बुधवार, 1 अप्रैल 2020

Ramayan Notes रामायण वार्त्तिक - १

माता कौसल्या का औषधि ज्ञान
इक्ष्वाकु हों या अन्य, क्षत्राणियाँ भिषग विद्या में पारङ्गत होती थीं। क्षत होने पर प्राथमिक चिकित्सा करने में कुशल, जड़ी बूटियों की ज्ञाता।
कौसल्या तो अथर्वण विदुषी थीं। जिस विशल्यकरणी औषधि का उल्लेख युद्ध में क्षत विक्षत राम लक्ष्मण को स्वस्थ करने हेतु हुआ है, उसे देवी कौसल्या ने वनगमन के पूर्व राम के हाथों में मन्त्र पढ़ते हुये रक्षासूत्र में पिरो कर बाँधा था -
इति पुत्रस्य शेषाश्च कृत्वा शिरसि भामिनी, गन्धांश्चापि समालभ्य राममायतलोचना 
ओषधीम् च अपि सिद्ध अर्थाम् विशल्यकरणीम् शुभाम्, चकार रक्षाम् कौसल्या मन्त्रैः अभिजजाप च

(वसागोलकों से पूछ कर देखें, उत्तर मिलेगा कि स्त्री को वेद का अधिकार नहीं है।)
कविहृदय लक्ष्मण
लक्ष्मण कविहृदय थे। उन्होंने अद्भुत ऋतुवर्णन किये हैं । 
[क्या आप को उनके इस गुण से किसी वसागोलक कथावाचक ने कभी परिचय कराया? कथावाचक आप को १४ वर्ष न सोने का गल्प सुनायेगा, लक्ष्मणरेखा बतायेगा, शबरी के जूठे बेरों पर मुँह बिचकाना बतायेगा और हास्यास्पद रूप में उग्रता भी। कथावाचकों ने समस्त इतिहास की निर्मम हत्या करुणा व प्रेम के आँसू बहाते हुये कर दी! यही सच है।]
'कवि' लक्ष्मण का हेमंत ऋतु वर्णन -
अयम् स कालः संप्राप्तः प्रियो यः ते प्रियंवद
 अलंकृत इव आभाति येन संवत्सरः शुभः
नीहार परुषो लोकः पृथिवी सस्य मालिनी
जलानि अनुपभोग्यानि सुभगो हव्यवाहनः
नव आग्रयण पूजाभिर्भ्यर्च्य पितृ देवताः
कृत आग्रयणकाः काले सन्तो विगत कल्मषाः
प्राज्यकामा जनपदाः संपन्नतर गो रसाः
विचरन्ति महीपाला यात्र अर्थम् विजिगीषवः
सेवमाने दृढम् सूर्ये दिशमन्तक सेविताम्
विहीन तिलका इव स्त्री न उत्तरा दिक् प्रकाशते
प्रकृत्या हिम कोश आढ्यो दूर सूर्याः च सांप्रतम्
यथार्थ नामा सुव्यक्तम् हिमवान् हिमवान् गिरिः
अत्यन्त सुख संचारा मध्याह्ने स्पर्शतः सुखाः
दिवसाः सुभग आदित्या: छ्हाया सलिल दुर्भगाः
मृदु सूर्याः सनीहाराः पटु शीताः समारुताः
शून्य अरण्या हिम ध्वस्ता दिवसा भान्ति सांप्रतम्
निवृत्त आकाश शयनाः पुष्यनीता हिम अरुणाः
शीता वृद्धतर आयामः त्रि यामा यान्ति सांप्रतम्
रवि संक्रान्त सौभाग्यः तुषार अरुण मण्डलः
निःश्वास अन्ध इव आदर्शाः चंद्रमा न प्रकाशते
ज्योत्स्ना तुषार मलिना पौर्णमास्याम् न राजते
सीता इव च आतप श्यामा लक्ष्यते न तु शोभते
प्रकृत्या शीतल स्पर्शो हिमविद्धाः च सांप्रतम्
प्रवाति पश्चिमो वायुः काले द्वि गुण शीतलः
बाष्पच्छ्हन्नानि अरण्यानि यव गोधूमवंति च
शोभन्ते अभ्युदिते सूर्ये नदद्भिः क्रौञ्च सारसैः
खर्जूर पुष्प आकृतिभिः शिरोभिः पूर्ण तण्डुलैः
शोभन्ते किंचिद् आलंबाः शालयः कनक प्रभाः
मयूखैः उपसर्पद्भिः हिम नीहार संवृतैः
दूरम् अभ्युदितः सूर्यः शशांक इव लक्ष्यते
अग्राह्य वीर्यः पूर्वाह्णे मध्याह्ने स्पर्शतः सुखः
संरक्तः किंचिद् आपाण्डुः आतपः शोभते क्षितौ
अवश्याय निपातेन किंचित् प्रक्लिन्न शाद्वला
वनानाम् शोभते भूमिर् निविष्ट तरुण आतपा
स्पृशन् तु सुविपुलम् शीतम् उदकम् द्विरदः सुखम्
अत्यन्त तृषितो वन्यः प्रतिसंहरते करम्
एते हि समुपासीना विहगा जलचारिणः
न अवगाहन्ति सलिलम् अप्रगल्भा इव आवहम्
अवश्याय तमो नद्धा नीहार तमसा आवृताः
प्रसुप्ता इव लक्ष्यन्ते विपुष्पा वन राजयः
बाष्प संचन्न सलिला रुत विज्ञेय सारसाः
हिमार्द्र वालुकैः तीरैः सरितो भान्ति सांप्रतम्
तुषार पतनात् चैव मृदुत्वात् भास्करस्य च
शैत्यात् अग अग्रस्थम् अपि प्रायेण रसवत् जलम्
जरा जर्जरितैः पत्रैः शीर्ण केसर कर्णिकैः
नाल शेषा हिम ध्वस्ता न भान्ति कमलाकराः

पञ्चवटी में जब भैया भाभी को स्नान कराने हेतु लक्ष्मण ले जाते हैं तो नदी किनारे यह वर्णन राम से करते हैं।
[विश्वामित्र का गाथा गायक गाथिन कुल हो, इक्ष्वाकुओं की घुमंतू कुशीलव गायन परम्परा हो, कुरुओं के सूत गायक हों या सहस्र वर्ष पीछे परमारों के यशगायक पँवरिये; क्षत्रियों का काव्य से प्रेम उतना ही प्रबल रहा जितना आन्विक्षिकी व ब्रह्मविद्या से। कालप्रवाह में सब समाप्त हो गया। कान्यकुब्जाधिपति महाराज जयचंद्र के यश को धूमिल करने वाला गल्पी चंद्रबरदाई चारण उस विकृत होती परम्परा का एक उदाहरण है।]
लक्ष्मण का भरत प्रेम  
लक्ष्मण कहते हैं, भैया! आप से दूर हैं भरत, राज करना था उन्हें किंतु आप ही के समान समस्त भोगों को त्याग नियताहारी तापस व्रत अपनाये हुये हैं।
आह, वे कोमल श्यामवदन कैसे हेमंत की शीत में सरयू के शीतल जल में रात रहते ही स्नान करते होंंगे, कैसे इस शीत में भुँइया सोते होंगे! ...
... हेमन्त का वर्णन करते करते कविहृदय लक्ष्मण का ध्यान दूर अपने तापस भ्राता भरत पर चला गया। शब्दप्रयोग देखेंं- शेते शीते महीतले! अंतर का दाह हृदय चीर कर शीत की ठिठुरन भरता चला जाता है!
अस्मिन् तु पुरुषव्याघ्र काले दुःख समन्वितः 
तपश्चरति धर्मात्मा त्वत् भक्त्या भरतः पुरे
त्यक्त्वा राज्यम् च मानम् च भोगांश्च विविधान् बहून्
तपस्वी नियताहारः शेते शीते महीतले
सोऽपि वेलाम् इमाम् नूनम् अभिषेक अर्थम् उद्यतः
वृतः प्रकृतिभिर् नित्यम् प्रयाति सरयूम् नदीम्
अत्यन्त सुख संवृद्धः सुकुमारो हिमार्दितः
कथम् तु अपर रात्रेषु सरयूम् अवगाहते
पद्मपत्रेक्षणः श्यामः श्रीमान् निरुदरो महान्
धर्मज्ञः सत्यवादी च ह्री निषेधो जितेन्द्रियः
प्रियाभिभाषी मधुरो दीर्घबाहुः अरिन्दमः
संत्यज्य विविधान् भोगान् आर्यम् सर्वात्मना आश्रितः
जितः स्वर्गः तव भ्रात्रा भरतेन महात्मना
वनस्थम् अपि तापस्ये यः त्वाम् अनुविधीयते

कहते कहते माता कैकेयी के लिये लक्ष्मण कटु हो जाते हैं - कथम् नु सा अम्बा कैकेयी तादृशी क्रूरदर्शिनी! 
तब राम की प्रशांत वाणी फूट पड़ती है -
न ते अम्बा मध्यमा तात गर्हितव्या कथञ्चन
ताम् एव इक्ष्वाकु नाथस्य भरतस्य कथाम् कुरु

[और मुझे कुरुक्षेत्र में अर्जुन मोह का प्रबोधन करते कृष्ण दिखने लगते हैं - कुत: त्वा कश्मलम्‌ इदम्‌ विषमे समुपस्थितम्‌ ! इतना मनोविज्ञान भरा पड़ा है किंतु कोई कथावाचक नहीं सुनायेगा, कदापि नहीं!]
अंगद अभियान
राजनीतिक दृष्टि से अंगद को भेजना उपयुक्त था - एक राजकुमार का सन्देश ले दूसरा राजकुमार तीसरे राजा के यहाँ औपचारिक रूप से भेजा गया। राम ने राजमर्यादा का पालन किया। साथ ही अङ्गद का दौत्य युद्धपूर्व मनोवैज्ञानिक आक्रमण भी था।
राम के सन्देश में रावण को सुनाया गया - वरदान बहुत हो गया, तुम्हें मार कर अब महर्षियों व राजर्षियों की गति दूँगा। मेरी पत्नी का हरण कर तुमने काल को आमन्त्रित किया है, उसे नहीं लौटाने पर मैं लङ्का को अराक्षस बना दूँगा और विभीषण भावी राजा होंगे।
संकेत था कि अभी भी जो टूट कर आना चाहते हैं, आ जायें। अपनी शक्ति व बल विश्वास दर्शा शत्रु में भय व्याप्त करना था, हुआ भी वही।
गृह्यताम् एष दुर्मेधा वध्यताम् - पकड़ो इस दुर्बुद्धि को एवं मार डालो, रावण ने अंगद हेतु यही निर्णय सुनाया।अंगद ने जानबूझकर पहले तो स्वयं को चार राक्षसों द्वारा पकड़वाया और तब उन्हें झटकते हुये कूद कर प्रासाद के शिखर पर चढ़ कर उसे ध्वस्त कर दिया। राजा का मानमर्दन तो था ही, एक वानर ने अकेले कर दिया, शक्ति प्रदर्शन भी था।
राघव द्वारा अपने शर की परीक्षा भी हो गई कि दुरात्मा रावण तो वालि का मित्र भी था, यदि अपने पिता के वध के कारण अंगद के मन में कोई चोर रह गया हो तो वहाँ भेजने का निर्णय सब प्रकट कर देता। क्रोधवश रावण ने कोई प्रयास ही नहीं किया, एक अन्य वानर हनुमान द्वारा पहले की गयी दुर्गति ध्यान में रही होगी।
अंगद लौट आये। विपुल वानर सैन्य से घिरी लंका के आतंकित निवासियों की चीख पुकार ने सिद्ध कर दिया कि राघव का अमोघ शर इस बार भी लक्ष्यसिद्ध हो लौटा।

कुम्भकर्ण उपदेश 
सुषुप्तस्त्वम् न जानीषे मम रामकृतम् भयम्, तुम सोये रहे और जाने ही नहीं कि राम ने मुझे भयाक्रांत कर रखा है!  रावण बोला -
एष दाशरथी रामः सुग्रीवसहितो बली
समुद्रम् लङ्घयित्वा तु कुलम् नः परिकृन्तति

यह बलवान दाशरथि राम सुग्रीव के साथ समुद्र लाँघ कर आ पहुँचा है और हमारे कुल के विनाश में लगा है।
सेतु मार्ग से आये वानरों की अगाध राशि द्वारा लङ्का के वन उपवन आच्छादित हो गये हैं - सेतुना सुखमागत्य वानरैकार्णवम् कृतम्। उन्होंने युद्ध में मुख्य मुख्य राक्षसों को मार डाला है - ये राक्षसा मुख्यतमा हतास्ते वानरैर्युधि। लंका में केवल बाल वृद्ध बचे हैं - लङ्काम् बालवृद्धावशेषिताम्। पूरा राजकोश रिक्त हो गया है - सर्वक्षपितकोशम् (आर्थिक चोट)...
... कितना आतङ्कित है न रावण!
[यही डर, यही भय आजकल के सिंगल सोर्स राक्षसों में भी होना चाहिये किंतु ....]
कुम्भकर्ण ने सुना और अट्टहास कर उठा - प्रजहास च। उसने ध्यान दिलाया कि पहले तुम्हारे कुकर्म के परिणाम की जो चेतावनियाँ दी गई थीं, वे आन पड़ीं। आगे कुम्भकर्ण ने राजनीति का जो उपदेश दिया है, अद्भुत है। कुछ श्लोक देखें -
अनभिज्ज़्नाय शास्त्रार्थान् पुरुषाः पशुबुद्धयः
प्रागल्भ्याद्वक्त्मिच्छिन्ति मन्त्रेष्वभ्यन्तरीकृताः
अशास्त्रविदुषाम् तेषाम् कार्यम् नाभिहितं वचः
अर्थशास्त्रानभिज्ञानाम् विपुलाम् श्रियमिच्छताम्
अहितम् च हिताकारम् धार्ष्ट्याज्जल्पन्ति ये नराः
अवश्यम् मन्त्रबाह्यास्ते कर्तव्याः कृत्यदूषकाः
विनाशयन्तो भर्तारम् सहिताः शत्रुभिर्बुधैः
विपरीतानि कृत्यानि कारयन्तीह मन्त्रिणः
तान् भर्ता मित्रसम्काशानमित्रान् मन्त्रनिर्णये
व्यवहारेण जानीयात्सचिवानुपसम्हितान्
चपलस्येह कृत्यानि सहसानुप्रधावतः
चिद्रमन्ये प्रपद्यन्ते क्रौञ्चस्य खमिव द्विजाः
यो हि शत्रुमवज्ञाय नात्मानमभिरक्षति
अवाप्नोति हि सोऽनर्थान् स्थानाच्च व्यवरोप्यते

[अन्योक्तियों के प्रयोग द्वारा कुम्भकर्ण ने रावण को बहुत गरियाया है - पशुबुद्धि आदि।]

राघवों की मूर्च्छा और हनुमान के सञ्जीवनी अभियान 
जब दोनों भाइयों सहित समस्त वानरसेना आहत मूर्च्छित पड़ी थी, तब जाम्बवान ने हनुमान को औषधियों का नाम बता कर लाने को भेजा। 
श्रुत्वा हनुमतो वाक्यं तथापि व्यथितेन्द्रियः
पुनर्जातमिवात्मानं स मेने ऋक्षपुङ्गवः
...
ऋक्षवानरवीराणामनीकानि प्रहर्षय
विशल्यौ कुरु चाप्येतौ सादितौ रामलक्ष्मणौ
...
मृतसञ्जीवनीं चैव विशल्यकरणीम् अपि
सौवर्णकरणीं चैव सन्धानीं च महौषधीम्

लक्ष्मण भूमि पर पड़े थे, राघव राम ने विलाप करते हुये तीनों माताओं का नाम लिया कि मैं उन्हें क्या मुख दिखाऊँगा?
उपालम्भं न शक्ष्यामि सोढुं दत्तं सुमित्रया
किं नु वक्ष्यामि कौसल्यां मातरं किं नु कैकयीम्

...
सुषेण वानर सेना के यूथप थे, राक्षस लङ्का से अपहृत वैद्य नहीं।
एवमुक्तः स रामेण महात्मा हरियूथपः
लक्ष्मणाय ददौ नस्तः सुषेणः परमौषधम्

पर्वतों में नगाधिराज हिमालय की बड़ी प्रतिष्ठा रही। पौराणिक परम्परा में मेरु की रही। दक्षिण में आज भी संकल्प में मेरोः दक्षिणे पार्श्वे बोला जाता है। यह मेरु विराट भारत की भौगोलिक प्रसार व उसके केन्द्र का कूट है।
रामायण लोककाव्य भी रहा। घुमन्तू कुशीलव गायकों ने उस पर्वत को भी हिमालय बना दिया जहाँ से हनुमान औषधियाँ लाये थे।
सागर संतरण जैसे महान अभियान के कारण मारुति हनुमान के प्रति विशेष आदर व नायकप्रतिष्ठा का भाव बढ़ता चला गया जिसकी परिणति उनके दैवीय निरूपण में हुई। वाल्मीकीय रामायण में उनके द्वारा दो बार औषधियों हेतु पर्वत पर जाने की बात है। एक बार तब जब राम और लक्ष्मण, दोनों भाई मूर्च्छित होते हैं, दूसरी बार जब केवल लक्ष्मण।
आश्चर्य है कि दोनों बार वह औषधियों का अभिज्ञान नहीं कर पाते जबकि होना यह चाहिये कि एक समान औषधियों के होने पर दूसरी बार अभिज्ञान करने में उन्हें सक्षम हो जाना चाहिये। वास्तविकता यह है कि पहली बार जो उन्हें हिमालय पर गया बताया गया है, वह अतिशयोक्ति है। सागर संतरण में ही उन्हें बहुत समय लग गया था जबकि लंका से तो हिमालय बहुत दूर है तथा वहाँ तक पहुँच कर लौटने में जो समय लगता, वह दोनों भाइयों एवंं सैन्य हेतु घातक होता। जैसा कि महाभारत के रामोपाख्यान में एवं रामायण में ही दूसरी बार के समय संकेत है, वह कोई बहुत दूर नहीं गये थे। पहली बार की यात्रा को सागर संतरण के समान ही काव्य युक्तियों से दैवीय बना दिया गया है।
यही स्थिति लंकादहन की भी है। जब दोनों भाई मूर्च्छित थे, तब लंकादहन का एक प्रसंग मिलता है जोकि स्वाभाविक है कि सेना थी, परिस्थितियाँ वैसी थीं, विविध यूथप थे, लंकादहन सामान्य था। हनुमान द्वारा लंकादहन में भी अतिशयोक्तियाँ हैं। यहाँ तक कह दिया गया है कि विभीषण का प्रासाद छोड़ उन्होंंने अन्य सभी राक्षसों के घर जला दिये मानो उन घरों पर नामपट्टिकायें लगी थीं! रामायण विविध स्तरों में परिवर्द्धित हुआ तथा उनके इसी प्रकार अंत:प्रमाण मिलते जाते हैं। सुंदरकाण्ड में तो चालिस के लगभग श्लोकों को चमत्कारपूर्ण वर्णन को स्थान देने हेतु यथावत दुहरा दिया गया है!
औषधियों को लाने जाने हेतु हनुमान की छलांग कोई बहुत लम्बी नहीं है, न कालनेमि है, न भरत द्वारा हनुमान पर प्रहार। हनुमान उचक कर मात्र एक श्लोक में वहाँ पहुँच जाते हैं। उस शैल का नाम था - ओषधिपर्वत। ऐसा पर्वत जहाँ औषधियों का प्राचुर्य था।
सौम्य शीघ्रमितो गत्वा शैलमोषधिपर्वतम्
पूर्वन् हि कथितो योअसौ वीर जाम्बवता शुभः
दक्षिणे शिखरे तस्य जातामोषधिमानय
विशल्यकरणी नाम विशल्यकरणीन् शुभाम्
संजीवकरणीं वीर संधानीं च महौषधीम्
संजीवनार्थं वीरस्य लक्ष्मणस्य महात्मनः
इत्येवमुक्तो हनुमान्गत्वा चौषधिपर्वतम्
चिन्तामभ्यगमच्छ्रीमानजानंस्ता महौषधीः



शब्दविशारद यूथपति डॉक्टर सुषेण द्वारा लक्ष्मण का चिकित्सकीय परीक्षण
(देहलक्षण व मनोविज्ञान, बंधु का self-suggestion द्वारा प्रबोधन) 
राममेवं ब्रुवाणं तु शोकव्याकुलितेन्द्रियम् 
आश्वासयन्नुवाचेदं सुषेणः परमं वचः
शोक से व्याकुलइंद्रिय हुये राम को आश्वस्त करते हुये सुषेण ने कहा -
त्यजेमां नरशार्दूल बुद्धिं वैक्लब्यकारिणीम्
शोकसंजननीं चिन्तां तुल्यां बाणैश्चमूमुखे

हे नरसिंह! बुद्धि पर क्लैब्यता लाने वाली इस चिंता का त्याग करें जो शोक की कारक है तथा युद्ध में बाण के समान ही घातक है।
[अब शब्द प्रयोगके साथ देखें]
नैव पञ्चत्वमापन्नो लक्ष्मणो लक्ष्मिवर्धनः
नह्यस्य विकृतं वक्त्रं न च श्यामत्वमागतम्

पञ्चत्वम्‌ उसे कहा जिसमें आप की देह के पाँच तत्त्व अपने मूल में लीन हो जायें - मृत्यु। लक्ष्मिवर्धन कहा कि लक्ष्मण तो जीवनशक्ति को बढ़ाने वाले हैं। [एक अन्य निरूपण सीता को लक्ष्मी का रूप मान कर हो सकता है। वन में रहते हुये लक्ष्मण ने सीता की सेवकाई की थी, वे नहीं रहते तो सीता हेतु वन बहुत दुष्कर होता]
लक्ष्मण की मृत्यु नहीं हुई है, उनका रूप विकृत नहीं हुआ है, न ही उसमें मृत्युजनित कालिमा है।
सुप्रभन् च प्रसन्नं च मुखमस्याभिलक्ष्यते 
पद्मरक्ततलौ हस्तौ सुप्रसन्ने च लोचने
[सब ने वह स्तोत्र तो सुना ही होगा - प्रसन्नवदना सौभाग्यं ... । लक्ष्मी का एक नाम है रम्य मुख वाली। पहले लक्ष्मिवर्धन कहा, अब प्रसन्नं च कहते हैं]उनके मुख पर कांति है, वह रम्य है। पञ्जे कमलदल के समान आरक्त हैं (उनका वर्ण मलिन नहीं हुआ) और आँखें भी सुप्रसन्न हैं।
नेदृशं दृश्यते रूपं गतासूनां विशां पते
विषादं मा कृथा वीर सप्राणोऽयमरिंदम
[गतासून शब्द का प्रयोग देखें कि भगवद्गीता में भी भगवान कहते हैं - गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति। मृत्यु हेतु यह शब्द प्रयुक्त । राम 'विशां पते' हैं। विश्‌ बहुत पुराना शब्द है, जब जनसाधारण को विश्‌ कहा जाता था। वैश्य इसी से है। आरम्भ में समस्त जन वैश्य, उनमें से रक्षा हेतु निकले राजन्य क्षत्रिय और जटिल होते समाज व राजकर्म को दिशा देने हेतु हुये ब्राह्मण। श्रुति इसी को संकेतरूप में कहती है, ऋग्वेद से वैश्य, यजुर्वेद से क्षत्रिय और सामवेद से ब्राह्मण। साम बहुत ही विकसित व सूक्ष्म दशा है, जब केवल वाणी से ही नियन्त्रण व दिशा का बोध कराया जा सके। अस्तु। तो विश्‌ कहते हैं प्रजा को, प्रजा कहते हैं संतान को, राम को कौसल्या-सु-प्रजा कहा गया है। राजा हेतु समस्त प्रजा संतान की भाँति होती है। विशाम्‌ पते प्रजा को संतान के समान समझने वाला प्रजा का पति अर्थात राजा। राम को इस सम्बोधन द्वारा सुषेण उनके कंधों पर महत दायित्व का बोध कराते हैं।]हे राजन्, मृतक का रूप ऐसा नहीं दिखता।
हे अरिंदम अर्थात शत्रुओं का दमन करने वाले (पुन: एक वैद्य का मनोवैज्ञानिक संकेत कि अभी तो शत्रु बचे हुये हैं, ऐसी दशा को प्राप्त होंगे तो उनका दमन कैसे करेंगे?) लक्ष्मण प्राणयुक्त हैं। आप विषाद न करें। विषाद वह अवस्था है जब आप का नियंत्रण समाप्त हो जाता है। यह सामान्य दु:ख नहीं है। इस शब्द का प्रयोग भी संकेतक है।
आख्याति तु प्रसुप्तस्य स्रस्तगात्रस्य भूतले
सोच्छ्वासं हृदयं वीर कम्पमानं मुहुर्मुहुः

[इतना कहने के पश्चात चिकित्सक स्पष्ट लक्षणों की बात करता है। आख्यातो शब्द पर ध्यान दें, आज भी उत्तरप्रदेश में सरकारी शब्दावली का अङ्ग है - जाँच कर अपनी आख्या प्रस्तुत करें। आख्यान होता है आँखों देखी कहना, साक्षी हो कर कहना। रामायण और महाभारत आख्यान कहे गये, किसी अन्य शास्त्र को यह पद नहीं दिया है, इस कारण ही ये इतिहास हैं - इति ह आस - ऐसा ही हुआ!]
भूमि पर पड़े प्रसुप्त वीर लक्ष्मण की हृदय की मुहुर्मुह अर्थात रह रह होने वाली धुकधुक और स+उत्‌+श्वास = सोच्छवास, आती जाती साँसें अपनी आख्या प्रस्तुत कर रही हैं [कि लक्ष्मण अभी भी लक्ष्मीवर्द्धन हैं, जीवित हैं।]
सुषेण ने मृत्यु शब्द का प्रयोग तक नहीं किया।
[विचार करें कि यहाँ तो शुभ कहना था कि आहत को कुछ नहीं हुआ, तब देश, काल व परिस्थिति को देखते हुये शब्दों पर इतना ध्यान है, अशुभ समाचार सुनाते समय चिकित्सक डॉक्टर किस प्रकार की मानसिक दशा में होते होंगे! डॉक्टरों का सम्मान न करें, न हो पाये तो कटु न बोलें, अपमान न करें।
थूकने व मारने पीटने का निषेध नहीं कर रहा क्योंकि वैसा तो मुसलमान करते हैं, मनुष्य सोच भी नहीं सकते!]
केवल अनुवाद में बात बहुत ही सपाट हो जाती न? मूल शब्द महत्त्वपूर्ण हैं। संस्कृत का प्राथमिक ज्ञान प्रत्येक सनातनी हेतु आवश्यक है। सीखें।
यज्ञ परम्परा और जाली उत्तरकाण्ड 
रामायण का अंतिम युद्धकाण्ड श्रीराम द्वारा अनेक पौण्डरीक, वाजपेय, अश्वमेध एवं अन्य यज्ञों के किये जाने की सूचना देता है जिनमें अश्वमेधों की संख्या सौ है। युद्धकाण्ड में राजसूय करने का नाम से उल्लेख नहीं मिलता।
ध्यातव्य है कि आधुनिक काल में भी ये यज्ञ विविध श्रोत्रियों एवं यजमानों द्वारा सम्पन्न किये जाते रहे हैं। राजसूय कोई नहीं करता।
राजसूय का लिखित प्रमाण युधिष्ठिर से लेकर कन्नौजाधिपति जयचंद्र तक मिलता है। अश्वमेध आदि के भी प्रमाण बिखरे पड़े हैं।
जाली उत्तरकाण्ड में श्रीराम राजसूय करने का प्रस्ताव करते हैं जिसका भरत द्वारा निषेध किया जाता है। वह कारण बताते हैं - राजन्य हानि, पृथिव्यां राजवंशानां विनाशो अर्थात धरती से राजाओं का नाश हो जायेगा।
यह उस पौराणिक अंधविश्वास की प्रतिध्वनि है जिसके अनुसार युधिष्ठिर द्वारा राजसूय किये जाने के कारण ही महाभारत का महाविनाश हुआ।
पुराणों में ही कलियुग में राजसूय सहित अश्वमेधादि का भी निषेध मिलता है जो कि स्पष्टत: अर्वाचीन है। इसके कारण जनमेजय एवं वैशम्पायन के विवाद से जुड़ते हैं जिसमें याज्ञवल्क्य द्वारा शुक्ल यजुर्वेद (वाजसनेयी) आधारित समांतर यज्ञ परम्परा का आरम्भ व जनमेजय द्वारा उसका समर्थन भी कारक रहे। उत्तर भारत में आज भले वाजसनेयी अधिक मिलेंगे किंतु कभी उन्हें तिरस्कार से देखा जाता था। वाजसनेयियों का उत्कर्ष भार्गवों के अपकर्ष से जुड़ा है। अस्तु।
राजसूय अपेक्षतया नया यज्ञ प्रतीत होता है जो अश्वमेध के विकल्प में किया गया होगा। ध्यातव्य है कि इसमें क्षत्रिय का स्थान ब्राह्मण से ऊँचा होता है।
राजसूय का भरत द्वारा विशेष निषेध यह दर्शाता है कि उत्तरकाण्ड कालांतर में जोड़ा गया। कब जोड़ा गया?
यह प्रश्न शोध की माँग करता है किंतु अनुमानत: इसे उत्तर भारत में वर्द्धनों की शक्ति क्षीण होने के उपरांत जोड़ा गया माना जा सकता है जिसकी पुष्टि उत्तरकाण्ड की भाषा और शब्द भी करते हैं। जयचंद द्वारा शताब्दियों पश्चात राजसूय आयोजन उनकी शक्ति, प्रभाव और समृद्धि को दर्शाता है, साथ ही भाँड़ चंद्रबरदाई द्वारा प्रतिक्रिया में खल चित्रण भी वैसा ही है जैसा श्रीराम के चरित्र को कलंकित करने के लिये उत्तरकाण्ड का प्रणयन।
उत्तरकांडी अश्वमेध आयोजन भी उसके क्षेपक होने की पुष्टि करता है। जहाँ युद्धकाण्ड सौ अश्वमेधों का उल्लेख करता है, वहीं उत्तरक्षेपक में एक अश्वमेध में ही सब काण्ड हो जाते हैं।
अश्वमेध का अश्व श्वेतवर्णी होना चाहिये जिसके मस्तक पर कृष्णकेश चित्ति हो किंतु उत्तरक्षेपक का अश्व पूरे काले रंग का है। यह तथ्य भी किसी अन्य धारा द्वारा इसे जोड़े जाने की ओर संकेत करता है।
[दक्षिण भारत में ऐसे विद्वान मिल जायेंगे जो ब्राह्मणों पर मांसभक्षण निषेध का एक रोचक कारण बताते हैं। उनके अनुसार यज्ञ में मंत्रपूत (प्रोक्षण क्रिया) पशु की बलि का मांस ब्राह्मण ग्रहण करते थे, अन्य नहीं। कलियुग में उन यज्ञों का निषेध होने के कारण उनके द्वारा मांसभक्षण को सामान्य नियम से निषिद्ध कर दिया गया, यज्ञ होंगे ही नहीं तो मांस मिलेगा कैसे? इसकी कड़ी भी वैशम्पायन द्वारा जनमेजय को शापित किये जाने से जुड़ती है। एक बात और ध्यान देने की है, उत्तर भारत में कृष्ण यजुर्वेदियों को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता। यजुर्वेद की पुरातन मूल धारा कृष्ण थी जिसमें मंत्र भाग व ब्राह्मण भाग मिश्रित थे।]

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