रविवार, 18 फ़रवरी 2018

अग्निपुराण के अर्चना क्रम में वार Agnipuran days name order

Agnipuran days name order
[इस लेख के अन्त तक आप को स्पष्ट हो जायेगा कि संस्कृत की सम्पदा तथा शक्ति जानने के लिये क्यों मूल को पढ़ना आवश्यक है तथा क्यों अङ्ग्रेजी या कोई भी अनुवाद संस्कृत के शब्दों की अर्थ समृद्धि तथा प्रयोग उद्देश्य की ऐसी तैसी कर देते हैं!]

भां नेत्रं वस्तथार्क्कास्त्रं राज्ञी शक्तिश्च निष्कुभा ।
सोमोऽङ्गारकोथ बुधो जीवः शुक्रः शनिः क्रमात् ॥
भा कहते हैं दीप्ति को (भास्कर नाम से समझें)। पहले उसकी पूजा, तदुपरान्‍त आँख की जिसके लिये नेत्रं शब्द का प्रयोग है। कभी सोचा है आप ने कि नेत्र तथा नेतृत्त्व एक ही सोते के हैं? नेत्रम् [नयति नीयते वा अनेन नी-ष्ट्रन्]
आँख से ही हम सब देखते हैं, वही हमारा नेतृत्त्व करती है। दीप्ति अर्थात प्रकाश न हो तो आँख किस काम की?
तत्पश्चात सूर्य के अस्त्रों की। सूर्य की अर्क संज्ञा प्रयुक्त हुई है।
अर्क भी अद्भुत शब्द है - अर्चना का बन्धु :) अर्च्-घञ्-कुत्वम्। प्रकाश की किरण। साथ ही अरुण से भी सम्‍बन्‍धित - आविष्कृतारुणपुरःसर एकतोऽर्कःअरुण कौन? जो रात के अँधेरे के विरुद्ध अंतरिक्ष में रुचता पसरता हो - अरुणकररुचायतेऽन्तरीक्षे
अस्त्र कौन हैं अर्क के? राज्ञी, शक्ति, निष्कुभा। राज्ञी रानी को कहते हैं किन्‍तु जिस रा+ज+ञ् से यह शब्द आ रहा है, वह रञ्जन से सम्बन्धित है। राजा वह जो प्रजा का रञ्जन करे। अर्क रञ्जक होता है। सूर्योदय कितना लुभावना होता है! एक अन्य रहस्य भी है, पश्चिमी दिशा को भी राज्ञी कहा गया है, वहाँ राज्ञी का अर्थ सूर्य की पत्नी हो जाता है। सूर्य पश्चिम में डूबता है, रात हो जाती है, अपनी पत्नी के साथ विश्राम में चला जाता है।
सूर्य में शक्ति होती है, solar power जानते ही हैं सभी। शक्ति शब्द का उत्स शक् से है। 'सकना', कुछ कर सकना उसी से आ रहा है। सिद्धार्थ गौतम का शाक्य सूर्य वंश भी अपना नाम इसी शब्द से पा रहा है - शक्यते! न शक्यते!! [कहानी पहले बता चुका हूँ]
निष्कुभा पर आइये। पहले कुभा समझिये। काबुल नदी का वैदिक नाम है - कुभा। क्यों भला? इसके लिये भा पर ध्यान दीजिये, कुभा अर्थात जिसकी दीप्ति कु हो, मटमैली हो। कुभा की प्रकृति इस प्रकार की है कि तरङ्गें मिट्टी आदि को सर्वदा विलोड़न में ही रखती हैं।
सूर्य का अस्त्र निष्कुभा, अर्थात जो कुभासित न हो - स्वच्छ हो। चमक भी अस्वच्छ हो सकती है? कभी सूर्यग्रहण के समय देखे हैं चहुँओर का प्रकाश कैसा होता है? अवसादी।
इसके पश्चात जो क्रम है, वह है सोम - चन्‍द्र, अङ्गारक - अङ्गार की तरह लाल दिखता मङ्गल, बुध, जीव बृहस्पति के चक्र में तीसरे पञ्चवर्षी को कहते हैं तथा स्वयं बृहस्पति को भी। जीव कहने का अर्थ यह हो सकता है तीन दिन बीत चुके, चौथा है बृहस्पति (एक प्रमाण कि वार गिनती सोम से आरम्भ हुई, अनुमान भर है, ज्योतिष जानने वाले ठीक ठीक बता पायेंगे)। पाँचवा शुक्र, छठा शनि।
...
वार क्रम पर आज कल बड़े बड़े दुरूह लेख आ रहे हैं, सरल सी बात इतनी है कि पृथ्वी से देखने पर तीव्रतम से मन्दतम गति क्रम में ग्रह पिण्डों को रखा गया तो सोम सबसे पहले तथा शनि सबसे अन्‍त में आया।
ग्रह से ग्रहण लेना भी है तथा लगना भी, पकड़ कर रखने से है कि गतिमान तो है किंतु गति यादृच्छ नहीं।
शनि का नाम शनैश्चर है ही शनै: चर अर्थात शनै शनै, धीमी गति वाला। सबसे धीमे से सबसे तेज को बढ़ें तो क्रम यह है -
शनि, गुरु, मङ्गल, सूर्य, शुक्र, बुध, चंद्र।
इसके पश्चात दिन के कुल 24 घण्टों में से दिन आरम्भ के घण्टे को सबसे तेज का स्वामी बताया गया अर्थात चन्द्र। अब हर घण्टे पर एक एक रखते जाइये, इसी क्रम में - 2-शनि, 3-गुरु इत्यादि। 25 वें घण्टे अर्थात दूसरे दिन पर आयेगा मङ्गल, 49वें अर्थात तीसरे दिन पर आयेगा बुध ... हो गया दिनों के नाम का क्रम!

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

मद्य एवं सुरा में अन्तर : स्कंद पुराण, पुलस्त्य स्मृति एवं अग्नि पुराण

बहुधा लोग मद्य एवं सुरा को एक समझते हैं जब कि दोनों भिन्न वर्ग के पेय हैं। अमरकोश इत्यादि परवर्ती ग्रंथों में उन्हें पर्यायवाची बताया गया है किंतु शास्त्रीय प्रमाणों से दोनों विशिष्ट हैं। 
स्कन्द पुराण के वैष्णव खण्ड, वासुदेव माहात्म्य में श्वेत द्वीप की चर्चा के समय निषेध स्वरूप 11 प्रकार के मद्य एवं तीन प्रकार की सुराओं का उल्लेख है:
एकादशविधं मद्यं त्रिविधां च सुरामपि। 
नाजिघ्रदपि कोपीह तस्मिन्राज्यं प्रशासति ॥ 
11 प्रकार के मद्य पुलस्त्य स्मृति में ये बताये गये हैं:
pulastya_smriti_madya
पाठभेद हैं किंतु निर्माण घटक के आधार पर ग्यारह मद्य ये हैं:
पानस (कटहल), द्राक्ष (अंगूर), माधूक (महुवा), खार्ज्जूर (खजूर), ताल (ताड़), ऐक्षव (ईंख), माध्वीक (मधु), टाङ्क (कपित्थ/ कैथ), सान्नमाध्वीक (अन्न एवं मधु साथ साथ), मैरेय (जौ) त था नारिकेल (नारियल)। 
तीन सुरायें अग्नि पुराण में ये बतायी गयी हैं:
माधवी गौड़ी च पैष्टी च त्रिविधा सुरा। 
मधु से माधवी, गुड़ से गौड़ी तथा आटे से पैष्टी।

बुधवार, 17 जनवरी 2018

उमा पुत्र विनायक, पार्वती पुत्री उदकसेविका एवं दामाद भैरव - स्कन्द पुराण

[1]
निस्संतान उमा दु:खी थीं, इतनी कि अशोक वृक्ष को ही पुत्र मान लिया था। एक दिन बहुत दु:खी हो गईं तो शिव ने उनका प्रबोधन किया एवं समाधि लगा लिये। शिव के समक्ष एक हाथी समान जीव उपस्थित हो गया - उसकी नाक हाथी के सूँड़ समान लम्बी थी तथा उसमें शिव का सर्प न प्रवेश कर जाये इस हेतु वह बारम्बार अपनी नाक ऊपर कर रहा था। उसने शिव एवं शिवा की स्तुति की।
उसे स्पर्श करते ही भवानी के स्तनों में दूध उतर आया। उमा ने शिव से उसका परिचय पूछा तो उलझाऊ उत्तर मिला - उमा को पति ने छोड़ दिया, यह पुत्र दिया।
विनाकृता नायकेन यत्‍त्वम् देवी मया शुभे।
एष तत्र समुत्पन्नस तव पुत्रोऽर्कसन्निभ:॥

(पुरायठ संस्कृत पाण्डुलिपि में त्रुटियाँ हो सकती हैं)
हे देवी! यह तुम्हारा पुत्र बिना नायक अर्थात बिना पति के हुआ है, इस कारण विनायक कहलायेगा।
लम्बी नाक के कारण यह गजराज होगा, अमर होगा, अजेय होगा, समस्त इच्छाओं की पूर्ति करने वाला होगा। स्त्रियों, बच्चों एवं गो द्विज का प्रिय होगा। इसकी आराधना वे मधु, मांस, सुगंधि एवं पुष्पों से करेंगे। यह समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाला होगा।
यह सभी गणों का नायक होगा - विनायक: सर्वगणेषु नायक:
जो अधार्मिक जीवन जियेंगे या जो निन्दित कर्म करेंगे उन्हें ग्रह समान धर लेगा - ग्रहं ग्रहाणां अपि कार्यवैरिणं
...
स्कंद पुराण के पुरातन पाठ में विनायक अभी गणेश होने की संधि अवस्था में हैं।

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Ornate sculpture of Ganesh, Kalinjar fort


[2] 
पार्वती को संतान नहीं थी। दु:खी थीं। संताप से हृदय भर आया तो आँसू गिरे (हृदयाम्बु) जिनसे उनकी पुत्री हुई - उदकसेविका। शिव एवं पार्वती के बीच का भैरव काम भाव ही मूर्तिमान हो भैरव कहलाया जिसने उदकसेविका का हाथ माँग लिया। 

काम महोत्सव के पश्चात उदकसेविका का उत्सव होता था जिसमें समस्त वर्जनायें टूट जाती थीं। 
उदकसेविका एवं भैरव के पुतले बनाये जाते एवं यात्रा निकलती। बच्चे, बूढ़े, लोग, लुगाई सभी, भाँति भाँति के रूप बनाये रहते - कोई राजसी, कोई संन्यासी, कोई फटे पुराने कपड़े पहने, सभी देह पर भस्म, मल, मूत्र, कीचड़ लपेटे। 
जिसके समक्ष उदकसेविका पहुँचती, उसे प्रमत्त, पियक्कड़, विदूषक या पागल की तरह व्यवहार करना होता। लोग कुत्तों पर सवार हो जाते, एक दूसरे को गालियाँ बकते, चोकरते हुये गीत गाते, नाचते, निर्लज्जता सामान्य हो जाती। पुरुष उदकसेविका के साथ जो चाहे, करते।
नगर ग्राम के भवनों तक को नहीं छोड़ा जाता। उन्हें भी गोबर, कीचड़ इत्यादि से कुछ इस प्रकार अलङ्कृत कर दिया जाता कि नगरी चोरों की नगरी लगने लगती। 
शिव की व्याख्या थी कि स्त्री एवं पुरुषों के हृदय विपरीतलिङ्गी के यौन अङ्गों के प्रेम में होते ही हैं, सृष्टि इसी से है। 
अंत में भैरव को मृत घोषित कर पुतले को सरोवर में फेंक दिया जाता था।
इस प्र्कार दिन बिताने के पश्चात सभी के पाप धुल जाते थे! 
...
फागुन में बाबा देवर लगें कि भाँति ही यह लिखा गया है कि पुत्र पिता में भी परस्पर मर्यादा भाव नहीं रह जाता था! 
दो सौ वर्षों के अंतर की दो पाण्डुलिपियों में रोचक पाठ भेद हैं। एक उदाहरण: 
(1) मुहूर्तेनैव स्वजना निर्लज्जत्वं उपागता: 
(2) मुहूर्तेनैव स्वजना: समशीलत्वं आगता:

एक में निर्लज्जता की बात की गयी है तो दूसरे में समशीलत्व अर्थात सम्बंधों की मर्यादाओं में जो शील भेद होता है, वह मिट जाता था। 

बुधवार, 3 जनवरी 2018

गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

कूर्म पुराण, स्वच्छ भारत अभियान, अंतरिक्ष यात्रा एवं रामानुजाचार्य निर्मित मानचित्र

कूर्म पुराण में मल मूत्र त्याग कहाँ न करें, इसकी पूरी सूची दी हुई है : 

'व्यासगीता' से : 
छायाकूपनदीगोष्ठचैत्याम्भः पथि भस्मसु ।
अग्नौ चैव श्मशाने च विण्मूत्रे न समाचरेत्॥२,१३.३६॥
न गोमये न कृष्टे वा महावृक्षे न शाड्वले ।
न तिष्ठन् वा न निर्वासा न च पर्वतमस्तके ॥ २,१३.३७॥
न जीर्णदेवायतने न वल्मीके कदाचन ।
न ससत्त्वेषु गर्तेषु न गच्छन् वा समाचरेत् ॥ २,१३.३८॥
तुषाङ्गारकपालेषु राजमार्गे तथैव च ।
न क्षेत्रे न विले वापि न तीर्थे न चतुष्पथे ॥ २,१३.३९ ॥
नोद्यानोदसमीपे वा नोषरे न पराशुचौ ।
न सोपानत्पादुको वा छत्री वा नान्तरिक्षके॥२,१३.४०॥
न चैवाभिमुखे स्त्रीणां गुरुब्राह्मणयोर्गवाम् ।
न देवदेवालययोरपामपि कदाचन ॥ २,१३.४१ ॥
न ज्योतींषि निरीक्षन्वानसंध्याभिमुखोऽपिवा ।
प्रत्यादित्यं प्रत्यनलं प्रतिसोमं तथैव च ॥ २,१३.४२ ॥
...
संक्षेप में कहूँ तो मार्ग, वृक्ष के नीचे, घास वाली भूमि, जोती हुई भूमि पर भी मल मूत्र त्याग का निषेध है। 
एक रोचक पाठभेद है जो दर्शाता है कि कैसे पुराण श्लोक दूषित किये गये, यह क्षेपकों से इतर प्रवृत्ति है: 
पाठ 1:

न सोपानत्पादुको वा छत्री वा नान्तरिक्षके
पाठ 2:
न सोपानत्पादुको वा गंता यानांतरिक्षग:
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दूसरा वाला पाठ गीताप्रेस संस्करण में है जिसका अर्थ दिया है - यान में अंतरिक्षगामी हो कर (मल मूत्र त्याग न करे)। पहले वाले से सीधा अर्थ निकलता है कि अंतरिक्ष की ओर ऊर्ध्व हो कर न करे (समझ ही सकते हैं कि क्या स्थिति होगी! )
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अब दूसरे श्लोक को लेकर यदि कुछ उत्साही लोग यूरी गगारिन से सहस्राब्दियों पहले ही अंतरिक्ष में भारतीय मनुष्यों की आवाजाही का प्रमाण प्रस्तुत करने लगें तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।
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महाभारत वर्णित सुदर्शन द्वीप के रूप में विश्व का मानचित्र, चंद्रमा में, दो खरहों तथा पीपल की पत्तियों वाला, प्रतिबिम्बित एवं कथित रूप से रामानुजाचार्य द्वारा निर्मित घूम ही रहा है! 
घोर कलियुग यही है! 
महाभारत के भीष्म पर्व में एक प्रकरण है जिसमें यह बताया गया है कि 'सुदर्शन द्वीप' का प्रतिबिम्ब चंद्रमण्डल में वैसे ही दिखता है जैसे किसी पुरुष द्वारा दर्पण में देखा गया अपना मुख। आगे पीपल के दो पत्तों और द्विरंशे शशो महान् की चर्चा है।
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बताया जा रहा है कि पंद्रहवीं या सोलहवीं शताब्दी में किसी आचार्य ने इन श्लोकों के आधार पर विश्व का मानचित्र खींच दिया था जो कि चित्र में बायीं ओर दर्शाया गया है। उसे उलट देने पर वैसे ही विश्व का मानचित्र बन जाता है जैसे दर्पण में दिखने वाला चेहरा उलट दें (180 अंश) तो सीधा चेहरा बन जाता है।
दायीं ओर उलटने पर बना मानचित्र दर्शाया गया है।
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आप उछ्ल पड़े न? अरे! चार सौ वर्ष पहले ही भारतीय जन विश्व का मानचित्र खींच दिये थे तथा पाँच हजार वर्ष पहले भी उन्हें ज्ञात था!
... ठीक यही प्रचारित किया जा रहा है। इसमें कितनी सचाई है? विश्लेषण करते हैं।

भारत और दक्षिण पूर्व एशिया दर्शाने के लिये कथित शशक की पीठ पर दो विचित्र आकार के कूबड़ निकाल दिये गये हैं (लाल घेरा) और ऑस्ट्रेलिया के लिये एक तीसरी पत्ती (श्वेत घेरा) भी जोड़ दी गयी है जो कि उक्त श्लोकों में नहीं है। 'शशो द्विरंशे' कैसे? पता नहीं। ग्रीनलैण्ड, अण्टार्कटिक और आर्कटिक तो तब भी लुप्त हैं। छल समझ में आया?
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भारतीय ज्ञान विज्ञान बहुत आगे बढ़ा हुआ था। इन सबके बिना भी महान था। उसे अपनी महानता दर्शाने के लिये ऐसे भौंड़े प्रयासों की आवश्यकता नहीं है।
उन पूर्वजों को सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि आधुनिक ज्ञान विज्ञान में हम आगे हों, झण्डे गाड़ें, न कि विश्वविद्यालयों को चुनावी राजनीति के दलदल में डाल अकादमिकी की ऐसी तैसी करें और गाल बजायें।
सच में ऐसी बातों से मुझे बहुत कष्ट होता है। देखिये तो, भारत के सर्वोत्तम विज्ञान संस्थान वैश्विक श्रेष्ठता श्रेणी में कहाँ हैं?
अपने विश्वविद्यालय या महाविद्यालय को ही देखिये। मुझसे नहीं, स्वयं से पूछिये कि क्या वास्तव में हमारे अकादमिक कर्म उन महान पूर्वजों के पासंग भी हैं?