बुधवार, 5 जनवरी 2011

नरक ही है, तुम्हारे लिए किताबी, उनके लिए जवाबी(?) - पहला भाग

पहले कुछ अंश अपनी लम्बी कविता  नरक के रस्ते से  ...
…तकिया गीली है।
आँखें सीली हैं?
आँसू हैं या पसीना ?
अजीब मौसम
आँसू और पसीने में फर्क ही नहीं !
...... कमरे में आग लग गई है।
आग! खिड़कियों के किनारे
चौखट के सहारे दीवारों पर पसरी
छत पर दहकती सब तरफ आग ! 
बिस्तर से उठती लपटें
कमाल है एकदम ठंडी 
लेकिन शरीर के अन्दर इतनी जलन खुजली क्यों? 
दौड़ता जा रहा हूँ 
हाँफ रहा हूँ – बिस्तर के किनारे कमरे में कितने ही रास्ते 
सबमें आग लगी हुई 
साथ साथ दौड़ते अग्नि पिल्ले 
यह क्या ? किसने फेंक दिया मुझे खौलते तेल के कड़ाहे में?
भयानक जलन खाल उतरती हुई
चीखती हुई सी गलाघोंटू बड़बड़ाहट 
झपट कर उठता हूँ 
शरीर के हर किनारे ठंढी आग लगी हुई
पसीने से लतपथ . . निढाल पसर जाता हूँ 
....
....

कोई इतिहासकार न इनका इतिहास लिखेगा
और न जंगी की जंग का 
सही मानो तो वह जंग है ही नहीं ...
इसका न होना एक नारकीय सच है
समय के सिर पर बाल नहीं 
सनातन घटोत्कच है। 
....
....

आज जो इस नरक के रस्ते चल रहा हूँ 
सूरदास की शिक्षा मेरी पथप्रदर्शक बन गई है...
अप्प दीपो भव  .. ठेंगे से  
अन्धे बुद्धों! तुम मानवता के गुनहगार हो
तुम्हारे टेंटुए क्यों नहीं दबाए जाते?
तुम पूजे क्यों जाते हो?...
....
....

वह हँसती हुई फुलझड़ियाँ 
अक्कुड़, दुक्कुड़ 
दही चटाकन बर फूले बरैला फूले
सावन में करैला फूले गाती लड़कियाँ
गुड़ियों के ब्याह को बापू के कन्धे झूलती लड़कियाँ
अचानक ही एक दिन औरत कटेगरी की हो जाती हैं
जिनकी छाया भी शापित 
और जिन्दगी जैसे जाँघ फैलाए दहकता नरक !
....
....

अशोक की लाट से 
शेर दरक रहे हैं 
दरार पड़ रही है उनमें ।
दिल्ली के चिड़ियाघर में 
जींस और खादी पहने 
एक लड़की 
अपने ब्वायफ्रेंड को बता रही है,
”शेर इंडेंजर्ड स्पीशीज हैं 
यू सिली” ।
शेर मर रहे हैं बाहर सरेह में 
खेत में 
झुग्गियों में 
झोपड़ियों में 
सड़क पर..हर जगह 
सारनाथ में पत्थर हम सहेज रहे हैं 
जय हिन्द।

आज का प्रात:काल बस यातना है। बाउ और प्रेमपत्र गड्ढे में... 
मुझे सेलेक्टिव हल्लाबोल और सेलेक्टिव मौन पर क्रोध आता है। 
नपुंसक है यह क्रोध। 
फिर भी जाने क्यों लगता है कि जिस दिन यह खत्म हो जाएगा, मैं मर जाऊँगा।    
_________________________________________________________   


प्रस्तुत है कश्मीरी शरणार्थियों के सूरते हाल पर आधारित पुस्तक
The Garden Of Solitude (उजाड़ का बागीचा) के एक अंश का हिन्दी अनुवाद:

Book:                The Garden Of Solitude
Author:              Siddhartha Gigoo
ISBN:               978-81-291-1718-2
Binding:            Paperback
Publisher:          Rupa & Co.
Pages:              260
Language:         English
Price:                195

श्रीधर ने कहा,”जिन्दगी हमें सिखाती है कि बदसूरती में भी सौन्दर्य होता है।“ तब पम्पोश ने कुछ कहा जिसके लिए श्रीधर तैयार नहीं था।
‘रोज मैं एक कनखजूरे की जिन्दगी जीता हूँ। मैं रेंगता हूँ।  मैं चाटता हूँ। मैं छिपता हूँ। मैं दुखी होता हूँ।मेरी सुबह  केरोसीन के धुयें और टेंट के फर्श पर बिखरे शक्कर के दानों को चट करती दंश मारती भुक्खड़ चीटियों से शुरू होती है। मुझे लगता है कि युगों से मैंने चावल का एक ग्रास तक नहीं खाया। मैं भूखा जगता हूँ और भूखा ही सो जाता हूँ। मैं किसी कनखजूरे सी जिन्दगी बसर करता हूँ, मैं रेंगता हूँ। कैम्प के चारो ओर आदमी के गू मूत और कूड़े की गन्ध है। लोग सुबह भूखे और अस्तव्यस्त से जगते हैं। उनकी सुबहें धुँधली होती हैं। टंकी का पानी गन्धाता है और बच्चे दिन भर अपनी ही उल्टियों में पड़े रहते हैं। माँ के चेहरे की काँपती मुस्कान झूठी है। मैं उसके चेहरे से वह झूठी मुस्कान छील देना चाहता हूँ ताकि वह फिर से खूबसूरत हो जाय। हाईवे की चाय की दुकान पर पापा बाकी शरणार्थियों के साथ कार्ड खेलते हुए अपना अधिकांश समय गुजारते हैं। अपने टेंट के भीतर की दहशतनाक ज़िन्दगी का मैं मूक दर्शक हूँ। भीतर की हवा गन्दी और घटिया है। मेरे दादा शायद ही बोल पाते हैं। गाँव छोड़ते समय उन्हों ने अपनी आवाज़ गुमा दी। कसाई की दुकान से लौटते हुए एक जवान मर्द ने उन्हें एक बन्दूक दिखाई थी। वह अभी भी सोचते हैं कि उन्हें डराने के लिए वह मर्द बन्दूक लिए किसी कोने छिपा हुआ है। बनिहाल सुरंग पार करने के बाद उन्हों ने बात करना बन्द कर दिया। मैंने उन्हें धुँधले होते पहाड़ों को देर तक ताकते हुए देखा, वह तब तक निहारते रहे जब तक एक एक कर वे पहाड़ उनके जम चुके सपनों में विलीन नहीं हो गए। और उन्हों ने अपने डर को निगल लिया। आज मैं उनकी फुसफुसाहटों को सुन नहीं पाता। उनके शब्द उनके मुँह से बाहर ही नहीं आते। जब हम सोते हैं तो अपने हाथ पैर तक नहीं फैला सकते। कपड़े लटकाने के लिए कोई हैंगर नहीं। अपने सामान रखने को कोई आलमारी नहीं। हमारे पास अपने आराध्यों के कोई चित्र नहीं। अपने पुरखों के कोई फोटोग्राफ नहीं। दिन में हम दहकते सूरज से छिपते फिरते हैं और रात में एक कीड़े के दंश से दूसरे कीड़े के दंश तक जीते रहते हैं। कनखजूरे, गोंजर और मकड़े हमारे साथी हैं। हमें उनके साथ जीना सीखना ही होगा।
 मेरी दादी कीड़ों को नहीं पहचानती। वह छिपकली को दीवार पर टँगा कोई लकवाग्रस्त प्लास्टिक खिलौना समझती है। सलीब पर टँगी उस छिपकली पर उसकी निगाह जमी रहती है। घंटों तक वह स्याह खालीपन को बस घूरती रहती है, जिसका कोई अंत नहीं है। उसका यूँ घूरना गुमनामी और विस्मरण की दुनिया की ओर सारहीन निगहबानी जैसा होता है। खालीपन को घूरते हुए और ध्वंस के अनुभव से प्रताड़ित वह उस समय सिर के चारो ओर चक्कर लगाते सैकड़ों मच्छरों की ओर भी ध्यान नहीं देती। मुझे इसका भान ही नहीं होता कि वह भूखी है या प्यासी है। नींद में वह एक लाश की तरह लगती है।मैं उसकी नाड़ी जाँचने को उठता हूँ और उसकी साँसों का अनुभव कर प्रसन्न हो लेता हूँ। मैं प्रार्थना करता हूँ कि वह मरने के बाद प्रसन्न रहे। मेरी माँ और बहन कपड़ों और बर्तनों को टेंट के बाहर के कीचड़ भरे पानी में धोती हैं। फटे कैनवास, कार्डबोर्ड के टुकड़ों और टिन से बने कामचलाऊ टॉयलेट में निपटने के लिए सुबह के वक्त वे घंटों लाइन में लगती हैं। उन गन्दे और गन्धाते टॉयलेटों के बाहर इंतजार करती हैं जब कि मटरगस्ती करते आवारा मर्द निपटने के लिए इंतज़ार करती औरतों को घूरते रहते हैं। उनकी घूरती निगाहों से बचने के लिए बहुत सी औरतें गन्धाते लैट्रिनों में आधी रात को जाती हैं। इन गन्दे गन्धाते लैट्रिनों से मच्छर तक भागते हैं। कभी कभी मैं औरतों को चीखते, चुप होते और फिर गन्दी टंकी के पीछे खामोश सुबकते सुनता हूँ। रात हमारे लिए मलिनता, उदासी और गर्मी ले कर आती है। हम टेंट के कैनवास को थामे लकड़ी के खम्भों से लिपटे तितर बितर और नंगे बिजली के तारों के साये में भयग्रस्त जीते हैं।   
 मेरे दादा के पैर में शायद कनखजूरे के काटने से एक ददोरा हो गया है। अब वह सूज कर घाव सरीखा हो गया है जिसमें से मवाद निकलता है। वह घाव डरावना है। वह चाकू से उस घाव को छीलते रहते हैं। पीपदार घाव कभी नहीं सूखेगा। मैं उस घाव को जला देना चाहता हूँ। बूढ़े की निगाह रात को कपड़े बदलती मेरी बहन पर पड़ती है और वह लाइट बुझा देती है। आड़ के लिए कोई पर्दा नहीं है। अपनी माँ और दादी के बीच किसी कीड़े की तरह सिमटी वह टुकड़ा टुकड़ा सोती है। उसे धूप छाँव में रेंगते कीड़ों के डरावने सपने आते हैं। बूढ़ा हुक से लटकते उसके कपड़ों को छूना चाहता है। वह अपनी ही पोती के कपड़ों को सूँघता है। उसे उनकी बदबू भाती है।... (अगले भाग के लिये यहाँ क्लिक करें)        

26 टिप्‍पणियां:

  1. लालित्‍य और चिंतन के संतुलित तादात्‍म्‍य की बार-बार पढ़ी जा सकने लायक कविता, ताजगी सहित.

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  2. पुस्तक -उद्धृत गद्य कविता नश्तर सी चीर रही है जमे गोश्त को ...
    ऊपर वाली गद्यनुमा कविता को मैं साईंस फिक्शन पोएट्री सेशन (गूगल सर्च संस्तुत ) चेन्नई कांफ्रेंस के लिए भेज रहा हूँ !

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  3. हल्ला बोल या मौन कुछ रचनात्मक/क्रियात्मक है तो ही उसका फायदा है ...वर्ना सिर्फ जबानी/ जमा खर्च या ख्याली पुलाव !

    नरक की कविता डराती तो है मगर उनका क्या जो इसे जीते हैं ...
    अनगिनत अलग-अलग आयाम है आपकी रचनात्मक अभिव्यक्ति के ...

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  4. अशोक की लाट से
    शेर दरक रहे हैं
    दरार पड़ रही है उनमें ।
    दिल्ली के चिड़ियाघर में
    जींस और खादी पहने
    एक लड़की
    अपने ब्वायफ्रेंड को बता रही है,
    ”शेर इंडेंजर्ड स्पीशीज हैं
    यू सिली” ।
    शेर मर रहे हैं बाहर सरेह में
    खेत में
    झुग्गियों में
    झोपड़ियों में
    सड़क पर..हर जगह
    सारनाथ में पत्थर हम सहेज रहे हैं
    जय हिन्द


    अद्भुत है ये पंक्तिया .....कभी कभी लगता है तुम्हारी कविताएं तुम्हारे गध से से ज्यादा अट रेक्ट करती है .......

    आज का प्रात:काल बस यातना है। बाउ और प्रेमपत्र गड्ढे में...
    मुझे सेलेक्टिव हल्लाबोल और सेलेक्टिव मौन पर क्रोध आता है।
    नपुंसक है यह क्रोध।


    love this one.....one of your best!!!!!

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  5. मन बहुत बेचैन और खिन्न हो गया है पढ़कर। और कुछ नहीं कह पाऊंगा।

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  6. यह कविता तो पहले ही पढ़ चुका हूँ। इस पोस्ट पर उसका अंश पढ़ने के बाद आज फिर उसी पुराने लिंक पर जाकर देखा।

    आज कुछ अलग ही लगी वह कविता। विशेषत:

    ooo
    गोड़न गाली दे रही
    बिटिया है उढ़री
    काहें वापस घर आई?
    बाप चुप्प है
    सब ससुरी गप्प है।
    बेटियाँ जब भागतीं
    घर की नाक काटती
    बेटा जब भागता
    कमाई है लादता ।
    ऐसा क्यों है?
    गोड़न तेरी ही नहीं
    सारी दुनिया की पोल है,
    कि मत्था बकलोल है।
    समस्या विकट है
    सोच संक्कट्ट है।
    ooo

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  7. The Garden Of Solitude का अंश जानदार लगा..... मूल अंश नहीं देखा पर मुझे लगता है कि अनुवाद मूल लेखन के साथ पूरा न्याय कर रहा है... कृपया इसे जारी रखें................

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  8. क्रोध की यहीं आँच तो जीवित रखती है हमें। बनी रहे, बसी रहे।

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  9. पढ़ कर कितना खिन्न महसूस कर रहे हैं...... पर जो भोग रहा है वो........... वो तो पता नहीं कौन से जन्म के कर्मो पर रो रहे हैं जिन्होंने कश्मीर में रह कर भी भारतभूमि को मातृभूमी माना जन्म भूमि माना............. आने वाली पीड़ी हमारे राष्ट्रनायकों को इस गुनाह के लिए कभी माफ नहीं करेगी.

    अनुवाद के लिए बहुत बहुत आभार.

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  10. नीरज बसलियाल ने कहा…
    भाड़ में जाओ भगवान ..

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  11. @मोरी नींद नसानी हो..

    @ मुझे सेलेक्टिव हल्लाबोल और सेलेक्टिव मौन पर क्रोध आता है। नपुंसक है यह क्रोध।

    नियति ने हमें एक महान अन्धकार में पहुंचा दिया है......... सदा से मष्तिक पर रखे मुकुट मणि पर ही तो दुश्मन की नज़र रहती है......... और वो हम धीरे-धीरे गंवाते जा रहे हैं.

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  12. आज बाऊ और प्रेमपत्र को गड्डे में भेजना भी खल नहीं रहा।
    सुबह पढ़ ली थी पोस्ट, और सारा दिन उसी क्रोध को महसूस किया, नपुंसक क्रोध को।
    shame on us.

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  13. ई पोस्ट हमारे निशाने पर भी आई है और न सिर्फ़ पोस्ट बल्कि आप भी आ गए हैं देखिए हमरे नए ठिकाने पे
    मेरा नया ठिकाना

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  14. ...और दूसरी तरफ़ देश केबड़े बुद्धिजीवी कहते हैं कि मुसलमानों पर आज भी अविश्वास क्यों किया जाता है। उनके लिए हिंदुओं को अपने दरवाजे खोल देने चाहिए।

    कश्मीर में जो सरासर जुल्म हो रहे हैं उनका हिसाब कौन देगा?

    शरणार्थी शिविर का वर्णन रूह कँपा देने वाला है। आपको पूरी किताब का अनुवाद लेखक की अनुमति लेकर करना चाहिए।

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  15. आज का प्रात:काल बस यातना है। बाउ और प्रेमपत्र गड्ढे में...
    मुझे सेलेक्टिव हल्लाबोल और सेलेक्टिव मौन पर क्रोध आता है।
    नपुंसक है यह क्रोध।
    फिर भी जाने क्यों लगता है कि जिस दिन यह खत्म हो जाएगा, मैं मर जाऊँगा।
    ....नतमस्तक हूँ आपकी इस लेखनी पर। याद कर रहा हूँ कि कभी मुझे भी हुआ था बुखार।

    ..नदी के किनारे
    'और' आग तलाशते
    एक युवक से
    बुझी हुई राख ने कहा-
    हाँ !
    बचपन से लेकर जवानी तक
    मेरे भीतर भी
    यही आग थी
    जो आज
    तुम्हारे पास है।
    ..................

    जब तक जिंदा रहा
    मेरे गिरने पर
    खुश होते रहे
    मेरे अपने
    जब मर गया
    तो फूँककर चल दिए
    यह बताते हुए कि
    राम नाम सत्य है।
    ..........................

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  16. नतमस्तक हूँ आपकी इस लेखनी पर। याद कर रहा हूँ कि मुझे भी कब हुआ था बुखार..
    http://devendra-bechainaatma.blogspot.com/2010/09/blog-post_13.html

    जवाब देंहटाएं
  17. .
    .
    .
    "मुझे सेलेक्टिव हल्लाबोल और सेलेक्टिव मौन पर क्रोध आता है।
    नपुंसक है यह क्रोध।
    फिर भी जाने क्यों लगता है कि जिस दिन यह खत्म हो जाएगा, मैं मर जाऊँगा।"


    मैं भी...



    ...

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  18. कल पढ़ा और फिर न कुछ पढ़ा गया न ही टिप्पणी करने की क्षमता रही....

    बेचैनी क्रोध क्षोभ दिमाग के एक एक नस को तड़तडाये दे रही है...चीख चीख कर रोने का मन कर रहा है,ताकि मन पर से इसे निकालकर इससे बहार भाग सकूँ..

    अनुभूति को किन शब्दों में अभिव्यक्ति दूं सही सही समझ नहीं पा रही...

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  19. यह विवश क्रोध ही खुद को जिलाए रखता है...और दुसरो के अंतस को भी झिंझोड़ कर जगाने का कार्य करता है.

    उस पुस्तक के अंश पढ़े थे...दुबारा अनुवाद पढने की हिम्मत नहीं हुई...सोच कर रूह काँप जाती है....पूरी एक पीढ़ी उन कैम्प में बड़ी हो रही है...जिसने उस कैम्प से अलग दुनिया जानी ही नहीं.

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  20. आपकी यह कविता अपने आक्रामक तेवर की वज़ह से आकर्षित करती है । निस्सन्देह एक व्यापक फलक लिये हुए है जिसे शब्दों में बान्धना अत्यंत कठिन कार्य है ।

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  21. मन मे ज्वाला धधकने लगी हैं
    सच कहा आपने ये नपुंसक क्रोध

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  22. दो बार पढ़ा पर लगता रहा अभी समझना बाकी है . कैसा लगता होगा उन्हें जिन्हें झेलना पड़ रहा है और छुटकारे की कहीं संभावना नहीं .नफ़रत उमड़ती है उन लोगों के लिए जो आराम से बैठ कर इस धरती के द्रोहियों को सुविधाएं देते जाते हैं ,और उन के लिए भी जो असलियत पर पर्दा डालने के लिए अमन के राग अलापते हैं .

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  23. कैम्प के हालात हौलनाक हैं ,बेहद अफ़सोस ! ऐसा लगा कि आपकी कविता इसे बांच कर ही जन्मी हो यूं तो सब ठीक बस एक खटका ...


    और जिंदगी जैसे जांघ फैलाए दहकता नरक !

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