वाराणसी। अर्धरात्रि। छ: साल पहले की बात। सम्भवत: दिल्ली से वापस होते रेलवे स्टेशन पर उतर कर बाहर निकला ही था कि कानों में कीर्तन भजन गान के स्वर से पड़े:
"....रोवें देवकी रनिया जेहल खनवा"
इतनी करुणा और इतना उल्लास एक साथ। कदम ठिठक गए। गर्मी की उस रात मय ढोलक झाल बाकायदे बैठ कर श्रोताओं के बीच मंडली गा रही थी। पता चला कि शौकिया गायन है, रोज होता है। धन्य बाबा विश्वनाथ की नगरी ! रुक गया - सुनने को।
" भादो के अन्हरिया
दुखिया एक बहुरिया
डरपत चमके चम चम बिजुरिया
केहू नाहिं आगे पीछे हो हो Sss
गोदि के ललनवा लें ले ईं ना
रोवे देवकी रनिया जेहल खनवा SS”
जेलखाने में दुखिया माँ रो रही है। प्रकृति का उत्पात। कोई आगे पीछे नहीं सिवाय पति के। उसी से अनुरोध बच्चे को ले लें, मेरी स्थिति ठीक नहीं है। मन भीग गया। लेकिन गायक के स्वर में वह उल्लास। करुणा पीछे है, उसे पता है कि जग के तारनहार का जन्म हो चुका है। तारन हार जिसके जन्म पर सोहर गाने वाली एक नारी तक नहीं ! क्या गोपन रहा होगा जो बच्चे के जन्म के समय हर नारी का नैसर्गिक अधिकार होता है। कोई धाय रही होगी? वैद्य?
देवकी रो रही है। क्यों? शरीर में पीड़ा है? आक्रोश है अपनी स्थिति पर ? वर्षों से जेल में बन्द नारी। केवल बच्चों को जन्म दे उन्हें आँखों के सामने मरता देखने के लिए। तारनहार को जो लाना था। चुपचाप हर संतान को आतताई के हाथों सौंपते पति की विवशता ! पौरुष की व्यर्थता पर अपने आप को कोसते पति की विवशता !! देवकी तो अपनी पीड़ा अनुभव भी नहीं कर पाई होगी। कैसा दु:संयोग कि एक मनुष्य विपत्ति में है लेकिन पूरा ज्ञान होते हुए भी अपने सामने किसी अपने को तिल तिल घुलते देखता है - रोज और कौन सी विपत्ति पर रोये, यह बोध ही नहीं। मन जैसे पत्थर काठ हो गया हो। देवकी क्या तुम पहले बच्चों के समय भी इतना ही रोई थी ? क्यों रो रही हो? इस बच्चे के साथ वैसा कुछ नहीं होगा
" ले के ललनवा
छोड़बे भवनवा कि जमुना जी ना
कइसे जइबे अँगनवा नन्द के हो ना"
इस भवन को छोड़ कर नन्द के यहाँ जाऊँ कैसे? बीच में तो यमुना है।
"रोए देवकी रनिया जेहल खनवा SSS”
माँ समाधान देती है।
"डलिया में सुताय देईं
अँचरा ओढ़ाइ देईं
मइया हई ना
रसता बताय दीहें रऊरा के ना,
जनि मानिं असमान के बचनवा ना
रोएँ देवकी रनिया जेहल खनवा SS”
जेल मे रहते रहते देवकी रानी केवल माँ रह गई है। समाधान कितना भोला है ! कितना भरोसा । बच्चे को मेरा आँचल ओढ़ा दो ! यमुना तो माँ है आप को रास्ता बता देंगी। लेकिन यहाँ से इसे ले जाओ नहीं तो कुछ हो जाएगा।
तारनहार होगा कृष्ण जग का, माँ के लिए तो बस एक बच्चा है।
आकाशवाणी तो भ्रम थी नाथ ! ले जाओ इस बच्चे को ।. . . मैं रो पड़ा था।
उठा तो गाँव के कीर्तन की जन्माष्टमी की रात बारह बजे के बाद की समाप्ति याद आ गई। षोड्स मंत्र 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।' अर्धरात्रि तक गाने के बाद कान्हा के जन्म का उत्सव। अचानक गम्भीरता समाप्त हो जाती थी। सभी सोहर की धुन पर नाच उठते थे। उस समय नहीं हुआ तो क्या? हजारों साल से हम गा गा कर क्षतिपूर्ति कर रहे हैं।
"कहँवा से आवेला पियरिया
ललना पियरी पियरिया
लागा झालर हो
ललना . . . “
उल्लास में गवैया उत्सव के वस्त्रों से शुरू करता है।
"बच्चे की माँ को पहनने को झालर लगा पीला वस्त्र कहाँ से आया है?"
मुझे याद है बाल सुलभ उत्सुकता से कभी पिताजी से पूछा था कि जेल में यह सब? उन्हों ने बताया,
"बेटा यह सोहर राम जन्म का है।"
"फिर आज क्यों गा रहे हैं?"
"दोनों में कोई अंतर नहीं बेटा"
आज सोचता हूँ कि उनसे लड़ लूँ। कहाँ दिन का उजाला, कौशल्या का राजभवन, दास दासियों, अनुचरों और वैद्यों की भींड़ और कहाँ भादो के कृष्ण पक्ष के अन्धकार में जेल में बन्द माँ, कोई अनुचर आगे पीछे नहीं ! अंतर क्यों नहीं? होंगे राम कृष्ण एक लेकिन माताएँ? पिताजी उनमें कोई समानता नहीं !
हमारी सारी सम्वेदना पुरुष केन्द्रित क्यों है? राम कृष्ण एक हैं तो किसी का सोहर कहीं भी गा दोगे ? माँ के दु:ख का तुम्हारे लिए कोई महत्त्व नहीं !
वह बनारसी तुमसे अच्छा है। नया जोड़ा हुआ गाता है लेकिन नारी के प्रति सम्वेदना तो है। कन्हैया तुम अवतार भी हुए तो पुरुषोत्तम के ! नारी क्यों नहीं हुए ?
बढिया संस्मरण- आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत ही मनमोहक पोस्ट........भोजपुरी पंक्तिया बहुत ही अच्छी लगी. आभार.
जवाब देंहटाएं@कन्हैया तुम अवतार भी हुए तो पुरुषोत्तम के ! नारी क्यों नहीं हुए ?
जवाब देंहटाएंभइया, ई का गजब का सवाल उठा दिए? पुरुषोत्तम का अवतार? नारी का क्यों नहीं? काहें आग लगाने पर तुले हुए हैं?
अरे भाई, दुर्गा जी को भुला गये का? साल में दो बार नौ-नौ दिन तक सारा हिन्दू समाज जिनके व्रत उपवास और पूजा में मग्न रहता है। इनके १०८ नाम, नौ विशिष्ट रूप और सभी देवताओं का अंश अपने में समेटकर राक्षसों के नाश के लिए सदैव तत्पर छवि आपने बिसरा दी है क्या?
वारणसी स्टेशन के बाहर निकलते ही तुरंत सामने जो छोटा सा बैठकमय मंदिर है शायद आप उसकी बात कर रहे हैं। वह स्थान अब वहां नहीं दिखता। शायद कहीं दूर जगह बदल कर बैठकी हो रही हो। मैं भी कई बार उन लोगों के पास खडे होकर झांझ पखावज का आनंद ले चुका हूँ।
जवाब देंहटाएंवहीं पर शायद आपको बाबा निगोडे दास मिले होंगे.....रह रह कर करताल बजाते कह बैठते हैं .....जिया हो जिया......एकदम लूट के....बोलते रहो......हरे रमवा...एक दम लूट के....
@सिद्धार्थ बबुआ
जवाब देंहटाएंशक्ति पूजा की परम्परा लोक मैं कैसे, क्यों और कहाँ से है - लिखने बैठूँगा तो एक पुराण रच जाएगा।
तारनहार के जन्म पर यह एक 'नास्तिक दृष्टि' है। कहते हैं न कि हिन्दू धर्म में एक नास्तिक के लिए भी पर्याप्त स्थान है। शुद्ध व्यक्तिगत बात है। मुझे लगता है कि देवकी की पीड़ा को लीला पुरुषोत्तम की चकाचौंध के आगे बहुत कम समझा और गुना गया। लीला जो थी !
विशुद्ध मानवीय दृष्टि से देखने पर लगता है कि अवतारवाद पुरुष प्रधान समाज के लिए ही अधिक रहा है। बाद में राधा, गोपी वगैरह को प्रवेश करा कर इसे संतुलित करने के प्रयास किए गए।
यह लेख भावुक मन की बहक ही है। इस समय भी जब लिख रहा हूँ तो बनारस की वह रात जैसे साक्षात सामने है। और 'घोरठ' गाँव का विलुप्त 'कृष्ण जन्मोत्सव' भी। इस वर्ष सोचा था कि जाकर फिर प्रारम्भ कराऊँगा लेकिन दुनियादारी के चक्कर में हो नहीं सका। ...
आँखें नम है। बहक को चाबुक मार कर रास्ते पर लाने के लिए धन्यवाद। 'या देवी सर्व भूतेषु श्रद्धा रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:'
जय कन्हैया लाल की !
आज गावत मन मेरो झूम के . . .
@सतीश पञ्चम जी,
जवाब देंहटाएंहाँ, वही जगह। बाबा का नाम तो नहीं जानता लेकिन ".....जिया हो जिया......एकदम लूट के....बोलते रहो......हरे रमवा...एक दम लूट के...." कहते एक सज्जन अवश्य थे। याद दिलाने के लिए धन्यवाद।
उस जोड़ुवे कीर्तन के स्वर में मैं ऐसा डूब गया था कि बस्स ! आज भी ऑफिस में कभी कभी बैठे ठाले गाने लगता हूँ तो लोग कुतुहल से देखते हैं !
अभी बनारस गया था तो सूना था। बड़ा खराब लगा।
Bahut bhala laga ye Sansmaran ...Na jane kab,
जवाब देंहटाएंBana BHOLE NATH ki Nagariya ke Darshan honge
Chaliye, door se hee , Krishna Kanhaiyya ki Jai
Ramchandr ji ki Jai, Bam Bam Bhole nath ki Jai
Aur
JAGT JANNI BHAWANI ki VANDANA bhee ker lete hain ..
[ Angrezee mei tippani ki maafi, the reason is :
~~ I m away from my PC ]
बहुत ही सुन्दर गीत. पढ़कर दुःख हुआ कि गाना क्यों नहीं सीखा.
जवाब देंहटाएंमैंने बनारस कई बार देखा मगर हमेशा ही एक पर्यटक की दृष्टि से. एक बार वहां नौकरी करने का सुयोग भी बना मगर प्रभु की इच्छा - रहना नहीं लिखा था, सो नहीं हुआ. अब रहा आपका सवाल. जितनी समझ है उतना उत्तर देने की गुस्ताखी कर रहा हूँ सो: पूर्ण-पुरुषोत्तम की जगह किसी को तो पटका था न तानाशाह ने, स्त्री का अवतार वही है जो पुरुष अवतार के लिए पटका जाता है फिर भी उसका जन्मोत्सव नहीं होता.
अब नास्तिकता की बात छेड़ ही दी है तो अब मेरा एक सवाल:- छोडो नहीं पूछता.
कन्हैया जो भी थे, अगर ना भी थे... कमाल के थे (हैं और रहेंगे) !
जवाब देंहटाएंजय कन्हैया लाल की.
बहुत सुंदर संस्मरणात्मक पोस्ट।
जवाब देंहटाएंहमारे देश का सच यह है कि देवकी की पीड़ा करोडों महिलाओं की पीड़ा है। न धाई न डाक्टर, न पोषण। अंतिम दिवस तक घोर परिश्रम किए जाना उनकी नियति है। प्रसव के बाद न मैटेर्निटी लीव न पोषक भोजन...
अवतारों में नारी क्यों नहीं एक भी? इसे यों समझाया जा सकता है। सभी धर्मों का संबंध पुरुषसत्तात्मक, सामंतवादी व्यवस्था के साथ होता है। धर्म की उत्पत्ति ही सामंतवाद के साथ होती है, और धर्म का मूल उद्देश्य ही सामंतवाद को एक धार्मिक आधार देना होता है। सामंतवाद में नारी को दोयम दर्जा ही प्राप्त होता है, तो अवतार, जो शक्ति की पराकांष्ठा को दर्शाते हैं, नारी कैसे हो सकते हैं?
हां दुर्गा आदि भी हमारे देवी-देवता की परंपरा में हैं, और अर्धनारीश्वर भी ! पर ये मुख्य धारा में नहीं है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता।
खैर, ये सब बातें इस पोस्ट के लिए अप्रासंगिक हैं। क्योंकि पोस्ट एक अलग दृष्टिकोण से लिखा गया है, नोस्टाल्जिया उरेकनेवाला, और इसमें वह पूरी तरह सफल हुआ है।
बनारस की वह भावप्रवण घडी आपको याद आ गयी -मैं अपनी संवेदनशीलता को कोसता हूँ की इतना दिन यही रहते हो गया मेरे पैर क्यों ऐसे मार्मिक शब्दों पर नहीं ठिठक गए !
जवाब देंहटाएंजन्माष्टमी की शुभ कामनाएं !
अदभुत प्रविष्टि । निश्चय ही इस संवेदना का अनुभव हम न कर सके वहाँ ।
जवाब देंहटाएंदेवकी के भीतर के उस अनुभव का विचार कर रहा हूँ- कलेजा मुँह को आ रहा है । वसुदेव तो क्रमशः मरण के बाद निखरी हुई जीवन की संभावनाओं को संजो रहे थे-कृष्ण परिचायक थे उसके, पर देवकी का क्या ? वह तो माँ थी । जिस उत्साह की संवेदना से भर कर देवकी कृष्ण-जन्म की बाट जोह रहीं थी और जिसने सांसारिक और सांस्कारिक अनुभूतियों से विलग कर दिया था उन्हें, उसी संवेदना ने कृष्ण-जन्म के बाद उन्हें पुनः अपने माँ के संस्कारगत अस्तित्व के प्रति उदग्र भाव से उन्मुख कर दिया था शायद ।
मैं जो कुछ कह रहा हूँ पता नहीं इस प्रविष्टि के संदर्भ मे है अथवा नहीं, पर इतना जरूर है कि प्रविष्टि ने इतना कहने को विवश कर दिया था ।