंग्य लेखन वह जो समसामयिक मुद्दों को उठाये और हँसाये भी लेकिन इतनी तीखी निडर चोट करे कि अपराधी पढ़े तो ग्लानि  के मारे डूब मरे और सम्भावित पहले ही कान पकड़ ले! शेफाली की लेखनी इस कसौटी एकदम खरी उतरती है। किसी दिन मूड बना कर इनका पूरा ब्लॉग पढ़ जाइये, निराश नहीं होंना पड़ेगा, उल्टे खाली समय के सदुपयोग भाव से तृप्ति मिलेगी। मन का आकाश और विस्तार पायेगा सो अलग!
 

एक ब्लॉग लेख में स्वयं को रविजा कहती हैं रश्मि

रविजा के पहले रखा था, ' रश्मि विधु'. मालती जोशी की कहानी में एक लड़की का नाम 'विधु' था जो बहुत पसंद आया था. और सिर्फ मुझे ही नहीं...वंदना अवस्थी दुबे ने भी वो कहानी पढ़ी थी और इतनी प्रभावित हुई थी कि ज़ेहन  में वो नाम छुपा कर रखा और अपनी बिटिया का नाम 'विधु' रखा है.
पर कुछ दिनों बाद मुझे कहीं 'रविजा' शब्द दिखाई दिया और ये मुझे ज्यादा उपयुक्त लगा. रवि + जा = रविजा. यानि सूर्य से निकली हुई . रश्मि का अर्थ तो किरण है ही. यानि सूर्य से निकली हुई किरण.
तो मेरा नाम  'चन्द्र किरण' से 'सूर्य किरण' में बदल गया. जो शायद ज्यादा उपयुक्त है.:)

हाँ, उपयुक्त नाम है इस तेजस्विनी के लिये!  समसामयिक विषयों पर खास बौद्धिकता के साथ बहुत ही प्रभावशाली और सलीकेदार ढंग से लिखती हैं रश्मि। रेडियो और चित्रकारी से जुड़ी रश्मि का रचना संसार औपन्यासिक प्रसार भी लिये हुये है जो पाठकों से सीधे जुड़ता है। रश्मि विवाह और ऐसे ही अवसर विषयों पर खालिस ब्लॉगरी की छ्टा भी बिखेरती हैं।

इन्हें कम पढ़ने की अपनी परम्परा का पालन करते हुये मैंने इस बार भी इन्हें कम ही पढ़ा लेकिन यही कहूँगा कि यदि आप ने इन्हें नहीं पढ़ा तो हिन्दी ब्लॉगरी की एक ऊष्म ताज़गी से वंचित रह गये!
कैशोर्य से ही पत्र पत्रिकाओं में छपती रहीं, विवाह के पश्चात बन्द हुआ, ब्लॉगरी से पुन: .... लिखती हैं:
...फिर धीरे-धीरे एक एक कर सारिका ,धर्मयुग,साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सब बंद होने लगे. मैं भी घर गृहस्थी में उलझ गयी. मुंबई में यूँ भी हिंदी के अखबार-पत्रिकाएं बड़ी मुश्किल से मिलते हैं....मिलते हैं...ये भी अब जाकर पता चला...वरना ब्लॉग्गिंग से जुड़ने के पहले मुझे पता ही नहीं था .... हिंदी से रिश्ता ख़तम सा हो गया था. अब ब्लॉग जगत की वजह से वर्षों बाद हिंदी पढने ,लिखने का अवसर मिल रहा है. and I am loving it . 

मैं पाता हूँ कि बारह वर्षों के बाद पुन: कलम उठाने, सॉरी! की बोर्ड पर शब्द उतारने वाला मैं अकेला नहीं।
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अब तक:
प्रतिभा शिल्प

हीर पुखराज पूजा
शैल शेफाली रश्मि
आगे:
अनु अल्पना
अर्चना आराधना
वाणी रचना

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

हीर पुखराज पूजा

कृष्णावतार शृंखला में कन्हैयालाल मुंशी को पढ़ते हुये मानव कृष्ण के प्रेमिल अवतार होते जाने को जाना। देवकी, यशोदा, शैव्या, सत्या, रुक्मिणी, कृष्णा ... इन सब पर छाया प्रेम, जाने कितने विविध रूपों में!

व्यास को अमर मानता वही लेखक इस युग की कालभूमि में रचे गये एक दूसरे उपन्यास ‘तपस्विनी’ में प्रेम की सान्द्रता का साक्षात्कार कराता है, एक स्त्री का प्रेम नायक में जरा जर्जर व्यास को उतारने का चमत्कार कर दिखाता है। सम्वेदनायें, प्रेम की गहनता, समर्पण उस अतीन्द्रिय भावभूमि में ले जाते हैं जहाँ चमत्कार विश्वसनीय हो जाते हैं, अतार्किक होते हुये भी सब कुछ बहुत प्यारा सा, वांछनीय लगने लगता है – इन गलियाँ दिल न दिमागाँ!  

अमृता प्रीतम ने साहिर को किस दृष्टि से, किस भावभूमि में देखा, सुना और जिया, जाने इमरोज और अमृता किन तंतुओं को बुनते रहे; पता नहीं लेकिन उस देस जाने पर भीगना हो ही जाता है, तब भी जब कि यह इश्क़ अपने टाइप का नहीं लगता!

अमृता की दीवानी हरकीरत हक़ीर हीर अनुभूतियों के ठाँव चलती राँझड़ा के लोक में पहुँचा देती है, जाने कौन है वो! मन में घुमंतू लोकगायक के स्वर उमड़ने लगते हैं:

  
छेजी तेरी सहू तेरा सो गिआ; मैं सच दी आख सुनाई...
दिल दरिया समुन्दरों डूँगा, कौन दिलाँ दी जाने?
बिचे बेरी, बिचे चप्पा, बीचे बंझ मुहाने!
चौदारी टबक बन्दे बिच बस गे, तम्बू वांगो ताने!
जे कोई ठाठ दिलाँ दी बुझे, हर दम खुशियाँ माने!


हरकीरत की कविताई में हीर की यह दीवानगी दिखती है - सुगन्धित चमेली फूली है, आ मेरे प्रियतम, चुन लो!

नंगे पिंडे चोटाँ मारिआँ, मेरी हुंदी नैन निमानी
जिहिआँ चोटाँ तन मेरे लाईआँ, तेरे इक लगे ताँ जाने!
...सुत्ता ही, ताँ जाग पिओ, चुगलाँ फल चमेली


हीर के ब्लॉग पर जाना माने उस पुकार को सुन पाना – कोई कहियो रे ...

गुमसुम खड़ी हवाएं 
दरारों से आहें भरती रहीं 
कोई रेत का तिनका 
आँखों में लहू बन जलता रहा 
घुप्प अँधेरे की कोख में 
वह दीया  जला लौट आती है 
किसी और जन्म की 
उडीक में .....!!


हृदय का स्पंदन 

आँख , कान श्वास -प्रश्वास
सब कुछ शून्य  मुद्रा में नि:शब्द है 
रात सुब्ह  के ब्रह्म मुहूर्त की प्रतीक्षा में बैठी  है 
वह आज पावन कुम्भ के जल से 
कर लेना चाहती है आचमन ...

पारुल ‘पुखराज’ अपने परिचय में कहती हैं - किसी नखत के मेघ हैं बेबखत बरसे जा रहे। कहते हैं कि अंगुली में पहना गया पीत पुखराज शुभ ले आता है लेकिन किसी ने उससे चाँद गढ़ नभ पर टाँक दिया हो तो? धरा पर अमृत बरसता है। उत्कृष्ट साहित्य, गीत, संगीत संकलनों के बीच बीदरी की बात देखिये:

beedaree

पारुल रेडियो पर भी हैं। कभी कभी अपनी कविताओं से पाठकों को महादेवी और प्रसाद जैसों की स्मृति करा देती हैं:

 praanpan

बंगलुरू में कार्यरत हैं ब्लॉगर पूजा उपाध्याय। विज्ञापन संसार में कॉपीराइटर पूजा का लेखन ऊपर की दो ब्लॉगरों से एकदम अलग है – चुलबुला, बिन्दास और अलग सा फ्लेवर लिये संजीदा भी। अपने पाँव जमाये जमाने को चुनौती सी देती एक स्त्री जिसे पढ़ना नव्य लेखन के नगीने देखने जैसा होता है। परिचय में कहती हैं:

 
Some people break rules...some make them...I belong to the second category. I love playing with words,they have been my friends for life. This blog is an extension of myself... Some day I will make a movie...or a couple of them...and write a book...and do so many things... I want to live my life...every moment of it...AND ON MY OWN TERMS

और उसके बाद पूछती भी हैं:
You're going to the moon! What did you forget to pack?

शायद ही ब्लॉग जगत में किसी स्त्री ने अपने प्रियतम पर वैसे लिखा होगा जैसे पूजा ने लिखा है! आप मुग्ध होते हैं और तभी चुपके से वह किसी वाक्य में चुनौती छोड़ देती हैं, सोचते होगे काश! ऐसी एक लड़की मेरी भी होती लेकिन ऐसी लड़की का पिता होना बहुत बड़ी कठिन...

पढ़िये एक अम्ल का माफीनामा:
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अब तक:
प्रतिभा शिल्प

हीर पुखराज पूजा
आगे:
शैल शेफाली रश्मि
अनु अल्पना
अर्चना आराधना
वाणी रचना
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शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

प्रतिभा शिल्प

इस देश में सेकुलरिज्म वैसे ही है जैसे सब्जियों में टमाटर। उत्तर भारत में दोनों कमबख्त बात बेबात और दाल तरकारी में आदतन डाल दिये जाते हैं, कभी तड़के के रूप में तो कभी पूरे कॉंसेप्ट का कबाड़ा करते हुये।
कई दिनों पहले सेकुलरिज्म के प्रदूषण से दुखी मैं ब्लॉग जगत में ऐसे ही भटक रहा था कि
प्रतिभा सक्सेना के ब्लॉग लालित्यम् के आलेख वाह टमाटर आह टमाटर पर पहुँच गया। पढ़ने के पश्चात मेरे मन में हुआ बिंगो! यही तो सेकुलरिज्म है! कहना न होगा कि मैं इनके लेखन से भयंकर प्रभावित हो गया।

tamatar

आगे पढ़ने पर इनके परास का पता चला और एक अकादमिक के प्रति जो गहन आदर भाव होना चाहिये वह उमगता पगता चला गया। द्रौपदी पर उपन्यास हो या पात्र भानमती के माध्यम से चुटकियाँ, इनकी लेखनी सिद्धहस्त है।
इनकी प्रतिभा बहुआयामी है। शिप्रा की लहरें ब्लॉग पर लोरी, दोहे, सोरठे और विविध काव्य मिलेंगे तो लोकरंग में विवाह गीत, बटोहिया, बाउल के फ्लेवर। मन: राग में लम्बी कविताओं के छ्न्दमुक्त और छन्दबद्ध उदात्त सौन्दर्य के दर्शन होते हैं तो स्वर यात्रा में शब्दों के संगीत सुनाई देते हैं। गद्य और पद्य में समान रूप से सिद्धहस्त प्रतिभा जी मौन साधिका हैं और गम्भीर पाठकों के लिये सरस्वती की निर्झरिणी!

शिल्पा मेहता अभियांत्रिकी क्षेत्र से हैं और जीवन समुद्र के किनारे रेत के महल बनाती हैं। अपने लेखन को जिन दो और खंडों में इन्हों ने बाँट रखा है, वे हैं - आराधना और गणित और विज्ञान। आराधना पर धर्म, विज्ञान और दर्शन से सम्बन्धित सामग्री है, गणित और विज्ञान तो नाम से ही स्पष्ट है।

इनके अतिरिक्त भी इनकी बहुआयामी प्रतिभा का अनुमान इनके लेखों के शीर्षक देख कर ही लगाया जा सकता है।  

ret_ke_mahalनिरामिष आन्दोलन हो या धर्म, पूर्वग्रहों के तर्क हों या तार्किक दिखते पूर्वग्रह - टिप्पणियों और बहस में दिखते शिल्पा जी के अकादमिक विश्लेषण अनूठे होते हैं। अपनी बात दृढ़ता और निर्भीकता के साथ रखती हैं, पॉलिटिकल करेक्टनेस के चक्कर में घुमाती फिराती नहीं।
इनके द्वारा रची जा रही सरल रामायण आम जन के लिये गेय है। पूर्वाग्रह और सभ्यता, शासन, क़ानून व्यवस्था की लेखमालायें गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय देती हैं। न्यूरल नेटवर्क और अन्य गणित एवं विज्ञान विषयक आलेख हिन्दी ब्लॉगरी में एक रिक्त से स्थान की पूर्ति कर रहे हैं।

बहुआयामी प्रतिभासम्पन्न ये दोनों शिल्पी ब्लॉगर ऐसे ही सक्रिय रहें, हम सबको अपने नियमित लेखन से समृद्ध करते रहें; यही कामना है।

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अगले अंकों में:
हीर पुखराज पूजा
शैल शेफाली रश्मि
अनु अल्पना
अर्चना आराधना
वाणी रचना
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गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

नववर्ष

आज नववर्ष का पहला दिन है - विक्रमी संवत 2070 के प्रथम मास चैत्र के शुक्ल पक्ष की पहली तिथि यानि प्रतिपदा। आदि काल से ही सूर्य की आभासी गति और ऋतुओं के सम्बन्ध को मनुष्य जानता समझता चला आया है। भारत के मनीषि प्राकृतिक व्यवस्था को बहुत उदात्त रूप में देखते थे और उसे एक अर्थगहन नाम दिया – ऋत। रीति-रिवाज की 'रीति' भी इसी ऋत से आ रही है।
ऋत व्यवस्था में किसी निश्चित कालावधि को उसमें निश्चित बारम्बारता में होने वाले परिवर्तनों, जलवायु और दैहिक प्रभाव लक्षणादि के आधार पर 'ऋतु' नाम दिया गया। शस्य यानि कृषि का सम्बन्ध भी ऋतु चक्र से है। भारत में छ: ऋतुयें पायी गयीं - वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर और हेमंत। इनमें वसंत पहली ऋतु थी।
इस ऋतु में वनस्पतियाँ पुराने वसन यानि पत्तियों रूपी वस्त्र का अंत कर नये धारण करती हैं। समूचे जीव जगत में नये रस का संचार होता है इसलिये इस समय को नवरसा भी कहा गया। घास पात तक फूलों से लद जाते हैं इसलिये वसंत कुसुमाकर भी कहलाता है। वैदिक युग में वसंत से प्रारम्भ हुआ एक वर्ष संवत्सर कहलाता था। अथर्ववेद के तीसरे मंडल की संवत्सर प्रार्थना में नववर्ष प्रारम्भ का बहुत ही  अलंकारिक वर्णन है जिस पर विस्तार से चर्चा फिर कभी।
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उत्तरी गोलार्द्ध की पुरानी सभ्यताओं ने जाना कि वर्ष में जिन दो दिनों में दिन और रात बराबर होते हैं उनमें से एक वसंत ऋतु में पड़ता है। काल के पहेरू पुरोहितों ने नवरस के इस दौर को उत्सवों और अनुष्ठानों का रूप दे दिया। चूँकि इस विषुव दिन का सटीक प्रेक्षण आसान था और फसलों के कटने पर अन्न भी घर में आता था जिससे ढेरों आर्थिक व्यापार भी जुड़े थे, इसलिये जनता ने भी इसे स्वीकार किया और इस दिन से नया वर्ष और उसके आसपास के कालखंड में उससे जुड़े उत्सव प्रारम्भ होने लगे।
वैश्विक प्रसार वाले आज के ईसाई ग्रेगरी सौर कैलेंडर में यह दिन 20 मार्च को पड़ता है।
भारत गणतंत्र के आधिकारिक राष्ट्रीय शक संवत का पहला दिन चैत्र 1 भी वसंत विषुव के अगले दिन से प्रारम्भ होना निश्चित किया गया जब कि पुराने समय में कभी सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता था।

ग्राफिक्स आभार: http://www.carnaval.com/precession/
ग्राफिक्स आभार: http://www.carnaval.com/precession/
20/21 मार्च को वसंत विषुव मान कर राष्ट्रीय शक संवत को 22 मार्च के दिन से प्रारम्भ होना तय किया गया हालाँकि पृथ्वी के घूर्णन अक्ष की लगभग 26000 वर्ष लम्बी आवृत्ति वाली एक गति के कारण इस दिन अब सूर्य मीन राशि में होता है। आगे के कुछ सौ वर्षों में यह खिसकन कुम्भ राशि पर  पहुँच जायेगी।
 
ग्राफिक्स आभार: http://www.carnaval.com/precession/
सन् 1582 में हुये ईसाई कैलेंडर संशोधन में  गिनती के 11 दिन कम कर दिये गये। उसके पहले जो नववर्ष 1 अप्रैल को मनाया जाता था, उसे 1 जनवरी से प्रारम्भ किया जाने लगा। कैलेंडर संशोधन के बाद भी जिन लोगों ने 1 जनवरी के बजाय 1 अप्रैल को ही नववर्ष मनाना जारी रखा उन्हें तिरस्कार स्वरूप 'मूर्ख' संज्ञा दी गई और April Fool की परम्परा प्रचलित हुई जिसने बाद में वसंत विषुव पर्व से जुड़े मोद मनाने की पगान विधियों से जुड़ कर एक दिन के उत्सवी नयेपन को जन्म दिया।
ईसाई कैलेंडर पूर्णत: सौर गति पर आधारित है जब कि भारत  का पारम्परिक पंचांग आदि काल से ही सूर्य और चन्द्र दोनों गतियों से निर्धारित होता रहा। दिन में चलते दिखते सूर्य के पथ को रात के आकाश  में 27  तारासमूहों (नक्षत्रों) में बाँट दिया गया। सौर पंचांग वालों ने इसे 12 भागों यानि राशियों में बाँट रखा था। दोनों की संगति बैठाने में 12 महीनों के नाम 27 नक्षत्रों में से उन 12 के आधार पर रखे गये जिन पर कि पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा होता था जैसे चित्रा (spica) पर हो तो चैत्र, विशाखा पर हो तो वैशाख आदि। मास निर्धारण की दो पद्धतियाँ प्रचलन में आईं - अमांत और पूर्णिमांत। अमांत यानि अमावस्या के दिन महीने का अंत, पूर्णिमांत यानि पूर्णिमा के दिन। इनके अनुसार वसंत ऋतु (Spring) का विस्तार आधा फागुन+चैत्र+आधा वैशाख या चैत्र+वैशाख तक होता है। पारम्परिक पंचांग के महीने चन्द्र आधारित होने के कारण इसमें लम्बी कालावधि में वसंत विषुव की राशियों पर खिसकने से जुड़ी नाम निर्धारण वाली समस्या नहीं है। इसमें हर तीसरे वर्ष अधिकमास के संयोजन द्वारा वर्ष के अंतर को भी समायोजित कर लिया जाता है साथ ही यह भी सुनिश्चित रहता है कि किसी भी महीने की पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा उसके नाम से सम्बन्धित नक्षत्र राशि में ही होगा।  
ईसाई कैलेंडर, भारतीय पंचांग, महीने, ऋतुयें और प्रमुख पर्वों का यह इस्कॉन संस्था द्वारा दिया गया ग्राफिक्स संकलन उपयोगी है:  
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वसंत को दिया गया महत्त्व उल्लेखनीय है कि संवत्सर या वर्ष के प्रारम्भ और अंत इसी ऋतु में रखे गये हैं। फाल्गुन का होलिका दहन भोजपुरी क्षेत्र में 'सम्हति फूँकना' कहलाता है। सम्हति संवत का ही बिगड़ा रूप है। यह दहन प्रतीकात्मक रूप से जाते हुये संवत का है जिसमें मन और देह के सारे मैल जला दिये जाते हैं। अगला दिन रंगपर्व नये रंग से अस्तित्त्व रँगने का प्रकृति से जुड़ा विधान है। चन्द्रमा के एक पक्ष यानि चौदह दिनों के अंतराल के पश्चात शुक्ल पक्ष के प्रारम्भ में होने वाला नवरात्र आयोजन आगामी वर्ष के लिये स्वयं को तैयार करने का तप आयोजन है। रबी की फसल का अन्न घर में आ जाता है तो राम जी की कृपा से आये नये अन्न के स्वागत में रामरसोई सजती है रामनवमी के दिन जब कि नये आटे से बने व्यंजन पहली बार खाये जाते हैं। वैदिक युग के नये सत्र आयोजन भी ऐसे ही पुरोहित, कृषक और व्यापारी वर्ग द्वारा संयुक्त रूप से किये जाते थे। दुर्गा पूजा की परम्परा की साम्यता ढूँढ़े तो हम पाते हैं कि स्त्री शक्ति की कल्पना अथर्वण संहिता की संवत्सर प्रार्थना में भी है।
 
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पश्चिम भारत में यह दिन वृहद आयोजन का होता है और इसे गुड़ी/ढी पड़वा कहते हैं। 'पड़वा' संस्कृत के प्रतिपदा का ही प्राकृत 'पड्डवा/वो' से हो कर आया रूप है। प्रकृति के विभिन्न स्वादों को मिश्री, नीम पत्ती, आम्र मंजरी के रूप में इकठ्ठा कर जरी के रंगीन कपड़े में बाँस के सिरे पर बाँध दिया जाता है। उसके ऊपर फूलमाला और चाँदी, ताँबा या पीतल का लोटा उलट कर रख दिये जाते हैं। सौभाग्य आगमन के सूचक इस प्रतीक 'गुढी' को ऊँचाई या खिड़की पर प्रदर्शित किया जाता है। कोंकण क्षेत्र में यह प्रतिपदा यानि पड़वा 'संसर पाडवो' नाम से मनायी जाती है। 'संसर' संवत्सर का अपभ्रंश है।  
 सिन्धी लोग चैत्र माह में शुक्ल पक्ष के पहले चन्द्र दिन को 'चेटि चाँद' नाम से मनाते हैं। कश्मीरी पंडित नवरस का यह उत्सव 'नवरेह' नाम से मनाते हैं।
  दक्षिण में यह पर्व 'उगाडि' या 'युगाडि' नाम से मनाया जाता है जो कि संस्कृत 'युगादि' यानि युग के प्रारम्भ का द्योतक है।
उल्लेखनीय है कि 'युग' शब्द का प्रयोग संवत्सर के लिये भी होता है। यहाँ युग का संकेत वर्ष में छ: छ: महीने के  उन दो अर्धांशों से है जिनमें सूर्य क्रमश: उत्तरायण और दक्षिणायन होते हैं। वैदिक युग में पाँच वर्ष का काल युग कहलाता था।  
कालांतर में ज्योतिष गणना में वृहस्पति और शनि गतियों के संयोग ने संवत्सरों को नाम देने का चलन प्रारम्भ किया। बारह राशियों के चक्र को पूरा करने में वृहस्पति को 12 वर्ष लगते हैं जब कि धीमे यानि शनै: चलने वाले शनैश्चर शनि को 30 वर्ष। इनका लघुत्तम समापवर्त्य (LCM – Lowest Common Multiple) है - 60। हर साठवें वर्ष वृहस्पति और शनि वर्ष की प्रारम्भ राशि मेष पर एक साथ होते हैं, इसलिये 60 संवत्सर नामों का चक्र चलता है। वाराहमिहिर के पहले तक यह चक्र 'विजया' नाम से प्रारम्भ होता था, उनके बाद 'प्रभाव' नाम से प्रारम्भ होने लगा। वर्ष  2070 वि. का नाम है 'पराभव' 

इस वर्ष समस्त अशुभ का पराभव हो। नववर्ष आप के लिये मंगलमय हो। 
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एक पुराना लेख यह भी : नवरसा 
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सोमवार, 1 अप्रैल 2013

जाना ही नहीं चाहिये था!

उस घर में चोरियाँ अधिक होती हैं जिसमें प्रार्थनायें अधिक पढ़ी जाती हैं, डकैतियाँ भी खूब पड़ती हैं! प्रार्थी को आँसू भले भले न लगें उसे भले अवश्य लगते हैं जिसकी स्तुतियाँ गाई जाती हैं।
सोचता हूँ कि किसी क्षण समूचे ब्रह्मांड में खिल रही मुस्कानों को इकठ्ठा कर उस घर में ले जाऊँ और कहूँ कि कोई बात नहीं, आँसुओं को बहने दो, अपना आँचल पसारो और इन्हें ले लो। कल की तुम्हारी प्रार्थना और उल्लासमयी होनी चाहिये लेकिन हो नहीं पाता, कुछ चोरियाँ आकस्मिक मृत्यु से भी अधिक अवसाद छोड़ जाती हैं।
जब सब हट जाते हैं तो उस कोने में जा खड़ा होता हूँ जहाँ एक निर्वात यथावत सधा है इसके बावजूद कि तमाम साँसें वहाँ पूरक भर कर छोड़ी गईं। तमाम प्रशंसाओं के बाद भी अभिनय तो अभिनय ही होता है, सोचता हूँ कि घर पहुँच कर सहानुभूतियाँ कितनी उन्मुक्त हँसी हँसती होंगी!
निर्वात मुझसे भी सामान्य नहीं होता हालाँकि मैं सच में अनुभूतिमय हूँ।  कोई भीतर कहता है- तुम समर्पण में झुकते नहीं, तुझमें  अहंकार हर पल रहता है। उसका तना ऐसे झंझावातों में केवल टूटने के लिये होता है। मैं असहमत होता हूँ और कहता हूँ कि केवल प्राकृतिक होना और सच में परदुखकातर होना ही पर्याप्त होना चाहिये। एक के भी ऐसे होने से सब भर जाना चाहिये।
वह उत्तर देता है - यह केवल सद् इच्छा भर है जो मात्र मिथकों में वस्तु रूप लेती है। अच्छी है, जीना आसान कर देती है लेकिन उसके आगे बाँझ होती है।
असहमतियों और तीखी नोक झोंक के बाद किनारे चुपचाप बगल में बैठता हूँ। मौन के उन क्षणों में आम बौराते हैं, गेहूँ के खेत पकते हैं, पक्षी चहकते हैं, हवायें मलयानिल होती हैं - सब चुराये जाने के लिये! ... ऐसा बहुत कुछ होता है केवल इसलिये कि मुझमें वह अब भी है जो तुम्हारे भीतर के उस से खिंचता है।
अपना खिंचना और यूँ चुकना सहा नहीं जाता, निर्वात का सूनापन कहा नहीं जाता। औपचारिक उदासी ओढ़ लोकाचार निभा कर चला आता हूँ।
लगता है कि जाना ही नहीं चाहिये था! 
2013-03-29-207