गुरुवार, 6 जनवरी 2011

अंतिम भाग - नरक ही है, तुम्हारे लिए किताबी, उनके लिए जवाबी(?)

पिछ्ले भाग से आगे ...
हम उन घंटों को हल्की छुअन की तरह जीते हैं जो हमारे अधसोये अस्तित्त्व पर भारी हैं और दु:स्वप्नों के अंतहीन तनावों से भारी कशमकश के साथ गुजरते हैं। टेंट में रखा मिट्टी का घड़ा खाली है। फेंक दी गई टॉयलेट वाली प्लास्टिक बोतल में पानी की चन्द बूँदें हैं। मैं उसे उठाता हूँ और उन चन्द बूँदों को अपने सूख चुके मुँह में खाली कर देता हूँ। मेरी जुबान सूख गई है। यह किसी भी वक्त गिर सकती है। सूरज को देखने पर मेरी दादी चीखती है। धूप में अचेत हो जाने के डर से वह टेंट से बाहर आने में घबराती है।  वह रोज अपने कपड़ों में ही गू मूत कर देती है। मेरी माँ ने उसके लिए जो हाजती मँगाया है, वह उसका प्रयोग तक नहीं कर सकती। सुबह से शाम तक वह उस पुराने बक्से से चिपकी रहती है जिसे वह साथ लाई थी।  वह उसके सीने से उसके वजूद जैसा चिपका रहता हैI मुझे यह सोचते हैरानी होती है कि क्या उसमें कोई गहने या कीमती सामान बचे हुए हैं?
खुद से और दूसरों से अनजान होने की, भुलाने की इच्छा मैंने पहले कभी नहीं महसूस की। गन्ध ....स्पर्श.... साँसें... आह... सब कुछ।
साथ के एक टेंट में पाँच जनों का एक परिवार उस बूढ़े को यातना देता है जो उनका पालक-दादा है, जिसने धुँधलाती दूरी में गुम होते अपने घर को देख अपना मानसिक संतुलन खो दिया था। बूढ़ा अपने बेटे बहू के लिए एक बोझ है।  वे उसे  बस भकोसने वाला एक मुँह समझते हैं। रातों में वह लगातार कराहता है और बीच बीच में किसी बुरे सपने के कारण ठिठुरन भरी काँप के साथ जाग उठता है। उसके बेटे बहू अपने मनबहलाव के लिए उस पर ताना कसते हैं। वे उसके कानों में फुसफुसाते हैं कि उसकी माँ मर चुकी है और उसे क्रूरता के साथ पीट पीट कर मार दिया गया था। बूढ़ा रंज करता है और उनसे अत्याचारों के बारे में बात न करने की भीख माँगता है। हर शाम यह यंत्रणा जारी रहती है। बूढ़े की पागल बना देने वाली हँसी चिथड़ा चिथड़ा कैनवास टेंट से टकरा कर वापस हो लेती है। बूढ़ा हर रात विलपता है। वह अपने बेटे बहू को मुँह फाड़े एकटक देखता रहता है और उनके ऊपर अपने आशीर्वाद न्यौछावर करता है। अन्धेरा! अन्धेरा!
सिर धुनते मैं आश्चर्य में पड़ जाता हूँ – 'नैतिक क्या, अनैतिक क्या।‘
पम्पोश के अनुभव और दशा के बारे में सुन कर श्रीधर की साँसें कुछ देर के लिए थम गईं। उसने पम्पोश का सस्ते सिगरेटों वाला पैक उठा लिया। पहली बार उसने सिगरेट सुलगाई थी। उसने एक कश लिया। धुयें का गुबार हवा में मँडराया और सीलिंग फैन के आवर्त में खो गया।
उस दिन श्रीधर ने अपने जरनल में अपने विचार लिखे। उसने पम्पोश के बारे में लिखा और उसकी चेतना की भयानक खान के बारे में भी लिखा।
उसे खयाल आया कि पम्पोश जैसा होना कैसा होगा? पिछले दिन कहे गये पम्पोश के अंतिम शब्द उसे याद आये। पम्पोश श्रीधर के कान में फुसफुसाया था,‘मुझे एक बच्चे सी हँसी की तमन्ना है।
पम्पोश ने कश्मीर में गुजारे अपने दिनों के बारे में कभी नहीं बताया। श्रीधर ने पम्पोश को कश्मीरी गाँव में गुजारे उसके बचपन के दिनों के बारे में जानने के लिए ऐसी बातें करने को उकसाने की कोशिश की। पम्पोश का परिवार कश्मीर के एक गाँव से आया था। कैम्प के कुछ विद्यार्थियों ने श्रीधर को बताया कि पम्पोश का परिवार फलों के एक बागीचे का स्वामी था जिसमें वे लोग अनार, चेरी और अखरोट उपजाते थे। श्रीधर ने सोचा, पम्पोश का बचपन खेल कूद मस्ती से भरा रहा होगा। किसी ने बताया कि पम्पोश का परिवार उनके गाँव में अकेला पंडित परिवार था और उन्हें चरम भयावह परिस्थितियों में वहाँ से भागना पड़ा था। जो घटित हुआ उसे बताने की स्थिति में कोई नहीं था।  पम्पोश ने एक घर खोया था और उसे दूसरे की तलाश नहीं थी।
शरणार्थी चट्टानी टीले पर दिन भर बैठे रहते और अपने समाज के मामलों पर बात बहस करते। दिन बैठे हुए और दिमागी फितरतों, उनकी दुर्दशा और बदहाली के बारे में बातें करते गुजारे जाते। वे लोग प्रतीक्षा में व्यस्त रहते। बहुतों के लिए यह प्रतीक्षा एक तरह की चीर फाड़ थी। उन्हें तब भी इसका भान नहीं हुआ था कि यह प्रतीक्षा अंतहीन थी। उन्हें नहीं पता था कि वे किसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। यह प्रतीक्षा घर लौटने के लिए नहीं, घाटी में शांति के लिए नहीं बल्कि एक नये दिन के प्रारम्भ और एक नई शाम की ढलान के लिए थी।  वे बिना लू वाले दिन और बिना सर्पदंश वाली रात के लिए प्रार्थना करते थे।
पम्पोश स्कूल के बाद चींटियों की एक बाँबी के पास श्रीधर से रोज मिलता। वह किसी बेलचे से बाँबी को ढहा देने और साँपों को बेघर कर देने की सोचता ताकि कैम्प में सर्पदंश की कोई घटना न हो।
कैम्प से रोज ही निकलते जनाजों में पूछने के लिए बस एक ही प्रश्न होता – ‘सर्पदंश या लू?’
आने वाले दिनों में श्रीधर और पम्पोश ने ढेरों कैम्पवासियों को एक एक कर श्मशान में लाइन लगते देखा। उन दोनों के बीच अर्थहीन शब्द साँस लेते थे! शब्द! मौन! ......(समाप्त)
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दुनिया हसीन रहे, इसके लिए घृणा भी उतनी ही आवश्यक है, जितना प्रेम। 
गुनहगारों!
मैंने तुम्हारे लिए सहेज रखा है। 
भूलना मेरी फितरत नहीं। 

24 टिप्‍पणियां:

  1. एक कवि की पंक्तियाँ याद आ रही हैं-

    लपक चाटते जूठन देखा जिस दिन मैने नर को
    सोचा उस दिन आग लगा दूँ क्यों न इस दुनिया भर को...

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  2. मेरे बारे में मैंने लिखा है कि 'I hate miseries, and miserable people.'
    ये घृणा दरअसल अपनी बेचारगी से उपजती है | जब सब कुछ जानने के बावजूद कुछ नहीं कर पाते हैं तो क्रोध भी खो जाता है | तब घृणा अस्तित्व में आती हैं | कल बहुत कुछ लिखना चाहता था , लेकिन सिर्फ भाड़ में जाओ भगवान् लिखकर बैठ गया | आज भी वही वितृष्णा है | नफरत मेरे पास भी बहुत है , और समाज को लेकर गुस्सा आख़िरकार खुद पर सिमट जाता है | बहुत सारे सेलेक्टिव हल्लाबोल वालों को जवाब देने का भी बहुत मन करता है, लेकिन उनमे अपना ही अक्स दिखने लगता है इसलिए पोस्ट अ कमेन्ट के बाद बिना कुछ लिखे विंडो बंद कर देता हूँ |

    गिरिजेश , इसे तुम एक घमंड की तरह लो | गर्व करो, हम लोगों को भगवान् ने लिखने का हुनर दिया है | साथ ही एक जिम्मेदारी भी है , ये बताने की कि दुनिया अभी भी बेहद खूबसूरत है | सरकार को, समाज को, खुद को गाली देने के लिए बहुत सारे लोग हैं | लेकिन सच बताऊँ , इन्सान बदल जाए, सरकार बदल जाए, समाज बदल जाए , प्रकृति नहीं बदलती | हाथ काटोगे तो खून निकलेगा ही | बुद्धिजीवियों को विचारों से संसर्ग करने दो , जनता को अत्याचार सहने और करने दो , सेलेक्टिव आक्रोश को घुमड़ने दो , आखिर में जीतेगा वही जो प्रकृति है, जो सत्य है |

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  3. @इसके लिए घृणा भी उतनी ही आवश्यक है, जितना प्रेम।

    नीरज, तुमसे कहीं न कहीं सहमत हूँ कि घृणा बेचारगी से उपजती है ...........
    लेकिन घृणा ही क्रोध को अग्नि भी प्रदान करती है..... और अंतर में उपजा क्रोध ही किसी दिन विस्फोट बनता है.

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  4. घृणा व क्रोध में यही अन्तर है, क्रोध में उसे ठीक करने की उत्कण्ठा रहती है, घृणा में नहीं।

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  5. "दुनिया हसीन रहे,
    इसके लिए घृणा भी उतनी ही आवश्यक है, जितना प्रेम।
    गुनहगारों!
    मैंने तुम्हारे लिए सहेज रखा है। भूलना मेरी फितरत नहीं। "

    ये पंक्तियाँ कभी न भूल पाउंगी...शायद अभी जो मन में घुमड़ रहा है,उसे अभिव्यक्त करने का इससे सटीक वाक्य और कुछ नहीं हो सकता...

    हिन्दू आतंकवाद !!!!

    शायद यही चाहते हैं हमारे आज के निति नियंता...

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  6. क्या मानव जाति फिर से असभ्य होने जा रही है..... जिसके बन्दूक में जोर होगा वही जी पायेगा.........?????????

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  7. @ सोमेश जी,
    इसे ही सात्विक क्रोध कहते हैं।

    @ नीरज जी,
    आप की बातों से 100 फीसदी सहमत। अनुवाद का चयन इसलिए कि श्वेत के लिए श्याम को दिखाना कभी कभी अनिवार्य हो जाता है और प्रक्रिया में संवेदनाओं को जीवन मिल जाता है।
    पहली बार 'सात्विक क्रोध' प्रयोग को जब 'मानस का हंस' में पढ़ा तो बैचैन हुआ था। विषय ध्यान-आसक्ति-काम-क्रोध-सम्मोहन-स्मृति विभ्रम-बुद्धि नाश-सब स्वाहा वाली गीतात्मक समझ के लिए क्रोध को सात्विक मानना अजीब लगा लेकिन धीरे धीरे समझता गया।
    यहाँ घृणा वह 'सात्विक' 'शांत' घृणा है जो आप के भीतर सीझती रहती है, आप के भीतर उसे जिलाये रखती है जो जरूरी है। अच्छाई के भी साइड इफेक्ट होते हैं। सष्टि का यिंग यांग संतुलन।
    क्रोध में स्थायित्त्व नहीं होता। घृणा के साथ ऐसा नहीं है। मुझे चाणक्य़ क्रोधी नहीं, सात्विक कुटिलता और घृणा वाला व्यक्ति लगता है। ...और हमारे कई राष्ट्रनायक भी।...
    हुनर का घमंड काम करता रहेगा। दुनिया को बताता रहूँगा कि दुनिया अभी भी बेहद खूबसूरत है। सात्विक घृणा भी सीझती रहेगी। इतनी विचारवान टिप्पणी के लिए आभार। बहुत अच्छा लगा जो आप ने विचार स्फुल्लिंग उपजा गए।

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  8. @ दीपक बाबा
    हाँ, घृणा क्रोध को सुसुप्त जीवित रखती है - समय पर भड़कने के लिए।

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  9. @ प्रवीण जी,
    अपनी बात ऊपर कह चुका हूँ।

    @ रंजना जी,
    आभार। जब हम आतंकवाद के पहले हिन्दू जोड़ते हैं तो अनजाने ही 'प्रतिक्रियात्मक' बात कर रहे होते हैं। आप ने जड़ को सही पकड़ा। इस्लाम की चन्द मान्यतायें ही कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा की कारण हैं। प्रतीक्षा है किसी की जो सकारात्मक मान्यताओं को आगे बढ़ायेगा ताकि पूरे संसार से आतंक का सफाया अपने आप हो जाय। प्रतीक्षा की जा सकती है।
    हाँ, 'हिन्दू आतंकवाद' जैसा कुछ हो ही नहीं सकता। प्रतिक्रिया कह सकती हैं। प्रतिक्रिया सीमाओं की जकड़न में स्वभावत: ही रहती है। उससे कुछ भी सकारात्मक हासिल नहीं होता। आवश्यकता है 'शांत घृणा' को सजोने की और सार्थक कामों की जैसे प्रताड़ित यहूदियों ने इजरायल में किया और किये जा रहे हैं।

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  10. इसकी कई एक लाइनें अविस्मरनीय बन गईं हैं,आभार.

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  11. इस तरह पाश की कवितायें मैं भी अपनी डायरी में उतारता रहा हूँ और कभी कभी तो उनके पोस्टर बनाकर घर में टाँगे भी है .. हताशा की स्थिति में पाश की वह कविता ... हम लडेंगे साथी ..बहुत प्रेरित करती थी उस चक्र से बाहर निकलने के लिये ।

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  12. लगता है Trendmicro को आपके ब्लॉग से एलर्जी है। कम्बख्त पेज खुलते ही वार्निंग देने लगता है।

    किताब के अंश का अनुवाद बेहतरीन रहा। पाश को पढ़वाने का शुक्रिया।

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  13. सुबह से नैट खराबी और बिजली की आंख-मिचौनी से जूझ रहा था। अब पढ़ी है पोस्ट।
    और अभी आधा घंटा पहले ही अखबार में पढ़ी यासीन मलिक की चेतावनी और उमर अब्दुल्ला का ताल से ताल मिलाना।
    शायद नीरज की बात सच ही होगी, फ़िर ये भी प्रकृति ही है।
    गर्व करिये आप भी, हम भी कोशिश करेंगे जब हुनर आ जायेगा। फ़िलहाल तो धिक्कारना ही ठीक लग रहा है।

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  14. दो बार पढ़ चुकी हूँ -जिन्हें इस विभीषिका को जीना पड़ रहा है उन्हे कैसा लगता होगा सोचकर ही मन दहल जता है ,इस धरती के साथ जिन लोगों ने द्रोह किया है और निर्दोषों की यातना का कारण बने हैं आज भी उन्हें सिर पर बैठानेवाले अपने यहाँ पले विभीषणों के प्रति नफ़रत और तीखी हो जाती है -यह सब आखिर कब तक ?

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  15. @सत्यार्थी जी,
    प्रयास करता हूँ कि पूरी पुस्तक के अनुवाद की अनुमति मिल जाय। अंश तक तो ठीक है लेकिन पूरी पुस्तक के अनुवाद और उसे ब्लॉग पर प्रस्तुत करने के लिए मूल लेखक से अनुमति लेनी ही होगी।

    वैसे अपने ही कई काम अधूरे पड़े हैं। लेकिन 'लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजै?'
    संवेदनशीलता है और क्या कहा जा सकता है? इसके आगे की राह क्या हो, ढूँढ़ता रहता हूँ और लिखता जाता हूँ...

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  16. ---
    आप की लिखाई बहुत सुन्दर है.
    इसे देख कर ऐसा लगता है आप ने तख्ती पर लिखना सीखा होगा ..

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  17. घृणा एक बहुत ही strong emotion है. अगर वह अंदर ही अंदर सीझती रहेगी तो भीतर ही भीतर इसे पालने वाले को छीजती भी रहेगी.

    'पाश' की कविता बेहतरीन लगी.

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  18. गिरजेश जी ,दोनों भाग पढ़ा. काफी दयनीय स्थिति है. पढ़कर मन विचलित हो उठा. बस पम्पोश की जगह अपने को रखकर सोंचना भी रोंगटे खड़े कर जा रहा है... आगे लिखने के लिये कुछ शब्द भी नहीं मेरे पास.

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  19. @ strong emotion - इसी की आवश्यकता है। & छीजना - सात्विक और शांत घृणा करने वाले को नहीं, जिन गुनहगारों से है उन्हें छीजेगी।

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  20. बहुत सही कहा आपने गिरिजेश जी...

    कीड़े मकौडों से बचे हुए साफ़ सुथरे घरों में रह रहे हम लोग इस दृष्टि से तथ्यों को सोच समझ सकते हैं. घृणा को भी सृजनात्मक बना सकते हैं...लेकिन जो रोज नरक में जीने को बाध्य हैं और जिनका विश्वास न्याय पर से उठ गया है,उनका आक्रोश यदि ध्वंसात्मक रूप से निकले तो इसमें आश्चर्य वाली कोई बात नहीं होगी...और यदि ऐसा होता है तो गुनाहगार कौन है ????

    आज हमारी सरकारें आक्रोशित भीड़ को स्वयं ही रास्ता दिखा रही हैं...
    हिंसा कभी सही नहीं हो सकता...पर हिंसक के सामने कोई कब तक आत्मसमर्पण करता रहेगा,यह हिंसक वर्ग नहीं सोच पाता..

    क्रिया प्रतिक्रिया का यह दौर शायद तब तक चलता रहेगा,जबतक हिंसक समूह हिंसा में ही आनंद पाता रहेगा...

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  21. .
    .
    .
    क्या कहूँ ?
    कहने से होगा क्या ?

    शब्द कभी-कभी किसी काम के नहीं रहते...


    ...

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  22. क्या आपको नहीं लगता कि इंसानों ने पूरी दुनिया के ज्यादातर हिस्से कैम्पों में तब्दील कर दिए हैं ?

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