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मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

अनु अल्पना

अपने ब्लॉग मैं घुमंतू पर अपने जुड़वे बच्चों के लिये चिट्ठियाँ सहेजती हैं ब्लॉगर अनु। निज जीवन के अनुभवों के निचोड़ भविष्य में बड़े हुये अपने बच्चों के लिये सहेजने वाली सम्भवत: यह अकेली हिन्दी ब्लॉगर हैं। बहुत बार सोचता हूँ कि कोई बीसेक वर्षों के पश्चात किसी मौन दुपहर में तीनों एक साथ जब इन आलेखों को पढ़ेंगे तो काल की सीमायें समाप्त हो जायेंगी और भावनायें उस कलर बॉक्स की तरह जिस पर किसी ने पानी उड़ेल दिया हो!

इन आलेखों में बड़े संजीदे से कथन मिलते हैं:

  • हर मोड़ पर ऐसे लोग मिलेंगे जो तुम्हारा फ़ायदा उठाएंगे (और उठाएंगे ही। अच्छे लोगों का सब फ़ायदा उठाते हैं।) लोग तुम्हें धोखे भी देंगे। तुम्हारे साथ फ़रेब भी करेंगे। उनकी फ़ितरत तुम नहीं बदल सकते, लेकिन अपनी फ़ितरत भी मत बदलना। उन्हें ये सोचकर माफ़ कर देना कि तुमसे बड़ा फ़रेब वे खुद के साथ करते हैं। उन्हें अपनी दुआओं में ढेर सारी जगह देना और इस बात पर यकीन रखने की कोशिश करना कि दुनिया में इंसान ज़्यादा हैं और लोग कम।
  • किसी बात का अफ़सोस मत करना। फिर भी अफ़सोस हो तो वो काम दुबारा मत करना। ये तुम्हारी मुक्ति का इकलौता रास्ता है।
  • प्यार बचाए रखना, हर क़ीमत पर। प्यार बचा रहेगा तो भरोसे और उम्मीद को भी जगह मिलती रहेगी।
  • किसी से नफ़रत मत करना। उदासीनता और बेरूख़ी ज़्यादा कारगर हथियार हैं।

अनु पत्रिकाओं और अखबारों के लिये भी लिखती हैं। प्रेम, समसामयिक मुद्दे, फिल्में, स्त्री विषय और अनदेखे संसार से आती खिलखिलाहटें - अनु की लेखनी सब समेटती है।
और अब प्यार क्या है ये भी समझ आने लगा है और इस प्यार को कैसे बचाए रखा जाए, ये भी। प्यार वो है जो दादाजी चश्मा लगाकर सुबह की चाय पीते हुए मेरी अनपढ़ दादी को अख़बार पढ़कर सुनाया करते थे। प्यार वो है जो मां डायबिटिक पापा के लिए अलग से खीर बनाते हुए दूध में मिलाया करती है। प्यार पति के खर्राटों में मिलने वाला सुकून है। प्यार गैस पर उबलता हुआ चाय का पतीला है, जिसमें शक्कर उतना ही हो कि जितना महबूब को पसंद हो। प्यार अपनी गैरमौजूदगी में भी मौजूद रहनेवाला शख्स है। प्यार आंखें बंद करके लम्हा भर के लिए उसकी सलामती के लिए मांगी हुई दुआ है। प्यार फिल्मों के ज़रिए हमें सिखाई-बताई-समझाई गई अनुभूति तो है ही, प्यार ‘दी एन्ड’ के बाद की बाकी पिक्चर है।

एक बैरागी भाव भी इनके लेखन में दिखता है जिसकी उदासी कभी कभी भीतर तक समा जाती है। टुकड़ा टुकड़ा उदास क्षण इनके ब्लॉग पर बिखरे पड़े हैं जो स्वयं उदासी का अतिक्रमण करते लगते हैं और मन के आकाश में गेरुआ पसरने लगता है।

तुमने झांककर
कमरे में देखा है
कहा कुछ भी नहीं।
मेरा तपता माथा
तुम्हारी उंगलियों की
छांव ढूंढता है।
मेरी गर्म हथेली पर
क्यों नहीं उतरती
तुम्हारे पसीने की ठंडक?
मैं घूमकर बिस्तर पर से
खिड़की को देखती हूं।
दो हरे पर्दे हैं,
और है नीम की हरियाली।
आंखें तब क्यों
लाल-सी लगती हैं?
क्यों सब
मुरझाया लगता है?
तुम तेज़ चले जाते हो,
मैं भी तो
थमती, रुकती नहीं आजकल।

नव्य लेखन के प्रतिमान गढ़ती अनु वसंत के बारे में लिखती हैं:
बसंत चुपचाप अपना साजो-सामान बांधने में लगा है। फूलों ने उदास होकर खिलना छोड़ दिया है। सेमल ने नाराज़ होकर अपने सैंकड़ों फूल ज़मीन पर फेंक दिए हैं। कचनार ने फूलों का गहना उतार दिया है। अब पत्तों से श्रृंगार की बारी है। कोने में खड़ा एक टेसू है जो गर्द-ओ-गुबार से निडर यूं ही खड़ा रहेगा, कम-से-कम तबतक कि जबतक अमलतास और गुलमोहर मोर्चा ना संभाल लें।

इस जाते हुए बसंत के लिए उदास होते-होते रह गई। इस कमबख़्त की तो फ़ितरत ही ऐसी है। मनमोहना आता ही दो-चार-दस दिनों के लिए है। आता भी इस अदा से है कि जैसे पूरी दुनिया को दीवाना बनाने में ही इसके अहं को तुष्टि मिलती हो। प्यास बढ़ाने आता है, प्यास बुझाने का कोई उपाय नहीं करता। आंखों पर रंगों के परत-दर-परत ऐसे पर्दे डालता है कि सच-फ़रेब, सही-गलत कुछ नज़र नहीं आता। ऋतुओं का राजा कहलाने भर के लिए हर तरह की चालबाज़ियां, हर तरह के छल-कपट करेगा। अगर इसकी बातों में आ गए तो ख़ुद को नाकाम समझ लीजिए। ऐसे दिलफेंक, आशिकमिज़ाज, किसी के ना हो सकनेवाले छलिया बसंत के लिए क्या उदास होना?

कभी कुछ अलग सा यूँ ही पढ़ने को मन करे तो अनु का ब्लॉग एक उपयुक्त स्थान है। घुमंतू की अनुभूतियों का फलक व्यापक है।   

अल्पना का ब्लॉग उनके नाम और अपने नाम के अनुरूप है; निश्चित ज्यामिति में रची कृति नहीं, बिखरे रंग जिन्हें कई बार फैलाने के लिये पाठकों के जिम्मे कर दिया जाता है, कभी तो आप ने भी नभ में फैले टुकड़ों को आकार देने का प्रयास किया होगा! 
 
चाह छाँव मीत प्रीत गीत अर्थ-बिन अर्थ समय-असमय बात -बेबात गुण -अवगुण उपेक्षा -अपेक्षा धुंध- स्वप्नशून्य- नैन

अलग से उपेक्षित विषय भी समेटती हैं:
लेकिन वह एक जिन्होंने कहा 'नहीं,जीते जी वसीयत नहीं  लिखनी चाहिए, वही इस समूह की सब से अधिक उम्र की महिला थीं। भय की छाया उनके मुख पर देखी जा सकती थी।
उन्हें सब ने समझाते हुए अपने तर्क दिए  तो उन्होंने  कहा कि इस विषय पर बात न करो क्योंकि वसीयत का संबंध मृत्यु से है और अभी से उस के बारे में क्यों सोचना ??जब वक्त आएगा तब देखेंगे। उनके भावों का सम्मान करते हुए फिर किसी ने उस बात पर अधिक बात नहीं की।

[लिखी तो मैंने भी अभी तक नहीं है ,न ही ' हाँ ' कहने वालों में से  किसी ने !]

और कभी कभी रहस्यमय भी हो जाती हैं:
याद आता है ,उस सांझ के धुंधलके में ,न जाने कैसे हलकी सी आँख लगी और
उन कुछ पलों में ही  सारे दृश्य  बदल गए थे।
बदल गया आकाश ,बदल गयी फिज़ा..
बादलों का रंग भी स्याह हो गया था ,ज्यूँ-ज्यूँ अँधेरा गहरा हुआ , बादल पानी बनते गए।
लगता है शायद उसी बरसात में  वे  मोती पिघल कर  बह  गए हैं।

चित्रों के माध्यम से मध्य पूर्व की अच्छाइयों से भी परिचित कराती हैं। इस ब्लॉग को पढ़ते हुये क्रमश: निखराव के दर्शन होते हैं। अल्पना गाती भी हैं। इस पोस्ट को देखिये तो! 
वास्तविक जीवन में यूँ तो हर रिश्ते की अपनी एक पहचान होती है उनकी एक नज़ाकत होती है ,अधिकार और अपेक्षाओं से लदे भी होते हैं .एक कहावत भी है 'जो पास है वह ख़ास है'. यथार्थ से जुड़े और जोड़ने वाले इन रिश्तों से परे होते हैं -कुछ और भी सम्बन्ध ! जो होते हैं कुछ खट्टे , कुछ मीठे,कुछ सच्चे ,कुछ झूटे! यूँ तो इन में अक्सर सतही लगाव होता है..जो नज़र से दूर होतेही ख़तम हो जाता है. इन के कई पहलू हो सकते हैं..

अप्रवासी की बहुविधा के दर्शन इस आलेख में होते हैं: 

भारत जाते हैं तो सब को देख कर ऐसा लगता है ...किसी के पास समय नहींहै,सब की अपनी दुनिया बस चुकी है, बहुत आगे निकल गए हैं परन्तु हम आजभी वक़्त के पुराने काँटों में रुके हुए हैं!
'देश' छुट्टियों में जाते हैं तो पहले कुछ दिन तक अडोस पड़ोस के लोग पूछते हैं'कब आये?'कितने दिन हो?इंडिया वापस नहीं आना क्या?
-------१०-१५ दिन गुज़रते ही उन्हीं लोगों का सवाल होता है ' कब की वापसीहै? कनाडा कब जा रहे हो?इंडिया आकर जाओगे या वहीँ दुबई से चले जाओगे?
जिस का दिल न हो ..उसे भी लगेगा जैसे अब तो जाना ही पड़ेगा...क्योंकि अब सच में ही लगने लगा है कि'एन आर आई' का अर्थ है--Not Required Indians !
बड़ी उलझन है......जाएँ तो कहाँ जाएँ और भागें भी तो कब तक और कहाँ तक?

अच्छा है कि ये उलझन में बनी रहें, ब्लॉग पर अल्पना सी छटायें जो बिखेरती रहेंगी!

______________

अब तक:
प्रतिभा शिल्प
हीर पुखराज पूजा
शैल शेफाली रश्मि
अनु अल्पना
आगे:
अर्चना आराधना
वाणी रचना

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

प्रतिभा शिल्प

इस देश में सेकुलरिज्म वैसे ही है जैसे सब्जियों में टमाटर। उत्तर भारत में दोनों कमबख्त बात बेबात और दाल तरकारी में आदतन डाल दिये जाते हैं, कभी तड़के के रूप में तो कभी पूरे कॉंसेप्ट का कबाड़ा करते हुये।
कई दिनों पहले सेकुलरिज्म के प्रदूषण से दुखी मैं ब्लॉग जगत में ऐसे ही भटक रहा था कि
प्रतिभा सक्सेना के ब्लॉग लालित्यम् के आलेख वाह टमाटर आह टमाटर पर पहुँच गया। पढ़ने के पश्चात मेरे मन में हुआ बिंगो! यही तो सेकुलरिज्म है! कहना न होगा कि मैं इनके लेखन से भयंकर प्रभावित हो गया।

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आगे पढ़ने पर इनके परास का पता चला और एक अकादमिक के प्रति जो गहन आदर भाव होना चाहिये वह उमगता पगता चला गया। द्रौपदी पर उपन्यास हो या पात्र भानमती के माध्यम से चुटकियाँ, इनकी लेखनी सिद्धहस्त है।
इनकी प्रतिभा बहुआयामी है। शिप्रा की लहरें ब्लॉग पर लोरी, दोहे, सोरठे और विविध काव्य मिलेंगे तो लोकरंग में विवाह गीत, बटोहिया, बाउल के फ्लेवर। मन: राग में लम्बी कविताओं के छ्न्दमुक्त और छन्दबद्ध उदात्त सौन्दर्य के दर्शन होते हैं तो स्वर यात्रा में शब्दों के संगीत सुनाई देते हैं। गद्य और पद्य में समान रूप से सिद्धहस्त प्रतिभा जी मौन साधिका हैं और गम्भीर पाठकों के लिये सरस्वती की निर्झरिणी!

शिल्पा मेहता अभियांत्रिकी क्षेत्र से हैं और जीवन समुद्र के किनारे रेत के महल बनाती हैं। अपने लेखन को जिन दो और खंडों में इन्हों ने बाँट रखा है, वे हैं - आराधना और गणित और विज्ञान। आराधना पर धर्म, विज्ञान और दर्शन से सम्बन्धित सामग्री है, गणित और विज्ञान तो नाम से ही स्पष्ट है।

इनके अतिरिक्त भी इनकी बहुआयामी प्रतिभा का अनुमान इनके लेखों के शीर्षक देख कर ही लगाया जा सकता है।  

ret_ke_mahalनिरामिष आन्दोलन हो या धर्म, पूर्वग्रहों के तर्क हों या तार्किक दिखते पूर्वग्रह - टिप्पणियों और बहस में दिखते शिल्पा जी के अकादमिक विश्लेषण अनूठे होते हैं। अपनी बात दृढ़ता और निर्भीकता के साथ रखती हैं, पॉलिटिकल करेक्टनेस के चक्कर में घुमाती फिराती नहीं।
इनके द्वारा रची जा रही सरल रामायण आम जन के लिये गेय है। पूर्वाग्रह और सभ्यता, शासन, क़ानून व्यवस्था की लेखमालायें गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय देती हैं। न्यूरल नेटवर्क और अन्य गणित एवं विज्ञान विषयक आलेख हिन्दी ब्लॉगरी में एक रिक्त से स्थान की पूर्ति कर रहे हैं।

बहुआयामी प्रतिभासम्पन्न ये दोनों शिल्पी ब्लॉगर ऐसे ही सक्रिय रहें, हम सबको अपने नियमित लेखन से समृद्ध करते रहें; यही कामना है।

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अगले अंकों में:
हीर पुखराज पूजा
शैल शेफाली रश्मि
अनु अल्पना
अर्चना आराधना
वाणी रचना
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गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

हिन्दी ब्लॉगरी की दशकोत्सव यात्रा - 5 [नौ गम्भीर]

पिछले से आगे...

पहले अश'आर बोलने का नुस्खा!
Anurag Sharma उवाच
_____________
मुंह में ज़र्दे वाला पान घोलकर बोलिए आ,फिर ज़रा (जरा नहीं वरना क़यामत हो जाएगी) रुकिए फिर बोलिए शआर, उसके बाद पान को बगल में थूक दीजिये, तब बनेगा खालिस अ'शआर
... और कहीं गलती से पिलूरल कर दिया तो शेर में तब्दील हो जाएगा ...
___________
फेसबुक पर यात्रा जारी है। ऊपर का नुस्खा भी वहीं से आयातित है
आज नौ गम्भीर ब्लॉग ब्लॉगर। इन नगीनों से हिन्दी ब्लॉगरी गौरवान्वित है।  
 

36 गढ़ की धरती ब्लॉगरी के लिये बहुत उपजाऊ है! राहुल सिंह के गम्भीर शोधपरक आलेख एकदम कसे बसे और नयी जानकारियों से भरे होते हैं। ब्लॉग जगत के जो कुछ जन अकादमिक गरिमा रखते हैं उनमें राहुल जी शीर्षस्थ हैं। इनके ब्लॉग का नाम है 'सिंहावलोकन' तो श्लेष बनता है, एक अर्थ में कुलनाम से संगति और दूसरे अर्थ में सिंह की प्रसिद्ध चाल जिसमें वह चलते हुये रह रह पीछे देख लेता है। अपने संस्मरणों को राहुल सिंह वैसे ही देख कर सबके सामने रख देते हैं।
इनके विषय हैं संस्कृति, लोक कला और पुरातत्त्व और सिंहावलोकन को यूँ बताते हैं 'आगे बढ़ते हुए पूर्व कृत पर वय वानप्रस्‍थ दृष्टि'। ललित गद्य भी बहुत अच्छा लिखते हैं।
देखिये एक पत्र का नमूना। पूरा ब्लॉग ही ऐसी जाने कितनी अछूती बातों पर लेखन से भरा हुआ है।
http://akaltara.blogspot.in/2013/01/blog-post.html

कविता, आलोचना, पुरातत्त्व, ज्ञान विज्ञान, पास पड़ोस सब पर समान अधिकार और उत्कृष्टता के साथ लिखने वाले शरद कोकास की ब्लॉगीय चुप्पी अब अखरने लगी है। आशा है कि पुकार सुनेंगे Sharad Kokas इनके ब्लॉग लिंक यहाँ मिल जायेंगे:
http://www.blogger.com/profile/09435360513561915427

उत्कृष्ट विश्व साहित्य अनुवाद, कवितायें, फिल्म, संगीत, फोटोग्राफी आदि विविध विषयों के कबाड़ी पाये जाते हैं अशोक पांडे के ब्लॉग कबाड़खाना पर। फुलाये फूलों, पसीजते प्रेम, उखड़ी उदासी, बुलाती प्रकृति के गद्य और काव्य यहाँ प्रचुर हैं। कभी कभी तो सन्दर्भ ब्लॉग सा लगता है। कोई आश्चर्य नहीं कि 910 जनों ने इससे स्वयं को जोड़ रखा है।
http://kabaadkhaana.blogspot.in/

दक्षिण के हिन्दी अध्येता हैं पा.ना. सुब्रमणियन। गाते हैं राग मल्हार - पुरातत्त्व, मुद्राशास्त्र, इतिहास, यात्रा आदि पर। http://mallar.wordpress.com इनके ब्लॉग पर ऐसे ऐसे स्थलों के रोचक और ज्ञानवर्द्धक विवरण मिलेंगे कि आप दंग रह जायेंगे - भारत में ऐसा भी है!
चुपचाप उत्कृष्ट रचनाकर्म में रत ये उन जनों में से एक हैं जिनके कारण हिन्दी ब्लॉगरी समृद्ध है। पढ़िये आदि शंकर की एक 'और' जन्मस्थली के बारे में:
आदि शंकराचार्य की जन्मस्थली और भी है!

'हिन्दी वालों' से रूठे साहित्यकार उदय प्रकाश का हिन्दी ब्लॉग UDAY PRAKASH लगभग डेढ़ वर्ष से चुप है। निर्वासन जैसी बातें करते ये पाठकों के प्रेम पर निहाल होते हैं। फेसबुक पर खासे सक्रिय हैं। प्रतिष्ठित कथाकार हैं, कई भाषाओं में अनुवादित भी! ब्लॉग जगत वाली एक विशेष आत्ममुग्धता इन पर भी छायी दिख जाती है।
पढ़िये कि ये आदिवासी हैं:
http://uday-prakash.blogspot.in/2011/07/blog-post.html

कविता, साहित्य, ललित गद्य, राजनीति, वाद प्रतिवाद, सम सामयिक मुद्दों पर लिखते हैं और प्रसिद्ध व्यक्तियों की रचनाओं से भी परिचय करवाते हैं कम्युनिस्ट बनारसी ब्लॉगर रंगनाथ सिंह। इनका ब्लॉग है 'बना रहे बनारस'।
पढ़िये मुक्तिबोध पर हरिशंकर परसाई का संस्मरण:
http://www.banarahebanaras.com/2013/01/blog-post_6729.html

कम लिखने वाले सौरभ मालवीय अपने ब्लॉग सुमन सौरभ पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को केन्द्र में रख कर लिखते हैं।
http://sumansourabh.blogspot.in/

संगणक, मुक्त सॉफ्टवेयर, लिनुक्स, तकनीकी, ग़ैजेट, इंटरनेट हिन्दी, व्यंग्य, कहानियाँ  एवं मुफ्त डाउनलोड जैसे विशाल परास पर रचना संसार है रविशंकर श्रीवास्तव उर्फ रवि रतलामी का। इनका ब्लॉग है छींटे और बौछारें
इनसे बस एक अनुरोध है कि अपने ब्लॉग का कलेवर बदलें। हम जैसे सौन्दर्य प्रेमी यहाँ पहुँच कर गड़बड़ा जाते हैं!  

अजय ब्रह्मात्मज अपने ब्लॉग चवन्नी चैप पर हिन्दी फिल्मों के बारे में हिन्दी में लिखते हैं और परिचय अंग्रेजी/रोमन में यूँ देते हैं:
i am a common audience of hindi cinema.critics and film industry call me CHAVANNI CHAP.i love this name.visit me to know my views. aur haan...yahan se aap apne pasandida sitaron aur filmon ki duniya mein seedhe ja sakte hain.to der kis baat ki..abhi click karen..aur bar-bar aayen. (और हाँ...यहाँ से आप अपने पसन्दीदा सितारों और फिल्मों की दुनिया में सीधे जा सकते हैं. तो देर किस बात की..अभी क्लिक करें..और बराबर आयें.)

(नोट : ब्लॉग क्रम का श्रेष्ठता कोटि से कोई सम्बन्ध नहीं है)

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

हिन्दी ब्लॉगरी की दशकोत्सव यात्रा - 4

अधिकांश हिन्दी ब्लॉगर अब फेसबुक पर हैं/भी हैं - 'हैं' उनके लिये जो ब्लॉग का लगभग त्याग ही कर चुके हैं; 'भी हैं' उनके लिये जो दोनों स्थानों पर अपने को स्थापित किये हुये हैं। कुछ तो ट्विटर पर भी सक्रिय हैं। आज के समय की आवश्यकता है इंटरनेट जिसे कतिपय जन अब नागरिक 'मौलिक अधिकारों' में सम्मिलित करने की माँग भी करने लगे हैं। जीवन की आपा धापी में पारम्परिक दृष्टि से देखें तो एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से दूर हुआ है किंतु एक दृष्टि से देखें तो इतना पास हुआ है जितना कभी नहीं था। भूगोल, लिंग, पंथ आदि की सीमायें ध्वस्त हो चली हैं और सोशल साइटों के द्वारा लोग बेतहाशा एक दूसरे से सम्वादित हो चले हैं। इस के नकारात्मक पहलू भी हैं लेकिन विधेयात्मक पक्ष यह है कि इसने उन्हें भी अभिव्यक्ति दे दी है जिन्हें व्यवस्था ने चुप कर रखा था। स्त्रियाँ इतनी मुखर पहले कभी नहीं हुईं! और वे आधी जनसंख्या हैं। यह एक बहुत बड़ा परिवर्तन है जिसके प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में दिखने लगे हैं।
फेसबुक या ट्विटर के 'हिट' होने के पहले सम्वाद की त्वरा की आवश्यकता की पूर्ति ब्लॉग प्लेटफार्म करता था। परिणामत: अधिक जीवन्त लगता था। इनके आने से त्वरित और लघु सम्वाद एवं उनके अन्य प्रकार ब्लॉग से हट गये। ऊबे और त्वरा की प्रचुरता के आदी जन ने ब्लॉग को बीते युग की बात घोषित कर दी एवं फेसबुक पर ‘फुल्ल' या 'प्रफुल्ल टाइमर' हो गये। हिन्दी ब्लॉगरी में ऐसा अधिक दिखा लेकिन अन्य भाषाओं से तुलना करें या आज भी स्वयं हिन्दी ब्लॉग जगत की सक्रियता और गुणवत्ता देखें तो 'बीते युग की बात' बकवाद ही लगती है। सोशल साइट और ब्लॉग एक साथ चल रहे हैं और चलते रहेंगे।
फेसबुक त्वरित है। अधिकतर विचार या अभिव्यक्ति आते हैं और बिना परिपाक हुये छप जाते हैं। विविधता और नयापन तो प्रचुर हैं लेकिन विकसित करने में समय न दिये जाने के कारण गुणवत्ता और गहराई की कमी ही दिखती है। सुतली बम कस के बाँधा न जाय तो धमाके और प्रभाव में कमी हो जाती है! यदि उन्हीं फेसबुकिया विचारों या अभिव्यक्तियों को ब्लॉग पर परिवर्धित और थोड़ा समय दे परिमार्जित कर डाला जाय तो क्या बात हो! फेसबुकिया ब्लॉगर या ब्लॉगर फेसबुकिये ध्यान दें! 
2013 में हिन्दी ब्लॉगरी के दस वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस अवसर पर मैंने सोचा कि क्यों न फेसबुक के उन जनों को हिन्दी ब्लॉगरी की झलकियाँ दिखाई जायँ जो इससे अनभिज्ञ हैं? फेसबुकिया शैली में ही बिना वर्तनी या व्याकरण पर अधिक ध्यान दिये मैंने ब्लॉग जगत का परिचय देना प्रारम्भ किया तो लोग रुचि लेने लगे। मित्र निवेदन और चैट सन्देश भी मिलने लगे। मैं सनातन कालयात्री आगे बढ़ता चला गया। शिवम मिश्र ने ब्लॉग बुलेटिन पर छापना चाहा तो मैंने कहा कि डाल दीजिये [जब सामने वाला पश्चात प्रभाव झेलने को तैयार है तो अपने को क्या?] उन्हों ने ये तीन लिंक छापे: 1, 2, 3 । वह चाहें तो इसे भी अपने यहाँ कॉपी पेस्ट कर सकते हैं, वहाँ रहने पर पहुँच बढ़ेगी ही।
फेसबुक पर ही इस घोषणा के बावजूद कि
हिन्दी ब्लॉगरी के दस वर्ष पूरे होने वाले हैं। अपनी पसन्द के लेख शेयर करता रहूँगा- दशकोत्सव की अपनी विधि! इसमें कोई 'राजनैतिक या गुटीय' मंतव्य न ढूँढ़े जायँ, प्लीज! ;)'परशुराम जी' ठाकुर विश्वामित्र और बाभन वशिष्ठ प्रकरण ले आये जिससे मामला तनि एक रोचक हुआ। कुछ जन बिदके भी लेकिन टिप्पणी का सार समझते हुये पब्लिक चुप ही रही! इस स्टेट्स पर नम्बरी बिलागर समीर लाल ने लिखा: jindaabaad!! किसका जिन्दाबाद? ये तो वही जानें।
आप सब अपने अपने ब्लॉगों पर कुछ नया करें। अपने बारे में कॉलर टाइट करते रहे, पल्लू लहराते रहे; अब दूजों की सोचें। छिपो को प्रगटो करें, प्रशंसा करें, उनके योगदान को चिह्नित करें।  फागुन का महीना आ ही रहा है, नमकीन या रंगीन भी हो सकते हैं।
कविता के मारे हैं तो गद्य का लठ्ठ भाँजें, चुपो रहे हैं तो अनुराग शर्मा, अर्चना चाव जी, पद्म सिंह, सलिल वर्मा, हिन्द युग्म, रेडियो प्लेबैक इंडिया आदि के सहजोग से मुखो हो पॉडकास्ट ट्राई करें। आवाज के मामले में निश्चिंत रहें, जब मेरी आवाज को भी पसन्द किया जा सकता है तो सबके पसन्दकर्ता उपलब्ध होंगे। अस्तु, आगे बढ़ते हैं।

फिल्मों पर लिखते हैं स्वघोषित आवारा मिहिर पंड्या अपने ब्लॉग http://mihirpandya.com पर। वह अपने इस ब्लॉग पर अनवरत रचना संसार सृजित कर रहे हैं। सेल्यूलाइड पर अमर कर दिए गए दृश्य, ध्वनियाँ, गीत, संगीत, भावनाएँ, प्रकाश, अन्धकार .... सबको बहुत बारीकी से विश्लेषित करते हैं और तह दर तह खोलते जाते हैं।
लाइट, कैमरा, ऐक्शन !!
ये तीन शब्द जो रचते हैं, उस पर बहुत कुछ रचा जा सकता है। ज़रा देखिए तो सही । बस समीक्षा नहीं, साहित्य भी मिलेगा। 
 
अंग्रेजी की मास्टरनी शेफाली पांडेय अपने को कुमाउँनी चेली कहती हैं। http://shefalipande.blogspot.in में ग़जब के व्यंग्य रचती हैं। स्वभाव से ही विरोधी हैं, पुरस्कारों की भी। ये बात और है कि 'जब मुझे पुरस्कार मिल जाता था तो मैं उन लोगों की बातों का पुरज़ोर विरोध करती थी जो पुरस्कारों की पारदर्शिता पर संदेह करते थे'  
राजस्थान की धरती से किशोर चौधरी के मित्र संजय व्यास ब्लॉग लिखते हैं http://sanjayvyasjod.blogspot.in/ अपने बारे में कहते हैं कि मुझे तैरना बिल्कुल नहीं आता लेकिन मरुस्थल की रेत पर लहरों सा आनन्द लेना हो तो इन्हें पढ़िये। राजस्थान का रंग है, गँवई प्रेक्षण हैं, खिलखिलाती लड़कियाँ भी हैं, कुछ कवितायें भी और कुछ अद्भुत गद्य भी। व्यक्तिगत कहूँ तो दोनों में मुझे ये अधिक पसन्द हैं।  
लखनवी विनय प्रजापति कम्प्यूटर तकनीकी के टिप्स देते हैं अपने ब्लॉग http://www.techprevue.com/ पर। अब अंग्रेजियाने लगे हैं। नज़र तखल्लुस (यही कहते हैं न?) से ग़जलियाते भी हैं और ब्लॉग की अलेक्सा वलेक्सा रैंकिंग कैसे दुरुस्त रहे इसका भी खयाल रखते हैं। कविताकोश पर भी पाये गये हैं। 
शिक्षा, विज्ञान, सामयिकी, कविता, ललित गद्य, स्त्री मुद्दे आदि में निष्णात हैं अल्पना वर्मा। व्योम के पार मध्य पूर्व से लिखा जाने वाला इनका ब्लॉग है http://alpana-verma.blogspot.in
वतन से दूर हैं लेकिन इसकी मिट्टी से खिंचते रहने की बात कहती हैं। इन्हों ने जावा स्क्रिप्ट एनेबल कर ब्लॉग से कॉपी पेस्ट बन्द कर रखा है :) गायन भी करती हैं।
उम्मतें http://ummaten.blogspot.in/ नाम से ब्लॉग रचते हैं अली सईद। सुन्दर ललित विचारपूर्ण गद्य लिखते हैं। लेफ्ट सेंटर चलते हुये कहते हैं जो जी चाहे ले लीजिये ! कोई कापी राईट नहीं !.
नहीं जी, इनका ट्रैफिक विभाग से सम्बन्ध नहीं, छत्तीसगढ़ शिक्षा में उच्च पद पर हैं।  
अलग तरह का साहित्य है ब्लॉगर नवीन रांगियाल के ब्लॉग औघट घाट http://aughatghat.blogspot.in पर। राजेश खन्ना के अवसान के बाद चुप हैं लेकिन ब्लॉग के पुराने लेख भी पठनीय हैं। उनके मित्र उनके बारे में लिखते हैं:क्‍या कहूं तुम्‍हें                                                                  
कि तुम जितने पुराने हो रहे हो
उतना ही ताजा बन पडे हो..
रंगों मे रहकर रंगहीन क्‍यों हो तुम
काफ्काई गद्य पढ़ना हो तो आई टी क्षेत्र से जुड़े युवा ब्लॉगर नीरज बसलियाल के ब्लॉग काँव काँव प्रकाशन लि. http://kaanv-kaanv.blogspot.in/ पर जाइये। कम सामग्री है लेकिन जो है वह कभी कभी गुरुदत्त के सिनेमाई बिम्बों सा भी लगता है।
दीपक बाबा अब कम बकबक http://deepakmystical.blogspot.in करते हैं लेकिन जो करते हैं अलगे अन्दाज में करते हैं। चचा जैसे जन इनके टाइप की ब्लॉगरी को ही ब्लॉगरी मानते हैं। बाकी तो साहित्त फाहित्त सभी रच लेते हैं! है कि नहीं?
रोटी की रोजी का टैम हो गया, फिर मिलते हैं।

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

हिन्दी ब्लॉगरी दशकोत्सव: अज़दक की लम्बीsssss लेकिन 2007 पर ही स्टॉप

सुखी कैसे हों की तकलीफ़देह पड़ताल में जुटे प्रमोद सिंह की नोटबुक..
...वह स्‍त्री जो चालीस वर्षों तक इस उखडे घर को
कोमलता से भरने के जतन करती फिरी
चूल्हा बरतन में झुंकती रही
छोटे-छोटे सिक्कों से ऊंचे हौसले सिलती रही
अब अचानक सब छोड़ कर एकदम से चुप हो गई है.

... भौजी लंबी सांस छोडकर बुदबुदाई एक दिन
इस घर के लोग उसकी जान लेकर छोडेंगे.
सुगना पिंजरे में बेमतलब पंख मार रहा है.
मैं फुसफुसाकर कहना चाहता हूं अम्मां
मैं तुम्हारी खातिर घर लौटा हूं. अम्मां तुम कहां हो.
अम्मा बहुत गोड दुख रहा है. 



अज़दक के लिखवार, जी हाँ ब्लॉग लेखक प्रमोद सिंह खुद को लिखवार ही कहते हैं, को मैं नहीं जानता। कमेंट पास करने के युग में अज़दक ब्लॉग पर कभी एकाध कमेंट किया होगा। पाठक भी कभी नियमित नहीं रहा। यूँ ही कभी रौ उठी तो एक साथ आठ दस पढ़ लिया, अपने हिसाब से अबूझ को भी समझ लिया।
लिखवार पूर्वी ऊ पी या बिहार के प्रतीत होते हैं इसलिये नजीक के मनई लगते हैं। बिलाग से लगता है कि नाटक वाटक या फिलिम सिलिम से जुड़े होंगे।
पाँच वर्षों के विशाल फलक पर फैले इस बिलाग के लेखों की बँटवार ऐसी है कि अब तक के कुल 1091 आलेखों में आधे से अधिक पहले ही दो वर्षों में लिख दिये गये और साल के हिसाब से संख्या घटती चली गयी।
बिलाग जगत की एक वास्तविकता यहाँ साफ दिखती है। इस ब्लॉग के कुल फॉलोवर हैं 196 जिन्हें लेखक अंधारघर के ढिबरी कैरियर्स कहता है। पहला आलेख सिनेमा: तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्‍खा क्‍या... 15 फरवरी 2007 को लिखा गया और जिसमें एक कामोत्तेजित युगल का पोस्टर लगा हुआ है। 
 जब प्रियता में इस बिलाग का नाम आने लगा तो मैं चौंका क्यों कि पसन्द करने वालों में ऐसे सीधे सादे यानि कि अबौद्धिक टाइप के लोग भी थे जिनके बारे में मैं सोच भी नहीं सकता था। कारण यह था कि इस बिलाग को चन्द दुरूह बिलागों में गिना जाता है। मुझे एक बात छ्पाक से छू गई दू तरह के लोग हैं, एक हम जैसे जो बौद्धिक लगें लेकिन कोर में रहें बकलोल ही और दूजे इसके उलट!
अब शीर्षक को ही ले लीजिये, मेरे दिमाग में इसे पढ़ते हमेशा अजगर ध्यान में आता है, कुछ लेखों को पढ़ कर लणतक भी ध्यान में आता है। इसका केवल तुकबन्दी से सम्बन्ध है, शब्दार्थ से नहीं! 
पहले जान लें कि अज़दक है क्या बला?

एक प्रसिद्ध जर्मन नाटककार ब्रेख्त की नाट्य कृति The Caucasian Chalk Circle का एक पात्र है अज़दक जो कि ग्राम क्लर्क यानि किरानी है और अराजकता की उपद्रवी स्थिति में ग़लती से उच्च वर्ग के एक अपराधी व्यक्ति को शरण दे देता है। विद्रूप परिस्थितियाँ हैं। अपनी भूल समझ जब वह अपराध स्वीकृति के लिये न्यायालय में जाता है तो न्यायाधीश फाँसी पर लटका हुआ है। वहाँ बैठे सैनिक यह कहते हुये उसे ही न्यायाधीश नियुक्त कर देते हैं कि न्यायाधीश हमेशा से कमीना था, इसलिये अब एक कमीने को न्यायाधीश होना चाहिये! मूल नाटक में chancer शब्द आया है, आप लोग 'कमीने' के बजाय 'अवसरवादी' या कोई और अनुवाद प्रयोग कर सकते हैं। [The judge was always a chancer, so now a chancer should be the judge]  
उसके बाद अपनी तमाम अहमकाना हरकतों के बावजूद अज़दक के कामों की परिणति अच्छी ही होती है। सोलोमन विधि का आश्रय ले वह एक बच्चे को एक ममतापीड़ित स्त्री के हवाले करता है, एक वृद्ध दम्पति के विवाह विच्छेद की अर्जी पर निर्णय लेते ग़लती सेउस स्त्री का तलाक भी करा देता है ताकि वह अपने प्रेमी से विवाह कर सके! ...
...गो कि बिलाग में भले दुरूहता हो, विद्रूप हो, बेहूदे वर्णन हों लेकिन पाला हमेशा किलियर है। देखिये, इस नाम पर ब्लॉग लेखक के कुछ सम्वाद:      

notepad said...
अज़दक नाम देख कर मैं चौंकी थी। आज सुधीश नाम भी आपके लेख मे कटाक्ष का शिकार बना है।
सुधीश पचौरी ही को इंगित है ना !
अज़दक नाम से वे ही लिखते हैं जनसत्ता में।
Pramod Singh said...
ऐसे आप चौंकिये मत, सुजाता जी. पचौरी, प्रमोद या अन्‍य किसी का अज़दक पर कापीराइट नहीं है. ब्रेख्‍त के नाटक 'खड़ि‍या का घेरा' का एक चरित्र है, जो नाटकों की दुनिया से परिचित हैं समझते हैं. रही बात कटाक्ष और शिकार बनाने की तो शिकार बने लोग क्‍या शिकार खेलने जायेंगे..

"मोहब्‍बत रफी के लगले एगो मूचिकल पाल्‍टी.."
Pramod Singh said...
@नीरज,
अज़दक माने मोहब्‍बत रफी..
इससे जादे के माने जानना हो तो पिलिच, ब्रेख्‍त के नाटक 'खड़िया का घेरा' से संपर्क साधो.
February 25, 2011 10:53 AM

ज़दक को पढ़ना एक इतिहास से गुजरना है। उन्हें पढ़ते लगता है कि आज के बिलाग जगत में जो कुछ चल रहा है वही 5 साल पहले भी चल रहा था। आश्चर्य नहीं कि हिन्दी ब्लॉगरी की सीमाओं की बातें होती रहती हैं।

 इस ब्लॉग में समकालीनों पर चुटकियाँ हैं, हिन्दी साहित्त और उसके हीतुओं पर तल्ख टिप्पणियाँ हैं, बेनामियों पर खीझ है, पूर्वी इलाके की इस्किया बातें हैं, अम्मा, बाउजी, बाग बगीचा आदि की सैर है। सलीमा और नाटक वगैरा तो हैं ही। अबूझ गद्य की बुझक्कड़ यात्रायें हैं, पेंसिल के स्केच भी हैं और प्रेमी प्रेमिकाओं के चिट्ठी चिठियाँव भी...एक आलेख में इसे समेटना इसके साथ अन्याय करना है लेकिन हमें तो अन्याय करना ही है! सो आइये चलते हैं यात्रा पर:

Feb 15, 2007
कहीं नहीं गई हैं यहीं हैं किताबें. तखत के पैताने,
टांड के जगर-मगर के बीच, खिलौनों के बाजू,
अलमारी के खानों में, घडी के पीछे, अखबारों के नीचे
कितनी सारी तो किताबें. बस पन्‍नों के बीच की महक
बदल गई है, जिल्‍दों का रंग कुछ फ़ीका पड गया है.
याद नहीं कब चूमी गई थीं आखिरी बार
मगर यही हैं. उम्र गुज़ारती, धीमे-धीमे पियराती हुई,
सासें गिनतीं, अपने समूचेपने में.
...
...
कहीं तो गई नहीं हैं किताबें. यहीं-यहीं तो हैं किताबें.
कुछ पीलापन ही तो चढा है, ऐसा क्‍या खाक़ गजब हुआ है. थोडा पीला
तो यह पूरा का पूरा मुल्‍क हुआ है.
इसे पढ़ने के बाद एक अंग्रेजीदाँ कमेंटियाते हैं:
Manoj said...
A very nice article, through which the author puts to prospective reading habbits of a common youth through the ficticious character of Dayashankar! Infact Dayashankar exists in all of us.
I have developed a taste for hindi articles after reading your posts. Keep posting more .
उस हिन्दी वाले दयाशंकर को जानने के लिये जिसने taste develop करा दिया, आप को पूरी article खँगालनी होगी। श्री सु कु पर देखिये इस पोस्ट को: 
  यहां सब सेकेंड रेट है. गोरों की बात ही अलग है, यार. मैंने सु कु जी को समझाने की कोशिश की कि वे कुछ ज्‍यादा ही विदेशी नशे में धुत्‍त होकर लौटे हैं, स्‍वदेस प्रेम कुछ तो उनकी ज़बान की कडवाहट कम करे. हमारे परम-प्रिय श्री सु कु ने हिक़ारत से एक बार मेरी ओर देखा फिर मोहल्‍ला के ब्‍लॉग पर रवीश कुमार की ताज़ा टिप्‍पणी के शीर्षक (क्‍या इस मुल्‍क को चूतिया बनाया जा रहा है? ) पर उंगली उठाते हुए एकदम-से ज़हर उगला, ‘ये गलत है. यह दरअसल सवाल नहीं स्‍टेटमेंट होना चाहिये.  


Feb 15, 2007

तंगहाल समाज में कलाकार होने का मतलब: पांच

ओरहान पामुक का इस्‍तांबुल की पांचवी किस्‍
जब तुम छोटे थे, खराब से खराब मौके पर भी हमेशा मुस्‍कराया करते थे. खुश और उम्‍मीदबर रहते थे. ओह, कितने प्‍यारे बच्‍चे थे तुम. तुम्‍हें देखनेवाला बिना मुस्‍कराये नहीं रह पाता था. इसलिए नहीं कि तुम खूबसूरत थे, बल्कि इसलिए कि तुम्‍हें खबर ही न थी कि उदासी किस चिडिया का नाम है, क्‍योंकि बोर तो तुम होते ही न थे. खराब से खराब सूरत में भी तुम अपनी खातिर कुछ खोज लेते थे और घंटों खेल में डूबे रहते थे, ऐसे थे तुम हंसमुख. इस तरह का बच्‍चा एक परेशान, त्रस्‍त कलाकार बने, अमीरों के पीछे-पीछे घूमता फिरे- मैं तुम्‍हारी अम्‍मी न होती तो भी मुझसे बर्दाश्‍त न होता. इस‍लिए मैं नहीं चाहती कि मेरी बातों का तुम बुरा मानो, और अब गौर से मेरी बात सुनो. 

Feb 23, 2007

ब्‍लॉग के फ़ायदे

डिप्रेशन शुरु होने का मतलब आप समझ ही रहे हैं- टाईम की ऐसी-तैसी हो जाती है. ब्‍लॉग के होने से अब यह सुविधा हो गई है कि अपना डिप्रेसन आपकी तरफ फेंक सकें. बाद में आपकी प्रतिक्रिया पाकर और अच्‍छा लगता है कि डिप्रेसन की अच्‍छी तस्‍वीर खींची है. हालांकि कुछ लोगों की शिकायतें भी आती हैं कि तस्‍वीर तो जो थी सो थी, डिप्रेसन के वर्णण में व्‍याकरणिक अशुद्धियां रह गई हैं.....
पर ब्‍लॉग के फ़ायदे ही फ़ायदे हों ऐसा नहीं, नुकसान भी है. ब्‍लॉग जहां नई दोस्तियां बनाता है वहीं पुरानों में दरार भी लाता है. दोस्‍त (नैचुरली, पुराने) को ख़बर हुई कि हमने अपना ब्‍लॉग शुरु कर दिया और वह (पुराने) पीछे रह गए तो उन्‍होंने हमसे मुंह फुला लिया. हमने पूछा क्‍या बात है तो जबर्जस्‍ती गंभीर होकर बोले, ब्‍लॉग-स्‍लॉग लेकर हम क्‍या करेंगे...  दोस्तियों की भी एक उम्र होती है....

...मैं बेवकूफ बच्‍चे की तरह उत्‍साहित होकर फिर सवाल करुंगा कि इसको देखा? उसको पढा? और वो फिर सिर झुकाकर शर्मिंदा होंगे कि यार, बहुत टेंशन चल रहा है, तुम्‍हारे ब्‍लॉग के लिए टाईम नहीं मिला. और मैं अविश्‍वास व शॉक से उन्‍हें देखूंगा जैसे मुझे अभी-अभी अपनी पत्‍नी के किसी के साथ भाग जाने की ह्रदयविदारक ख़बर मिली हो.
Feb 27, 2007
एक ज़माने में यह मधुबाला, मुमताज़, मीना, माधुरियों ने किया था. अब ब्‍लॉग कर रहा है. हमको हमसे छीन रहा है. हम अपने नहीं रह गए. ब्‍लॉग के हो गए हैं. रवीश कुमार खामखा हल्‍ला किये हैं. एक ग़ैर-वैवाहिक संबंध ही तो बनाया है, नौकरी अभी कहां छोडी है....  जिस तरह कभी जे. एम. अकबर का पैर दीन-ए-इलाही और आई. गांधी का नसबंदी में धंसा था, हमारा ब्‍लॉग में धंस गया है. पैर ही नहीं पराक्रम, प्रतिष्‍ठा सब धंसा हुआ है.  ब्‍लॉग हमारा वृंदावन है. अब सारे भजन हम उसी के वृक्ष के नीचे खडे होकर गाना चाहते हैं. हमने स्‍वानंद किरकिरे से कहा है हमारे ब्‍लॉग के लिए गाना लिखो. अब तो एकलव्‍य रीलीज़ भी हो गई है. स्‍वानंद लिख नहीं रहा है. हमें अच्‍छा नहीं लग रहा. हम गोर्बाचोव और पुतिन की तरह दो धुरियों पर जाकर खडे हो रहे हैं. ब्‍लॉग इतिहास में इस परिघटना की सुखद स्‍मृति नहीं दर्ज़ होगी.
Feb 27, 2007
 कविता में अब तक स्‍मृतियां खासी काम आती रही हैं. गांव, अपने छोटे शहर के बदबूदार नाले में गिरी गेंद को
निकालने का उत्‍साह और सड़कों पर बहाये कोलतार के गोले बनाकर कमीज़ की जेब में डालने की हिम्‍मत. जबकि मालूम होता था कि ये कमीज़ अब दुबारा कभी धुल नहीं पाएगी. फट जाएगी, लेकिन कोलतार से अलग नहीं होगी. ग़रीब बाबूजी की ग़रीब पत्‍नी में मौजूद मेरी अमीर मां ने लेकिन कभी ऐसी फटकार नहीं लगायी, जिससे इस तरह की हिम्‍मत के लिए आगे हौसला पस्‍त पड़ जाए. .........
 कुल 31 साल. इन रूपा बाजवा को 2006 के लिए अपने अंग्रेज़ी उपन्‍यास द साड़ी शॉप के लिए साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार मिला है. हिंदी में ज्ञानेंद्रपति को यह पुरस्‍कार मिला है और उर्दू में मख़मूर सईदी को. दोनों की उम्र 50 के ऊपर है. अब इस फर्क से ये भी साफ होता है कि सम्‍मान लायक समझी जाने वाली उम्र से भी ये तय होता है कि कोई समाज अपने पुरानेपन से कितना बँधा हुआ है... हिंदी के कितने ही लेखक अभी रूपा बाजवा की उम्र में हैं और वे दरियागंज से लेकर मंडी हाउस में सर उठाये घूमते रहते हैं, लेकिन कलमकारी के नाम पर हंस और कथादेश में कविता-कहानी छप जाने से आगे उनका उत्‍साह जवाब दे देता है. ... मैंने अपनी ऊब को एसएमएस में दर्ज किया और उनके नंबर पर छोड़ दिया. जवाब आया- बाहर रुकिये, बस पांच मिनट में आया. और वे पूरे एक घंटे बाद हमें उसी पोस्‍टर के सामने मिले, जिसमें रूपा बाजवा अपनी उम्र से हमें चिढ़ा रही थीं....

Mar 19, 2007

रवीश का चरम रघुराज का पतन

   नारे लगाते. गलत हिज्‍जोंवाली दफ्तियां लहराते. बीच-बीच में ठिलते ऐसा व्‍यंग्‍य उछालते जिसका नमूना देखकर ज्ञान चतुर्वेदी और श्रीलाल शुक्‍ल रोने लगते.... अभय से अपने संबंधों की बात खोलकर अपने को मैंने खुद कितने बडे राजनीतिक गड्ढे में डाल लिया है. अलबत्‍ता जहां आंख की पट्टी खोली गई वह गड्ढा नहीं रवीश के कामकाजी राजमहल का स्‍नानागार था. उसके आकार-प्रकार को देखकर मैंने दांतों तले उंगलिया दबा ली, मतलब कुछ वैसा ही हतप्रभ महसूस किया जैसा पहली दफा हाथ में मुक्तिबोध की कविता लेकर कल्‍पना के संपादक वात्‍स्‍यायन जी हीरानंद ने अनुभव किया होगा. इतनी जगह बाबूजी कब्जियाये होते तो स्‍नानागार की बजाय अभी यहां हमारा ददिहाल बसा होता. खून खौलकर मेरी आंखों में चला आया कि ऐयाशी का ऐसा अकूत भंडारण और अंतर्राष्‍ट्रीय प्रैस में प्रचार यह किया जा रहा है कि शहरों से बाहर लोग इस लिए खदेड़े जा रहे हैं कि शहर में जगह की कमी है! ... विमल लाल एकदम खिन्‍न हो गए. गंभीर होकर बोले- सुब्रत राय से मिलवाया था पहले कभी! फिर रवीश कुमार से कहां से मिलवायेंगे? हमारे यार लगते हैं वो? हमारी औकात क्‍या है. सहारा में भी कुत्‍ते थे यहां भी वही हैं! समझदार होकर असंभव फरमाइश करते हो. रघुराज जी आते हैं तो उनसे कहो. उनकी रवीश तक पहुंच है... बेटी को पढ़ाई के लिए शंघाई भेज दिया है. खर्चा कंपनी उठा रही है. अपन अब मस्‍त हैं. तुम देखना चार दिन बाद अभय मियां भी बम-बंदूक का खेल छोडकर काम मांगने यहीं आयेंगे...  रघुराज की सोच रहा था और सोचकर सन्‍न था. व्‍यक्ति के पतन की कितनी गहराई है! क्‍या सीमा है? रघुराज अगर यहां तक पहुंच सकते हैं तो मेरा बचे रहना मात्र संयोग ही है!... मैं सोचने लगा इतने सारे डुप्लिकेट्स के पीछे रवीश को कितने का खर्चा पड़ा होगा. या क्‍या मालूम डप्लिकेट नहीं ऑरिजनल हों!मतीस का अंत मोतिहारी के एक गुंडे के महल में होना लिखा था सोचकर मेरा दिल बैठ गया! आखिर क्‍या मूल्‍य रह गया है आज कला की सामाजिकता का जब सब रवीश कुमारों के ही कब्‍जे में है?...

Mar 26, 2007

दीवार में मदन पुरी को खिड़की से फेंकनेवाला सीन भूला नहीं हूं, सर!

... आप फिल्‍मवालों के साथ यही दिक्‍कत है, भाई साहब, हर जगह नाटक दिखता है. चार घंटे की शुद्ध रगड़ाई के बाद मुंह में दो निवाला डाल रहा हूं मगर आप चाहते हैं वह भी हराम हो जाये. ऑफिस में बॉस को कहते हैं एक लैपटॉप दे दो, फील्‍ड से रिपोर्टिंग में आराम हो जाएगा तो वो कहता है कानपुर जा रहे हो कि कैलिफोर्निया? ग्रेटर कैलाश में में थ्री बेडरुम फ्लैट भी खरीदकर दे दूं? अच्‍छा तमाशा है. आदमी जिम्‍मेदार अधिकारी से अपनी परेशानी बोल रहा है और साहब व्‍यंग्‍य में जवाब दे रहे हैं! ...

Apr 24, 2007

इस वर्ष के साहित्‍यरत्‍न पुरस्‍कार की घोषणा और बूझिये विजयी कौन?

साहित्‍य की भारी अव‍नति के बीच अभी भी उम्‍मीद का एक दीपक (सुनील नहीं) बाकी
बाबूजी .. अपने साहित्‍य-प्रेम को अमर करने के लिए वे साहित्‍यरत्‍न मंजूषा जैसा पुरस्‍कार स्‍थापित कर गए और इस तरह साहित्‍य में वह और साहित्‍य को अपने में अमर कर गए.... ऐसा नहीं है कि विवादी हवाएं नहीं बह रही थीं या प्रतियोगी ठेलमपेल नहीं थी मगर बाबूजी की छत्रछाया में हम घास नहीं छीलते रहे हैं, हिंदी साहित्‍य का सूक्ष्‍मता से अध्‍ययन ही करते रहे हैं. तो अध्‍ययन, जैसाकि निकलना था, सही निकला और हम आगे आगे निकल गए. ... पांचवी कक्षा से ही मंच पर जाकर पुरस्‍कार पाने की बड़ी हसरत है, इस बार हमीं को जीत जाने दीजिये, भैया? मैं सन्‍न रह गया. चौबीसों घंटे समाज और साहित्‍य की चिंता का नाटक खेलनेवाला सीधे-सीधे बचपन और बचपने की हसरत के नाम पर साहित्यिक प्रसिद्धी क्‍लेम करना चाहता है!...  आपकी तो असल जगह है आश्रम और युगनिर्माण योजना! गीता प्रेस, गोरखपुर से भी पुरस्‍कार मिल रहा होता तो कोई बात थी मगर साहित्‍यरत्‍न मंजूषा? थू-थू-थू! छो‍ड़ि‍ये, सरकार, लात मारिये! अभय जी पर एकदम-से वांछित असर पड़ा, तत्‍क्षण पंडित हजारीप्रसाद की नकल करने लगे. मुस्‍कराहट चली गई और लौटी तो मंजूषा छोड़ ही नहीं चुके थे, लात भी लगा दिया था और हमसे युगनिर्माण योजना को पत्र लिखवा रहे थे!... परदेसी बाबू चहकने लगे- सोलह वर्ष की अवस्‍था से ही कवितायें लिख रहा हूं! कविताओं के चक्‍कर में ही दो बार इम्‍तहान के नतीजे खराब हुए. करियर छूट गया, कवितायें नहीं छूट सकीं! पाठक और पुरस्‍कार मोह स्‍वाभाविक है.. आपको नहीं लगता?.. मुझे क्‍या लग रहा था बताने की जगह मैंने काउंटर क्‍वेस्‍चन किया- पुरस्‍कार के आवेदन हेतु अपना नाम बताइयेगा आप?.. सवाल सुनना था कि अनामदास हांफने लगे, फिर पाला छुड़ाकर पुरस्‍कार से विपरीत दिशा में भागे. पुरस्‍कार की दिशा में मैं भागा!

 Apr 22, 2007

बनारस और बचपन से निकलकर सामने आओ, सर्वशिक्षा अभियान को कूचकर सरकार आगे निकल जाये हम पीछे छूट जायें इसके पहले हमको इस अशिक्षा के पागलपने से बचाओ. मकान और धन नहीं ज्ञान मांग रहे हैं, कवि, देव के आशीष, कुछ तकनीकी रास्‍ता दिखाओ. ओ बाबा, एइ रोकोम चोलबे ना, हिंदी को बाचाओ.

Apr 9, 2007

कुत्‍ता: एन इंट्रोडक्‍टरी एसे

गाय के बरअक्‍स चंद उपयोगी सामाजिक प्रस्‍थापनाएं
क्‍या आप कुत्‍तों को जानते हैं? क्‍या कुत्‍ता आपको जानता है? यह एक गंभीर प्रश्‍न है जिसका जवाब निश्‍चय ही टॉमी, टोनी, ब्‍लोंडी, कालू को जानने के सरल रास्‍ते से नहीं दिया जा सकता. कुत्‍तों के प्रख्‍यात विशेषज्ञ गुस्‍ताव एंडरसन ने अपने विश्‍व-विख्‍यात निबंध में गलत नहीं कहा कि आपने कुत्‍तों को जान लिया है तो आप जीवन जान गये हैं(1)! पतन के कगार पर खड़ी मानव सभ्‍यता के साथ यही मुश्किल रही है कि उसने हिटलर को जान लिया, जॉज डब्‍ल्‍यू बुश और बिल गेट्स को पहचान लिया लेकिन कुत्‍तों की अभी तक ठीक-ठीक पहचान नहीं कर सकी है....
 क्‍या- एक ऐसे देश में जिसे अतीत में दूध की नदियां बहानेवाला कहा गया लेकिन वर्तमान में वह जल के साथ-साथ दूध के भी अक्‍यूट क्राइसिस से गुजर रही है- यह विचारणीय नहीं कि हम पिल्‍लों के साथ-साथ पीपल्‍स की भी सोचें, और डॉग मिल्‍क को कंसीडर करके रिसोर्सेस के एक बड़े संकट से राष्‍ट्र को उबारने में हाथ बंटायें?... गाय लात मारती है जबकि कुत्‍ता लात नहीं मारता. भौंकता, जीभ से चाटता और दांत से काटता है. गाय के गोबर का आप ऊर्जा संचयन व मुहावरों में उपयोग कर सकते हैं जबकि कुत्‍ता-गू के बारे में शोध अभी भी प्रगतिवस्‍था में है, और पर्याप्‍त जानकारी के इकट्ठा होते ही उसे सार्वजनिक उपयोग के लिए सामने रखा जाएगा. कुत्‍ते के पक्ष में एक अच्‍छा तर्क यह भी है कि उसे आप बिस्‍तर में साथ लेकर सो सकते हैं, जबकि ‍गाय को बिस्‍तर में साथ लेकर सोने की घटना अभी तक प्रकाश में नहीं आयी है. कुत्‍ता साइकिल और मोटर सवार दोनों के साथ-साथ दौड़कर उन्‍हें भयभीत करके उनकी गति में अतुलनीय तेजी उत्‍पन्‍न कर सकता है, जबकि यही काम करते हुए गाय अपने और मोटर सवार दोनों के लिए खतरा बन सकती है. वह और मोटर सवार दोनों एक्‍सीडेंट में उलझकर घायल हो जा सकते हैं...
Apr 12, 2007
बेनाम बंधुओं, बंधुनियों को अभी इतनी बुद्धि नहीं आई कि गुगल में रजिस्‍टर होकर अप्रैल की धूप में सिर पर आईडी की एक छतरी रख लें? आईडी से नुकसान होता है?......  मम्‍मी ने मना किया है? या हलवाई की बेटी मीना ने मना किया है- जिसकी एक नज़र लेने के चक्‍कर में तुम तीन दफे दीवार से लड़ चुके हो और एक बार नाली में पैर पड़ चुका है? हां? बात क्‍या है?.. यार, हो सकता है दीवार से लड़कर तुम्‍हारी मुहब्‍बत परवान चढ़ती हो, मगर हम दीवार को साफ़-सुथरी रखने में विश्‍वास करते हैं, क्‍यों खामखा आके हमारी दीवार पर पेट का पानी निकालते हो? क्‍यों?.. आयोडीन और आईडी के साबुन से नहा लेना देह में खुजली पैदा करता है? आदत से बाज नहीं आओगे? घर में भले मानस की तरह आकर बैठने की बजाय गुमनामी की खिड़की से बलग़म थूकोगे, ऊबकाई फैलाओगे? बार-बार याद दिलाओगे कि कुछ देशों में जो अभी भी खंभे से बांधकर कोड़े और चाबूक मारने का प्रचलन है, तुम उस सभ्‍यता से बहुत ऊपर नहीं उठ पाए? ऐसा है, मिस्‍टर बेहया बेनाम?.. .....

3/5 के स्कोर से बेनामी टिप्पणियों में यहाँ भी अपना झंडा बुलन्द कर गये! 
आलोचक said...
भाई अजदक आप का प्रोफाइल देखा उसमे एसी तो कुछ खास जानकारी नही था आपके बारे मे सिवाय आपके नाम के वह भी सही है या गलत पता नही। तो आप नाम वाले हुए या बेनाम ?

May 5, 2007

बुरी हिंदी कैसे लिखें

एक ललित निबंध
लेखक: लालित्‍यपूर्ण मैं
जो कहते हैं मुश्किल है वो गलत कहते हैं. आप देखियेगा बुरी हिंदी लिखना वज़न घटाने या ब्रह्मचर्य का पालन करने जितना कष्‍टकर नहीं है. ...... तुषार कपूर, एमरान हाशमी, देओल बंधुओं व बच्‍चन जूनियर को अपना आदर्श पुरुष बनाइये. कितनी स्‍वत:स्‍फूर्त सहजता से वे खराबेस्‍ट अभिनय करते रहे हैं और उनके चेहरों पर शिकन तक नहीं आती! क्‍या इन स्‍वस्‍थ, हृष्‍ट-पुष्‍ट उदाहरणों का समाज इस्‍तेमाल करने से वंचित रह जाएगा? आप नहीं करेंगे? फिर आप कैसे बुरी हिंदी में चरम उत्‍कृष्‍टता पाने की हसरत पाले बैठे हैं?...  साहित्‍य-खंड पर नज़र जाते ही बुरे भाषाई प्रभावों की तत्‍काल संभावना बढ़ेगी, और हमें डर है, बुरी हिंदी का इससे बड़ा नुकसान होगा. तो किताबों के साथ-साथ अख़बार से भी बचें. स्‍ट्रॉंगली रेकमेंडेड. जिन्‍हें किताबों को तकिये के नीचे डाले बिना सोने में परेशानी होती है, या कमरे में इधर-उधर किताबें बिखेरे बिना जीवन सूना-सूना लगता है, उन मित्रों को सलाह है- वे जासूसी की तरफ उन्‍मुख होवें. पिछले दिनों बुरी हिंदी के शत्रु खेमे में रवीश कुमार ने अपने बदनाम लेख में गलत ही बयानबाजी की है कि निम्‍नमध्‍यवर्गीय घरों में टाईम्‍स ऑफ इंडिया मंगवाकर बच्‍चे अंग्रेजी सीख रहे थे. ... फिर भी जी नहीं भरता तो अस्‍सी-अस्‍सी पेजी पुस्तिकायें आती हैं (समझदार को इशारा काफी), उनसे ज्ञानाजर्न करें. इससे अलग बुरी हिंदी की उच्‍च स्‍तरीय ट्रेनिंग के लिए ब्‍लॉग-साहित्‍य का मार्गदर्शन है ही! ... वो सारे शब्‍द जो अलग-अलग मौकों पर आपमें भय जगाते रहे हैं, मसलन- अकिंचन’, ‘शब्‍दाहत्’, ‘निस्‍त्राण’, ‘अनिमेष’- इनकी एक विस्‍तृत सूची बना लें, और लिखने के द‍रमियान जब उलझन हो, वाक्‍य में ऐसा एक शब्‍द गूंथ दें. देखियेगा भाव की मार्मिकता कैसे तत्‍क्षण सप्राण हो उठेगी! ...
May 23, 2007
रूमाल से माथे का पसीना पोंछती लड़की भन्‍नाकर कहती है यही दिक्‍कत है तुम्‍हारे साथ, किसी बात का सीधा जवाब नहीं देते. नौकरी के इतने झंझट हैं, सांस लेना मुश्किल है और मैं तुम्‍हारे पीछे दिन खराब कर रही हूं. वैसे तुम अच्‍छे हो नेक़ हो भले हो, कल हाथ में सेब लिए आए थे कितना अच्‍छा लगा था मगर रोज़ इस तरह दिक करके हमें कहां ले जाओगे, खुद कहां जाओगे सोचा है. यह रोज़-रोज़ सेब नहीं खाती अच्‍छा होता. उस दिन तुम पास नहीं आते मैं किसी और रास्‍ते शहर चली जाती अच्‍छा होता.
May 25, 2007
रामजीत राय का नैहर गई अपनी पत्‍नी बेबी को..
डारलिन, मेरा दिल मेरा जिग़र बेबी जी, मैं आनंद से हूं, और कामना करता हूं कि तुम भी आनंद से होगी. पानी-बिजली का टेरजिडी हइये नै है हुंवा, संधा-सकाले मनोरमा मौसी और मम्‍मीजी का हाथ का सूरन का अचार और कटहल का तरकारी भेंटा रहा होगा त आनंद काहे ला नै होगा! ...
पापाजी उंगली खोदके पूछै दिये कि दहेज का हीरो-होंडा दरवाजा पे खड़ा है तब काहे ला मुंह चोथा जइसा बनाये हुए हो? अब आत्‍मा का दर्द मम्‍मीजी का डोसा और कोंहड़ा खाके थोड़े छुप सकता है, बेबी जी, बोलिये आप?... कल डाकदरजी का हिंया भी गए थे. ऊ बोलते हैं जनाना साथ में लाइये तब जाके ठीक से चेकिन होगा. और पेर्गनेंसी का प्रोबलम जानने बास्‍ते आपका नहीं जनाना का चेकिन करना होगा! जी में त आया कि हरमखोर को वहिंये घुमाय के एक लप्‍पड़ लगायें! तुमरा पेट और हेयर-ओहर केने-केने पाजी टोयेगा और हम चुप्‍प पटाये रहेंगे?...  पांड़े जी बोलते हैं बीस हजार में तो आजकल गदहा का पखाना नहीं मिलता! सब चूतिये समझता है हमको! गदहा का पखाना बीस हजार में मिलता है, जी?... मोबाइल का लिये मम्‍मीजी का नाक में दम किये हुए हैं. ऊ बूझ नहीं रही है कि आज का जमाना में कितना इम्‍पोरेंट साधन है. एक हाली आ गया तो ऐस रहेगा मगर तब तलक हम एक चिट्ठी का दूरी पे हइये हैं! पांड़े जी के हिंया से एक टिरिप मारके आते हैं त फिर तुमको नवका लेटर लिखेंगे!
जाने का पहिले एक बात बोलो लेकिन.. हमरी तरह तुमरा भी रात-दिन बिरह में जीना हराम है कि नहीं, सच्‍ची बात बोलना, डारलिन?
तुम्‍हारा हिरदय सम्राट रामजीत
टिप्पणी:
  काकेश said...
अच्छा लिखा है ...बहुत से शब्दों का मतलब केवल वही समझ सकता है जो बंगाल बिहार में रहा हो .यही इस लव लैटर की जान है..भोजपुरी तो तब भी लोग समझ जाते हैं लेकिन बंगाली मिश्रित भोजपुरी सब नहीं समझ पाते .. अब "संधा-सकाले" में सकाले को कितने लोग समझे होंगे..."स्वकाल थेके आमि तोमार अपेख्खा कोरछी " ...कोतो लोग बूझवे एके ... बूझवे ना तो ...किंतु आमि बूझते पाच्छी ... भालो लिखे छेन ...
May 25, 2007
 मनोज कहता अच्छा हुआ, अब हम एक ही बार सीधे दुपहरिया में नहायेंगे! दीदी कहतीं फिर लात खानेवाला काम न करे, चुपचाप चलके नहाये, वो दिन भर कपड़ा-लत्ता के फेर में बैठी नहीं रहनेवाली. मनोज फिर भी तबतक महटियाये रहता जबतक भैया सचमुच उसे एक लात लगाकर नहानघर में ले जाके खड़ा न कर आते. सिर पर दो लोटा पानी गिरा दिये जाने के बावजूद मनोज नहानघर में चुपचाप खड़ा रहता मगर प्रतिवाद में नहाता नहीं. मुन्नी एक नज़र देखकर आती और फुसफुसाकर सबको खब़र करती कि नहाया नहीं है. दीदी कहतीं कि बिना चार लात खाए हरामी का कोई काम थोड़े होता है. 
Jun 16, 2007

 फिर फ़ोन आ गया. अनिल रघुराज का था. और नंबर शशि ने नहीं, हमारा ही दिया हुआ था. फ़ोन पर बरसने लगे. कहा, बड़े चिरकुट आदमी हो, बैठ गए, हमें ख़बर तक नहीं की? दो साल से दिमाग फटा जा रहा है कि सभा-अभा में कहीं भाषण दें, तुमने हाथ आया मौक़ा खींच लिया!.. ... वही तो दिक़्क़त है, ठाकुर साहेब.. संजय लाल को लगता है वही पटरी पर हैं, बाकी बे-पटरी के हैं.. हमको भी आधे घंटे तक वह पटरी पर ही लाने की कोशिश करते रहे.. एकदम्‍मे डिमोरलाइजिंग, गोन केस है, सर!.. मगर संजय तक ने हमारी नहीं सुनी, तो रघुराज काहे सुनते? अपनी ठेले रहे, बर्र-बर्र, ठों-ठों.. एक हाथ में फ़ोन और दूसरे में मनोहर कहानियां लेकर हम थोड़ी देर टाईम पास करते रहे, फिर डिसकनेक्‍ट कर दिया..

Jun 1, 2007

एक बुर्ज़ुग ब्‍लॉगर की डायरी के मार्मिक अंश..

.. मेरी दवाइयों वाली डिब्‍बी कहां हैं? अभी तो यहीं थी.. माने रात को चौथी दफे जब आंख खुली तो यहीं फर्श पर लुढ़की पड़ी थी, फिर कहां गायब हो गई?.. अच्‍छी मुसीबत है! क्‍या करूं? बिना दवा खाए मैं कमोड पर भी नहीं बैठ सकता. मगर हो सकता है बैठने जाऊं और वहीं कमोड में डिब्‍बी तैरती मिल जाए.. पोते ने डिब्‍बी कमोड में डाल रखी हो? ही माइट हैव.. ही हैज़ डन इट बिफोर, ही फाइंड्स इट फनी.. उसकी मम्‍मी को भी यही लगता है. डिब्‍बी और मैं दोनों ही उसे फनी लगते हैं! जी में आता है किसी दिन (कल आठवीं बार पेशाब करने उठा था तब भी आया था) उस औरत का मुंह कमोड में डालकर तब तक फ्लश करता रहूं जब तक वह गिड़गिड़ाकर मुझसे अपने प्राणों की भीख न मांगने लगे!..
Jul 24, 2007
पत्‍नी क्‍या करती, उसे प्रेम हो गया था. पति से नहीं, न. आपस में नहीं, न......  रंजना लेस्बियन नहीं थी, और पत्‍नी क्‍या थी इसका प्रत्‍यक्ष प्रमाण पाने वाली स्थिति आजतक उत्‍पन्‍न नहीं हुई? असल मामला यह हुआ कि बात कहीं की कहीं निकल गयी.. पत्‍नी दोपहर के हेवी भोजनोपरांत दो डकार लेने और एक लघुवाली हवा छोड़ने के बाद अलसायी, देह तोड़ती सोफे पर उठंगी टीवी देखने की जगह फ़ोन पर मुज़फ्फरपुर वाली मौसी का नंबर लगाने लगी... भागकर किचन गई.. दरवाज़ा ढांपकर रोती रही.. साथ ही गैस पर दूध का गरम होना देखती रही.. दूध जब खौलने-खौलने को हुआ तो पत्‍नी ने नाक सुड़ककर गैस व रोना दोनों बंद कर दिया.. दरवाज़े से चेहरा निकाल कर पति से पूछी- चाय पीजिएगा कि कॉफ़ी?..
Aug 9, 2007
 ... राजेंद्र यादववाली चिन्‍ता सताने लगी है: कि लोग जमकर लिख क्‍यों नहीं रहे हैं. पर साधन, सक्रियता, अनर्गल उत्‍साह की कमी के कारण मैं उनकी तरह इस विषय पर सेमिनार नहीं करा रहा हूं, सिर्फ़ यह टिप्‍पणी लिख रहा हूं...... कुछ विधाओं के बारे में कोई झमेला नहीं है. जैसे कविता. वह जाती है, वापस आ जाती है. बारह साल पहले उसे अशोक वाजपेयी ने आते देखा था. फिर उसे जाते किसी ने नहीं देखा. दरअसल, कुछ ऋतुकालों को छोड़कर, वह गई नहीं है....  कहानी की वार्डरोब ...  एक से एक उकसानेवाला माल है: ये डिज़ाइन की साड़ि‍यां हैं, यह रहा एथनिक माल. दो-चार थीमों की ऐसी रगड़ाई हुई है कि कहानीजी जवानी में ही बूढ़ी दिखती हैं. पर वे बहुत ख़ुश हैं; उनका चेहरा ज़्यादा ख़ूबसूरत नहीं है, वे इस बात पर भी ख़ुश हैं.... यात्रा-वृतान्‍त? वह हिन्‍दी में कैसे लिखा जा सकता है? नई-नई जगहों पर यात्रा करने के लिए जिनके पास पैसा है, उनमें यात्रा-वृतान्‍त लिखने की तमीज़ नहीं है. जिनके पास तमीज़ है, उनके पास पैसा नहीं....
रही आलोचना. उसकी फ़ि‍क्र छोड़ि‍ए. इसकी ज़रूरत सिर्फ़ विद्यार्थियों को इम्‍तहान पास कराने के लिए होती है. ... अन्‍त में उपन्‍यास... उपन्‍यास दो-चार ही आए- रानू-शानू के करिश्‍मों को भूल जाइए. मेरा मतलब असली उपन्‍यासों से है. .. लोग ज़्यादा उपन्‍यास क्‍यों नहीं लिखते? इसके जवाब में पूरा-का-पूरा उपन्‍यास लिखा जा सकता है. सच पूछिए तो लिखा गया है. यक़ीन न हो तो अमृतलाल नागर का लगभग छ: सौ पृष्‍ठों का अमृत और विष्‍ पढ़ि‍ए.... उपन्‍यास सवेरे की सैर में नहीं लिखा जा सकता. यह एक पूर्णकालिक धन्‍धा है.... कुछ सरकारी नौकर, अध्‍यापक, बूढ़े पेंशनर, पत्रकार, राजनीतिक धन्‍धेबाज़, व्‍यवसायी या व्‍यवसाय प्रबन्‍धक, जो उपन्‍यास-लेखन को स्विमिंग पूल में रविवासरीय गोताख़ोरी या क्‍लब में सायंकालीन बिलियर्ड जैसा मानकर चलते हैं, उस युग को वापस नहीं ला सकते जो प्रेमचन्‍द आदि ने सृजित किया था.... अगर कोई समझदार आदमी नासमझी की झोंक में एक उपन्‍यास लिख भी डालता है तो वह उसका पहला और अन्तिम उपन्‍यास होता है. इस स्थिति का सर्वेक्षण कराके मित्र राजेंद्र यादव चाहें तो एक नया सेमिनार करा सकते हैं.

Sep 1, 2007

अज़दक को गुस्‍सा क्‍यों आता है?

चूने और सफ़ेद तेल रंगों से रंगे केश और रंगीन वेश बनाये इस आदमी की दिक़्क़त क्‍या है? अमेजोन या कहां के जंगलों में भटकता ये साबित कर क्‍या रहा है? पुलिस इसे पकड़ क्‍यों नहीं रही.. या अविनाश ही इसके खिलाफ़ पोस्‍ट क्‍यों नहीं लिख रहा? किसके विरुद्ध यह इस तरह के हिंसावाद पर उतारू है?.. या नंगावाद.. जो भी है, क्‍यों उतार रहा है?.. कोई ठुमरी गाकर अनामदास ने तो इसका कुछ नहीं बिगाड़ा? फिर किसके अंगेस्‍ट यह ऐसा भयानक मिसाइल ताने हैज्ञानदत्‍तजी को यह धोबियापाट देना चाहता है? या इरफ़ान के सब पॉडकास्‍ट्स को ब्‍लास्‍ट कर देना चाहता है? कि प्रत्‍यक्षा को धमका रहा है कि झोली में चार किताबें डालकर पढ़वैया वाली अदायें न दिखाये? किबोधि की कविताओं पर.. अभय को अपनी पुरातन शेर-सविता पर.. भई, किस पर बम-बम मुर्दाबाद हो रहा है? कि यह अपनी ही पतनशीलता के विरुद्ध है? कि सामा‍जिक सहोदरता और सदाचारी व्‍यवहार के खिलाफ़ ज़ेहाद? कि युनूस कुछ सुना नहीं रहे उसके लिए.. कि जो सुना रहे हैं वैसा क्‍यों सुना रहे हैं, उसके लिए? भई, जिसके भी लिए है, इस हिंसा को रुकवाये कोई.. ऐसी गंधाती पतनशीलता को पटरी पर लाये कोई?..

Oct 21, 2007

जे जोन प्रेमेर भाब जाने ना, तार सोंगे की लेना-देना..

आखिर में तामे-झामेवाले ऑर्केस्‍ट्रल इंट्रोडक्‍शन के साथ रुना आईं और आते ही कुल्‍हे पर थाप लगाती स्‍टेज पर टहलने लगीं, मंच से उतरकर अपने साथ नाचने के लिए किसी लड़की को मंच पर लिवा ले गईं. जितना सपरता रहा, दर्शकदीर्घा में एनर्जी इंन्‍फ़्यूज़ करने की कोशिश करती रहीं, लेकिन 'दमादम मस्‍त कलन्‍दर..' की बार-बार गुहार लगानेवाले चिरकुट जोश से ताली बजाने में फेल होते हुए अपनी रुना का दिल तोड़ते रहे.. अभी कार्यक्रम खत्‍म भी नहीं हुआ था और भाईलोग भेड़ों की मानिन्‍द एक्जि़ट की ओर ऐसे लपके मानो स्‍कूल की छुटटी का घंटा बज गया हो! हद है. किस चीज़ में हम कभी सभ्‍य होंगे? एक सीधा-सादा म्‍यूज़ि‍कल शो तक सीधे-सादे तरीके से देखने की हमें तमीज़ नहीं? किस तरह की सभ्‍यता हैं हम? सिर्फ़ चिकन के कुर्ते और जवाहर कट जैकेट की रंगीनियां सजाना सीख लिया है? महफ़ि‍ल में बैठने की तो नहीं ही सीखी है..

रुना, तुम बुरा मत मानना. मैं अभी भी तुम्‍हारे इश्‍क में घायल हूं. अगली बार हिन्‍दुस्‍तान आओगी तो इसी तरह पलक-पांवड़े बिछा तुम्‍हारी राह तकता बैठा मिलूंगा..

Nov 1, 2007

हिंदी में इंटेलेक्‍चुअल कौन है?..

इंटेलेक्‍चुअल होना बुद्धिजीवी होना नहीं. बुद्धिजीवी इंटेलेक्‍चुअल का वाजिब अनुवाद नहीं. जिसने किया होगा चिरकुट होगा, ऐसे ही नहीं है कि हिंदी इंटेलेक्‍ट की ऐसी कारुणिक दशा है. क्‍योंकि हिंदी इंटेलेक्‍चुअल जीवी भले ढेरों चीजों का हो, बुद्धि-आश्रित तो कतई नहीं होता. होना नहीं भी चाहिए. जैसाकि पिछले दिनों स्‍वामी उदय जी सही ही फरमा रहे थे- हिंदी सज-धज को बुद्धि से कौ काम? आप एक सिंपल फैक्‍ट क्‍लैरिफाई कीजिए. जैसा हमारे एक पुराने हितैषी पिछले दिनों चिंता में अलल-बलल बकने लगे थे कि बताइए, बताइए, हिंदी में इन दिनों कौन-सा काल चल रहा है? आधुनिक, उत्‍तर-आधुनिक कि दक्षिण-आधुनिक, बोलिए, बोलिए? मैंने कहा, ससुर, यह सब बुड़बकई आप से बतियाएंगे, और नोट काटेंगे मिस्‍टर एस पचौरी? इतना अकिल रहता तो आप अपना गंदा चेहरा का गंदा खजुआहट हमारे आगे निकालने का जगह कोई सीनियर मार्केटिंग में सीरियस पैसा काट रहे होते.. और हमरी सुबह का सत्‍यानाश नहीं कर रहे होते! हिंदी में कौन काल कल चल रहा है इसको तय करनेवाले घंटा आप कौन हुए? कितना गो किताब लिखे हैं? कितना प्रकाशक लोग का गाड़ी आपको रिसीव और ड्रॉप करने पहुंचती रही है? हिंदी में कालनिर्णय इसपे निर्भर करता है कि निर्णय करनेवाली पार्टी खुद कितना कालजयी है. बाबू नामबर हुए.. 

Nov 21, 2007

भोजपुरी में आधुनिक..

एटीच्‍यूड मत दीजिए. प्‍लीज़. क्‍योंकि वह मेरे पास भी है. पर्याप्‍त मात्रा में है. मैं भोजपुरी में आधुनिक होने की कोशिश कर रहा हूं...
केकरा खातिर एहर-ओहर के धूल खईनी
जांगर चलवनी
देह धुंकवनी
कपड़ा चिरवइनी
तोहरा खातिर, हे प्रीतम तोहरा खातिर

केकरा खातिर पामुक के पन्‍ना घोंटनी
बोदेलियर के पाठ कईनी
ई वाद अऊर ऊ दर्शन
के परायन में भइली पुरईंनी
लागा चुनरी में दाग से दूर रहिके
चुनरी में दाग़ लगवनी
तोहरा खातिर, हे बालम तोहरा खातिर

केकरा खातिर मन औंजौंवनी
केकरा खातिर चैन लुटौवनी
केकरा खातिर घर फूंकनी
केकरा खातिर फक़ीरी ओढ़नी
तोहरा खातिर, े साजन तोहरा खातिर.
Nov 29, 2007
कौआ खिरकी पर हम बिछौना में, तुम केने हो, सलम
देह रुसाइल है जांगर थकायल है मगर मन का का करें, बुच्‍चन
मन में ढिठाई है देमाग में मिठाई है. 
छुच्‍छल जीभ हेलाते हैं कमरी में गोर हिलाते हैं. 
तुम वे-आऊट सुझाय नहीं रहे, सलम, कमरी में गोर सटाय नहीं रहे
मालूम है, कहोगे, डागदरजी डांटेंगे नया परची फारेंगे. 
चार दिन का मुसीबत चौदह होगा, बेबाती का गदहपचीसी होगा 
अर्र-बर्र सोचेंगे और भर्र-भर्र रोयेंगे. 
जही चाहते हैं कि टंटा और बर्हे
चुपचाप पटाये नहीं रह सकते, हेल्‍दी थिंकिंग से मन सजाये नहीं रह सकते
जेही तो मुसीबत है, बुच्‍चन, सरल-सीधा बोल के हमको टेर्हा-टेर्हा फंसाते हो 
मुंह का मिठाई बनने का जगह, ओ सलम, दूर हमसे जाते हो?

Dec 18, 2007

मेरी चीन यात्रा: चौबीसवां भाग..

 मैं जानता हूं तुम अपनी कहानियां नहीं बदल सकते, मैंने सधे गुरुओं के अंदाज़ में बकाना शुरू किया, कितना प्रेम बाहर करोगे? ज़्यादा बाहर करोगे तो कहानी बचेगी ही नहीं! मगर इस मुश्किल का उपाय है..

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 है?.. तांग ने कांपती आवाज़ में पूछा.

मैंने सहमति में मुंडी हिलाई- कहानी नहीं बदल सकते मगर शीर्षक तो बदल सकते हो. सबके शीर्षक बदल दो! वो रजत रातें को दस रातें जब गांव हिल उठा! कर दो. क्‍या यही प्‍यार है?’ को क्‍या यही मनुष्‍यता है?’ और सब तुम्‍हारा को चीन, सब तुम्‍हें स‍मर्पित! कर दो, इट विल ऑल मेक ए बिग डिफरेंस..

Dec 29, 2007

इतनी ब्‍लॉगिंग ठेलकर आप क्‍या साबित करना चाहते हैं?..

आदमी (या औरत) अपने को बर्दाश्‍त करते रहने के सिवा और क्‍या-क्‍या बर्दाश्‍त कर सकता है? माने एक सवाल है आदमी (या औरत) ब्‍लॉग कब तक झेलता रह सकता (या सकती) है? मेरी दाढ़ी की ही तरह आखिर हर चीज़ की एक उम्र होती है, नहीं होती? (नहीं, मैं बेनज़ीर की समझदारी की उम्र की नहीं बात कर रहा. वॉज़ शी रियली सेन एनफ़ टू रिटर्न टू पाकिस्‍तान?...
और बावजूद ऐसी चिरकुटइयों के आदमी (या औरत) बना रह सकता है? इस देश में सब जानते हैं सब संभव है मगर क्‍या ब्‍लॉगवर्ल्‍ड में भी वही सब रिपीट होगा? कि लोग कचर-कचर करते रहेंगे और बात निकलेगी तो कहीं दूर तक नहीं ही जायेगी

कितने सारे सवाल हैं और ब्‍लॉग में जो है कहीं किसी का जवाब नहीं है. ब्‍लॉग के बाहर भी कहां है. दोस्‍त, समाज, साहित्‍य, गली हर कहीं ठुल्‍ला-ठेलईगिरी छाई हुई है. कोई सही सवाल पोज़ नहीं कर रहा. पोज़ कर भी रहा है तो जवाब के लिए बगले झांक रहा है या मेरे तीन वर्ष पहले लिखे पोस्‍ट का संदर्भ क्‍वोट कर रहा है. हद है. भई, जब तीन वर्ष पहले मैं इतना फालतू नहीं ही था कि ब्‍लॉगिंग करता बैठूं तो मेरे तीन वर्षीय पोस्‍ट को संदर्भित करने का क्‍या तुक है?......
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इहाँ तक चहुँप कर इस हड़कान से हम सहम गये कि कहीं मुझे भी झाड़ न खानी पड़े सो 2007 के अंत पर सीताराम सीताराम ...इस हड़काई का ही नतीजा है कि बिना अधिक दिमाग खपाये मैं इस बोलाग पर आलेख यूँ ही ठेल दे रहा हूँ (कहीं पूछ न बैठें कि कोई और काम धाम नहीं है क्या तुम्हें?)   
दुरूहता चूँकि बाद की प्रवृत्ति है इसलिये उससे अपन बच भी गये लेकिन आज यह घोषित करते तनिक संकोच नहीं कि इतने श्रम और मनोयोग से इस ब्लॉग को किसी ने नहीं पढ़ा होगा! द्वितीयोनास्ति!!
कठिन लिखाई का मानक है यह ब्लॉग! देखिये चन्द्रहार के सुमेरु ज्ञान चचा क्या कहते हैं:
...उनकी बजाय अज़दक को समझना आसान है

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की एक टिप्पणी याद आई जिसमें जो तोप दागी गई थी उसका सीधे सीधे अर्थ यह था कि आप आसान कब लिखेंगे? ढूँढ़न पर न मिली लेकिन यह मिल गया: 

Jan 7, 2009

पुरबिया फुटानीबाज का मेहराइल फन्‍नी-टे‍रजिक गीत

लजाइये नहीं, खुलके चलाइये, ई देह आपही का है 
हम थेथर हैं थुरावन परसाद हैं कचरलका कादो हैं 
आगा-पीछा दायें-बहिना जेने नीमन लगे, धन्‍न 
कीजिये, आतमाभर सजाइये, मनभर लात लगाइये....
इस पर यह टिप्पणी आदानं प्रदानं देखिये: 

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...
एतना लतमरुआ नीअर काहें चिघर रहें जी। जेकरा लात लगाने का मन करेगा ऊ आपसे नेवता थोरे न माँगेगा। दलिद्दर झारने का एगो मोसम होता है। बस अब निअराया ही है। जब घानी बाज जाय, कुछु कह नाहीं सकते हैं...। कौनो तैजुब मत करिएगा।

जै राम जी की...। :)
हमको समझ नहीं आया कि एतना बिलाप काहें कर रहे हैं। ऊहो हिन्दी के बँटवार लागाके...?
Pramod Singh said...
@त्रिपाठी जी,
सही कह रहे हैं. मगर लात खायेवाला बहुत समझदारी कहंवा से झाड़ेगा. फुटानी में बकरी माफिक मेमिया रहा है, बेचारे की नदानी बख्‍श दीजिये.
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आप ने इतना टाइम दे इसे पर्हा इसके लिये आभार, धन्यवाद ... यकीन मानिये साल 2008 से 2012 भी पठनीय हैं। कोई उन्हें पढ़ने के बाद इस बिलाग के बारे में लिखना चाहता हो तो कोई रोक छेक नहीं है। 
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फुरसतिया, छींटे और बौछारें, निरामिष, सच्चा शरणं, दिल की बात, सफेद घर, ओझा उवाच  और मो सम कौन  ब्लॉगों पर यदि आप कुछ कहना चाहते हैं तो कहिये, टिप्पणी में लिखिये या मुझे मेल में लिख भेजिये।