अपने ब्लॉग मैं घुमंतू पर अपने जुड़वे बच्चों के लिये चिट्ठियाँ सहेजती हैं ब्लॉगर अनु। निज जीवन के अनुभवों के निचोड़ भविष्य में बड़े हुये अपने बच्चों के लिये सहेजने वाली सम्भवत: यह अकेली हिन्दी ब्लॉगर हैं। बहुत बार सोचता हूँ कि कोई बीसेक वर्षों के पश्चात किसी मौन दुपहर में तीनों एक साथ जब इन आलेखों को पढ़ेंगे तो काल की सीमायें समाप्त हो जायेंगी और भावनायें उस कलर बॉक्स की तरह जिस पर किसी ने पानी उड़ेल दिया हो!
इन आलेखों में बड़े संजीदे से कथन मिलते हैं:
- हर मोड़ पर ऐसे लोग मिलेंगे जो तुम्हारा फ़ायदा उठाएंगे (और उठाएंगे ही। अच्छे लोगों का सब फ़ायदा उठाते हैं।) लोग तुम्हें धोखे भी देंगे। तुम्हारे साथ फ़रेब भी करेंगे। उनकी फ़ितरत तुम नहीं बदल सकते, लेकिन अपनी फ़ितरत भी मत बदलना। उन्हें ये सोचकर माफ़ कर देना कि तुमसे बड़ा फ़रेब वे खुद के साथ करते हैं। उन्हें अपनी दुआओं में ढेर सारी जगह देना और इस बात पर यकीन रखने की कोशिश करना कि दुनिया में इंसान ज़्यादा हैं और लोग कम।
- किसी बात का अफ़सोस मत करना। फिर भी अफ़सोस हो तो वो काम दुबारा मत करना। ये तुम्हारी मुक्ति का इकलौता रास्ता है।
- प्यार बचाए रखना, हर क़ीमत पर। प्यार बचा रहेगा तो भरोसे और उम्मीद को भी जगह मिलती रहेगी।
- किसी से नफ़रत मत करना। उदासीनता और बेरूख़ी ज़्यादा कारगर हथियार हैं।
अनु पत्रिकाओं और अखबारों के लिये भी लिखती हैं। प्रेम, समसामयिक मुद्दे, फिल्में, स्त्री विषय और अनदेखे संसार से आती खिलखिलाहटें - अनु की लेखनी सब समेटती है।
और अब प्यार क्या है ये भी समझ आने लगा है और इस प्यार को कैसे बचाए रखा जाए, ये भी। प्यार वो है जो दादाजी चश्मा लगाकर सुबह की चाय पीते हुए मेरी अनपढ़ दादी को अख़बार पढ़कर सुनाया करते थे। प्यार वो है जो मां डायबिटिक पापा के लिए अलग से खीर बनाते हुए दूध में मिलाया करती है। प्यार पति के खर्राटों में मिलने वाला सुकून है। प्यार गैस पर उबलता हुआ चाय का पतीला है, जिसमें शक्कर उतना ही हो कि जितना महबूब को पसंद हो। प्यार अपनी गैरमौजूदगी में भी मौजूद रहनेवाला शख्स है। प्यार आंखें बंद करके लम्हा भर के लिए उसकी सलामती के लिए मांगी हुई दुआ है। प्यार फिल्मों के ज़रिए हमें सिखाई-बताई-समझाई गई अनुभूति तो है ही, प्यार ‘दी एन्ड’ के बाद की बाकी पिक्चर है।
एक बैरागी भाव भी इनके लेखन में दिखता है जिसकी उदासी कभी कभी भीतर तक समा जाती है। टुकड़ा टुकड़ा उदास क्षण इनके ब्लॉग पर बिखरे पड़े हैं जो स्वयं उदासी का अतिक्रमण करते लगते हैं और मन के आकाश में गेरुआ पसरने लगता है।
तुमने झांककर
कमरे में देखा है
कहा कुछ भी नहीं।
मेरा तपता माथा
तुम्हारी उंगलियों की
छांव ढूंढता है।
मेरी गर्म हथेली पर
क्यों नहीं उतरती
तुम्हारे पसीने की ठंडक?
मैं घूमकर बिस्तर पर से
खिड़की को देखती हूं।
दो हरे पर्दे हैं,
और है नीम की हरियाली।
आंखें तब क्यों
लाल-सी लगती हैं?
क्यों सब
मुरझाया लगता है?
तुम तेज़ चले जाते हो,
मैं भी तो
थमती, रुकती नहीं आजकल।
नव्य लेखन के प्रतिमान गढ़ती अनु वसंत के बारे में लिखती हैं:
इस जाते हुए बसंत के लिए उदास होते-होते रह गई। इस कमबख़्त की तो फ़ितरत ही ऐसी है। मनमोहना आता ही दो-चार-दस दिनों के लिए है। आता भी इस अदा से है कि जैसे पूरी दुनिया को दीवाना बनाने में ही इसके अहं को तुष्टि मिलती हो। प्यास बढ़ाने आता है, प्यास बुझाने का कोई उपाय नहीं करता। आंखों पर रंगों के परत-दर-परत ऐसे पर्दे डालता है कि सच-फ़रेब, सही-गलत कुछ नज़र नहीं आता। ऋतुओं का राजा कहलाने भर के लिए हर तरह की चालबाज़ियां, हर तरह के छल-कपट करेगा। अगर इसकी बातों में आ गए तो ख़ुद को नाकाम समझ लीजिए। ऐसे दिलफेंक, आशिकमिज़ाज, किसी के ना हो सकनेवाले छलिया बसंत के लिए क्या उदास होना?
कभी कुछ अलग सा यूँ ही पढ़ने को मन करे तो अनु का ब्लॉग एक उपयुक्त स्थान है। घुमंतू की अनुभूतियों का फलक व्यापक है।
अल्पना का ब्लॉग उनके नाम और अपने नाम के अनुरूप है; निश्चित ज्यामिति में रची कृति नहीं, बिखरे रंग जिन्हें कई बार फैलाने के लिये पाठकों के जिम्मे कर दिया जाता है, कभी तो आप ने भी नभ में फैले टुकड़ों को आकार देने का प्रयास किया होगा!
चाह छाँव मीत प्रीत गीत अर्थ-बिन अर्थ समय-असमय बात -बेबात गुण -अवगुण उपेक्षा -अपेक्षा धुंध- स्वप्नशून्य- नैन
अलग से उपेक्षित विषय भी समेटती हैं:
लेकिन वह एक जिन्होंने कहा 'नहीं,जीते जी वसीयत नहीं लिखनी चाहिए, वही इस समूह की सब से अधिक उम्र की महिला थीं। भय की छाया उनके मुख पर देखी जा सकती थी।
उन्हें सब ने समझाते हुए अपने तर्क दिए तो उन्होंने कहा कि इस विषय पर बात न करो क्योंकि वसीयत का संबंध मृत्यु से है और अभी से उस के बारे में क्यों सोचना ??जब वक्त आएगा तब देखेंगे। उनके भावों का सम्मान करते हुए फिर किसी ने उस बात पर अधिक बात नहीं की।
[लिखी तो मैंने भी अभी तक नहीं है ,न ही ' हाँ ' कहने वालों में से किसी ने !]
और कभी कभी रहस्यमय भी हो जाती हैं:
याद आता है ,उस सांझ के धुंधलके में ,न जाने कैसे हलकी सी आँख लगी और
उन कुछ पलों में ही सारे दृश्य बदल गए थे।
बदल गया आकाश ,बदल गयी फिज़ा..
बादलों का रंग भी स्याह हो गया था ,ज्यूँ-ज्यूँ अँधेरा गहरा हुआ , बादल पानी बनते गए।
लगता है शायद उसी बरसात में वे मोती पिघल कर बह गए हैं।
चित्रों के माध्यम से मध्य पूर्व की अच्छाइयों से भी परिचित कराती हैं। इस ब्लॉग को पढ़ते हुये क्रमश: निखराव के दर्शन होते हैं। अल्पना गाती भी हैं। इस पोस्ट को देखिये तो!
वास्तविक जीवन में यूँ तो हर रिश्ते की अपनी एक पहचान होती है उनकी एक नज़ाकत होती है ,अधिकार और अपेक्षाओं से लदे भी होते हैं .एक कहावत भी है 'जो पास है वह ख़ास है'. यथार्थ से जुड़े और जोड़ने वाले इन रिश्तों से परे होते हैं -कुछ और भी सम्बन्ध ! जो होते हैं कुछ खट्टे , कुछ मीठे,कुछ सच्चे ,कुछ झूटे! यूँ तो इन में अक्सर सतही लगाव होता है..जो नज़र से दूर होतेही ख़तम हो जाता है. इन के कई पहलू हो सकते हैं..
अप्रवासी की बहुविधा के दर्शन इस आलेख में होते हैं:
भारत जाते हैं तो सब को देख कर ऐसा लगता है ...किसी के पास समय नहींहै,सब की अपनी दुनिया बस चुकी है, बहुत आगे निकल गए हैं परन्तु हम आजभी वक़्त के पुराने काँटों में रुके हुए हैं!
'देश' छुट्टियों में जाते हैं तो पहले कुछ दिन तक अडोस पड़ोस के लोग पूछते हैं'कब आये?'कितने दिन हो?इंडिया वापस नहीं आना क्या?
-------१०-१५ दिन गुज़रते ही उन्हीं लोगों का सवाल होता है ' कब की वापसीहै? कनाडा कब जा रहे हो?इंडिया आकर जाओगे या वहीँ दुबई से चले जाओगे?
जिस का दिल न हो ..उसे भी लगेगा जैसे अब तो जाना ही पड़ेगा...क्योंकि अब सच में ही लगने लगा है कि'एन आर आई' का अर्थ है--Not Required Indians !
बड़ी उलझन है......जाएँ तो कहाँ जाएँ और भागें भी तो कब तक और कहाँ तक?
अच्छा है कि ये उलझन में बनी रहें, ब्लॉग पर अल्पना सी छटायें जो बिखेरती रहेंगी!
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अब तक:
प्रतिभा शिल्प
हीर पुखराज पूजा
शैल शेफाली रश्मि
अनु अल्पना
आगे:
अर्चना आराधना
वाणी रचना